अवनीश सिंह चौहान— आप सृजन की ओर कैसे प्रवृत्त हुए? तब और आज के साहित्यिक परिदृश्य में आप किस प्रकार का परिवर्तन देखते हैं?
वीरेन्द्र आस्तिक— घर में साहित्यिक पुस्तकें उपलब्ध थी, उन्हें पढ़ने का संस्कार पिताजी से मिला। मेरे घर में गांधी और महर्षि दयानंद सरस्वती जैसे समाज-सुधारकों के जीवन-दर्शन की किताबें मौजूद थीं। उन दिनों (शायद 1955-56) 'साप्ताहिक हिन्दुस्तान' भी मेरे घर आता था। तब मैं 5वीं कक्षा में था। गॉव का रहन-सहन था। साहित्य क्या होता है, तब पता नही था। पिताजी की कई खूबियों मे एक थी उनका गायक होना। वे महफिलों मे ध्रुपद आदि गाते थे। कभी-कभी भजन आदि मुझसे भी गवाते थे। उक्त परिवेश में स्वाभाविक था, गीत-सृजन को महत्व देना।
आपके प्रश्न के उत्तरार्द्ध का उत्तर है— तब एकजुटता थी, समाज में साहित्य का आदर था, आज खेमेबाजी है। व्यक्तित्व और कृतित्व में काफी फर्क आ गया है। अपने गीत के युवाकाल में कवि सम्मेलनों का महत्व था। तब जो साहित्य लिखा जाता था, वही मंच पर पढ़ा जाता था। गोष्ठियों-साहित्यिक अड्डेबाजी में निराला, महादेवी, दिनकर, बच्चन और नेपाली के संस्मरणों पर और उनकी रचनाओं पर चर्चा होती थी। तब हास्य-कवियों का जमाना नहीं था। मंच पर श्रृंगार और ओज के दस कवियों में एक हास्यरसी हुआ करता था, लेकिन आज इसका उलट है। स्वतंत्रता संग्राम के साथ-साथ एक कार्य और हुआ, वह था भाषा का निर्माण। जब युद्ध स्तर पर निर्माण कार्य चल रहा होता है, तब आदमी विदूषक नहीं हो सकता। आज लगता है जैसे हिन्दी भाषा के निर्माण का कार्य पूरा हो चुका है? शायद तभी सुविधा-सम्पन्न पूंजीपतियों ने हास्य को जन्म दिया। हिन्दी के अच्छे-अच्छे प्रवक्ताओं ने हास्य के व्यवसाय में घुसकर वास्तविक कविता को मंच से बाहर कर दिया। आज साधना नहीं, नाम और दाम के लिए लोग जुगाड़ के शार्टकट अपना रहे हैं।
अवनीश सिंह चौहान— आपने अपने साहित्यिक जीवन में गीत को ही अपनी अभिव्यक्ति का प्रमुख माध्यम क्यों बनाया, जबकि आप ग़ज़ल, दोहे और हाइकु में भी कलम चला लेते हैं।
वीरेन्द्र आस्तिक— गीत के साथ-साथ मैंने गज़लें, दोहे और हाइकु भी लिखे हैं। अब तो समीक्षाएँ भी लिख रहा हूँ। अभिव्यक्ति के लिए गीत को माध्यम बनाया, क्योंकि मैने बताया कि मै बचपन से हरि-भजन-कीर्तन आदि गाया करता था, मेरा कंठ भी सुगेय था। इन सभी के कारण मुझे लय और छन्द को समझने में कठिनाई नहीं हुई। दूसरी बात जो सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है कि मै भावुक, कल्पनाशील और स्वप्नदर्शी कुछ ज्यादा ही था।
अवनीश सिंह चौहान— आपके रचनाकर्म में जनचेतना और सामाजिक संवेदना का समाहार प्रभावशाली ढंग से हुआ है। 'रमुआ', 'नरगिस' और 'कोयल' जैसे गीत तो व्यापक स्तर पर व्याख्या चाहते हैं। इनके बारे में आपका अपना दृष्टिकोण क्या है?
वीरेन्द्र आस्तिक— गीत में चेतना और संवेदना का समन्वय ही तो किया जाता है। दूसरे शब्दों में कहूँ तो रचनाकार हृदय और बुद्धि का पारिग्रहण कराता है गीत में। कर्म का स्वामी होता है हृदय और कर्म को सार्थक दिशा देने का कार्य करती है बुद्धि। दरअसल मेरे गीतों के कथ्य में जनबोध और समाजबोध अलग-अलग नहीं हैं। वहाँ जन का ही समाज है। अब प्रश्न के उत्तरार्द्ध का उत्तर देना चाहूँगा। पहली बात— मैं कोई बड़ा आलोचक तो हूँ नहीं। आलोचकों की व्याख्याएँ विस्तार से होती हैं, फिर भी ... मेरे विचार से मूल तो रचना ही होती है। रचना की रचना होती है आलोचना। गीत रचते समय जो जमीनी-दृश्य होता है, उसके बारे में तो रचनाकार से ज्यादा किसको पता होगा। दरअसल 'रमुआ' अति साधारण-जन का प्रतीक शब्द है। यह शब्द उस वर्ग का प्रतिनिधित्व करता है, जो गरीबी की रेखा से भी निचले स्तर का है। इस गीत में अनेक संज्ञाएँ-विशेषण रमुआ के पर्यायवाची बनकर रमुआ के अर्थ को व्यंजित करते हैं, जैसे धोती, लंगोटी, रोटी, मोची, मजदूरी, छप्पर आदि। इन शब्दों के विलोमार्थ शब्द भी हैं, जो रमुआ की अस्मिता को मूल्यांकित करते हैं। साथ में ये सारे शब्द एक कथा भी कहते जाते हैं। गीत का मुख्य केन्द्र है इसमें सुख और सुख के आसपास है घटनाओं का जाल। भारत की गरीब जनता जिस सुखवाद की छाया के नीचे बसर करती है, उसका प्रतीक है रमुआ। हिन्दी कविता मे एक अलग तरह का जीवन-दर्शन है यह। इसमें गांधीवादी विचारधारा भी समाहित हो गई है शायद। मेरी कविता का नायक दरअसल भीड़ का भी प्रतीक है, उसका कोई अपना नहीं है, शायद तभी मंत्री की गाड़ी से कुचलकर मर जाने पर कोई दंगा आदि नही हुआ। वह ऐसा मोची है, जो खुद जूता नहीं पहन सका, अर्थात उसकी हैसियत से बहुत दूर था जूता। इसी प्रकार 'नरगिस' है, जो छोटी कविता की बड़ी कथा है और जो सांप्रदायिकता और फिर सद्भाव के असाधारण रूप को प्रकट करती है। पता ही नहीं चल पाता कि कब रचनाकार ने प्रेम-तत्व या दैविक रूप को एक अस्त्र के रूप में खड़ा करके एक व्यक्ति (नरगिस के पापा) के हृदय का परिवर्तन कर दिया। उसे संप्रदायी होने से बचा लिया। 'कोयल' नौकरी-पेशा लड़कियों- महिलाओं का प्रतीक-शब्द है। यह गीत भी एक रूपक कथा है। महिला का तेज तर्रार होना, ईमानदार होना पुरूष वर्ग को असहनीय है। अंततः व्यवस्था के तहत धूर्तबाज सीनियर उसकी कीर्ति को धूमिल करने के प्रयास में जुट गए। विपत्ति में फॅसी महिला को सीता याद आती है। सीता एक ऐसा प्रतीक-बिम्ब है, जो कथा को नयी दृष्टि देता है। राम याद आते तो गलत हो जाता। उस समय सीता जैसा धैर्य और साहस चाहिए था महिला को। सीता को राम पर अटूट विश्वास था, वे रावण का बध करके उसे मुक्ति दिलाकर अंगीकार करेंगे। यह सब कविता में है नहीं, सिर्फ सीता शब्द से उद्भाषित होता है। दरअसल 'कोयल' और 'नरगिस' स्त्री सशक्तीकरण की भूमिका में भी है।
अवनीश सिंह चौहान— मेरे विचार से आम आदमी की वेदना ही आपके गीतों का प्रतिमान है। क्या कहना चाहेंगे ?
वीरेन्द्र आस्तिक— आपका सोचना बिल्कुल सही है, लेकिन यह वह वेदना है, जो आम आदमी के उत्पीड़न से उद्भूत है। वास्तव मे मेरे गीतों में आम और खास के द्वन्द्वात्मक संबंधों की व्यंजना है। कहीं-कहीं तो वेदना जीवन-दर्शन में रूपान्तरित हो गई है। कहीं तो 'जिन्दगी ही धर्म है' जैसी सूक्तियाँ हैं। कहीं अन्तिम आदमी में नई दुनिया के रचाव की उम्मीद है। अनपढ में तथागत का मूर्तन। निपट आदमी में ईश्वर का प्रकट होना। स्वर्ग का साधारणीकरण। तो कहीं गमले में खिले गुलाब के रूप में वही रमुआ है, जिसका अभी पीछे उल्लेख हुआ था। कहने का आशय यही कि आपको मेरे गीतों में संवेदना और विचार के विविध और अछूते आयाम मिलेंगे ।
अवनीश सिंह चौहान— आप व्यक्तिगत जीवन में अच्छे साहित्य एवं सच्चे साहित्यकारों के हिमायती रहे हैं, जिसका प्रमाण 'धार पर हम- एक और दो' और आपके समीक्षात्मक आलेख हैं। आलोचना की कसौटी पर अच्छा गीत और एक सच्चा गीतकार कैसा हो?
वीरेन्द्र आस्तिक— गीतकार यदि सच्चा होगा तो गीत अच्छा होगा ही। 'आलोचना की कसौटी क्या है?'— पर विचार ही नहीं करता गीतकार। एक विषय के रूप में आलोचना-शास्त्र का अध्ययन जरूरी हो सकता है। अध्ययन तो रचनाकार के अनुभव-संसार को समृद्ध करता ही है। लेकिन रचना-प्रक्रिया के दौरान रचनाकार के सामने वह अनुभूत सत्य होता है जिसने उसको भीतर तक मथ दिया होता है। वहाँ अमूर्त, मूर्त होने के लिए सांगोपांग जुटाने की प्रक्रिया में होता है। ऐसा मैं इसलिए कह रहा हूँ कि उस समय रचनाकार स्वयं अनुभूति मात्र हो जाता है। रचना और आलोचना का पहला रिश्ता तो द्वन्द्व का है और द्वन्द्व में अच्छी रचना तो हो नहीं सकती। दूसरी बात, एक सच्चा गीतकार, आलोचना की कसौटी पर ध्यान ही नहीं देता। आलोचना स्वयं रचना की ओर आती है, क्योंकि रचना से ही आलोचना की नई मान्यताएँ निकलती हैं। हाँ यह सही है कि मैंने अच्छी रचना और सच्चे साहित्यकारों की तलाश में कुछ अच्छे कार्य किए हैं, लेकिन यह तभी संभव हो सका है जब मेरे भीतर पहले से ही वह ईमानदारी और दृष्टि मौजूद रही। आज तो ईमानदारी-सच्चाई जैसे मूल्यों का पतनहोता दिखाई दे रहा है। सच्चा रचनाकार अच्छे की तरफ भागता नहीं, वह समग्रता में खुद को तलाशता है। वह जो होता है, वही तलाशने में व्यतीत होता रहता है।
अवनीश सिंह चौहान— देखने में आया है कि महत्वपूर्ण गीत संकलनों में संपादकों ने अपनी रचनाओं को भी प्रस्तुत किया है, जैसे कि— 'धार पर हम'। किन्तु, 'धार पर हम- दो' में आपने अपने आपको क्यों नहीं रखा? क्या इस प्रकार की (पुस्तक प्रकाशन हेतु) कोई अन्य योजना भी है?
वीरेन्द्र आस्तिक— लेकिन ऐसे भी संकलन हैं, जिनमें संपादकों ने खुद को बतौर रचनाकार प्रस्तुत नहीं किया। 'धार पर हम' (1998) का मैं संपादक भी हूँ और एक गीतकार भी। मैंने उसमें खुद को अन्तिम कवि के रूप में रखा, यह सोचकर कि मैं तो निःस्वार्थ साहित्य-सेवा में तत्पर हूँ। किन्तु वहाँ यह तर्क तो दिया जा सकता है कि रचनाकार ने खुद को चर्चा में लाने के लिए संकलन को निकाला। लेकिन यदि संपादन कार्य एक ही शीर्षक से दूसरे-तीसरे खण्ड के रूप में निकलता जा रहा है तो फिर कोई तर्क छोड़ना ठीक नहीं। तब संपादक पूरी तरह स्वतन्त्र होता है अपनी दृष्टि-दिशा के प्रति। अच्छे परिणाम के लिए तभी वह निर्मम भी हो सकेगा। कभी-कभी खुद पर आश्चर्य होता है— बिना किसी की सलाह लिए और बिना 'तार सप्तक' जैसी योजना को देखे यह कार्य कर डाला। भविष्य में, इस तरह की किसी योजना पर पुनः कार्य कर सकता हूँ, पर अभी कहना मुश्किल है।
अवनीश सिंह चौहान— गीत एवं नवगीत में अन्तर क्या है? उसके आधुनिक एवं उत्तर आधुनिक सरोकार क्या हैं? और उसके सामने कौन-सी चुनौतियाँ हैं?
वीरेन्द्र आस्तिक— गीत और नवगीत में काल (समय) का अन्तर है। आस्वादन के स्तर पर दोनों को विभाजित किया जा सकता है। जैसे आज हम कोई छायावादी गीत रचें तो उसे आज का नहीं मानना चाहिए। उस गीत को छायावादी गीत ही कहा जायेगा। इसी प्रकार निराला के बहुत सारे गीत, नवगीत हैं, जबकि वे नवगीत की स्थापना के पहले के हैं। दूसरा अन्तर दोनो में रूपाकार का है। नवगीत तक आते-आते कई वर्जनाएँ टूट गईं। नवगीत में कथ्य के स्तर पर रूपाकार बदला जा सकता है। रूपाकार बदलने में लय महत्वपूर्ण 'फण्डा' है। जबकि गीत का छन्द प्रमुख रूपाकार है। तीसरा अन्तर कथ्य और उसकी भाषा का है। नवगीत के कथ्य में समय सापेक्षता है। वह अपने समय की हर चुनौती को स्वीकार करता है। गीत की आत्मा व्यक्ति केन्द्रित है, जबकि नवगीत की आत्मा समग्रता में है। भाषा के स्तर पर नवगीत छायावादी शब्दों से परहेज करता दिखाई देता है। समय के जटिल यथार्थ आदि की वजह से वह छन्द को गढ़ने में लय और गेयता को ज्यादा महत्व देता है ।
नवगीत, गीत का आधुनिक संस्करण जरूर है, लेकिन आज की युवा पीढ़ी नवगीत को ही गीत मानती है और यह स्वाभाविक भी है। पिता और पुत्र में पीढ़ी का अन्तर जरूर होता है, लेकिन पुत्र, पिता को पिता ही कहता है। सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण बात तो यह है कि रचना को गीत या नवगीत कुछ भी कह लें, पर उनके तीन अंग अविभाज्य हैं, ये हैं— लय, आमुख और अंत्यानुप्रासिकता। गीत-नवगीत के सौन्दर्यबोध के ये महत्वपूर्ण और अनिवार्य अंग है। अब आते हैं आपके प्रश्न के उत्तरार्द्ध पर। साहित्य (नवगीत) से आधुनिकता और उत्तर आधुनिकतावाद के सरोकार हैं, जैसे समाज के सरोकार हैं। आधुनिक युग तक आते-आते साहित्य, समाज का केवल दर्पण ही नहीं रहा, बल्कि अब तो वह मनुष्य और उसकी वैश्विक सभ्यता का द्रष्टा भी है और विश्व-विचारक/विश्लेषक भी। साहित्य का उत्तर आधुनिकतावाद, विश्व-समाज का भूमण्डलीकरण है, जो प्रकारान्तर से (व्यावसायिक और औपनिवेशिक दृष्टि से) एक साथ कई हरकतें कर रहा है— वह गरीब की रोटी छीन रहा है, भ्रष्टाचार को परवान चढ़ा रहा है, देश को अंग्रेजीपरस्त बना रहा है, स्त्री को निर्वसन कर रहा है और साहित्य को बेबस-निर्वीय बना रहा है। गीत-नवगीत को इन्हीं सारी चुनौतियों का जबाव देना है। किसी हद तक वह दे भी रहा है। लेकिन वह सतर्क रहे, भूमंडलीकरण के इस यज्ञ में घी डालने का अवसर मिल गया है, उन देसी सामंतवादी सांप्रदायिक ताकतों को, जिनका सफाया कर दिया था प्रेमचंद, प्रसाद और निराला की आंधी ने।
अवनीश सिंह चौहान— नवगीत वाङ्मय में समीक्षा के नये आयाम पर आप काम करते रहे हैं। समीक्षा के नये आयाम नवगीत की प्रासंगिकता की पड़ताल किस प्रकार से करते हैं?
वीरेंद्र आस्तिक— नवगीत के सन्दर्भ में समीक्षा के नये आयाम का तात्पर्य उन तत्वों से है जिन्हें अभी सूत्र या सिद्धांत के रूप में मान्य होना है। नौवें दशक के बाद नवगीत में अनेक तरह के बदलाव दिखलाई पड़ते हैं। ये बदलाव प्रगतिशीलता के ही द्योतक हैं। शायद इसीलिये नवगीत की प्रगतिशीलता हमेशा आलोचनात्मक चुनौती को स्वीकार करती रही है। विवरण में जाएँ तो नवगीत वाड्मय से, मेरे विचार से, एक ध्वनि स्पष्ट हो रही है— वर्तमान में नवगीत की प्रासंगिकता। आज साहित्य की मुख्य धारा में नवगीत की प्रासंगिकता से इनकार नहीं किया जा सकता, क्योंकि वह अंतर्वस्तु के मामले में पहले से ज्यादा सचेत हुआ है। यही कारण है कि 'नवगीत : समीक्षा के नये आयाम' में आलोचनात्मक विमर्शों के स्तर पर नवगीत को मूल्यांकित करने का प्रयत्न किया गया है। सातवें-आठवें दशक में नवगीत जनहित में जिन व्यवस्था विरोधी स्वरों की पराकाष्ठा पर पहुँच कर सीमित हो चुका था, आज उसका स्वरूप व्यापक हुआ है। आज उसके केंद्र में समय सापेक्षता के अंतर्गत सांस्कृतिक अस्मिता तो आ ही रही है, उसमें जीवन राग की विराटता की अभिव्यक्ति भी हो रही है।
अवनीश सिंह चौहान— मार्क्सवादी आलोचना एवं परंपरावादी आलोचना के सन्दर्भ से नवगीत के प्रतिमान के बारे में आपकी क्या अवधारणा है?
वीरेंद्र आस्तिक— देखिए, पहले तो यह समझ लेना आवश्यक है कि मार्क्सवादी आलोचना और पाश्चात्यमुखी आलोचना गद्य कविता की स्थापना में परंपरावादी आलोचना को खारिज करती रही है। उसने प्रमुखतः छायावादी संस्कारों, यहाँ तक कि 'हिंदी साहित्य का इतिहास' अर्थात आचार्य रामचंद्र शुक्ल द्वारा निर्मित काव्य सिद्धांतों को खारिज करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। हालांकि यह अलग तथ्य है कि पिछले 70 सालों में स्थापित मार्क्सवादी आलोचना अब अस्ताचलगामी हो रही है। अब यहाँ यह भी प्रश्न उठता है कि गद्य कविता अपने अस्तित्व के लिए कौन-कौन से रास्तों पर चलेगी। खैर, यह तो वही जाने। लेकिन समय के ऐसे मोड़ पर गद्य कविता के प्रतिमान नवगीत के प्रतिमान नहीं हो सकते? नवगीतीय अवधारणाओं को इस तथ्य पर पुनः-पुनः विचार कर लेना आवश्यक है।
दूसरी बात। पड़ताल की जाए तो नवगीत लेखन में आज भी सोद्देश्यता का प्रतिशत बहुत ज्यादा नहीं निकलेगा, अर्थात वे नवगीत जिनमें एक स्थिति विशेष का संदेश ध्वनित हो और जिनकी अंतर्वस्तु 'क्रिस्टल' की तरह स्पष्ट हो। नवगीत वास्तव में मानविक सच्चाई तथा मानव-संवेदना की प्रतिमूर्ति है, लेकिन इससे पहले वह सांस्कृतिक अस्मिता का बिंब भी है। अतएव भाषा में उसके प्रतिमान इन तथ्यों से अलग नहीं हो सकते (हालांकि ऐसे महत्वपूर्ण तथ्यों को लेकर हमें बहुत पहले गंभीर हो जाना चाहिए था)। किंतु, दुर्भाग्य से आज भी नवगीत का न कोई सर्व-स्वीकृत आलोचक है, न सर्व-स्वीकृत नवगीत-धारा। अतः नवगीत के प्रतिमानों पर जितनी बात की जाय उतनी कम ही है।
अवनीश सिंह चौहान— नवगीत को साधने में लय-गेयता, टेक और तुकांत आदि के प्रयोग किस प्रकार से किए जाते हैं?
वीरेंद्र आस्तिक— देखिए, जब भी कोई विधा भाषा में जटिल से जटिल कथ्य की सहजतापूर्वक निर्मिति करने का प्रयत्न करेगी, उसे कुछ न कुछ बदलाव लाने पड़ेंगे, इस सचाई से नवगीत सर्वाधिक प्रभावित हुआ। आरंभकाल से ही उसे अनेक बदलाव, नए कथ्य के स्वागत में, स्वीकार करने पड़े। यह भी एक सचाई है कि जब भाषा की जकड़बंदी या शास्त्रसम्मत सिद्धांत समय के तेज प्रवाह में शिथिल पड़ जाते हैं तब नई-नई मान्यताओं के सामने वे स्वयं अप्रासंगिक होते चले जाते हैं।
आरंभ में कुछ रचनाकारों ने 'वंशी और मादल' गीत-संग्रह, जिसके रचनाकार हैं ठाकुर प्रसाद सिंह, के गीतों को आईने के रूप में नवगीत के सामने रखकर नवगीत को स्थापित करने का प्रयत्न किया। 'वंशी और मादल' के गीतों की बुनावट और रचना-प्रक्रिया पर हमने भी विचार किया है— हमारे विचार से उसका बहुत ज्यादा प्रभाव नवगीत की रचना-प्रक्रिया पर पड़ा। व्याकरणिक रूप से देखा जाए या व्यावहारिक स्तर पर— दोनों ही मापदण्डों से हमारे अपने अनुभव कुछ इस प्रकार हैं—
देखिए, मुखड़ा (टेक), लय-गेयता और तुकांत, इन तीन घटकों का नवगीत की मर्यादा को बनाए रखने में विशेष महत्व है; किंतु बदलाव भी इन्हीं घटकों में आते गए। हालांकि बदलावों की स्वीकृति/ अस्वीकृति में नवगीतकारों की आज भी मनमानी है, जैसे— अनेक नवगीतकारों ने नवगीत की निर्मिति में नाद योजना पर बल तो दिया, किंतु संगीतात्मकता से परहेज किया, जबकि संगीत और नाद अन्योन्याश्रित हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि वे केवल लय को महत्व देते हैं, लय को पकड़ते हैं और गेयता को छोड़ देते हैं (हालांकि लय और गेयता दोनों जुड़वा बहनें हैं)। गेयता जब छूट गई तो मुखड़े और गीत की अन्य टेकों और अंतराओं की समचरणता भी छूट जाएगी, यह संभव है। देखने पर आरंभकाल से ही अनेक नवगीतकारों के नवगीतों में अंतराओं के मीटर छोटे-बड़े (लम्बे) मिल जाएंगे। इसी प्रकार गेयता की दृष्टि से मुखड़े और अन्य टेकों में समचरणबद्धता देखी जाती है, तो यह ठीक भी है, विशेषतः टेकों का समचरणबद्ध होना आवश्यक होता है। जहाँ तक मुखड़े के मीटर का प्रश्न है तो उसका छोटा या लंबा होना बहुत कुछ गेयता (आरोह- अवरोह) पर निर्भर करता है। कहने का आशय यह है कि बनावट की दृष्टि से नवगीत भी एक समेकित विधा है।
अब आते हैं तुकांत पर। गीत-पंक्तियों के अंत में जिन समान स्वर वाले शब्दाक्षरों का प्रयोग होता है उन स्वरों और अक्षरों को तुकांत कहा जाता है। नवगीत में तुकांत स्वर-विज्ञान पर चलते हैं, यानी अक्षर पर न चलकर उच्चरण पर चलते हैं। वास्तव में तुकांत वाक्यार्थ की 'हारमोनी' बढ़ाने वाला कारक है। स्वर और अक्षर परस्पर सहयोगी की भूमिका में रहते हैं। व्यावहारिक स्तर पर तुकांत तीन प्रकार से प्रयोग में लाए जा रहे हैं। इन तुकांतों को समझने के लिए कुछ उदाहरण देख लिए जाएँ— पहले उत्तम कोटि के तुकांतों पर बात करेंगे, जैसे— पंक्ति में तुकांत के रूप में— 'भरोसा', 'समोसा', 'डोसा' आदि शब्द आए। यहाँ इन तीन शब्दों में स्वर 'ओ' और 'आ' के साथ अंतिम अक्षर 'स' भी बार-बार ध्वनित हो रहा है। ऐसे तुकांत सबसे अच्छे तुकांत माने जाते हैं। इन्हें 'समान्त' तुकांत भी कहते हैं। मध्यम कोटि के तुकांत, जैसे— 'दरोगा', 'दबोचा' आदि। यहाँ 'भरोसा' का तुकांत जब 'दरोगा' से मिलाया जाएगा तो अक्षर बदल जाएगा, विशेषकर 'दरोगा' का अंतिम अक्षर 'ग', 'भरोसा' के 'स' से मैच नहीं करता है, किंतु स्वर 'ओ' और 'आ' से तुकांतता यथावत है। ऐसे तुकान्तों का प्रयोग आवश्यकता पड़ने पर या जटिल कथ्य आदि के कारणों से प्रचलित है। इन्हें स्वरांत तुकांत कहा जाता है। अंत में साधारण कोटि के तुकान्तों का प्रयोग भी कभी-कभी रचनाकार को करना पड़ता है। जब 'भरोसा' का तुकांत 'अभागा' या 'बदरका' या 'दुराशा' से मिलाया जाएगा, तब 'गा' या 'का' में 'आ' का स्वर ही तुकांतता की जरूरत को पूरा करेगा। इन तुकान्तों में 'शा' या 'सा' अधिक प्रभावी है, क्योंकि यह 'भरोसा' के 'सा' का समरूप है। ऐसे तुकान्तों के प्रयोग भी कभी-कभी पेचीदे मामलों में किए जाते हैं। तुकांत के बाद भी कभी-कभी कुछ शब्दों की आवृत्ति होती है, जिन्हें पदांत (रदीफ़ गजल आदि में) कहा जाता है। पदांत की स्थिति को इन दो पंक्तियों द्वारा समझा जा सकता है—
अभी कैसे कहूँ, उस पर, भरोसा हो गया है
मिले इंसाफ शायद ही, दरोगा हो गया है
यहाँ पंक्तियों के अंत में 'हो गया है' पदांत है।
अवनीश सिंह चौहान— कभी गीत और नई कविता के विद्वानों के बीच तनातनी सुनने को मिलती है, तो कभी कविता और कहानी के बीच। इससे आज के समाज पर क्या प्रभाव पड़ेगा?
वीरेन्द्र आस्तिक— संदेश तो अच्छा नहीं जाता, लेकिन वह पीढ़ी जो कविता बरक्स गीत या कहानी बरक्स कविता आदि से खुद को चर्चा में रखती थी, अब अवसान की ओर जा चुकी हैं। मेरे विचार से साहित्य को पढ़ने वाला जो समाज है, वह साहित्य के भीतर की तनातनी और फतवेबाजी आदि को पढ़ने में रूचि नहीं लेता। मेरी जानकारी में अधिकांश जो कवि और लेखक हैं, साहित्य की दुरभिसंधियों से दूर रहना चाहते हैं। एक हकीकत और भी है— हमारा समाज गद्य कविता में ज्यादा रूचि नहीं लेता। वास्तव में साहित्य के पाठक वर्ग को बनाने में जिन विधाओं की महती भूमिका रही है, वे हैं— गीत, गजल, दोहा, कहानी और उपन्यास, व्यंग्य विधा भी। जाहिर है उसकी पसन्दगी इन्हीं विधाओं में केन्द्रित होगी।
अवनीश सिंह चौहान— नयी पीढ़ी को ऐसा लगता है कि पुरानी पीढ़ी के कुछ (नव)गीतकार उनकी रचनाओं को कमतर आंकते हैं (अपवादों को छोड़कर) और कई समर्थ (नव)गीतकार ऐसे भी हैं जो उभरते गीतकवियों के बारे में न तो सार्वजनिक रूप से कोई टिप्पणी करते हैं और न ही उनकी रचनाधर्मिता पर कलम चलाते हैं, आप क्या कहना चाहेंगे?
वीरेन्द्र आस्तिक— देखिए, कला के क्षेत्र की स्पर्धा-स्पृहा तो जगजाहिर है। नई और पुरानी पेशी में रचनात्मक द्वन्द्व का रहना स्वाभाविक-सा है, क्योंकि विरासत में हमें एक पॉलिटिक्स मिली हुई है— वह है कौन अपना, कौन पराया की। कहानी-कविता और उपन्यास आदि के क्षेत्र में ईर्ष्याएं और दुरभिसंधियॉ कम देखने को मिलती हैं, वहाँ तो आलोचक भी प्रोत्साहित करते हैं। यह दुर्भाग्य है कि गीत-नवगीत के क्षेत्र में आलोचक उस स्तर के हैं नहीं। जो नवगीतकार आलोचक बनते हैं, वे पूर्वाग्रही ज्यादा होते हैं। इन सबके बावजूद, एक समर्थ युवा रचनाकार को हताश नही होना चाहिये। देखिए, साहित्य के कथित शिखर पर जो रचनाकार है, उनमें से कितनों को देखा गया है कि वे स्वयं विवादास्पद हैं। इतना ही नहीं, उन्हे 'साहित्य का माफिया' की डिग्री से भी नवाजा गया, लेकिन क्या कोई फर्क पड़ा? नहीं! इन्हीं के बीच डॉ राम विलास शर्मा जैसी बेदाग हस्तियॉ रहीं। क्या कोई उनके आदर्शो पर चला?
नवगीत के क्षेत्र में साधना तो है, लेकिन उसको मूल्यांकित करने वाला कोई नहीं है। वहाँ तो वर्चस्व की जोर आजमाइश में बड़े-बड़ों के विरूद्ध षडयंत्र चल सकता है। उधर वरिष्ठों को मंच पर या कागज पर जब कुछ कहना होता है, तो उन्हें चाटुकार याद आते हैं। इसके इतर वे श्रम और प्रयत्न क्यों नहीं करते कि कहाँ-कहाँ वास्तविक रचना है। एक समर्थ रचनाकार चाहे युवा हो या वरिष्ठ, वह मुखापेक्षी नही होता। संयम, धैर्य और दूरदर्शिता हो, तो पीढ़ियों में बहुत कुछ सीखना-सिखाना चलता ही है। सोच यह होनी चाहिए कि साहित्य समुद्र में कोई कश्ती मिल जाये तो ठीक अन्यथा एक दिन रचनाकार को स्वयं कश्ती बन जाना होता है। गीत-बिरादरी में सबसे बड़ी कमी एकजुटता की है। इस बात को मैने बार बार कहा है ।
अवनीश सिंह चौहान— गीत-नवगीत को समर्पित संस्थान एवं पत्र-पत्रिकाएँ कौन-सी हैं और उनका क्या योगदान रहा है?
वीरेन्द्र आस्तिक— यह सब मुझसे क्यों पूछ रहे हैं। आप स्वयं एक नवगीतकार है। इंटरनेट पर 'गीत-पहल' एवं 'पूर्वाभास' पत्रिकाएँ चलाते हैं। आपकी जानकारियाँ कुछ कम तो नहीं, फिर भी संस्थाओं-पत्रिकाओं का उल्लेख कर पाना तो मुश्किल है। देखने में आता है कि उन लघु-पत्रिकाओं की संख्या भी कुछ कम नहीं, जिनको गीतकवि स्वयं निकालते हैं, जैसे कहानीकार कहानी की पत्रिकाएँ निकालते हैं। मध्य प्रदेश, दिल्ली और राजस्थान में तो परम्परा-सी है, वहाँ की सरकारें आर्थिक अनुदान और विज्ञापन आदि भी देती है। उत्तर प्रदेश में भी कभी-कभी किसी-किसी को कुछ मिल जाता है। पंजाब, कर्नाटक, और महाराष्ट्र और गुजरात से भी हिन्दी पत्रिकाएँ निकलती है। मेरे संज्ञान में है कि सभी छोटी-बड़ी पत्रिकाएँ नवगीत छापती हैं, अपवादों को छोड़कर। यह बात अलग है कि कुछ पत्रिकाएँ कविता शीर्षक से नवगीत छापती है ।
अवनीश सिंह चौहान— क्या आप युवा गीतकारों/ आलोचकों के लिए संदेश देना चाहेंगे?
वीरेन्द्र आस्तिक— यह बड़ा कठिन सवाल है। समकालीन गीत के नए रचनाकारों को मेरा यही संदेश है कि वे गीत की प्राचीन और आधुनिक बारीकियों को आत्मसात करें। अपनी आंखिन देखी को और जग देखी को भी मंथन करके गीत में उतारें ही नहीं बल्कि उसको विदग्ध और व्यंजनापूर्ण बनायें। युवा रचनाकार जो बड़ी-बड़ी डिग्रियॉ लेकर गीत के क्षेत्र मे आ रहे हैं, वे गीत के इतिहास का भी अध्ययन करें और अपने भीतर एक बड़ा आलोचक पैदा करने का प्रयत्न करें। ऐसा आदर्श आलोचक, जो गद्य कविता के आलोचको पर भारी पड़े। अब केवल गीत लिखने से काम नही चलने वाला। आलोचना भी एक रचना है। इस मर्म को भी गीतकारों को समझना होगा।