पूर्वाभास (www.poorvabhas.in) पर आपका हार्दिक स्वागत है। 11 अक्टूबर 2010 को वरद चतुर्थी/ ललित पंचमी की पावन तिथि पर साहित्य, कला एवं संस्कृति की पत्रिका— पूर्वाभास की यात्रा इंटरनेट पर प्रारम्भ हुई थी। 2012 में पूर्वाभास को मिशीगन-अमेरिका स्थित 'द थिंक क्लब' द्वारा 'बुक ऑफ़ द यीअर अवार्ड' प्रदान किया गया। इस हेतु सुधी पाठकों और साथी रचनाकारों का ह्रदय से आभार।

शुक्रवार, 30 दिसंबर 2011

सृजनगाथा डॉट कॉम तथा साहित्यिक संस्था सृजन-सम्मान का वैश्विक अभियान


बैंकाक । साहित्य, संस्कृति और भाषा की अंतरराष्ट्रीय वेब-पत्रिका सृजनगाथा डॉट कॉम तथा छत्तीसगढ़ राज्य की बहुआयामी साहित्यिक संस्था सृजन-सम्मान का यह वैश्विक अभियान हिन्दी और साहित्य के लिए प्रतिबद्ध अन्य संस्थानों के लिए भी अनुकरणीय है । लगातार 4 वर्षों तक विदेश में जाकर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हिन्दी साहित्य के लिए काम करना निश्चित ही घर-फूंक तमाशा जैसा है किन्तु इन संगठनों ने इसे सच साबित कर दिखाया है, यह कहना था नागपुर विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के विभागाध्यक्ष डॉ. प्रमोद कुमार शर्मा का । वे थाईलैंड, पटाया में आयोजित चतुर्थ अंतरराष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन के अध्यक्ष मंडल के रूप में उपस्थित थे । अध्यक्ष मंडल के दूसरे सदस्य वरिष्ठ कथाकार श्रीमती संतोष श्रीवास्तव (मुंबई) ने कहा कि रायपुर जैसे छोटी जगह से यह पहल महत्वपूर्ण है । उन्होंने फ्रांस, जर्मनी, रूस आदि देशों में हिन्दी के विस्तार के लिए हिन्दी सिनेमा की भूमिका को विस्तार से रखा । आलोचक डॉ. प्रेम दुबे ने कहा कि हिन्दी को अंतरराष्ट्रीय बनाने में इंटरनेट की भूमिका अहम् है । यद्यपि हिन्दी के साहित्यकार निरंतर अपनी भाषिक संस्कृति को इंटरनेट के माध्यम से विस्तारित कर रहे हैं किन्तु अभी मुख्यधारा के साहित्य को नेट पर रखा जाना शेष है । इसके अलावा कई वक्ताओं ने वैश्विक हिन्दी की दिशा पर अपनी बात रखी ।

समारोह के प्रारंभ में आयोजन के संयोजक और सृजनगाथा डॉट कॉम के संपादक जयप्रकाश मानस ने स्वागत भाषण देते हुए विस्तार से अंतरराष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलनों के बारे में बताया । इस आयोजन को थाईलैंड में आयोजित करने के मूल उद्देश्य पर प्रकाश डालते हुए वेब पत्रिका सृजनगाथा के संपादक जय प्रकाश मानस ने बताया कि सांस्कृतिक दृष्टि से भारत और थाईलैंड में कई समानताएं हैं । भारत से निकल कर बौद्ध धर्म जहां थाई संस्कृति में विलीन हो गया वहीं भारतीय नृत्य शैलियों का यहाँ व्यापक प्रसार हुआ । बौद्ध यहां का मुख्य धर्म है। गेरुए वस्त्र पहने बौद्ध भिक्षु और सोने, संगमरमर व पत्थर से बने बुद्ध यहां आमतौर पर देखे जा सकते हैं।

यहां मंदिर में जाने से पहले अपने कपड़ों का विशेष ध्यान रखा जाता है । इन जगहों पर छोटे कपड़े पहन कर आना मना है। थाईलैंड के शास्त्रीय संगीत चीनी, जापानी, भारतीय ओर इंडोनेशिया के संगीत के बहुत समीप जान पड़ता है। यहां बहुत की नृत्य शैलियां हैं जो नाटक से जुड़ी हुई हैं। इनमें रामायण का महत्वपूर्ण स्थान है। इन कार्यक्रमों में भारी परिधानों और मुखोटों का प्रयोग किया जाता है। यहाँ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मलेन आयोजित करने के पीछे पवित्र उद्देश्य यही था कि हिंदी संस्कृति थाई संस्कृति के करीब लाना और हिंदी भाषा को यहाँ के वैश्विक वातावरण में प्रतिष्ठापित करना ।

कार्यक्रम का संचालन साहित्य वैभव के संपादक डॉ. सुधीर शर्मा ने किया । इस मौके पर स्वर्णभूमि एअरपोर्ट के स्टेशन मास्टर व हिन्दी सेवी श्री संजय सिंह विशेष रूप से उपस्थित थे ।




सुधीर सक्सेना, गीताश्री और संदीप तिवारी को सृजनगाथा सम्मान
दूसरे सत्र में वरिष्ठ कवि व 'दुनिया इन दिनों' के प्रधान संपादक डॉ. सुधीर सक्सेना, भोपाल को उनकी कविता संग्रह 'रात जब चंद्रमा बजाता है' तथा स्त्री विमर्श के लिए प्रतिबद्ध लेखिका व आउटलुक, हिन्दी की सहायक संपादिका, गीताश्री को उनकी संपादित कृति 'नागपाश में स्त्री' तथा युवा पत्रकार, दैनिक भारत भास्कर (रायपुर) के संपादक श्री संदीप तिवारी 'राज' की पहली कृति 'ये आईना मुझे बूढ़ा नहीं होने देता' के लिए वर्ष 2011 के सृजनगाथा सम्मान (www.srijangatha.com ) से नवाजा गया । यह निर्णय देश के चुनिंदे 1000 युवा साहित्यकार-पाठकों की राय पर निर्धारित किया गया था। सम्मान स्वरूप उन्हें 11-11 हजार का चेक, प्रशस्ति पत्र, प्रतीक चिन्ह और साहित्यिक कृतियां भेंट की गईं ।

विदेश में पहली बार ब्लॉगर हुए सम्मानित
इसके अलावा पहली बार देश से बाहर थाईलैंड की राजधानी बैंकॉक में आयोजित किसी अन्तराष्ट्रीय सम्मलेन में हिन्दी के चार ब्लॉगर एकसाथ सम्मानित हुए, जिसमें रवीन्द्र प्रभात , नुक्कड़ ब्लॉग की कथा लेखिका अलका सैनी (चंडीगढ़)और उडिया भाषा के अनुवादक ब्लॉगर दिनेश कुमार माली प्रमुख थे । लघु पत्रकारिता के लिए आधारशिला के संपादक दिवाकर भट्ट (देहरादून), ग़ज़लगो सुमीता केशवा (मुंबई) तथा पत्रकारिता के लिए बीपीएन टाईम्स के संपादक ताहिर हैदरी (रायपुर), पीपुल्स समाचार दैनिक के युवा पत्रकार ब्रजेश शुक्ला (जबलपुर) को भी सृजनश्री सम्मान से अलंकृत किया गया ।

कृतियों का विमोचन
इस अवसर पर हिन्दी साहित्य को ब्लॉगिंग से जोड़ने वाली पत्रिका वटवृक्ष के तृतीय अंक का लोकार्पण भी हुआ, इसके बाद दिनेश कुमार माली की पुस्तक बंद दरवाजा (साहित्य अकादमी से सम्मानित ओडिया लेखिका सरोजिनी साहू के कथा संग्रह का हिन्दी अनुवाद), चित्रकार व कवि डॉ. जे.एस.बी.नायडू की दो किताबों का भी विमोचन हुआ, जिसमें जाने 'कितने रंग' प्रमुख है ।

कविता पाठ
अंतिम सत्र कविता पाठ की अध्यक्षता की वरिष्ठ कवि डॉ. सुधीर सक्सेना ने की, विशिष्ट अतिथि थे आधार शिला के संपादक डॉ. दिवाकर भट्ट और पांडुलिपि के संपादक जयप्रकाश मानस । इस सत्र में डॉ. जे.एस.बी.नायडू, दिनेश माली, सुमीता केशवा, सीमा श्रीवास्तव, लतिका भावे, युक्ता राजश्री झा, रवीन्द्र प्रभात, डॉ. सुधीर शर्मा, डॉ. दीपक बी. जोशी, संदीप शर्मा आदि ने कविता पाठ किया ।

पेंटिग प्रदर्शनी
चौंथे अंतरराष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन की खास विशेषता रही दो चित्रकारों की पेंटिग्स की खुली प्रदर्शनी । ये दो कलाकार थे डॉ. जे.एस.बी.नायडू (रायपुर) तथा नागपुर विश्वविद्यालय के फाईन आर्ट संकाय के विभागाध्यक्ष तथा वरिष्ठ चित्रकार डॉ. दीपक बी. जोशी । श्री नायडू के चित्रों की प्रदर्शनी बैंकाक आर्ट गैलरी में भी प्रदर्शित की गई जिसे उल्लेखनीय प्रतिसाद मिला । इस तरह प्रकृति की अनुपम छटा से ओतप्रोत दक्षिण पूर्वी एशिया का एक महत्वपूर्ण देश थाईलैंड की राजधानी और सांस्कृतिक राजधानी क्रमश: बैंकॉक और पटाया में दिनांक 16 से 21 दिसम्बर तक चतुर्थ अंतरराष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन का आयोजन हुआ । यह आयोजन बैकाक स्थित फुरामा सिलोम तथा पटाया स्थित मंत्रपुरा रिशोर्ट के सभागार में आयोजित हुआ जिसमें बड़ी संख्या में हिंदीप्रेमियों ने प्रतिभागिता रेखांकित की ।

पांचवा अंतरराष्ट्रीय आयोजन रुस में
इस आयोजन में वैभव प्रकाशन का उल्लेखनीय सहयोग रहा । सृजन-सम्मान की ओर से महासचिव जयप्रकाश मानस और डॉ. सुधीर सक्सेना ने घोषणा की कि अगला आयोजन 24जून से 1 जुलाई तक रुस के मास्को, ताशकंद, समरकंद और उज्बेकिस्तान में होगा जिसमें बड़ी संख्या में देश और विदेश के साहित्यकार, रंगकर्मी, हिन्दी-अध्यापक, ब्लॉगर्स तथा पत्रकार भाग लेंगे ।

उल्लेखनीय है कि साहित्य, संस्कृति और भाषा के लिए प्रतिबद्ध साहित्यिक संस्था (वेब पोर्टल )सृजन गाथा डॉट कॉम पिछले पाँच वर्षों से ऐसी युवा विभूतियों को सम्मानित कर रही है जो कला, साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान दे रहे हैं । इसके अलावा वह तीन अंतरराष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलनों का संयोजन भी कर चुकी है जिसका पिछला आयोजन मॉरीशस में किया गया था । अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हिंदी और हिंदी-संस्कृति को प्रतिष्ठित करने के लिए संस्था द्वारा, किये जा रहे प्रयासों और पहलों के अनुक्रम में इस बार 15 से 21 दिसंबर तक थाईलैंड में चतुर्थ अंतरराष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन का आयोजन किया गया।

सम्मेलन में हिंदी के आधिकारिक विद्वान, अध्यापक, लेखक, भाषाविद्, पत्रकार, टेक्नोक्रेट एवं अनेक हिंदी प्रचारक के रूप में डॉ. डी.के.जोशी, डॉ. कल्पना टेंभुलकर, डॉ. सुखदेव, अखिल सिंह, डॉ. सत्यविश्वास, क्रियेटिव्ह टेव्हल्स के डायरेक्टर विक्की मल्होत्रा, सन्नी मलहोत्रा सहित 50 से अधिक भारतीय तथा थाईलैंड के संस्कृतिकर्मियों ने भाग लिया तथा बैंकाक, पटाया, कोहलर्न आईलैंड, कोरल आईलैंड, थाई कल्चरल शो, गोल्डन बुद्ध मंदिर, विश्व की सबसे बड़ी जैम गैलरी, सफारी वर्ल्ड आदि स्थलों का सांस्कृतिक अध्ययन और पर्यटन के अवसर का भी लाभ उठाया ।
  बैंकाक से रवीन्द्र प्रभात की रपट

सोमवार, 26 दिसंबर 2011

मनोज जैन 'मधुर': नवगीत की जमीन पर ताजा गुलाब- वीरेंद्र आस्तिक

मनोज जैन 'मधुर की कृति “एक बूंद हम” का
लोकार्पण करते वरिष्ठ साहित्यकार

भोपाल (१३ नव. २०११): स्वराज भवन, भोपाल में रविवार की शाम एक नवगीत संग्रह “एक बूंद हम” का लोकार्पण किया गया | ‘शहद हुए एक बूँद हम’ इस संग्रह का पहला नवगीत है और इसी से इस कृति का यह शीर्षक लिया गया है। युवा गीतकार मनोज जैन मधुर का यह नवगीत संग्रह छंद, लय और भावों को बखूबी प्रस्तुत करता हैं | गीतकार मनोज जैन ने अपनी इस कृति में अपने चिंतन के जरिए समाज को जोड़ने की भरपूर कोशिश की हैं | 52 गीतों से सजी इस पुस्तक में जीवन के सामाजिक-सांस्कृतिक पहलुओं के साथ-साथ श्रृंगार, करुणा और दर्शन को भी समाहित किया गया हैं | कला मंदिर (भोपाल) के तत्वावधान में आयोजित इस कार्यक्रम का शुभारंभ मुख्य अतिथि वरिष्ठ आलोचक धनंजय वर्मा ने किया। 

कार्यक्रम में वरिष्ठ साहित्यकार दिवाकर वर्मा ने कहा- "मनोज जैन के इस संग्रह में सहेजे गए गीत युगबोध को अभिव्यंजित करते हैं।" वहीं कानपुर के वरिष्ठ नवगीतकार व समालोचक वीरेंद्र आस्तिक ने कहा- "मधुर अपने रचनात्मक स्तर पर एक कुशल समन्वयकार हैं, ऐसे में उन्हें नवगीत की जमीन का ताजा गुलाब कहा जाना गलत नहीं होगा। वरिष्ठ कवि मयंक श्रीवास्तव मानते हैं कि मनोज जैन मधुर युवा पीढी के एक सशक्त नवगीतकार हैं।

कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए  वरिष्ठ साहित्यकार मुरारीलाल गुप्त 'गीतेश' ने कृति की सराहना करते हुए गीत-नवगीत के इतिहास पर प्रकाश डाला। इस अवसर पर न्यायमूर्ति व प्रखर चिंतक आरडी शुक्ला, डॉ. रामवल्लभ आचार्य, शिवकुमार अर्चन, लक्ष्मीनारायण पयोधि, श्याम बिहारी सक्सेना, हुकुम पाल सिंह विकल, नरेन्द कुमार जैन, महेन्द्र कुमार जैन, महेश अग्रवाल, नवल जायसवाल एवं राघवेंद्र तिवारी सहित शहर के अन्य साहित्यकार एवं साहित्य-प्रेमी मौजूद रहे।

Ek Boond Ham by Manoj Jain Madhur

वैदिक वाड्मय में विज्ञान और प्रौद्योगिकी - प्रियंका चौहान


पुस्तक : वैदिक वाड्मय में विज्ञान और प्रौद्योगिकी 
ISBN 978-81-7977-443-4
लेखिका : प्रियंका चौहान 
प्रकाशन वर्ष : प्रथम संस्करण-2012 
पृष्ठ : 90
मूल्य : रुo 60/-
प्रकाशक : प्रकाश बुक डिपो 
बड़ा बाज़ार, बरेली, उ.प्र.- 243003 
दूरभाष: 05812572217

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Vaidik Vangmay mein Vigyan aur Praudhyogikee by Priyanka Chauhan

बुधवार, 21 दिसंबर 2011

साक्षात्कार : नवगीत, गीत का आधुनिक संस्करण — वीरेंद्र आस्तिक


कानपुर (उ.प्र.) जनपद के गाँव रूरवाहार (अकबरपुर तहसील) में 15 जुलाई 1947 को जन्मे मूर्धन्य कवि, आलोचक एवं सम्पादक श्रद्धेय श्री वीरेंद्र आस्तिक जी बाल्यकाल से ही अन्वेषी, कल्पनाशील, आत्मविश्वासी, स्वावलंबी, विचारशील, कलात्मक एवं रचनात्मक रहे हैं। बाल्यकाल में मेधावी एवं लगनशील होने पर भी न तो उनकी शिक्षा-दीक्षा ही ठीक से हो सकी और न ही विरासत में मिले शास्त्रीय संगीत और गायन में वह आगे बढ़ सके। जैसे-तैसे 1962 में हाईस्कूल की परीक्षा अच्छे अंकों से उत्तीर्ण की और एक-दो वर्ष संघर्ष करने के बाद 1964 में देशसेवा के लिए भारतीय वायु सेना में भर्ती हो गये। पढ़ना-लिखना चलता रहा और छोटी-बड़ी पत्रिकाओं में वीरेंद्र बाबू और वीरेंद्र ठाकुर के नामों से छपना भी प्रारम्भ हो गया। आपकी पहिला कविता 1971 में 'साप्ताहिक नीतिमान' (जयपुर ) में छपी थी। उन दिनों आस्तिक जी दिल्ली में रहा करते थे। दिल्ली में नई कविता का दौर चल रहा था, सो उन्होंने यहाँ नई कविता और गीत साथ-साथ लिखे। 1974 में भारतीय वायु सेना छोड़ने के बाद वह कानपुर आ गए और भारत संचार निगम लि. को अपनी सेवाएँ देने लगे। कानपुर में छंदबद्ध कविता की लहर थी। इस नये माहौल का उनके मनोमस्तिष्क पर गहरा प्रभाव पड़ा और वह गीत के साथ ग़ज़लें भी लिखने लगे। 1980 में आ. रामस्वरूप सिन्दूर जी ने एक स्मारिका प्रकाशित की, जिसमें — 'वीरेंद्र आस्तिक के पच्चीस गीत' प्रकाशित हुए। उनकी प्रथम कृति— 'परछाईं के पांव' (गीत-ग़ज़ल संग्रह) 1982 में प्रकाशित हुई। 1984 में उन्होंने कानपुर विश्वविद्यालय, कानपुर से एम.ए. (हिंदी) की परीक्षा उत्तीर्ण की। 1987 में उनकी पुस्तक— 'आनंद! तेरी हार है' (गीत-नवगीत संग्रह) प्रकाशित हुई। उसके बाद 'तारीखों के हस्ताक्षर' (राष्ट्रीय त्रासदी के गीत,  उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान से अनुदान प्राप्त, 1992), 'धार पर हम' (1998, बड़ौदा विश्वविद्यालय में एम.ए. पाठ्यक्रम में निर्धारण : 1999-2005), 'आकाश तो जीने नहीं देता' (नवगीत संग्रह 2002) एवं 'धार पर हम- दो' (2010, नवगीत-विमर्श एवं नवगीत के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर) का प्रकाशन हुआ। संपादन के साथ लेखन को धार देने वाले आस्तिक जी के नवगीत किसी एक काल खंड तक सीमित नहीं हैं, बल्कि उनमें समयानुसार प्रवाह देखने को मिलता है। यह प्रवाह उनकी रचनाओं की रवानगी से ऐसे घुल-मिल जाता है कि जैसे स्वातंत्र्योत्तर भारत के इतिहास के व्यापक स्वरुप से परिचय कराता एक अखण्ड तत्व ही नाना रूप में विद्यमान हो। इस दृष्टि से उनके नवगीत, जिनमें नए-नए बिम्बों की झलक है और अपने ढंग की सार्थक व्यंजना भी, भारतीय जन-मन को बड़ी साफगोई से व्यंजित करते हैं। राग-तत्व के साथ विचार तत्व के आग्रही आस्तिक जी की रचनाओं में भाषा-लालित्य और सौंदर्य देखते बनता है— शायद तभी कन्नौजी, बैंसवाड़ी, अवधी, बुंदेली, उर्दू, खड़ी बोली और अंग्रेजी के चिर-परिचित सुनहरे शब्दों से लैस उनकी रचनाएँ भावक को अतिरिक्त रस से भर देती हैं। कहने का आशय यह कि भाषाई सौष्ठव के साथ अनुभूति की प्रमाणिकता, सात्विक मानुषी परिकल्पना एवं अकिंचनता का भाव इस रस-सिद्ध कवि-आलोचक को पठनीय एवं महनीय बना देता है। संपर्क: एल-60, गंगा विहार, कानपुर-208010, संपर्कभाष: 09415474755। 

कवि, आलोचक एवं सम्पादक वीरेन्द्र आस्तिक से अवनीश सिंह चौहान की बातचीत 

अवनीश सिंह चौहान— आप सृजन की ओर कैसे प्रवृत्त हुए? तब और आज के साहित्यिक परिदृश्य में आप किस प्रकार का परिवर्तन देखते हैं?

वीरेन्द्र आस्तिक घर में साहित्यिक पुस्तकें उपलब्ध थी, उन्हें पढ़ने का संस्कार पिताजी से मिला। मेरे घर में गांधी और महर्षि दयानंद सरस्वती जैसे समाज-सुधारकों के जीवन-दर्शन की किताबें मौजूद थीं। उन दिनों (शायद 1955-56) 'साप्ताहिक हिन्दुस्तान' भी मेरे घर आता था। तब मैं 5वीं कक्षा में था। गॉव का रहन-सहन था। साहित्य क्या होता है, तब पता नही था। पिताजी की कई खूबियों मे एक थी उनका गायक होना। वे महफिलों मे ध्रुपद आदि गाते थे। कभी-कभी भजन आदि मुझसे भी गवाते थे। उक्त परिवेश में स्वाभाविक था, गीत-सृजन को महत्व देना।

आपके प्रश्न के उत्तरार्द्ध का उत्तर है— तब एकजुटता थी, समाज में साहित्य का आदर था, आज खेमेबाजी है। व्यक्तित्व और कृतित्व में काफी फर्क आ गया है। अपने गीत के युवाकाल में कवि सम्मेलनों का महत्व था। तब जो साहित्य लिखा जाता था, वही मंच पर पढ़ा जाता था। गोष्ठियों-साहित्यिक अड्‌डेबाजी में निराला, महादेवी, दिनकर, बच्चन और नेपाली के संस्मरणों पर और उनकी रचनाओं पर चर्चा होती थी। तब हास्य-कवियों का जमाना नहीं था। मंच पर श्रृंगार और ओज के दस कवियों में एक हास्यरसी हुआ करता था, लेकिन आज इसका उलट है। स्वतंत्रता संग्राम के साथ-साथ एक कार्य और हुआ, वह था भाषा का निर्माण। जब युद्ध स्तर पर निर्माण कार्य चल रहा होता है, तब आदमी विदूषक नहीं हो सकता। आज लगता है जैसे हिन्दी भाषा के निर्माण का कार्य पूरा हो चुका है? शायद तभी सुविधा-सम्पन्न पूंजीपतियों ने हास्य को जन्म दिया। हिन्दी के अच्छे-अच्छे प्रवक्ताओं ने हास्य के व्यवसाय में घुसकर वास्तविक कविता को मंच से बाहर कर दिया। आज साधना नहीं, नाम और दाम के लिए लोग जुगाड़ के शार्टकट अपना रहे हैं।

अवनीश सिंह चौहान— आपने अपने साहित्यिक जीवन में गीत को ही अपनी अभिव्यक्ति का प्रमुख माध्यम क्यों बनाया, जबकि आप ग़ज़ल, दोहे और हाइकु में भी कलम चला लेते हैं। 

वीरेन्द्र आस्तिक गीत के साथ-साथ मैंने गज़लें, दोहे और हाइकु भी लिखे हैं। अब तो समीक्षाएँ भी लिख रहा हूँ। अभिव्यक्ति के लिए गीत को माध्यम बनाया, क्योंकि मैने बताया कि मै बचपन से हरि-भजन-कीर्तन आदि गाया करता था, मेरा कंठ भी सुगेय था। इन सभी के कारण मुझे लय और छन्द को समझने में कठिनाई नहीं हुई। दूसरी बात जो सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है कि मै भावुक, कल्पनाशील और स्वप्नदर्शी कुछ ज्यादा ही था।

अवनीश सिंह चौहान— आपके रचनाकर्म में जनचेतना और सामाजिक संवेदना का समाहार प्रभावशाली ढंग से हुआ है। 'रमुआ', 'नरगिस' और 'कोयल' जैसे गीत तो व्यापक स्तर पर व्याख्या चाहते हैं। इनके बारे में आपका अपना दृष्टिकोण क्या है?

वीरेन्द्र आस्तिक गीत में चेतना और संवेदना का समन्वय ही तो किया जाता है। दूसरे शब्दों में कहूँ तो रचनाकार हृदय और बुद्धि का पारिग्रहण कराता है गीत में। कर्म का स्वामी होता है हृदय और कर्म को सार्थक दिशा देने का कार्य करती है बुद्धि। दरअसल मेरे गीतों के कथ्य में जनबोध और समाजबोध अलग-अलग नहीं हैं। वहाँ जन का ही समाज है। अब प्रश्न के उत्तरार्द्ध का उत्तर देना चाहूँगा। पहली बात— मैं कोई बड़ा आलोचक तो हूँ नहीं। आलोचकों की व्याख्याएँ विस्तार से होती हैं, फिर भी ... मेरे विचार से मूल तो रचना ही होती है। रचना की रचना होती है आलोचना। गीत रचते समय जो जमीनी-दृश्य होता है, उसके बारे में तो रचनाकार से ज्यादा किसको पता होगा। दरअसल 'रमुआ' अति साधारण-जन का प्रतीक शब्द है। यह शब्द उस वर्ग का प्रतिनिधित्व करता है, जो गरीबी की रेखा से भी निचले स्तर का है। इस गीत में अनेक संज्ञाएँ-विशेषण रमुआ के पर्यायवाची बनकर रमुआ के अर्थ को व्यंजित करते हैं, जैसे धोती, लंगोटी, रोटी, मोची, मजदूरी, छप्पर आदि। इन शब्दों के विलोमार्थ शब्द भी हैं, जो रमुआ की अस्मिता को मूल्यांकित करते हैं। साथ में ये सारे शब्द एक कथा भी कहते जाते हैं। गीत का मुख्य केन्द्र है इसमें सुख और सुख के आसपास है घटनाओं का जाल। भारत की गरीब जनता जिस सुखवाद की छाया के नीचे बसर करती है, उसका प्रतीक है रमुआ। हिन्दी कविता मे एक अलग तरह का जीवन-दर्शन है यह। इसमें गांधीवादी विचारधारा भी समाहित हो गई है शायद। मेरी कविता का नायक दरअसल भीड़ का भी प्रतीक है, उसका कोई अपना नहीं है, शायद तभी मंत्री की गाड़ी से कुचलकर मर जाने पर कोई दंगा आदि नही हुआ। वह ऐसा मोची है, जो खुद जूता नहीं पहन सका, अर्थात उसकी हैसियत से बहुत दूर था जूता। इसी प्रकार 'नरगिस' है, जो छोटी कविता की बड़ी कथा है और जो सांप्रदायिकता और फिर सद्‌भाव के असाधारण रूप को प्रकट करती है। पता ही नहीं चल पाता कि कब रचनाकार ने प्रेम-तत्व या दैविक रूप को एक अस्त्र के रूप में खड़ा करके एक व्यक्ति (नरगिस के पापा) के हृदय का परिवर्तन कर दिया। उसे संप्रदायी होने से बचा लिया। 'कोयल' नौकरी-पेशा लड़कियों- महिलाओं का प्रतीक-शब्द है। यह गीत भी एक रूपक कथा है। महिला का तेज तर्रार होना, ईमानदार होना पुरूष वर्ग को असहनीय है। अंततः व्यवस्था के तहत धूर्तबाज सीनियर उसकी कीर्ति को धूमिल करने के प्रयास में जुट गए। विपत्ति में फॅसी महिला को सीता याद आती है। सीता एक ऐसा प्रतीक-बिम्ब है, जो कथा को नयी दृष्टि देता है। राम याद आते तो गलत हो जाता। उस समय सीता जैसा धैर्य और साहस चाहिए था महिला को। सीता को राम पर अटूट विश्वास था, वे रावण का बध करके उसे मुक्ति दिलाकर अंगीकार करेंगे। यह सब कविता में है नहीं, सिर्फ सीता शब्द से उद्‌भाषित होता है। दरअसल 'कोयल' और 'नरगिस' स्त्री सशक्तीकरण की भूमिका में भी है।

अवनीश सिंह चौहान— मेरे विचार से आम आदमी की वेदना ही आपके गीतों का प्रतिमान है। क्या कहना चाहेंगे ?

वीरेन्द्र आस्तिक आपका सोचना बिल्कुल सही है, लेकिन यह वह वेदना है, जो आम आदमी के उत्पीड़न से उद्‌भूत है। वास्तव मे मेरे गीतों में आम और खास के द्वन्द्वात्मक संबंधों की व्यंजना है। कहीं-कहीं तो वेदना जीवन-दर्शन में रूपान्तरित हो गई है। कहीं तो 'जिन्दगी ही धर्म है' जैसी सूक्तियाँ हैं। कहीं अन्तिम आदमी में नई दुनिया के रचाव की उम्मीद है। अनपढ  में तथागत का मूर्तन। निपट आदमी में ईश्वर का प्रकट होना। स्वर्ग का साधारणीकरण। तो कहीं गमले में खिले गुलाब के रूप में वही रमुआ है, जिसका अभी पीछे उल्लेख हुआ था। कहने का आशय यही कि आपको मेरे गीतों में संवेदना और विचार के विविध और अछूते आयाम मिलेंगे ।

अवनीश सिंह चौहान— आप व्यक्तिगत जीवन में अच्छे साहित्य एवं सच्चे साहित्यकारों के हिमायती रहे हैं, जिसका प्रमाण 'धार पर हम- एक और दो' और आपके समीक्षात्मक आलेख हैं। आलोचना की कसौटी पर अच्छा गीत और एक सच्चा गीतकार कैसा हो? 

वीरेन्द्र आस्तिक गीतकार यदि सच्चा होगा तो गीत अच्छा होगा ही। 'आलोचना की कसौटी क्या है?'— पर विचार ही नहीं करता गीतकार। एक विषय के रूप में आलोचना-शास्त्र का अध्ययन जरूरी हो सकता है। अध्ययन तो रचनाकार के अनुभव-संसार को समृद्ध करता ही है। लेकिन रचना-प्रक्रिया के दौरान रचनाकार के सामने वह अनुभूत सत्य होता है जिसने उसको भीतर तक मथ दिया होता है। वहाँ अमूर्त, मूर्त होने के लिए सांगोपांग जुटाने की प्रक्रिया में होता है। ऐसा मैं इसलिए कह रहा हूँ कि उस समय रचनाकार स्वयं अनुभूति मात्र हो जाता है। रचना और आलोचना का पहला रिश्ता तो द्वन्द्व का है और द्वन्द्व में अच्छी रचना तो हो नहीं सकती। दूसरी बात, एक सच्चा गीतकार, आलोचना की कसौटी पर ध्यान ही नहीं देता। आलोचना स्वयं रचना की ओर आती है, क्योंकि रचना से ही आलोचना की नई मान्यताएँ निकलती हैं। हाँ यह सही है कि मैंने अच्छी रचना और सच्चे साहित्यकारों की तलाश में कुछ अच्छे कार्य किए हैं, लेकिन यह तभी संभव हो सका है जब मेरे भीतर पहले से ही वह ईमानदारी और दृष्टि मौजूद रही। आज तो ईमानदारी-सच्चाई जैसे मूल्यों का पतनहोता दिखाई दे रहा है। सच्चा रचनाकार अच्छे की तरफ भागता नहीं, वह समग्रता में खुद को तलाशता है। वह जो होता है, वही तलाशने में व्यतीत होता रहता है।

अवनीश सिंह चौहान— देखने में आया है कि महत्वपूर्ण गीत संकलनों में संपादकों ने अपनी रचनाओं को भी प्रस्तुत किया है, जैसे कि— 'धार पर हम' किन्तु, 'धार पर हम- दो' में आपने अपने आपको क्यों नहीं रखा? क्या इस प्रकार की (पुस्तक प्रकाशन हेतु) कोई अन्य योजना भी है?

वीरेन्द्र आस्तिक लेकिन ऐसे भी संकलन हैं, जिनमें संपादकों ने खुद को बतौर रचनाकार प्रस्तुत नहीं किया। 'धार पर हम' (1998) का मैं संपादक भी हूँ और एक गीतकार भी। मैंने उसमें खुद को अन्तिम कवि के रूप में रखा, यह सोचकर कि मैं तो निःस्वार्थ साहित्य-सेवा में तत्पर हूँ। किन्तु वहाँ यह तर्क तो दिया जा सकता है कि रचनाकार ने खुद को चर्चा में लाने के लिए संकलन को निकाला। लेकिन यदि संपादन कार्य एक ही शीर्षक से दूसरे-तीसरे खण्ड के रूप में निकलता जा रहा है तो फिर कोई तर्क छोड़ना ठीक नहीं। तब संपादक पूरी तरह स्वतन्त्र होता है अपनी दृष्टि-दिशा के प्रति। अच्छे परिणाम के लिए तभी वह निर्मम भी हो सकेगा। कभी-कभी खुद पर आश्चर्य होता है— बिना किसी की सलाह लिए और बिना 'तार सप्तक' जैसी योजना को देखे यह कार्य कर डाला। भविष्य में, इस तरह की किसी योजना पर पुनः कार्य कर सकता हूँ, पर अभी कहना मुश्किल है।

अवनीश सिंह चौहान— गीत एवं नवगीत में अन्तर क्या है? उसके आधुनिक एवं उत्तर आधुनिक सरोकार क्या हैं? और उसके सामने कौन-सी चुनौतियाँ हैं?

वीरेन्द्र आस्तिक— गीत और नवगीत में काल (समय) का अन्तर है। आस्वादन के स्तर पर दोनों को विभाजित किया जा सकता है। जैसे आज हम कोई छायावादी गीत रचें तो उसे आज का नहीं मानना चाहिए। उस गीत को छायावादी गीत ही कहा जायेगा। इसी प्रकार निराला के बहुत सारे गीत, नवगीत हैं, जबकि वे नवगीत की स्थापना के पहले के हैं। दूसरा अन्तर दोनो में रूपाकार का है। नवगीत तक आते-आते कई वर्जनाएँ टूट गईं। नवगीत में कथ्य के स्तर पर रूपाकार बदला जा सकता है। रूपाकार बदलने में लय महत्वपूर्ण 'फण्डा' है। जबकि गीत का छन्द प्रमुख रूपाकार है। तीसरा अन्तर कथ्य और उसकी भाषा का है। नवगीत के कथ्य में समय सापेक्षता है। वह अपने समय की हर चुनौती को स्वीकार करता है। गीत की आत्मा व्यक्ति केन्द्रित है, जबकि नवगीत की आत्मा समग्रता में है। भाषा के स्तर पर नवगीत छायावादी शब्दों से परहेज करता दिखाई देता है। समय के जटिल यथार्थ आदि की वजह से वह छन्द को गढ़ने में लय और गेयता को ज्यादा महत्व देता है ।

नवगीत, गीत का आधुनिक संस्करण जरूर है, लेकिन आज की युवा पीढ़ी नवगीत को ही गीत मानती है और यह स्वाभाविक भी है। पिता और पुत्र में पीढ़ी का अन्तर जरूर होता है, लेकिन पुत्र, पिता को पिता ही कहता है। सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण बात तो यह है कि रचना को गीत या नवगीत कुछ भी कह लें, पर उनके तीन अंग अविभाज्य हैं, ये हैं— लय, आमुख और अंत्यानुप्रासिकता। गीत-नवगीत के सौन्दर्यबोध के ये महत्वपूर्ण और अनिवार्य अंग है। अब आते हैं आपके प्रश्न के उत्तरार्द्ध पर। साहित्य (नवगीत) से आधुनिकता और उत्तर आधुनिकतावाद के सरोकार हैं, जैसे समाज के सरोकार हैं। आधुनिक युग तक आते-आते साहित्य, समाज का केवल दर्पण ही नहीं रहा, बल्कि अब तो वह मनुष्य और उसकी वैश्विक सभ्यता का द्रष्टा भी है और विश्व-विचारक/विश्लेषक भी। साहित्य का उत्तर आधुनिकतावाद, विश्व-समाज का भूमण्डलीकरण है, जो प्रकारान्तर से (व्यावसायिक और औपनिवेशिक दृष्टि से) एक साथ कई हरकतें कर रहा है— वह गरीब की रोटी छीन रहा है, भ्रष्टाचार को परवान चढ़ा रहा है, देश को अंग्रेजीपरस्त बना रहा है, स्त्री को निर्वसन कर रहा है और साहित्य को बेबस-निर्वीय बना रहा है। गीत-नवगीत को इन्हीं सारी चुनौतियों का जबाव देना है। किसी हद तक वह दे भी रहा है। लेकिन वह सतर्क रहे, भूमंडलीकरण के इस यज्ञ में घी डालने का अवसर मिल गया है, उन देसी सामंतवादी सांप्रदायिक ताकतों को, जिनका सफाया कर दिया था प्रेमचंद, प्रसाद और निराला की आंधी ने।

अवनीश सिंह चौहान— नवगीत वाङ्मय में समीक्षा के नये आयाम पर आप काम करते रहे हैं। समीक्षा के नये आयाम नवगीत की प्रासंगिकता की पड़ताल किस प्रकार से करते हैं? 

वीरेंद्र आस्तिक—  नवगीत के सन्दर्भ में समीक्षा के नये आयाम का तात्पर्य उन तत्वों से है जिन्हें अभी सूत्र या सिद्धांत के रूप में मान्य होना है। नौवें दशक के बाद नवगीत में अनेक तरह के बदलाव दिखलाई पड़ते हैं। ये बदलाव प्रगतिशीलता के ही द्योतक हैं। शायद इसीलिये नवगीत की प्रगतिशीलता हमेशा आलोचनात्मक चुनौती को स्वीकार करती रही है। विवरण में जाएँ तो नवगीत वाड्मय से, मेरे विचार से, एक ध्वनि स्पष्ट हो रही है— वर्तमान में नवगीत की प्रासंगिकता। आज साहित्य की मुख्य धारा में नवगीत की प्रासंगिकता से इनकार नहीं किया जा सकता, क्योंकि वह अंतर्वस्तु के मामले में पहले से ज्यादा सचेत हुआ है। यही कारण है कि 'नवगीत : समीक्षा के नये आयाम' में आलोचनात्मक विमर्शों के स्तर पर नवगीत को मूल्यांकित करने का प्रयत्न किया गया है। सातवें-आठवें दशक में नवगीत जनहित में जिन व्यवस्था विरोधी स्वरों की पराकाष्ठा पर पहुँच कर सीमित हो चुका था, आज उसका स्वरूप व्यापक हुआ है। आज उसके केंद्र में समय सापेक्षता के अंतर्गत सांस्कृतिक अस्मिता तो आ ही रही है, उसमें जीवन राग की विराटता की अभिव्यक्ति भी हो रही है।

अवनीश सिंह चौहान— मार्क्सवादी आलोचना एवं परंपरावादी आलोचना के सन्दर्भ से नवगीत के प्रतिमान के बारे में आपकी क्या अवधारणा है? 

वीरेंद्र आस्तिक— देखिए, पहले तो यह समझ लेना आवश्यक है कि मार्क्सवादी आलोचना और पाश्चात्यमुखी आलोचना गद्य कविता की स्थापना में परंपरावादी आलोचना को खारिज करती रही है। उसने प्रमुखतः छायावादी संस्कारों, यहाँ तक कि 'हिंदी साहित्य का इतिहास' अर्थात आचार्य रामचंद्र शुक्ल द्वारा निर्मित काव्य सिद्धांतों को खारिज करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। हालांकि यह अलग तथ्य है कि पिछले 70 सालों में स्थापित मार्क्सवादी आलोचना अब अस्ताचलगामी हो रही है। अब यहाँ यह भी प्रश्न उठता है कि गद्य कविता अपने अस्तित्व के लिए कौन-कौन से रास्तों पर चलेगी। खैर, यह तो वही जाने। लेकिन समय के ऐसे मोड़ पर गद्य कविता के प्रतिमान नवगीत के प्रतिमान नहीं हो सकते? नवगीतीय अवधारणाओं को इस तथ्य पर पुनः-पुनः विचार कर लेना आवश्यक है। 

दूसरी बात। पड़ताल की जाए तो नवगीत लेखन में आज भी सोद्देश्यता का प्रतिशत बहुत ज्यादा नहीं निकलेगा, अर्थात वे नवगीत जिनमें एक स्थिति विशेष का संदेश ध्वनित हो और जिनकी अंतर्वस्तु 'क्रिस्टल' की तरह स्पष्ट हो। नवगीत वास्तव में मानविक सच्चाई तथा मानव-संवेदना की प्रतिमूर्ति है, लेकिन इससे पहले वह सांस्कृतिक अस्मिता का बिंब भी है। अतएव भाषा में उसके प्रतिमान इन तथ्यों से अलग नहीं हो सकते (हालांकि ऐसे महत्वपूर्ण तथ्यों को लेकर हमें बहुत पहले गंभीर हो जाना चाहिए था)। किंतु, दुर्भाग्य से आज भी नवगीत का न कोई सर्व-स्वीकृत आलोचक है, न सर्व-स्वीकृत नवगीत-धारा। अतः नवगीत के प्रतिमानों पर जितनी बात की जाय उतनी कम ही है।

अवनीश सिंह चौहान— नवगीत को साधने में लय-गेयता, टेक और तुकांत आदि के प्रयोग किस प्रकार से किए जाते हैं?

वीरेंद्र आस्तिक— देखिए, जब भी कोई विधा भाषा में जटिल से जटिल कथ्य की सहजतापूर्वक निर्मिति करने का प्रयत्न करेगी, उसे कुछ न कुछ बदलाव लाने पड़ेंगे, इस सचाई से नवगीत सर्वाधिक प्रभावित हुआ। आरंभकाल से ही उसे अनेक बदलाव, नए कथ्य के स्वागत में, स्वीकार करने पड़े। यह भी एक सचाई है कि जब भाषा की जकड़बंदी या शास्त्रसम्मत सिद्धांत समय के तेज प्रवाह में शिथिल पड़ जाते हैं तब नई-नई मान्यताओं के सामने वे स्वयं अप्रासंगिक होते चले जाते हैं। 

आरंभ में कुछ रचनाकारों ने 'वंशी और मादल' गीत-संग्रह, जिसके रचनाकार हैं ठाकुर प्रसाद सिंह, के गीतों को आईने के रूप में नवगीत के सामने रखकर नवगीत को स्थापित करने का प्रयत्न किया। 'वंशी और मादल' के गीतों की बुनावट और रचना-प्रक्रिया पर हमने भी विचार किया है— हमारे विचार से उसका बहुत ज्यादा प्रभाव नवगीत की रचना-प्रक्रिया पर पड़ा। व्याकरणिक रूप से देखा जाए या व्यावहारिक स्तर पर— दोनों ही मापदण्डों से हमारे अपने अनुभव कुछ इस प्रकार हैं—

देखिए, मुखड़ा (टेक), लय-गेयता और तुकांत, इन तीन घटकों का नवगीत की मर्यादा को बनाए रखने में विशेष महत्व है; किंतु बदलाव भी इन्हीं घटकों में आते गए। हालांकि बदलावों की स्वीकृति/ अस्वीकृति में नवगीतकारों की आज भी मनमानी है, जैसे— अनेक नवगीतकारों ने नवगीत की निर्मिति में नाद योजना पर बल तो दिया, किंतु संगीतात्मकता से परहेज किया, जबकि संगीत और नाद अन्योन्याश्रित हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि वे केवल लय को महत्व देते हैं, लय को पकड़ते हैं और गेयता को छोड़ देते हैं (हालांकि लय और गेयता दोनों जुड़वा बहनें हैं)। गेयता जब छूट गई तो मुखड़े और गीत की अन्य टेकों और अंतराओं की समचरणता भी छूट जाएगी, यह संभव है। देखने पर आरंभकाल से ही अनेक नवगीतकारों के नवगीतों में अंतराओं के मीटर छोटे-बड़े (लम्बे) मिल जाएंगे। इसी प्रकार गेयता की दृष्टि से मुखड़े और अन्य टेकों में समचरणबद्धता देखी जाती है, तो यह ठीक भी है, विशेषतः टेकों का समचरणबद्ध होना आवश्यक होता है। जहाँ तक मुखड़े के मीटर का प्रश्न है तो उसका छोटा या लंबा होना बहुत कुछ गेयता (आरोह- अवरोह) पर निर्भर करता है। कहने का आशय यह है कि बनावट की दृष्टि से नवगीत भी एक समेकित विधा है।

अब आते हैं तुकांत पर। गीत-पंक्तियों के अंत में जिन समान स्वर वाले शब्दाक्षरों का प्रयोग होता है उन स्वरों और अक्षरों को तुकांत कहा जाता है। नवगीत में तुकांत स्वर-विज्ञान पर चलते हैं, यानी अक्षर पर न चलकर उच्चरण पर चलते हैं। वास्तव में तुकांत वाक्यार्थ की 'हारमोनी' बढ़ाने वाला कारक है। स्वर और अक्षर परस्पर सहयोगी की भूमिका में रहते हैं। व्यावहारिक स्तर पर तुकांत तीन प्रकार से प्रयोग में लाए जा रहे हैं। इन तुकांतों को समझने के लिए कुछ उदाहरण देख लिए जाएँ— पहले उत्तम कोटि के तुकांतों पर बात करेंगे, जैसे— पंक्ति में तुकांत के रूप में— 'भरोसा', 'समोसा', 'डोसा' आदि शब्द आए। यहाँ इन तीन शब्दों में स्वर 'ओ' और 'आ' के साथ अंतिम अक्षर 'स' भी बार-बार ध्वनित हो रहा है। ऐसे तुकांत सबसे अच्छे तुकांत माने जाते हैं। इन्हें 'समान्त' तुकांत भी कहते हैं। मध्यम कोटि के तुकांत, जैसे— 'दरोगा', 'दबोचा' आदि। यहाँ 'भरोसा' का तुकांत जब 'दरोगा' से मिलाया जाएगा तो अक्षर बदल जाएगा, विशेषकर 'दरोगा' का अंतिम अक्षर 'ग', 'भरोसा' के 'स' से मैच नहीं करता है, किंतु स्वर 'ओ' और 'आ' से तुकांतता यथावत है। ऐसे तुकान्तों का प्रयोग आवश्यकता पड़ने पर या जटिल कथ्य आदि के कारणों से प्रचलित है। इन्हें स्वरांत तुकांत कहा जाता है। अंत में साधारण कोटि के तुकान्तों का प्रयोग भी कभी-कभी रचनाकार को करना पड़ता है। जब 'भरोसा' का तुकांत 'अभागा' या 'बदरका' या 'दुराशा' से मिलाया जाएगा, तब 'गा' या 'का' में 'आ' का स्वर ही तुकांतता की जरूरत को पूरा करेगा। इन तुकान्तों में 'शा' या 'सा' अधिक प्रभावी है, क्योंकि यह 'भरोसा' के 'सा' का समरूप है। ऐसे तुकान्तों के प्रयोग भी कभी-कभी पेचीदे मामलों में किए जाते हैं। तुकांत के बाद भी कभी-कभी कुछ शब्दों की आवृत्ति होती है, जिन्हें पदांत (रदीफ़ गजल आदि में) कहा जाता है। पदांत की स्थिति को इन दो पंक्तियों द्वारा समझा जा सकता है— 

अभी कैसे कहूँ, उस पर, भरोसा हो गया है 
मिले इंसाफ शायद ही, दरोगा हो गया है 

यहाँ पंक्तियों के अंत में 'हो गया है' पदांत है।

अवनीश सिंह चौहान— कभी गीत और नई कविता के विद्वानों के बीच तनातनी सुनने को मिलती है, तो कभी कविता और कहानी के बीच। इससे आज के समाज पर क्या प्रभाव पड़ेगा?

वीरेन्द्र आस्तिक संदेश तो अच्छा नहीं जाता, लेकिन वह पीढ़ी जो कविता बरक्स गीत या कहानी बरक्स कविता आदि से खुद को चर्चा में रखती थी, अब अवसान की ओर जा चुकी हैं। मेरे विचार से साहित्य को पढ़ने वाला जो समाज है, वह साहित्य के भीतर की तनातनी और फतवेबाजी आदि को पढ़ने में रूचि नहीं लेता। मेरी जानकारी में अधिकांश जो कवि और लेखक हैं, साहित्य की दुरभिसंधियों से दूर रहना चाहते हैं। एक हकीकत और भी है— हमारा समाज गद्य कविता में ज्यादा रूचि नहीं लेता। वास्तव में साहित्य के पाठक वर्ग को बनाने में जिन विधाओं की महती भूमिका रही है, वे हैं— गीत, गजल, दोहा, कहानी और उपन्यास, व्यंग्य विधा भी। जाहिर है उसकी पसन्दगी इन्हीं विधाओं में केन्द्रित होगी।

अवनीश सिंह चौहान— नयी पीढ़ी को ऐसा लगता है कि पुरानी पीढ़ी के कुछ (नव)गीतकार उनकी रचनाओं को कमतर आंकते हैं (अपवादों को छोड़कर) और कई समर्थ (नव)गीतकार ऐसे भी हैं जो उभरते गीतकवियों के बारे में न तो सार्वजनिक रूप से कोई टिप्पणी करते हैं और न ही उनकी रचनाधर्मिता पर कलम चलाते हैं, आप क्या कहना चाहेंगे?

वीरेन्द्र आस्तिक देखिए, कला के क्षेत्र की स्पर्धा-स्पृहा तो जगजाहिर है। नई और पुरानी पेशी में रचनात्मक द्वन्द्व का रहना स्वाभाविक-सा है, क्योंकि विरासत में हमें एक पॉलिटिक्स मिली हुई है— वह है कौन अपना, कौन पराया की। कहानी-कविता और उपन्यास आदि के क्षेत्र में ईर्ष्याएं और दुरभिसंधियॉ कम देखने को मिलती हैं, वहाँ तो आलोचक भी प्रोत्साहित करते हैं। यह दुर्भाग्य है कि गीत-नवगीत के क्षेत्र में आलोचक उस स्तर के हैं नहीं। जो नवगीतकार आलोचक बनते हैं, वे पूर्वाग्रही ज्यादा होते हैं। इन सबके बावजूद, एक समर्थ युवा रचनाकार को हताश नही  होना चाहिये। देखिए, साहित्य के कथित  शिखर पर जो रचनाकार है, उनमें से कितनों को देखा गया है कि वे स्वयं विवादास्पद हैं। इतना ही नहीं, उन्हे 'साहित्य का माफिया' की डिग्री से भी नवाजा गया, लेकिन क्या कोई फर्क पड़ा? नहीं! इन्हीं के बीच डॉ राम विलास शर्मा जैसी बेदाग हस्तियॉ रहीं। क्या कोई उनके आदर्शो पर चला? 

नवगीत के क्षेत्र में साधना तो है, लेकिन उसको मूल्यांकित करने वाला कोई नहीं है। वहाँ तो वर्चस्व की जोर आजमाइश में बड़े-बड़ों के विरूद्ध षडयंत्र चल सकता है। उधर वरिष्ठों को मंच पर या कागज पर जब कुछ कहना होता है, तो उन्हें चाटुकार याद आते हैं। इसके इतर वे श्रम और प्रयत्न क्यों नहीं करते कि कहाँ-कहाँ वास्तविक रचना है। एक समर्थ रचनाकार चाहे युवा हो या वरिष्ठ, वह मुखापेक्षी नही होता। संयम, धैर्य और दूरदर्शिता हो, तो पीढ़ियों में बहुत कुछ सीखना-सिखाना चलता ही है। सोच यह होनी चाहिए कि साहित्य समुद्र में कोई कश्ती मिल जाये तो ठीक अन्यथा एक दिन रचनाकार को स्वयं कश्ती बन जाना होता है। गीत-बिरादरी में सबसे बड़ी कमी एकजुटता की है। इस बात को मैने बार बार कहा है ।

अवनीश सिंह चौहान— गीत-नवगीत को समर्पित संस्थान एवं पत्र-पत्रिकाएँ कौन-सी हैं और उनका क्या योगदान रहा है?

वीरेन्द्र आस्तिक यह सब मुझसे क्यों पूछ रहे हैं। आप स्वयं एक नवगीतकार है। इंटरनेट पर 'गीत-पहल' एवं 'पूर्वाभास' पत्रिकाएँ चलाते हैं। आपकी जानकारियाँ कुछ कम तो नहीं, फिर भी संस्थाओं-पत्रिकाओं का उल्लेख कर पाना तो मुश्किल है। देखने में आता है कि उन लघु-पत्रिकाओं की संख्या भी कुछ कम नहीं, जिनको गीतकवि स्वयं निकालते हैं, जैसे कहानीकार कहानी की पत्रिकाएँ निकालते हैं। मध्य प्रदेश, दिल्ली और राजस्थान में तो परम्परा-सी है, वहाँ की सरकारें आर्थिक अनुदान और विज्ञापन आदि भी देती है। उत्तर प्रदेश में भी कभी-कभी किसी-किसी को कुछ मिल जाता है। पंजाब, कर्नाटक, और महाराष्ट्र और गुजरात से भी हिन्दी पत्रिकाएँ निकलती है। मेरे संज्ञान में है कि सभी छोटी-बड़ी पत्रिकाएँ नवगीत छापती हैं, अपवादों को छोड़कर। यह बात अलग है कि कुछ पत्रिकाएँ कविता शीर्षक से नवगीत छापती है ।

अवनीश सिंह चौहान— क्या आप युवा गीतकारों/ आलोचकों के लिए संदेश देना चाहेंगे?

वीरेन्द्र आस्तिक यह बड़ा कठिन सवाल है। समकालीन गीत के नए रचनाकारों को मेरा यही संदेश है कि वे गीत की प्राचीन और आधुनिक बारीकियों को आत्मसात करें। अपनी आंखिन देखी को और जग देखी को भी मंथन करके गीत में उतारें ही नहीं बल्कि उसको विदग्ध और व्यंजनापूर्ण बनायें। युवा रचनाकार जो बड़ी-बड़ी डिग्रियॉ लेकर गीत के क्षेत्र मे आ रहे हैं, वे गीत के इतिहास का भी अध्ययन करें और अपने भीतर एक बड़ा आलोचक पैदा करने का प्रयत्न करें। ऐसा आदर्श आलोचक, जो गद्य कविता के आलोचको पर भारी पड़े। अब केवल गीत लिखने से काम नही चलने वाला। आलोचना भी एक रचना है। इस मर्म को भी गीतकारों को समझना होगा।

Interview: Making of a Creative Artist : Virendra Astik in Conversation with Abnish Singh Chauhan

सोमवार, 19 दिसंबर 2011

अदम गोंडवी का निधन

अदम गोंडवी


गोंडा। हिंदी के जनवादी कवि और गजलकार रामनाथ सिंह 'अदम गोंडवी' का लीवर की गंभीर बीमारी के कारण पिछले दिनों निधन हो गया। उन्हें लीवर सिरोसिस की बीमारी थी। यह बीमारी उन्हें जहरखुरानी के कारण हुई थी। वे 63 वर्ष के थे। 22 अक्टूबर 1947 को गोस्वामी तुलसीदास के गुरु स्थान सूकर क्षेत्र के करीब परसपुर (गोंडा) के अटा ग्राम में स्व. श्रीमती मांडवी सिंह एवं देवी कलि सिंह के पुत्र के रूप में बालक रामनाथ सिंह का जन्म हुआ जो बाद में अदम गोंडवी के नाम से सुविख्यात हुए। उनके एक पुत्र और दो पुत्रियां हैं।

उनका महीने भर से इलाज चल रहा था। रविवार की सुबह लखनऊ के पीजीआई अस्पताल में उन्होंने अंतिम सांस ली। उनका अंतिम संस्कार उनके पैतृक गांव परसपुर विकासखंड के आटा गांव में किया गया।

कहा जाता है कि हिंदी गज़लों की दुनिया में दुष्यंत कुमार के बाद जिन शीर्षस्थ रचनाकारों को जाना जाता है उनमें अदम गोंडवी भी एक रहे। उन्होंने  अपनी रचनाओं में सामंतवादी ताकतों, भ्रष्टाचारियों, कालाबाजारियों और पाखंडियों के खिलाफ न केवल लिखा, बल्कि व्यक्तिगत जीवन में भी उन सबका पुरजोर विरोध किया।  'धरती की सतह पर' एवं 'समय से मुठभेड़' आदि उनके ग़ज़ल संग्रह की कई रचनाएँ जनता की  जुबान पर हैं। भारत में ही नहीं, बल्कि विदेशों में भी वे खूब पढ़े जाते रहे हैं। यद्यपि उन्हें कई सम्मान-पुरस्कार समय-समय पर प्रदान किये गये,  वर्ष ।998 में मध्य प्रदेश सरकार ने भी उन्हें 'दुष्यंत कुमार पुरस्कार प्रदान' किया था। उनकी याद में उनकी एक गज़ल यहाँ पर प्रस्तुत है-

काजू भुने पलेट में, विस्की गिलास में
उतरा है रामराज विधायक निवास में।

पक्के समाजवादी हैं, तस्कर हों या डकैत
इतना असर है ख़ादी के उजले लिबास में।

आजादी का वो जश्न मनायें तो किस तरह
जो आ गए फुटपाथ पर घर की तलाश में।

पैसे से आप चाहें तो सरकार गिरा दें
संसद बदल गयी है यहाँ की नख़ास में।

जनता के पास एक ही चारा है बगावत
यह बात कह रहा हूँ मैं होशो-हवास में।

हिन्दी गीतों के चितेरे भारत भूषण का निधन

भारत भूषण

मेरठ। हिन्दी गीतों के चितेरे भारत भूषण अब इस दुनिया में नहीं रहे। 82 साल की उम्र में शनिवार को उन्होंने अंतिम सांस ली। उत्तर प्रदेश के मेरठ स्थित एक अस्पताल में दो दिन से भर्ती भारत भूषण को 72 घंटे में दूसरी बार दिल का दौरा पड़ा। उनका अंतिम संस्कार रविवार सुबह सूरजकुंड श्मशान घाट पर किया गया।

एक शिक्षक के तौर पर करियर की शुरुआत करने वाले भारत भूषण बाद में काव्य की दुनिया में आए और छा गए। उनकी सैकड़ों कविताओं व गीतों में सबसे चर्चित राम की जलसमाधि रही। उन्होंने तीन काव्य संग्रह लिखे। पहला 'सागर के सीप' वर्ष 1958 में, दूसरा 'ये असंगति' वर्ष 1993 में और तीसरा 'मेरे चुनिंदा गीत' वर्ष 2008 में प्रकाशित हुआ। वर्ष 1946 से मंच से जुडने वाले भारत भूषण मृत्यु से कुछ महीनों पूर्व तक मंच से गीतों की रसधार बहाते रहे। उन्होंने महादेवी वर्मा, रामधारी सिंह दिनकर जैसे कवि-साहित्यकारों के साथ भी मंच साझा किया। दिल्ली में 27 फरवरी, 2011 को आयोजित कवि सम्मेलन में उन्होंने अंतिम बार भाग लिया था। उनकी याद में यहाँ पर उनका एक गीत प्रस्तुत कर रहा हूँ-

फिर फिर
बदल दिये कैलेण्डर
तिथियों के संग-संग प्राणों में
लगा रेंगने
अजगर-सा डर
सिमट रही साँसों की गिनती
सुइयों का क्रम जीत रहा है!

पढ़कर
कामायनी बहुत दिन
मन वैराग्य शतक तक आया
उतने पंख थके जितनी भी
दूर-दूर नभ
में उड़ आया
अब ये जाने राम कि कैसा
अच्छा-बुरा अतीत रहा है!

संस्मरण
हो गई जिन्दगी
कथा-कहानी-सी घटनाएँ
कुछ मनबीती कहनी हो तो
अब किसको
आवाज लगाएँ
कहने-सुनने, सहने-दहने
को केवल बस गीत रहा है!

शुक्रवार, 16 दिसंबर 2011

एक राधा का आर्त्तनाद - वीरेन्द्र 'आस्तिक'

वीरेन्द्र 'आस्तिक'

कानपुर (उ.प्र.) जनपद के गाँव रूरवाहार (अकबरपुर तहसील) में 15 जुलाई 1947 को जन्मे मूर्धन्य कवि, आलोचक एवं सम्पादक श्रद्धेय श्री वीरेंद्र आस्तिक जी बाल्यकाल से ही अन्वेषी, कल्पनाशील, आत्मविश्वासी, स्वावलंबी, विचारशील, कलात्मक एवं रचनात्मक रहे हैं। बाल्यकाल में मेधावी एवं लगनशील होने पर भी न तो उनकी शिक्षा-दीक्षा ही ठीक से हो सकी और न ही विरासत में मिले शास्त्रीय संगीत और गायन में वह आगे बढ़ सके। जैसे-तैसे 1962 में हाईस्कूल की परीक्षा अच्छे अंकों से उत्तीर्ण की और एक-दो वर्ष संघर्ष करने के बाद 1964 में देशसेवा के लिए भारतीय वायु सेना में भर्ती हो गये। पढ़ना-लिखना चलता रहा और छोटी-बड़ी पत्रिकाओं में वीरेंद्र बाबू और वीरेंद्र ठाकुर के नामों से छपना भी प्रारम्भ हो गया। आपकी पहिला कविता 1971 में 'साप्ताहिक नीतिमान' (जयपुर ) में छपी थी। उन दिनों आस्तिक जी दिल्ली में रहा करते थे। दिल्ली में नई कविता का दौर चल रहा था, सो उन्होंने यहाँ नई कविता और गीत साथ-साथ लिखे। 

1974 में भारतीय वायु सेना छोड़ने के बाद वह कानपुर आ गए और भारत संचार निगम लि. को अपनी सेवाएँ देने लगे। कानपुर में छंदबद्ध कविता की लहर थी। इस नये माहौल का उनके मनोमस्तिष्क पर गहरा प्रभाव पड़ा और वह गीत के साथ ग़ज़लें भी लिखने लगे। 1980 में आ. रामस्वरूप सिन्दूर जी ने एक स्मारिका प्रकाशित की, जिसमें — 'वीरेंद्र आस्तिक के पच्चीस गीत' प्रकाशित हुए। उनकी प्रथम कृति— 'परछाईं के पांव' (गीत-ग़ज़ल संग्रह) 1982 में प्रकाशित हुई। 1984 में उन्होंने कानपुर विश्वविद्यालय, कानपुर से एम.ए. (हिंदी) की परीक्षा उत्तीर्ण की। 1987 में उनकी पुस्तक— 'आनंद! तेरी हार है' (गीत-नवगीत संग्रह) प्रकाशित हुई। उसके बाद 'तारीखों के हस्ताक्षर' (राष्ट्रीय त्रासदी के गीत, उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान से अनुदान प्राप्त, 1992), 'धार पर हम' (1998, बड़ौदा विश्वविद्यालय में एम.ए. पाठ्यक्रम में निर्धारण : 1999-2005), 'आकाश तो जीने नहीं देता' (नवगीत संग्रह 2002) एवं 'धार पर हम- दो' (2010, नवगीत-विमर्श एवं नवगीत के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर) का प्रकाशन हुआ। इसी दौरान सितम्बर 2013 में भोपाल के जाने-माने गीतकवि एवं सम्पादक आ. राम अधीर जी ने 'संकल्प रथ' पत्रिका का महत्वपूर्ण विशेषांक— 'वीरेन्द्र आस्तिक पर एकाग्र' प्रकाशित किया। 

आस्तिक जी को साहित्य संगम (कानपुर, उत्तर प्रदेश) द्वारा 'रजत पदक' एवं 'गीतमणि- 1985' की उपाधि— 17 मई 1986, श्री अध्यात्म विद्यापीठ (नैमिषारण्य, सीतापुर) के 75 वें अधिवेशन पर काव्य पाठ हेतु 'प्रशस्ति पत्र'— फरवरी 1987 आदि से अलंकृत किया जा चुका है। 

संपादन के साथ लेखन को धार देने वाले आस्तिक जी के नवगीत किसी एक काल खंड तक सीमित नहीं हैं, बल्कि उनमें समयानुसार प्रवाह देखने को मिलता है। यह प्रवाह उनकी रचनाओं की रवानगी से ऐसे घुल-मिल जाता है कि जैसे स्वतंत्रोत्तर भारत के इतिहास के व्यापक स्वरुप से परिचय कराता एक अखण्ड तत्व ही नाना रूप में विद्यमान हो। इस द्रष्टि से उनके नवगीत, जिनमें नए-नए बिम्बों की झलक है और अपने ढंग की सार्थक व्यंजना भी, भारतीय जन-मन को बड़ी साफगोई से व्यंजित करते हैं। राग-तत्व के साथ विचार तत्व के आग्रही आस्तिक जी की रचनाओं में भाषा-लालित्य और सौंदर्य देखते बनता है शायद तभी कन्नौजी, बैंसवाड़ी, अवधी, बुंदेली, उर्दू, खड़ी बोली और अंग्रेजी के चिर-परिचित सुनहरे शब्दों से लैस उनकी रचनाएँ भावक को अतिरिक्त रस से भर देती हैं। संपर्क: एल-60, गंगा विहार, कानपुर-208010, संपर्कभाष: 09415474755। 

इस विशिष्ट रचनाकार द्वारा आधुनिक समय में महिलाओं की स्थिति और उनके भविष्य पर लिखी एक लम्बी कविता आपके साथ साझा कर रहा हूँ:-

एक राधा का आर्त्तनाद
चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार

कंस लूट कर भाग गया है
हारी हरि की राधा रानी
रिसे खून की गर्मी बोली
अब चुप रहना है बेमानी।

देख रही द्वापर में जाकर
पूरे एक महाभारत को
कितने नग्न हो गए थे वे
नंगी करने में औरत को
नग्न प्रदर्शन है जब युग ही
क्या तन ढकना है बेमानी।

मान राजसी क्यों रम्भा का
और अहिल्या क्यों अभिशापित
यह फर्क सोच है, देह नहीं
औरत शोषक औरत शोषित
शोषण-तंत्र कांच का घर है
लाज पहनना है बेमानी।

याद सभ्यता का बर्बर युग
लूटी जाती थी अबलाएँ
कई पत्नियों को रखने का
बाहुबली खुद शास्त्र रचाएं
उस युग के विद्रूप समय को
जिन्दा करना है बेमानी।

नारी-इच्छा-मान किताबी
घर के भीतर वह बांदी है
दोषारोपण सिर मढ़ने की
लंपट को भी आजादी है
घर के भीतर की हिंसा में
तिल-तिल घुटना है बेमानी।

किस आशा की ताकत पर वह
अपशब्द, गालियॉ खाती है
हद है, पीहर से बाबुल तक
फुटबाल बना दी जाती है
खुद को दोषी मान जलाना-
फॉसी चढना है बेमानी।

रूढ -कैचियां चला बेटियों-
को औरत में ढाला जाता
जितना-जितना बढे पुरूषपन
उतना-उतना छांटा जाता
बेटी को बस औरतपन से
दीक्षित करना है बेमानी।

लड़का जनमे तो लड़के की
मॉ में ताकत आ जाती है
लड़की के पैदा होते वह
किस शोषण का भय खाती है
औरत, औरत की ताकत हो
उसका डरना है बेमानी।

इस उपभोक्ता संस्कृति में क्यों
अबला खुद उत्पाद बनी है
हासिल का कुछ अर्थ नहीं बस
सबलों का व्यापार बनी है
खुद को छलना किसके खातिर ?
पथ से गिरना है बेमानी।

नर-नारि काम के ज्ञानी हो
हो शमित काम का ज्वाल रूप
वह मंत्र उपेक्षित क्यों अब तक
जिसमें उज्जवल है बाल रूप
काटते नहीं जड़ शोषण की
डाल काटना है बेमानी।

भूमण्डलीकरण का चालक,
नारी को भोग्या बना रहा
भारत अनुबंधित है उससे
उसकी हॉ मे हॉ मिला रहा
सामंती नवनस्लवाद को,
दोस्त समझना है बेमानी।

काम-काज की दिनचर्या में
सैनिक जैसा उन्मेष रहे
योनहीनता घर कर न सके
मन स्वाभिमान से लैस रहे
रूढ़ वर्जना अग मुकाबिल,
पीछे हटना है बेमानी।

शिक्षा में नारी-शिक्षा का
समाहार हो जन सहमति भी
इस सृष्टि स्वरूपा नारी की
जन-जन में आए जाग्रति भी
युग-सत्य असंभव क्रांति बिना
युग को छलना है बेमानी।

काम-कला में निपुण नारियां
स्वच्छंद जिन्दगी रच सकती
गर्भपात जैसे कृत्यों से
तकनीक ज्ञान से बच सकती
संयम खोकर कामुकता पर
तन का बिछना है बेमानी।

पुरूषों की मरजी पर सहमत
नारी, नारी को कोस रही
लिंग परीक्षण करवाकर क्यों
नारी को ही दे मौत रही
अपने हाथों अपना संख्या
बल कम करना है बेमानी ।

कोमल काया जड़ फसाद की
काया को वज्र बनाना है
नारी-मॉस चबाते हैं वे
मुझको काली बन जाना है
है समाज आधा नारी का
दाय छोड ना हे बेमानी।

क्यों न साफ हो भ्रूण पुत्र का
क्यों न पुत्रियां पाली जाएं
आखिर कैसे रूक पाएगी
पुरूषवाद की बर्बरताएं
रच न सकी नारीमय दुनिया
तो हर रचना है बेमानी।

व्याह करूँ क्या कंसा तुझसे
और करूँ क्या पैदा कंसी
कान्हा अब टूटी बैसाखी
टूट गई वो भ्रामक बंशी
कलियुग विधवा जीवन-सा है
द्वापर जपना है बेमानी।

ग्रन्थों में जो भरा पड़ा है
मिथक तोड़ना उस राधा का
जागो-जागो हे मातृ-शक्ति
सम्मान शीर्ष हो मादा का
सिर्फ विरहणी के अर्थो में
जीना-मरना है बेमानी।

Ek Radha Ka Aarttanad: Poet- Veerendra Astik

बुधवार, 14 दिसंबर 2011

फ्रिदेरिक्तन (कनाडा) में जयजयराम आनन्द का काव्यपाठ

डॉ. जयजयराम आनंद

फ्रिदेरिक्तन: फ्रिदेरिक्तन ब्रुन्स्विक राज्य की राजधानी है, जिसमें दुनिया के सभी देशों के प्रवासियों में भारतीय प्रवासियों के लगभग १०० परिवार हैं। जब भारतीय प्रवासियों को पता चला कि भोपाल (म.प्र., भारत) से वरिष्ठ कवि डॉ. जयजयराम आनंद शहर में प्रवास पर हैं तो उन सभी ने उनके सम्मान में काव्य गोष्ठी का आयोजन करने का प्रस्ताव रखा, जिसे उन्होंने सहर्ष स्वीकार कर लिया।

प्रो. आर. डी. वर्मा की अध्यक्षता में डॉ. आनंद के काव्य पाठ का शुभारंभ हुआ। उन्होने कवि गोष्ठी में सबसे पहले मुक्तक प्रस्तुत किये। उनके सुन्दर मुक्तकों को सुनकर उपस्थित श्रोता मंत्रमुग्ध हो गये। उनका एक मुक्तक देखें-  "प्यार से हँसता चमन में फूल है/ प्यार बिन जोरू, जमी, ज़र धूल है/ प्यार तो पहचान है  भगवान की/ प्यार  से इंसान भी भगवान है।" इसके बाद डॉ. आनंद ने अपने शिशु गीतों और बालगीतों को प्रस्तुत किया, जिन्हें सुनकर श्रोता अपने बचपन को याद करने लगे। साथ ही उन्होने अपनी कविताओं के माध्यम से भारत और कनाडा के जीवन और धूप को प्रस्तुत किया। तब भावक वाह-वाह करने से अपने आप को न रोक सके। उन्होंने यह गीत सबको पसंद आया- "जाने कितने रामलाल ने/ सचमुच/ पापड़ बेले हैं। बचपन में/ आँसू ने बह-बह/ गहरा सागर रूप धरा/ हुई नसीब न/ दूध बूँद की/ पानी पी पेट भरा/ समय समाज कर्ज के ढेरों/ हरदिन/ झापड़ झेले हैं।"

कार्यक्रम के समापन अवसर पर डॉ. आनंद ने इन शब्दों से आभार व्यक्त किया- "किस तरह से करूँ मैं खुशी का इज़हार/ आप सबने जो दिया है प्यार का उपहार/ स्वर्ण अक्षर लिखेगें आज का इतिहास/ बन गया मेरी धरोहार आप सबका प्यार।" और "फ्रिडियरिक्टेन ने जो  दिया/ तन-मन से आनंद/ जीवन् भर भूलू नहीं/रचूँ अनूठे छन्द।"

इस कार्यक्रम में उपस्थित रहे- प्रो. सत्यदेव,सरिता गुप्ता,समीर कामरा, पण्डेऱ कामरा, सरिता गूज़र,प्रेमलता आनंद,अभिलाष वर्मा,प्रकाश चंद्र निगम,  प्रमोद वर्मा, मधु वर्मा आदि। इस कार्यक्रम की संचालिका मधु वर्मा (संस्थापक अध्यक्ष, एशियन हेरिटेज सोसायटी, न्यू ब्रुन्स्विक, कनाडा) ने अपने समापन वक्तव्य में कहा- "रात भीग रही है, बर्फ गिर रही है। खेद है कि हम सब डॉ. आनंद को अधिक समय नहीं दे पाए और न ही भारत में चल रही अन्य साहित्यिक गतिविधियों के बारे में जान पाए। उनसे अनुरोध है कि वे बार-बार इस धरतीपर आयें ताकि हम प्रवासी उनको और अधिक सुन सके।"
रपट प्रस्तुति
डॉ. जयजयराम आनंद

सोमवार, 12 दिसंबर 2011

साहि‍त्‍यि‍क सांस्‍कृति‍क कला संगम अकादमी (परि‍यावाँ) द्वारा कवि‍ ‘आकुल’ और कवि रघुनाथ मि‍श्र सम्‍मानि‍‍त

एक ग्रुप फोटो में उपस्थित साहित्यकार

प्रतापगढ़ 30 अक्टूबर को महाभारत के शि‍खर शांतनु, मृत्‍युंजय भीष्म और मत्स्‍यगंधा की जन्मभूमि‍ परि‍यावाँ में जो उत्तरप्रदेश के प्रतापगढ़ जि‍ले से 60 कि‍मी0 और प्रख्यात संत कृपालुजी महाराज की जन्मभूमि‍ मनगढ़ के समीप ही ग्रामीण अंचल की मनोहारी भरतभूमि‍ परि‍यावाँ में एक महान् वटवृक्ष के नीचे सादे समारोह में महामना मदनमोहन मालवीय पोषि‍त साहि‍त्यिक संस्थान ‘साहि‍त्यि‍क सांस्कृति‍क कला संगम अकादमी’द्वारा आयोजि‍त सम्मान समारोह में लगभग 80 साहि‍त्यकारों को सम्मानि‍त कि‍या गया। इस समारोह में अन्‍य संस्था‍नों यथा तारि‍का वि‍चार मंच इलाहाबाद और भारतीय वांग्मय पीठ कोलकाता द्वारा भी साहि‍त्यकारों को सम्मानि‍त कि‍या गया। अकादमी के सचि‍व श्री वृन्दायवन त्रि‍पाठी रत्नेश यह जि‍म्मेदारी 1980 से सम्हा‍ल रहे हैं और प्रति‍वर्ष यह समारोह आयोजि‍त हो रहा है, जि‍समें अभी तक 500 से भी अधि‍क साहि‍त्‍यकारों को सम्मा‍नि‍त कि‍या जा चुका है। 16 प्रान्तों से पधारे साहि‍त्यकार भारत की भाषाई एकता को एक सूत्र में पि‍रो कर सभी भेदभावों को भुला कर एक मंच के नीचे इकट्ठा हुए। इस वर्ष भी परि‍यावाँ में सभी पधारे साहि‍त्यकारों, कवि‍यों, कलाकारों को सम्मानि‍त कि‍या गया। अकादमी की ओर से यह समारोह 30वें भाषाई एकता सम्मेलन के रूप में आयोजि‍त कि‍या गया।

प्रथम सत्र में माँ सरस्वती के समक्ष दीप प्रज्ज्‍वलन के पश्चात् भाषाई एकता पर व्याख्यांन माला का शुभारम्भ कि‍या गया। समारोह की अध्यक्षता भारतीय वांगमय पीठ कोलकाता के सचि‍व श्री श्यामलाल उपाध्याय थे और कार्यक्रम का संचालन प्रख्यात साहि‍त्यकार बज-बज, कोलकाता से पधारे डॉ0 कुँवर वीर सि‍ह मार्तण्ड थे। कार्यक्रम में कोलकाता के सत्यनारायण सिंह आलोक, इम्‍फाल से श्री हुइरोम गुणीन्द्र सिंह लैकाई, वि‍जय कुमार शर्मा, मेरठ, इगलास के गाफि‍ल स्वामी, कोटा के श्री रघुनाथ मि‍श्र, संचालक श्री मार्तण्ड, अध्यक्ष श्री उपाध्याय और कई वि‍द्वानों ने भाषाई एकता पर अपने वि‍चार प्रकट कि‍ये। सभी ने एक मत हो कर कहा कि‍ संवि‍धान की अनुसूचि‍यों की भाषाओं को, राजभाषा हि‍न्दी को राष्ट्रमभाषा के रूप में पहचान बनाने के लि‍ए पहल करनी होगी। आज हि‍न्दी वि‍श्व के अनेकों वि‍श्ववि‍द्यालयों में पढ़ाई जा रही है, क्योंकि‍ व्या‍वसायि‍क दृष्टि‍ से भारतीय बाजार में पैठ बनाने के लि‍ए भारतीयों को अपना जुड़ाव पैदा करने के लि‍ए हि‍न्दी का समृद्ध होना अति‍ आवश्ययक है। दूसरे सत्र में वि‍भि‍न्ऩ सम्मानों को प्रदान कि‍या गया। समारोह में हि‍न्दी सेवा सम्मान, वि‍वेकानन्दज सम्मान, वि‍द्या वाचस्पति‍ मानद उपाधि‍, वि‍द्या वारि‍धि‍ मानद उपाधि‍, कला मार्तण्ड, हि‍न्दी गरि‍मा सम्मान,कबीर सम्मान आदि‍ प्रदान कि‍ये गये। राजस्थान से कोटा के जनकवि‍ आकुल को वि‍वेकानन्द सम्मान, श्री मि‍श्र को वि‍द्या वाचस्पति‍ की मानद उपाधि‍, रावतसर के श्री मुखराम माकड़ को सुश्री सरस्वती सिंह सुमन स्मृति‍ सम्मान, रावतभाटा से, भवानी मण्डी से राजेश कुमार शर्मा पुरोहि‍त को वि‍द्या वारि‍धि‍ मानद उपाधि‍ और अलवर के श्री सुमि‍त कुमार जैन को साहि‍त्य महोपाध्याय मानद उपाधि‍ से सम्मा‍नि‍त कि‍या गया। अन्य वि‍भूति‍यों में कोलकाता के श्री श्यामलाल उपाध्याय को साहि‍त्य महोपाध्याय, श्री अशोक पाण्डेय गुलशन को पं0 जगदीश नारायण त्रि‍पाठी स्मृति‍ सम्मान, सत्यनारायण सिंह आलोक, फ़ख़्रे आलम खाँ, मेरठ, सुश्री आशा मि‍श्रा, दति‍या, मनोज कुमार वार्ष्णेय मेरठ आदि‍ को वि‍द्या वाचस्पति‍ मानद उपाधि‍, बि‍जनौर के मनोज अबोध, गोरखपुर के अशोक कुमार नि‍र्मल, अवधेश शुक्ल, सीतापुर, पूनम शर्मा, जबलपुर आदि‍ को वि‍द्या वारि‍धि‍ की मानद उपाधि‍, सुरेश प्रकाश शुक्ल, लखनऊ, सुश्री सीमा गुप्ता, अलवर और पि‍थौरागढ़ की सुश्री शारदा वि‍दुषी को वि‍वेकानन्द सम्‍मान प्रदान कि‍या गया। मनोज कुमार वार्ष्णेय, मेरठ को पत्रकार मार्तण्ड पुरस्कार भी प्रदान कि‍या गया।

अकादमी के इस सम्मान समारोह की सहयोगी संस्थाओं तारि‍का वि‍चार मंच, इलाहाबाद और भारतीय वांगमय पीठ, कोलकाता ने अनेकों साहि‍त्यकारों को सम्मानि‍त कि‍या। वांग्मय पीठ कोलकाता द्वारा अन्‍य साहि‍त्‍यकारों के साथ आकुल व श्री रघुनाथ मि‍श्र को भी कवि‍ गुरु रवीन्द्र नाथ ठाकुर सारस्व‍त साहि‍त्य सम्मान प्रदान कि‍या गया। तारि‍का वि‍चार मंच ने श्री मि‍श्र को पं0 रामकुमार वर्मा सम्‍मान से सम्मानि‍त कि‍या। दूसरे दि‍न श्री मार्तण्ड, श्रीमि‍श्र, आकुल, श्री आलोक और श्री अकेला ने मनगढ़ स्थि्‍त जगद्गुरु कृपालुजी महाराज के आश्रम जाकर प्रख्यात राधाकृष्ण मंदि‍र देखा और कृपालुजी महाराज के दर्शन कि‍ये, उनके जीवन दर्शन की चि‍त्रमय झांकी देखी और उनका योग आश्रम देखा।


गुरुवार, 8 दिसंबर 2011

साक्षात्कार : नवगीत भविष्य की कविता बनने की दिशा में है — कुमार रवीन्द्र

कुमार रवीन्द्र

आधुनिक हिन्‍दी काव्य में जब भी नवगीत के विकास-क्रम की बात होती है, एक महत्वपूर्ण नाम अपने आप भावकों के मन में उभर आता है कुमार रवीन्द्र। 10 जून 1940, लखनऊ, उत्तर प्रदेश में जन्मे आ. कुमार रवींद्र जी ने एम.ए. (अंग्रेज़ी साहित्य, 1958) की उपाधि प्राप्त करने के बाद दयानंद कॉलेज, हिसार (हरियाणा) में अंग्रेजी शिक्षक के रूप में कार्य किया और वहीं से कालांतर में विभागाध्यक्ष के पद से सेवानिवृत्त (2000) हुए। आपने न केवल हिन्दी साहित्य में अविस्मरणीय कार्य किया, बल्कि अंग्रेज़ी विषय के अध्येता होने के कारण अंग्रेज़ी भाषा में भी काफी कुछ लिखा-पढ़ा है। आपकी हिंदी में प्रकाशित कृतियाँ हैं 'आहत हैं वन' (1984), 'रखो खुला यह द्वार' (1985), 'चेहरों के अंतरीप' (1987), 'पंख बिखरे रेत पर' (1992), 'सुनो तथागत' (2003), 'और हमने संधियाँ कीं' (2006), रखो खुला यह द्वार, अप्प दीपो भव, हम खड़े एकान्त में, आदिम राग सुहाग का - प्रकाशनाधीन (सभी नवगीत संग्रह), 'द सैप इज स्टिल ग्रीन' (The Sap Is Still Green, 1988) एवं 'लौटा दो पगडंडियाँ' (मुक्त छंद की कविताओं का संग्रह, 1990), 'एक और कौन्तेय' (1985), 'गाथा आहत संकल्पों की' (1998), 'अंगुलिमाल' (1998), 'कटे अंगूठे का पर्व' (2007), 'कहियत भिन्न न भिन्न' (2007) (सभी काव्य नाटक)। साथ ही 'नवगीत दशक-दो' एवं 'नवगीत अर्धशती' (सम्पादक : डॉ. शम्भुनाथ सिंह), 'यात्रा में साथ-साथ' (सम्पादक : देवेन्द्र शर्मा 'इन्द्र'), 'धार पर हम-दो' (संपादक : वीरेंद्र आस्तिक), 'नये-पुराने' : ‘गीत अंक – 3’ (सं.— दिनेश सिंह, सितंबर 1998), 'सप्तपदी— एक' (सम्पादक : देवेन्द्र शर्मा 'इंद्र'), 'ग़ज़ल दुष्यंत के बाद — खंड: एक' (सम्पादक : दीक्षित दनकौरी), 'हिन्दुस्तानी गज़लें' (सम्पादक : कमलेश्वर) 'बंजर धरती पर इन्द्रधनुष' (सम्पादक : कन्हैयालाल नंदन) आदि समवेत काव्य संकलनों में भी आपकी रचनाएँ ससम्मान प्रकाशित हुईं। आपको हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग, उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान (साहित्य भूषण, 2005), लखनऊ तथा हरियाणा साहित्य अकादमी, पंचकूला आदि के द्वारा विशिष्ट सम्मानों से अलंकृत किया जा चुका है। 

कुमार रवीन्द्र से अवनीश सिंह चौहान की बातचीत

अवनीश सिंह चौहान— आपमें गाने-गुनगुनाने का संस्कार कैसे पल्लवित और पोषित हुआ? यदि संभव हो तो इससे सम्बंधित अपनी स्मृतियों के बारे में भी कुछ बताएँ??

कुमार रवीन्द्र— यह बताना कठिन है। रामायण का सस्वर पाठ माँ के मुँह से समझ आने की उम्र से पहले ही सुना होगा और तभी शायद उसे दोहराने की कोशिश भी की होगी| समझ की यादों में मीरा-सूर के पद, कबीर के दोहे, राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त की रचनाओं का पाठ, बच्चन जी के गीत, फ़िल्मी गाने, सोहर-कजरी-आल्हा और तमाम किसिम के घरेलू पर्व-उत्सव प्रसंगों पर गाये जाने वाले लोकगीत आदि बसे हुए हैं। इन्हें गाने की कोशिश की भी याद है। बड़े होकर प्रसाद-पन्त-निराला के गीत पढ़े-गाये। प्रसादजी का 'आँसू' काव्य विद्यार्थी जीवन में मुझे याद हो गया था और उसे मैं सस्वर गाया करता था। अंग्रेजी की रोमांटिक लिरिक पोएट्री के गायन का भी थोडा-बहुत अभ्यास मैंने किया था, ऐसा याद पड़ता है। उम्र के इस समापन-पड़ाव पर ये स्मृतियाँ भी अतीत होने लगी हैं। अब तो अपना कंठ-स्वर स्वयं को ही अजनबी लगने लगा है

अवनीश सिंह चौहान— आप अपनी वय के उन गिने-चुने प्रबुद्ध नवगीतकारों में से हैं, जो न केवल प्रिंट मीडिया से जुड़े रहे, बल्कि इंटरनेट के माध्यम से भी हिन्दी साहित्य जगत में सक्रिय रहे हैं। इन्टरनेट पर वर्तमान में नवगीत के स्थिति कैसी है और भविष्य में इसके माध्यम से क्या-कुछ विशेष होने की उम्मीद है? 

कुमार रवीन्द्र इंटरनेट से मेरा जुडाव अभी हाल का ही है। अभी मैं ठीक से उस पर उपलब्ध नवगीत रचनाओं से परिचित नहीं हो पाया हूँ। अस्तु, ऐसी कोई टिप्पणी करना मेरे लिए संभव नहीं होगा जिसे प्रामाणिक कहा जा सके। जितना मेरा परिचय उससे ब्लॉग-पत्रिकाओं के माध्यम से हुआ है, उससे एक मिश्रित प्रतिक्रिया ही उपजी है और वह यह कि पूर्व-परिचित हस्ताक्षरों की ही अधिकांशतः उस पर भी प्रभावी उपस्थिति दिखाई देती है। मेरे लिए कुछ युवा गीतकवियों से उसके माध्यम से जुड़ना सुखद रहा है। उनसे नवगीत के भविष्य के प्रति आस्थाएँ-अपेक्षाएँ भी जागी हैं। हाँ, एक बात निश्चित है कि वेब-पत्रिकाओं के माध्यम से कविता की प्रस्तुति धीरे–धीरे अधिक परिपक्व होकर आएगी और यह भी कि नई पीढ़ी से जुड़ने, उनमें कविता के प्रति रूचि-रुझान जगाने की दृष्टि से इंटरनेट एक सशक्त माध्यम है एवं भविष्य में कविता की प्रस्तुति का संभवतः वही सबसे प्रामाणिक मंच होगा। हाँ, एक बात का ध्यान रखना ज़रूरी है कि उस पर आने वाली रचनाएँ स्तरीय हों और इस मुद्दे पर कोई भी समझौता न किया जाये। श्रेष्ठ रचनाओं का ही प्रसारण हो, तभी उसकी प्रामाणिकता बन पाएगी। 

अवनीश सिंह चौहान— आप ताउम्र नवगीत, गज़ल, दोहा, काव्य-नाटक, संस्मरण एवं यात्रावृत्त लिखते रहे हैं। इतनी विधाओं में लिखना और स्थापित होना क्या दुष्कर नहीं है? आज की कविता की मुद्रा कैसी है? वर्तमान में कवि का सबसे प्रमुख सरोकार क्या है?

कुमार रवीन्द्र नवगीत और नई ग़ज़ल आज की कविता के दो विशिष्ट छान्दसिक रूप हैं। जहाँ तक कथ्य का प्रश्न है, वह आज की कविता की सभी उप-विधाओं में लगभग एक ही है, क्योंकि आज के एक संवेदनशील व्यक्ति के सामने जो प्रश्न हैं, वे अलग-अलग नहीं हैं — वही फ़िलवक्त से जूझती अनुभूतियाँ, वही रागात्मक अस्मिताओं और आस्थाओं के क्षरण की चिंताएँ, वही पदार्थिक ऊहापोहों के बरखिलाफ़ मानुषी आस्तिकताओं की जुझारू भंगिमा — फिर वह मुद्रा चाहे किसी भी विधा में हो, एक ही है। मेरी रचनाधर्मिता तमाम अन्य विधाओं में भी अपनी अभिव्यक्ति तलाशती रही है, यथा— नवगीत, गज़ल, दोहा, काव्य-नाटक, यात्रावृत्त, संस्मरण आदि और उन सभी में लगभग एक ही तलाश आपको मिलेगी और वह है मनुष्य होने की, जिसके आज के आशयमुक्त समय में बिला जाने का खतरा सबसे बड़ा है। मेरी राय में, यही है आज के कवि का सबसे प्रमुख सरोकार। फिर विधा कोई भी हो, बात तो वही है यानी समय से संवाद करने के साथ स्वयं से भी संवाद करने की — खुद को अपने समय-सन्दर्भ में परिभाषित-व्याख्यायित करने की। मेरे नवगीत और मेरी ग़ज़लें सहोदर हैं। मैंने कहीं यह बात कही भी है कि मैं अपनी ग़ज़लों-दोहों को अपने नवगीतों का ही विस्तार मानता हूँ। जहाँ तक एक से अधिक विधाओं में लेखन और उनमें एक मुकाम हासिल करने का सवाल है, उसके बारे में मुझे बस इतना ही कहना है कि मैं आज भी खुद को कविता की पाठशाला की शुरूआती ज़मात के शागिर्द के रूप में ही देख पाता हूँ और हर रचना के बाद एक असंतुष्टि, एक अधूरेपन का अहसास ही मुझे लगता है। 

अवनीश सिंह चौहान— यद्यपि गीत और नवगीत में घनिष्ठ सम्बन्ध है, गीत एवं नवगीत में मूलभूत अंतर क्या है? आज के जटिल जीवन-प्रसंगों को केंद्र में रखकर नवगीत अनुभव-अनुभूतियों को किस प्रकार अभिव्यक्त कर रहा है?

कुमार रवीन्द्र वैसे यह मानना पूरी तरह गलत नहीं है कि नवगीत भी गीत है, किन्तु यह मानना या सोचना-समझना कि दोनों में कोई अंतर नहीं है, उतना ही भ्रामक है जितना यह कहना कि इनका कोई रिश्ता नही है। मैंने अपने कई आलेखों में दोनों के घनिष्ठ रिश्ते की बात कही है, साथ ही यह भी कहा है कि दोनों के बीच पिता-पुत्र का रिश्ता होते हुए भी वे एक दूसरे के ‘क्लोन’ नहीं हैं। उनके ‘जींस’ एक होते हुए भी उन ‘जींस’ की अवधारणा उनमें अलग-अलग ढंग से होती है। उनका यह अंतर कई स्तरों पर साफ़ दिखाई देता है। 

'नवगीत' की प्रयोगधर्मी अभिव्यक्ति का एक प्रमुख पहलू है उसके कथ्य का मनुष्य के अवचेतन से जुड़ाव। यह जुड़ाव हमारे जातीय बोध के मूल संस्कारों को 'नवगीत' में सक्रिय रखता है। मानुषी अवचेतन की धारा…प्रवाह में झील या पोखर के जैसी बँधी हुई या जड़ीभूत नहीं होती; न ही सागर की तरह कभी एकदम शांत, अनुशासित एवं मेखलाबद्ध तो कभी उच्छल और चरम विद्रोही। वह धारा तो एक पर्वतीय नदी की भाँति ऊँचे-नीचे धरातलों के समानांतर पूर्वापर अनुभवों-अनुभूतियों को समेटती, उनसे आकार ग्रहण करती चलती है। उसमें अनामिल, एक-दूजे से नितांत अजनबी सन्दर्भों की एक-साथ उपस्थिति हो सकती है। ऊपर से यह धारा कभी उच्छाल, कभी सुप्त, कभी लुप्त लगती है, पर नीचे इसमें गंभीर एकात्मकता होती है। नवगीत इसी गहरे में बह रही एकात्म अवचेतन भाव-धारा का गीत है। इसीलिए उसके बिम्बों में कई उथल-पुथल, असंतुलन, अर्थाभास या असंगति जैसी आवृत्तियाँ होने लगती हैं। इसके विपरीत पारंपरिक गीत का मुखड़े से ही एक पूर्व-निश्चित ढाँचा होता है, जिसमें अर्थों को निश्चित एवं अपेक्षित शब्द-बिम्बों में रूपायित किया जाता है। उनका एक सायास प्रबन्धन होता है। इधर नवगीत में भावों को सहज बहने दिया जाता है। ये भाव आगे-पीछे बिना किसी पहचाने अथवा पूर्व-नियोजित आकृति के अपने को प्रस्फुटित या विस्फोटित करने को काफ़ी हद तक स्वतंत्र होते हैं। नवगीत का प्रारंभ कहीं से भी होकर उसका समापन कहीं भी हो सकता है। मुखड़ा नवगीत का निर्धारक तत्त्व नहीं होता। हाँ, उससे दिशा-निर्देश अवश्य होता है और वह दिशा-निर्देश भी राजमार्ग का नहीं, पगडंडी का होता है, जिसमें छोटी-मोटी भटकन की पूरी गुंजाइश होती है। नवगीत शुद्ध व्यक्तिगत या समष्टिगत भी नहीं होता। यह या वह की बात नवगीत पर लागू नहीं होती। व्यक्ति-अनुभूति एवं समष्टि-संवेदना, दोनों एक-साथ एक नवगीत में उपस्थित हो सकते हैं, अधिकांशतः होते भी हैं। व्यक्तिपरक और समष्टिपरक, कई बार बिल्कुल असंबद्ध चिंतन-अनुभूति बिम्बों का एक दूसरे पर आरोपण हो सकता है, एक-दूजे में प्रवाह हो सकता है। एक पारंपरिक गीत इस प्रकार की असंबद्धता को साध नहीं पाता है और इसीलिए उसे स्वीकार भी नहीं करता। कथ्य का यह बेडौलपन नवगीत को रास आता है, क्योंकि आज के जटिल जीवन-प्रसंगों में भी अनुभव-अनुभूतियों के धरातल पर इसी तरह की असंगति या बेडौलपन दिखाई देता है। कथ्य का यह खुरदुरापन नवगीत को पारंपरिक गीत से स्पष्टतः अलगाता है। 

एक और महत्त्वपूर्ण बात है कि नवगीत अर्थ-संक्षेप में यकीन रखता है। इसीलिए वह अधिक सुगठित, अधिक गहरे और सांकेतिक होकर प्रस्तुत होता है। उसमें अर्थ-विपर्यय या बिखराव नहीं होता, जैसा पारंपरिक गीत में अक्सर होते पाया जाता है। नवगीत में अर्थ-बिम्ब अधिक सघन होकर प्रस्तुत होते हैं। सहज आमफहम बिम्बों के भी संकेतार्थ नवगीत को अतिरिक्त रूप से अर्थ-गहन बनाते हैं। नवगीत में अर्थों के शाब्दिक पहलू से अधिक शब्दों के ध्वन्यात्मक संकेतों, गूँजों-अनुगूँजों, पारस्परिक संघातों, उनमें निहित सारे सांस्कृतिक परिवेश के रूपांकन की अमित संभावनाएँ तलाशी जाती हैं। यह तलाश सायास या साग्रह नहीं होती। यह शब्दों में अर्थों के अगोपन होने की प्रक्रिया का ही अंग होती है। नवगीत में अनुपस्थित अर्थ, जो अच्छी कविता का मर्म होता है और जो कविता के अर्थ को गहनता प्रदान करता है, अधिक प्रभावी ढंग से प्रस्तुत हो पाता है, क्योंकि नवगीत शब्दों के बीच में छिपे ध्वन्यात्मक आदिम इंगितों को बड़ी सहजता से भाषित कर लेता है। पारंपरिक गीत इन इंगितों को या तो पहचान नहीं पाता या उन्हें भाषित कर पाने में अक्षम सिद्ध होता है, क्योंकि वह शब्दों के रूढ़ और अति-साधारण अर्थों तक ही अपने को सीमित रखने को विवश होता है। पारंपरिक गीत इसीलिए परंपरा के विकास, उसके भविष्योन्मुखी होने की प्रक्रिया में कोई विशेष योगदान नहीं दे पाता। इसके बरअक्स नवगीत अपनी प्रयोगधर्मी प्रकृति के कारण जातीय एवं भाषिक परंपरा को नये आयाम, नई दिशा एवं भंगिमाएँ दे पाने में समर्थ होता है.नयेपन का सम्यक-संतुलित समन्वयन नवगीत की विशिष्ट उपलब्धि रही है। प्रयोगधर्मिता का आग्रह उसे नये अर्थों, नई संभावनाओं का खोजी बनाता है। इन्हीं प्रयोग-आग्रही अर्थ-प्रस्तुतियों से नवगीत के माध्यम से परंपरा का नवीकरण होता रहा है। 

अवनीश सिंह चौहान— आपने गीत से नवगीत की यात्रा को न केवल देखा है, बल्कि एक रचनाकार के रूप में उसमें सहयात्री भी रहे है। आपके समय में ही कई महत्वपूर्ण समवेत संकलन (गीत-नवगीत) प्रकाशित हुए हैं— 'नवगीत दशक - एक, दो, तीन' , ' नवगीत अर्द्धशती', 'पाँच जोड़ बाँसुरी', 'श्रेष्ठ हिन्दी गीत संचयन', 'धार पर हम - एक', 'धार पर हम - दो', 'शब्दपदी', 'नवगीत : नई दस्तकें' आदि। कई अन्य संकलन भी काफ़ी चर्चित रहे हैं। इन संकलनों में क्या विशेष रहा जिसे उपलब्धि के रूप में देखा जा सके?

कुमार रवीन्द्र इन संकलनों के अतिरिक्त कुछ और महत्त्वपूर्ण संकलन हैं— 'यात्रा में साथ-साथ' (संपादक : देवेन्द्र शर्मा 'इन्द्र'), 'नवगीत एकादश' (संपादक : डॉ. भारतेंदु मिश्र), 'सात हाथ सेतु के' (संपादक : मधुसूदन साहा), 'नवगीत और उसका युगबोध' (संपादक : राधेश्याम बन्धु) एवं उद्भ्रांत द्वारा प्रस्तुत एवं तथाकथित रूप से डॉ. शंभुनाथ सिंह जी द्वारा ही संपादित 'नवगीत सप्तक', जिनकी नवगीत के विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका रही। जहाँ तक 'पाँच जोड़ बाँसुरी' एवं साहित्य अकादमी द्वारा संचयित 'श्रेष्ठ हिंदी गीत संचयन' का प्रश्न है, ये विशुद्ध नवगीत संग्रह नहीं थे, हालाँकि उनमें कई महत्त्वपूर्ण नवगीतकारों की रचनाओं को भी शामिल किया गया था। डॉ. शंभुनाथ सिंह द्वारा संपादित तीस नवगीतकारों के त्रिखंडीय समवेत संकलन 'नवगीत दशक' की नवगीत के विकास एवं उसे दिशा देने में निश्चित ही एक ऐतिहासिक भूमिका रही है। उन्हीं के द्वारा संपादित 'नवगीत अर्द्धशती', उसकी भूमिका में प्रस्तुत विस्तृत नवगीत विमर्श एवं नवगीत के समूचे परिप्रेक्ष्य को एक साथ पेश करने की दृष्टि से नवगीत अध्येता के लिए एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण सन्दर्भ-ग्रन्थ है। भाई वीरेन्द्र आस्तिक द्वारा संपादित 'धार पर हम - एक और दो' की इधर के वर्षों में नवगीत विमर्श को दिशा देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। 'धार पर हम'- दो की लंबी संपादकीय भूमिका हिंदी नवगीत और उस पर हुए विमर्शों पर सटीक एवं सार्थक टिप्पणी की दृष्टि से एक महत्त्वपूर्ण दस्तावेज़ है। भाई निर्मल शुक्ल द्वारा संयोजित— 'शब्दपदी' एवं 'नवगीत : नई दस्तकें' के माध्यम से नवगीत विमर्श और उसकी अधुनातन प्रस्तुति बड़े ही सुष्ठ ढंग से हो पाई है। अंतिम चारों संकलन नवगीत के समकालीन सन्दर्भ को सही परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत करने की दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं। इनके माध्यम से नवगीत की आज की कविता की केन्द्रीय विधा के रूप में प्रस्तुति हो पाई है। 

अवनीश सिंह चौहान— नवगीत के क्षेत्र में जबरदस्त खेमेबाजी देखी जाती रही है। यह कहाँ तक उचित या अनुचित है? और क्या यह नवगीत के लिए किसी प्रकार की चिंता का विषय भी है?

कुमार रवीन्द्र खेमेबाज़ी भी भारतीय अस्मिता का हिस्सा है। उसके सकारात्मक-नकारात्मक दोनों ही पहलू हैं। साहित्य के क्षेत्र में यह खेमेबाजी कोई नई चीज़ नहीं है। हर युग में यह रही है— हर विधा में रही है — आज भी है। हिंदी का भाषीय इलाका काफी विस्तृत है और आधुनिक संचार संसाधनों के होते हुए भी पूरे क्षेत्र में हो रही सांस्कृतिक-सारस्वत गतिविधियों का एक ही मंच पर एक ही समय पर सही परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत हो पाना आज भी संभव नहीं हो पाया है। शिविरगत होकर कम से कम उस विशेष क्षेत्र में तो उस विधा विशेष को प्रश्रय मिल ही जाता है। क्षेत्रीय शिविरबद्धता अगर क्षेत्र विशेष में सिमटकर रह जाती है तो वह अपनी व्यापक पहचान नहीं बना पाती और वहीं समाप्त हो जाती है। किन्तु जब वह विस्तार पाकर सकारात्मक हो जाती है तब वह सर्व-व्यापक हो जाती है। कोई भी नया आन्दोलन प्रारम्भ में शिविरबद्ध होकर ही ऊर्जा प्राप्त करता है, किन्तु बाद में सर्व-व्यापक होकर ही वह अपनी सही अस्मिता की पहचान कर पाता है। हिंदी कविता का भक्तिकाल का आन्दोलन हो या आज के समय का छायावादी-प्रगतिवादी या प्रयोगवादी आन्दोलन हो, सभी कुछ व्यक्ति विशेषों के शिविरबद्ध प्रयत्नों से ही उपजे और पनपे। बाद में उनकी अखिल भारतीय पहचान बनी। अस्तु, मेरी राय में, शिविरबद्ध होने और ऐसा करके अपनी गतिविधियों को गहन ऊर्जा प्रदान करने में कोई हर्ज़ नहीं है। नवगीत में जो आज एक समृद्ध वैविध्य देखने में आ रहा है, वह उसके विभिन्न क्षेत्रीय स्वरूपों के ही कारण है। किन्तु अंततः इन सभी शिविरबद्ध गतिविधियों को एक समग्र रूपाकृति मिलनी ही चाहिए, वरना उसकी क्षेत्रीय ऊर्जा नकारात्मक होकर स्वयं को ही विनष्ट करने में लग जाएगी। यह सच है कि नवगीत को खेमेबाजी के इन दोनों पहलुओं से रूबरू होना पड़ा है। किन्तु मुझे नहीं लगता कि यह कोई विशेष चिंता का विषय है। नवगीत आज पूरे हिंदी देश की काव्य विधा है, हालाँकि उसकी क्षेत्रीय अस्मिताएँ भी सक्रिय हैं। आवश्यकता इस बात की है कि उन क्षेत्रीय अस्मिताओं को नकारे बिना उसके अखिल हिंदी-प्रदेशीय स्वरूप को सही परिप्रेक्ष्य में और 'फोकस' में रखा जाये। हाँ, शिविरबद्ध हों शिविराक्रांत न होंवें। खेमें बनें पर वे सभी खेमें जब इकट्ठे होकर एक पूरी बस्ती में तब्दील हो जाएँ, तभी उनकी उपयोगिता है। 

अवनीश सिंह चौहान— नयी सदी में भारत के अहिन्दी भाषी क्षेत्रों में और विदेशों में हिन्दी नवगीत की स्थिति क्या है?

कुमार रवीन्द्र हिंदी नवगीत की उपस्थिति अहिन्दी भाषी क्षेत्रों में भी अधिकांशतः उन प्रदेशों में गये-बसे हिंदी भाषियों की सर्जना के रूप में ही दिखाई देती है और वह भी छिटपुट रूप में ही। अन्य भाषा-भाषी, जो हिंदी में कविताई करते दिखते हैं, वे भी संभवतः हिंदी प्रदेश में रहने-बसने के कारण या फिर अपने लिए एक बृहत रचना परिवेश की तलाश के कारण ऐसा करते हैं। नवगीत लेखन की ओर उन्मुख हुए ऐसे रचनाकार मेरी दृष्टि में तो कम-से-कम नहीं हैं। हाँ, हिंदी से इतर भाषाओँ में भी नवगीत लेखन हो रहा है, इसमें कोई संदेह नहीं है। यही बात कमोबेश विदेशों में रचे जा रहे नवगीत के विषय में भी कही जा सकती है। 

अवनीश सिंह चौहान— जयदेव के 'गीतगोविन्दम्‌', जोकि संस्कृत की महान कृति है, को पुरी (उड़ीसा) के जगन्नाथ मंदिर में गाया जाता है; वहीं हमारे समाज में कई अवसरों पर भक्ति एवं फ़िल्मी गीतों को कमोवेश वही दर्जा प्राप्त है। किन्तु ऐसा लगता है कि साहित्यिक हिन्दी नवगीत (लोकगीतों को छोड़कर) इस स्थिति को प्राप्त नहीं हो सके? 

कुमार रवीन्द्र जयदेव का 'श्री गीतगोविन्दम्‌' हो या तुलसी का 'श्री रामचरितमानस', उनका ओडिसी या हिन्दू अस्मिता का प्रतीक बनना ही उनके प्रचार-प्रसार का मूल कारक रहा है, मेरी राय में। ऐसी ही सूर और मीरा के पदों की बात है। उन सबकी एक धार्मिक पहचान है और यह पहचान उनके कविता से इतर और भी कुछ होने से है। हाँ, कबीर के पदों, दोहों, साखियों, उलटबासियों की बात अलग है। उन्हें हम सही अर्थों में कविता के प्रभाव के रूप में देख सकते हैं। निस्संदेह उनकी भूमिका प्रमुख रूप से सामाजिक रही है। धर्म से इतर सामाजिक परिवर्तन की यह दृष्टि ही आज की कविता की दृष्टि है। इसीलिए कबीर आज की कविता, विशेष रूप से गीतिकविता के सबसे बड़े और महत्त्वपूर्ण सन्दर्भ हैं। नवगीत तो कबीर की कविताई को अपने सबसे नज़दीक पाता है। कबीर की भाषायी भंगिमा भी उसके लिए अनुकूल पडती है। नवगीत की लोकाग्रही भावभूमि एवं मुद्रा के मूल में संभवतः कबीर का यह परोक्ष प्रभाव ही है। 

जहाँ तक फ़िल्मी गीतों की आमजन तक पहुँच का और उनके बहुप्रिय होने का प्रश्न है, वह तो दृश्य-श्रव्य संचार साधनों की प्रगति और समग्र रूप से हमारी सांस्कृतिक संचेतना के विचलन का द्योतक है। मुझे याद है बचपन में जब हम अन्त्याक्षरी खेलते थे, तो हम तुलसी की रामायण की चौपाइयों और दोहों-छंदों का या फिर हिंदी कविता के अंशों का ही उपयोग करते थे। धीरे-धीरे कब फ़िल्मी गानों की पंक्तियों ने उन्हें अपदस्थ कर दिया, पता ही नहीं चला। आज की पीढ़ी तो हमारी सांस्कृतिक चेतना से पूरी तरह विच्छिन्न होने की कगार पर है। भूमंडलीकरण ने हमारी आस्तिकताओं को ही विनष्ट कर दिया है। लोकगीत भी जो जीवित बच पाए हैं, उसका कारण है उनकी ओर संचार माध्यमों का इधर के वर्षों में झुकाव और रुझान। हाँ, नवगीत के स्वरूप में जो इधर परिवर्तन आये हैं, वे उसे लोकगीतों के निकट ले गये हैं। स्मृतिशेष भाई कैलाश गौतम के बहुत से गीत मंच पर इसी कारण लोकप्रिय रहे। किन्तु नवगीत लोकगीत का स्थानापन्न नहीं बन सकता और उसके साहित्यिक स्वरूप के सुरक्षित रहने के लिए ऐसा न हो, यही श्रेयस्कर है। कुछ हद तक लोकगीत की भाषायी भंगिमा अपनाकर भी नवगीत ने अपनी साहित्यिक गरिमा को सुरक्षित रखा है, यह उसकी जीवंत ऊर्जा और उसके कहन-कौशल का प्रमाण है। मुझे लगता है कि नवगीत की सही गायन प्रस्तुतियों की ओर यदि ध्यान दिया जाये और उसे बौद्धिकता के अतिरेक से बचाए रखा जाए, तो वह निश्चित ही लोक में व्याप सकता है। 

अवनीश सिंह चौहान— बॉलीबुड से प्रदीप, जावेद अख्तर, गुलजार, निदा फ़ाज़ली, प्रसून जोशी आदि कई समर्थ गीतकारों ने सदाबहार गीत दिये हैं। फ़िल्मी गीत और साहित्यिक गीत (नवगीत भी) में कौन-सी समानताएँ और असमानताएँ देखने को मिलती हैं?

कुमार रवीन्द्र फ़िल्मी गीत फिल्म की किसी खास 'सिचुएशन' से बंधे होते हैं। वे फिल्म की पटकथा से जुड़े होते हैं और उसका अटूट हिस्सा होते हैं। अच्छा गीतकार उन परिधियों में भी अच्छी कविता प्रस्तुत करने की कोशिश करता है। किन्तु फ़िल्मी गीत की अपनी एक निश्चित सीमा है, जिसका अतिक्रमण करना उसके लिए न तो संभव है और न ही उपयोगी। उसकी दृष्टि विशुद्ध व्यवसायिक होती है। बॉक्स आफिस वाली इस दृष्टि के कारण वह 'पॉप पोएट्री' की परिसीमा से परे नहीं जा पाता। पटकथा और उसकी जरूरतों से बँधी यह कविता और आगे फ़िल्मी संगीत की फिलवक्ती अनिवार्यताओं से भी निर्धारित होती है। आज के फ़िल्मी संगीत की जो ज़रूरतें हैं, उनमें अच्छी-से-अच्छी कविता अपना दम तोड़ने को विवश हो जाती है। एक अच्छे फ़िल्मी गीत में भी कवि को किसी-न-किसी रूप में फिल्म की जरूरतों के मुताबिक समझौता तो करना ही पड़ता है। 

इसके बरअक्स साहित्यिक गीत कवि की अपनी अनुभूतियों के उद्वेलन से उद्भूत होता है— उसमें कवि के अवचेतन में समाहित एवं उसके संस्कारों से उपजी सभी भाव-उर्मियों की समुचित उपस्थिति हो पाती है। साहित्यिक गीतकार का स्वानुभूत, स्व-उद्भूत एवं स्व-निर्मित अनुशासन होता है, जो उसके अंतर्मन से उपजता है। उसकी सर्जना पर कोई बाह्य अंकुश या दबाव नहीं होता। साहित्य की जो गरिमा है, वह उसमें किसी समझौते के तहत शिथिल नहीं होती। फिलवक्त की स्थितियों का आकलन करते समय भी वह सर्जना के क्षण में कई कालजयी मनःस्थितियों और संवेदनाओं से रू-ब-रू होता रहता है। इस नाते उसकी कविता में उसके समाज और परिवेश की सारी परंपरा एवं अन्त:श्चेष्टाएँ कहीं-न-कहीं प्रतिध्वनित होती हैं। उसके मन्तव्य एवं इंगित भी अधिक गहन होते हैं। एक अच्छे साहित्यिक गीत में एक 'विज़न' यानी दार्शनिक भाव-भंगिमा भी होती है, जो उसे कालजयी बनाती है। 

अवनीश सिंह चौहान— आप अपने बारे में क्या सोचते हैं? नवगीत के बारे में क्या आप कोई सुझाव देना चाहेंगे? क्या नवगीत को लेकर आपकी कोई योजना है? 

कुमार रवीन्द्र इस प्रश्नों का उत्तर देना बड़ा कठिन है। मेरा एक लंबा अतीत है। एक बचा-खुचा वर्तमान भी है। और भविष्य ... वह लगभग नहीं ही है। ऐसे में किसी योजना की बात सोचना या करना अनर्गल होगा। हाँ, जो मुझसे आगे हैं यानी जो अगली पीढ़ी के नवगीतकार हैं, उनसे अवश्य मेरी कुछ अपेक्षाएँ-आशाएँ हैं। नवगीत आज जिस पड़ाव पर है, वह उसे भविष्य की कविता बनाने की दिशा में है। गीत-नवगीत की उलझनों के साथ-साथ जो गद्यकविता का एक विद्रूप स्वर है, नवगीत को उससे आतंकित न होने दें और आज के नये-नये अनुभवों से उसे जोड़ें; प्रयोगधर्मिता को क़ायम रखते हुए उसे अनर्गल न होने दें और लय-छंद के अनुशासन को और सहज होने दें, मेरी राय में, यही हो सकती है आज के नवगीत के लिए एक सुन्दर योजना। 

अवनीश सिंह चौहान— नई पीढ़ी के लिए क्या आप कोई सन्देश देना चाहेंगे?

कुमार रवीन्द्र संदेश देने की न तो मेरी कूवत है और न ही नई पीढ़ी के स्वस्थ और समुचित विकास की दृष्टि से ज़रूरी ही। प्रख्यात अंग्रेजी कवि-चिन्तक टी.एस. एलियट के अनुसार हर पीढ़ी को अपनी परंपरा खोजनी होगी और उसके दायरे में अपने समय-सन्दर्भ को परिभाषित करते हुए पूर्व-परंपरा को आगे बढ़ाना होगा। इसके लिए उसे अपने समय के लिए एक नया भाषिक मुहावरा भी तलाशना और गढ़ना होगा। बैसे ऊपर के प्रश्न के उत्तर में मैंने अपनी बात कह ही दी है। और मुझे पूरा भरोसा है कि मेरे आगे की पीढ़ी निश्चित ही अपने कृतित्त्व से नवगीत की नई संभावनाओं को खोजेगी और उसे भविष्य का काव्य बनाएगी। 

Interview: Kumar Ravindra in Conversation with Abnish Singh Chauhan