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बुधवार, 5 अगस्त 2020

रेणु का ऋणजल-धनजल — भारत यायावर

भारत यायावर 

कठोर परिश्रम कर अपने आपको जीवंत बनाये रखने की कला में निपुण एवं वैश्विक ख्याति के श्रेष्ठ रचनाकार भारत यायावर का जन्म आधुनिक झारखंड के हजारीबाग जिले में 29 नवम्बर 1954 को हुआ। 1974 में आपकी पहली रचना प्रकाशित हुई थी, तब से अब तक देश-विदेश की छोटी-बड़ी तमाम पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। 'झेलते हुए' और 'मैं हूँ यहाँ हूँ' (कविता संग्रह), 'नामवर होने का अर्थ' (जीवनी), 'अमर कथाशिल्पी रेणु', 'दस्तावेज', 'नामवर का आलोचना-कर्म' (आलोचना)— इनकी चर्चित पुस्तकें हैं। इन्होंने हिन्दी के महान लेखक आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी एवं फणीश्वरनाथ रेणु की खोई हुई और दुर्लभ रचनाओं पर लगभग पच्चीस पुस्तकों का संपादन किया है। 'रेणु रचनावली', 'कवि केदारनाथ सिंह', 'आलोचना के रचना-पुरुष: नामवर सिंह' आदि का सम्पादन किया है। रूसी भाषा में इनकी कविताएँ अनूदित। नागार्जुन पुरस्कार (1988), बेनीपुरी पुरस्कार (1993), राधाकृष्ण पुरस्कार (1996), पुश्किन पुरस्कार- मास्को (1997), आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी सम्मान, रायबरेली (2009) से अलंकृत। संपर्क: यशवंत नगर, मार्खम कालेज के निकट, हजारीबाग, झारखण्ड, भारत, मो. - 6204130608

फणीश्वरनाथ रेणु के रिपोर्ताजों की पहली प्रकाशित पुस्तक है- ‘ऋणजल-धनजल’। ‘रिपोर्ताज’ उनकी प्रिय  विधा थी। 1950 ई॰ में वे अपने रिपोर्ताजों की पुस्तक प्रकाशित करवाना चाहते थे, जिसका पता गोपीकृष्ण प्रसाद के नाम लिखे उनके एक पत्र से चलता है। 10 जनवरी, 1950 ई॰ को लिखे पत्र का यह अंश देखें - “संग्रह के काम में मैं जुट गया हूँ। ... संग्रह फरवरी के अंत तक आप प्रेस में दे सकते हैं। ‘किसान मार्च’ के बाद ‘रामराज’ मैंने शुरू कर दिया है। इसके बाद डालमियानगर हड़ताल के आधार पर, लेकिन इसके लिए मुझे पटना आने की जरूरत होगी, मिल और मेशिन के विभिन्न पुर्जों के नाम, कुछ टेकनिकल बातें यहाँ किससे पूछूँ ? ‘रामधुन’। नेपाल में जो आग सुलग रही है उस पर ‘चाँदी की हथकड़ी’। .... कम-से-कम संग्रह के लिए चार और लिख डालूँ क्या ? .... आपको आश्चर्य होगा “जै गंगा’ और ‘डायन कोशी’ वगैरह भी मेरे पास नहीं। न रफ, न प्रकाशित। ‘जै गंगा’ और ‘डायन कोसी’ आप ऊपर कीजिए।“ इस पत्रांश से यह स्पष्ट है कि रेणु 1950 में ही अपने रिपोर्ताजों का संग्रह प्रकाशित करवाना चाहते थे, किन्तु वह हो न सका। उन्होंने 1945 से रिपोर्ताज लिखना प्रारम्भ किया था और उनकी अंतिम रचना ‘पटना: जलप्रलय’ 1975 ई॰ में प्रकाशित रिपोर्ताज है। इस रिपोर्ताज की पहली किस्त ‘कुत्ते की आवाज’ शीर्षक से साप्ताहिक ‘दिनमान’ (संपादक - रघुवीर सहाय) के 21 सितम्बर, 1975 के अंक में प्रकाशित होते ही राजकमल प्रकाशन की प्रबन्ध निदेशिका श्रीमती शीला सन्धू का पत्र उन्हें मिला। इसका उत्तर उन्होंने 24 सितम्बर, 1975 ई॰ को लिखा - “आदरणीय शीला जी, आपको ‘टेलिपैथी’ पर विश्वास हो या नहीं - मैं अपनी जिंदगी के अनुभवों से गुजर कर इस पर यकीन करता हूँ। ‘दिनमान’ में बाढ़ का संस्मरण प्रकाशित होने जा रहा था और इसके साथ ही मैं सोच रहा था कि श्रीमती शीला जी से अभी ही अनुरोध कर दूँ कि ....। अतः अनुबन्ध-पत्र सहित आपका पत्र पाकर प्रसन्न और चकित हुआ। आपको अशेष धन्यवाद !"

इसी पत्र में आगे उन्होंने इस पुस्तक (जिसका बाद में उन्होंने नामकरण ‘ऋणजल: धनजल’ रखा) की रूपरेखा बताते हुए आगे लिखा - “किन्तु, अव्वल तो यह कि इस बाढ़ के संस्मरण के साथ ही (अर्थात् प्रथम खण्ड में) जाएगा - बिहार का सूखा और अकाल वाला रिपोर्ताज: जो ‘दिनमान’ के पाँच या सात अंकों में धारावाहिक रूप में प्रकाशित हुआ था। इन सभी अंकों के फायल उपलब्ध हैं।"

रेणु जी ने इस पुस्तक की एक लम्बी भूमिका लिखी थी, जिसमें प्राकृतिक प्रकोप के अनेक संस्मरण थे, जो डाक में गुम हो जाने के कारण छप नहीं सकी। उस भूमिका को वे दोबारा लिखकर भेज नहीं सके, जिसके कारण इस पुस्तक का प्रकाशन उनकी मृत्यु के बाद बगैर उनकी भूमिका के ही करना पड़ा। इस सन्दर्भ में 12 फरवरी, 1976 ई॰ को शीला सन्धू के नाम लिखे उनके पत्र से विस्तृत जानकारी मिलती है - “कल रजिस्टर्ड पैकेट द्वारा किताब की (ऋणजल: धनजल) भूमिका भेज रहा हूँ। .... जिस दिन भूमिका लिखने बैठा चासनाला खदान की अभूतपूर्व दुर्घटना घट गई। .... भूमिका में 15 जनवरी, 1934 के भूकंप से लेकर अबतक के दैवी प्रकोपों (जिन्हें याद कर के रोंगटे खड़े हो जाते हैं) के छुट-पुट संस्मरण हैं। मैंने अपनी इन रचनाओं को ‘जुर्नल’ कहा है। एक बात: मैं एक बार स्वयं प्रूफ की कापी देख लेना आवश्यक समझता हूँ। मुझे गाँव पर होली तक यानी मार्च के प्रथम सप्ताह तक रहना है। यदि आप कृपाकर प्रूफ की कापी मेरे गाँव के पते पर भेज दें तो, मैं दूसरे ही दिन लौटती डाक से भेज दूँगा। एक दिन की भी देरी नहीं करूँगा। .... किताब का नाम ‘ऋणजल: धनजल’ आपको कैसा लगा ? .... मैं जो मैटर भेज रहा हूँ वह पन्द्रह-बीस पृष्ठ से कम नहीं होगा। आप अपनी सुविधा के अनुसार इसको भूमिका के रूप में पुस्तक के प्रारम्भ में दे सकती हैं अथवा ‘अंतिम अध्याय’ यानी ‘तीसरे लेख’ की तरह। .... स्वस्थ हूँ, प्रसन्न नहीं हूँ। कल की डाक से मैटर भेज रहा हूँ।"

शीला सन्धू ने रेणु के देहावसान के (11 अप्रैल, 1977 ई॰) के बाद ‘ऋणजल: धनजल’ की प्रकाशकीय टिप्पणी में इन बातों को और भी स्पष्ट करते हुए लिखा है: “यह सच, एक दुखद सच है कि रेणु जी की भौतिक काया निःशेष हो चुकी है, लेकिन साथ-ही-साथ, यह भी सच है कि रेणु जी हमारे बीच आज भी मौजूद हैं - अपने सम्मोहक व्यक्तित्व से जुड़ी स्मृतियों के रूप में, जो समय-असमय हमारे मन को झकझोरती और भारी कर जाती है; तथा उन अक्षर-कृतियों के रूप में, जो हमारे लिए और आनेवाली पीढ़ियों के लिए भी प्रेरणा का अक्षय स्रोत बनी रहेंगी। रेणु जी की यह कृति - ऋणजल धनजल - कई दृष्टियों से ऐतिहासिक महत्त्व रखती है। पहली और मुख्य बात, कि बाढ़ और सूखे की दो अभूतपूर्व दुर्घटनाओं का यह ऐतिहासिक दस्तावेज है, और दूसरी, कि इसके प्रकाशन की पूरी रूपरेखा तय करने के साथ-साथ इसका नामकरण तक उन्होंने स्वयं किया था, और इसके लिए पन्द्रह-बीस पृष्ठों की एक भूमिका लिख चुकने की सूचना भी उन्होंने दी थी। किन्तु, दुर्योगवश, वह महत्त्वपूर्ण भूमिका हमें उपलब्ध नहीं हुई और इसी बीच सहसा उन्होंने हमेशा-हमेशा के लिए आँखे मूँद लीं। रेणु के जीवनकाल में यह पुस्तक प्रकाशित नहीं हो सकी, इसकी कचोट हमें हमेशा रहेगी। और, अब यह पुस्तक उनकी उस भूमिका के बगैर ही प्रकाशित हो रही है, यह दुहरा दुख भी उस कचोट में शामिल हो गया है। यह मूल्यवान धरोहर थी रेणु जी की, जिसे अब हम पाठकों के हाथ में दे रहे हैं। रेणु जी के प्रति हमारी यह मूक श्रद्धांजलि है।"

तात्पर्य यह कि ‘ऋणजल धनजल’ रेणु द्वारा तैयार की गई अंतिम पुस्तक थी और रिपोर्ताजों की पहली पुस्तक ! यह कैसी विडम्बना है कि 1950 ई॰ में ही वे अपने रिपोर्ताजों का संग्रह प्रकाशित करना चाह रहे थे, किन्तु वह संग्रह छप न सका। वे 1957 ई॰ में इलाहाबाद में रहकर ‘परती-परिकथा’ उपन्यास लिख रहे थे। 20 मई, 1957 ई॰ को अमोघनारायण झा को लिखे एक पत्र में वे बताते हैं - “इधर कथा-संग्रह के संपादन में लगा हूँ। फिर एक रिपोर्ताज संग्रह भी अगस्त तक प्रकाशक को दे देना चाहता हूँ। व्यस्त हूँ।“ किन्तु, 1950 में रिपोर्ताज-संग्रह छपा, न 1957 में। उनके सभी रिपोर्ताज असंकलित रह गये। उनका पहला रिपोर्ताज-संग्रह ‘ऋणजल धनजल’ प्रकाशित तो हुआ, पर वे उसे देख भी नहीं पाये।

‘ऋणजल: धनजल’ सूखा और अकाल के लिए गढ़ा हुआ उनका अपना शब्द है। जल का अभाव ही सूखा का कारण है, इसीलिए ‘ऋणजल’ और जल का बहुतायत में होना ही ‘धनजल’ है, जो बाढ़ का द्योतक है। गणित में माइनस को ऋण और प्लस को धन कहते हैं। इस तरह सूखे और बाढ़ के लिए यह रेणु के द्वारा दिया हुआ नवीन शब्द बेहद अर्थव्यंजक है।

देश भर में आज भी सूखा-अकाल और बाढ़ एक समस्या है। यह जहाँ भी उपस्थित होता है, वहाँ के जनजीवन को तबाह कर देता है। यह एक ऐसी त्रासदी है, जिससे देश को अब तक निजात नहीं मिल पायी है। इससे हर वर्ष लाखों लोग मरते हैं, और विनाशलीला ऐसी होती है, जिसकी भरपाई मुश्किल है। ये ऐसी विभीषिकाएँ हैं जो मुनष्य को अपने आघात से अभावग्रस्त ही नहीं बनाती, बल्कि उसे कभी-कभी अमानवीय भी बना देती हैं। कहीं तो मनुष्य इन परिस्थितियों में पड़कर अपने धैर्य, अपनी सहानुभूति, अपनी शक्ति, अपनी विनोदप्रियता की वास्तविक पहचान उभारता है और कहीं अपनी निरीहता, स्वार्थपरता, आसक्ति, मूल्यहीनता आदि का परिचय देता है। रेणु ने बाढ़ पर लिखे अपने रिपोर्ताजों में बाढ़ से सम्बन्धित स्थितियों और मनःस्थितियों के अनेक पहलुओं का बड़ा जीवंत चित्रण किया है। शुरू में लोग बाढ़ आने के समाचार को बहुत विनोद के साथ लेते हैं और दूसरी जगह आई हुई बाढ़ की दहशत को महसूस नहीं करते। जब स्वयं बाढ़ में फंस जाते हैं तब उनका संत्रास शुरू होता है। ‘पटना जलप्रलय’ नामक रिपोर्ताज के प्रथम अध्याय में बाढ़ के आने का समाचार, उस समाचार के प्रति तरह-तरह की क्रियाओं, बाढ़ में घिर जाने की हालत में जीवन-यापन के आवश्यक साधनों की चिन्ता, फिर बाढ़ के आने की गति और बाढ़ के आ जाने का चित्रण किया है। दूसरे अध्याय में बाढ़ में फँसे लोगों की स्थितियों, मनःस्थितियों, तमाशबीनों के दृश्यों और सरकारी मशीनरी की सक्रियता और निष्क्रयता आदि की तस्वीर तो खिची ही है, कुछ सरदारों द्वारा किए गए सहायताकार्य के अत्यंत मानवीय रूप को उभारा है। इसी प्रकार उन्होंने अन्य अध्यायों में भी बाढ़ के कुछ मानवीय और अमानवीय पक्षों का उद्घाटन किया है। तीसरे अध्याय में स्मृतियों के सहारे कुछ मार्मिक प्रसंगों को बाढ़ की विभीषिका के बीच मूर्त कर दिया है और चैथे में कलाकार मित्रों के आने और उनके द्वारा प्रदर्शित होने वाले प्रेम और सहकार्य का चित्रण किया गया है। इस प्रकार लेखक ने अपने अनुभवों को माध्यम बनाकर बाढ़ के एक वर्तुल बिम्ब का विधान किया है।

1975 ई॰ में पटना में आये बाढ़ पर लिखे रिपोर्ताज के अलग-अलग अध्यायों का रेणु ने अलग-अलग शीर्षक रखा है। पहले अध्याय का शीर्षक है - ‘कुत्ते की आवाज़’। दूसरे अध्याय का शीर्षक है - ‘जो बोले सो निहाल’। तीसरे अध्याय का शीर्षक है - ‘पंछी की लाश’। चैथे अध्याय का शीर्षक है - ‘कलाकारों की रिलीफ पार्टी’ और पाँचवें अध्याय का शीर्षक है - ‘मानुष बने रहो’।

‘कुत्ते की आवाज’ नामक प्रथम अध्याय की शुरुआत रेणु आत्म-कथ्य के रूप में करते हुए बताते हैं - “मेरा गाँव ऐसे इलाके में है जहाँ हर साल पश्चिम, पूरब और दक्षिण की - कोशी, पनार, महानंदा और गंगा की - बाढ़ से पीड़ित प्राणियों के समूह पनाह लेते हैं, सावन-भादो में ट्रेन की खिड़कियों से विशाल और सपाट धरती पर गाय, बैल, भैंस, भेड़, बकरों के हजारों झुंड-मुंड देखकर ही लोग बाढ़ की विभीषिका का अंदाज लगाते हैं।“ आगे वे बताते हैं कि “परती क्षेत्र में जन्म लेने के कारण अपने गाँव के अधिकांश लोगों की तरह मैं भी तैरना नहीं जानता। किन्तु दस वर्ष की उम्र से पिछले साल तक - ब्वाॅय स्काउट, स्वयंसेवक, राजनीतिक कार्यकर्ता अथवा रिलीफ वर्कर की हैसियत से बाढ़-पीड़ित क्षेत्रों में काम करता रहा हूँ।“ यही कारण है कि बाढ़ का उनका अनुभव व्यापक है। इसी अध्याय में वे बाढ़ के कई दिलचस्प अनुभवों का भी स्मरण करते हैं और उनका वृतांत प्रस्तुत करते हैं। आगे वे बाढ़ पर लिखे अपने रिपोर्ताजों को याद करते हैं - “और लिखने की बात ? हाई स्कूल में बाढ़ पर लेख लिखकर प्रथम पुरस्कार पाने से लेकर - ‘धर्मयुग’ में ‘कथादशक’ के अन्तर्गत बाढ़ की पुरानी कहानी को नए पाठ के साथ प्रस्तुत कर चुका हूँ। ‘जय गंगा (1947), डायन कोशी (48), हड्डियों का पुल (48) आदि छुटपुट रिपोर्ताजों के अलावा मेरे कई उपन्यासों में बाढ़ की विनाश-लीलाओं के अनेक चित्र अंकित हुए हैं। किन्तु, गाँव में रहते हुए बाढ़ से घिरने, बहने, फँसने और भोगने का अनुभव कभी नहीं हुआ। वह तो पटना शहर में 1967 में ही हुआ, जब अठारह घंटे की अविराम वृष्टि के कारण पुनपुन का पानी राजेन्द्र नगर, कंकड़बाग तथा अन्य निचले हिस्सों में घुस आया था। अर्थात् बाढ़ को मैंने भोगा है, शहरी आदमी की हैसियत से। इसलिए इस बार जब बाढ़ का पानी प्रवेश करने लगा, पटना का पश्चिमी इलाका छातीभर पानी में डूब गया तो हम घर में ईंधन, आलू, मोमबत्ती, दियासलाई, सिगरेट, पीने का पानी और कांपोज की गोलियाँ जमाकर बैठ गए और प्रतीक्षा करने लगे।"

रेणु को बाढ़ का लम्बा अनुभव था किन्तु वे बाढ़ में घिरे पटना में। पहली बार, 1967 में कुछ दिनों के लिए और फिर 1975 ई॰ में। तब देश में इमर्जेंसी लगी हुई थी और उनकी मानसिकता पर इसका गहरा असर था, जिसका प्रच्छन्न प्रभाव इस रिपोर्ताज में व्यक्त हुआ है। उन्हें पेप्टिक अल्सर था और वे इसकी पीड़ा को लम्बे समय से झेल रहे थे। इसलिए इस बाढ़ के दौरान वे राहत-कार्य के लिए गतिशील नहीं हो सकते थे। बाढ़ के बारे में उन्हें जो सूचना मिली या जो कुछ देखा, सुना, भोगा उसकी रचनात्मक अभिव्यक्ति की। बाढ़ कम होने पर उन्होंने अपने बड़े बेटे पद्मपराग राय वेणु को 8.9.1975 को पत्र लिखा - “रेडियो तथा समाचार पत्रों से पटना का सारा समाचार मालूम ही होगा। एक सप्ताह तक हम लोग जीवन और मृत्यु के बीच झूलते रहे। भगवान की दया से ही हम लोग इस बार बच गये हैं। एक सप्ताह तक दिन-रात तुमलोगों की याद आती रही। कोई सहारा नहीं, कोई चारा नहीं कि तुम लोगों तक अपनी आखिरी संवाद भी दे सकें। अभी भी डाकतार ठीक से संभल नहीं पाया है। टेलीफोन तो अब तक काम नहीं कर रहा है। इस जल-प्रलय से ठीक एक दिन पहले चतुर्भुज के हाथ एक पत्र और दो सौ रुपये भेजा था, बस यही संतोष मन में होता था कि इस जल-प्रलय में शेष होने के पहले तुमको पत्र दे दिया था। .... समधी के प्रेस में कमर-भर पानी घुस गया था। डेरा के सामने छाती-भर पानी और नीचेवाले कमरे में घुटने भर पानी था। सात दिन तक हम लोग बाहर नहीं निकल सके। नीचे डुबान पानी था - पहले मंजिले के बरामदे और ऊपर वाली सीढ़ी पर आधे दूर तक पानी। अगर एक फुट भी पानी और बढ़ता तो यह मकान ढह जाता और हमलोग सब समाप्त हो जाते।"

तात्पर्य यह कि बाढ़ की इस विभीषिका को रेणु ने स्वयं झेला था, जिसमें यह दहशत भी थी कि कहीं जीवन-लीला ही समाप्त न हो जाए। बाढ़ का पानी धीरे-धीरे पटना शहर में घुस रहा है। लोगों की जुबान पर एक ही जिज्ञासा है कि पानी कहाँ तक आ गया है ? बाढ़ को देखकर लौटते हुए लोगों की बातचीत - फ्रेजर रोड पर आ          गया ! आ गया क्या, पार कर गया। श्रीकृृष्णपुरी, पाटलीपुत्र काॅलोनी, बोरिंग रोड, इंडस्ट्रियल एरिया का कहीं पता नहीं .... अब भट्टाचार्जी रोड पर पानी आ गया होगा। .... छाती भर पानी आ गया होगा। .... छाती भर पानी है। विमेंस काॅलिज के पास ‘डुबाव-पानी’ है। ... आ रहा है ! .... आ गया !! .... घुस गया ... डूब गया ... बह गया। रेणु अपने कवि-मित्र के साथ घूमने निकले थे। इस बीच एक अधेड़, मुस्टंड और गंवार जोर-जोर से बोले उठा - ईह ! जब दानापुर डूब रहा था तो पटनियाँ बाबू लोग उलट कर देखने भी नहीं गए ... अब बूझो ! रेणु ने अपने आचार्य कवि-मित्र से कहा - पहचान लीजिए। यही है वह है वह ‘आम आदमी’, जिसकी खोज हर साहित्यिक गोष्ठियों में होती रहती है। उसके वक्तव्य में ‘दानापुर’ के बदले ‘उत्तर बिहार’ अथवा कोई भी बाढ़ग्रस्त ग्रामीण क्षेत्र जोड़ दीजिए।
रेणु देखते हैं कि लोग  बाढ़ से आतंकित नहीं, बल्कि आज ज्यादा ही उत्साहित थे। वहाँ जो बातें उछाली जा रही थीं, उसे वे ध्यान से सुनते हैं - “एक बार डूब ही जाए ! ... धनुष्कोटि की तरह पटना लापता न हो जाए कहीं। .... सब पाप धुल जाएगा .... चलो, गोलघर के मुंडेरे पर ताश की गड्डी लेकर बैठ जाएँ .... बिस्कोमान बिल्डिंग की छत पर क्यों नहीं ? ... भई, यही माकूल मौका है। इनकम टैक्स वालों को ऐन इसी मौके पर काले कारोबारियों के घर पर छापा मारना चाहिए। ... "

यह है मौजूदा व्यवस्था पर आम आदमी की दो टूक टिप्पणी, जिसके मूल में आक्रोश है। यहाँ भीष्म साहनी के इस कथन की याद सहसा ही आती है। वे कहते हैं - “आज की विषमताओं का विकराल रूप किसी से छिपा नहीं है। जहाँ हरिजनों को जिन्दा जलाया जाये या नदी में जिन्दा डूबो दिया जाये, जहाँ लाखों-लाख बेरोजगार शहरों और कस्बों की सड़कों पर घूमें, जहाँ सूखा और बाढ़, हर साल किसी महामारी की तरह आयें, और उसके सामने बस्तियाँ और गाँव उजड़ते चले जायें, जहाँ काला धन इतना प्रबल हो उठे कि देश की सरकार भी उसके सामने खम खाये, और उधर, बड़े-बड़े शहरों में गगनचुम्बी भवन और इमारतें उठ रही हों, और सड़कों पर बढ़िया से बढ़िया कारें घूमती फिरे ...।"

रेणु आगे का वृतांत इस प्रकार प्रस्तुत करते हैं - “फुटपाथ पर खुली चाय की झुग्गी/दुकानों में सिगड़ियाँ सुलगी हुई थीं और बहुत रात तक मंडली बनाकर जोर-जोर से बातें करने का रोज का सिलसिला जारी था। बात के पहले या बाद में बगैर कोई गाली जोड़े यहाँ नहीं बोला जाता - गाँधी मैदान (सरवा) एकदम लबालब भर गया ... (अरे तेरी मतारी का) करंट में इतना जोर का फोर्स है कि (ससुरा) रिक्शा लगा कि उलटिये जाएगा .... गाँजा फुरा गया का हो रामसिंगार ? चल जाए एक चिलम ‘बालचरी-माल’ - फिर यह शहर (बेट्चः) डूबे या ऊबरे।

यह है आम आदमी की मानसिकता ! वह तनाव में नहीं रह सकता। पटना शहर डूब रहा है। धीरे-धीरे पटने के एक-एक मुहल्ले में पानी भरता जा रहा है। कुछ घंटों में पानी उस तक भी पहुँच जाएगा। किन्तु यह ‘आम आदमी’ निर्भय है, निद्र्वन्द्व है, बेलौस है। उसे कोई चिन्ता नहीं है। गांजे की एक चिलम चल जाए, फिर यह पटना शहर डूबे या बचे, कोई चिन्ता नहीं। किन्तु, आने वाले संकट को अपने ‘सिक्स्थ सेंस’ के कारण कुत्ते भांप लेते हैं और एक-दूसरे से सुर मिलाकर रोना शुरू कर देते हैं। करुण आत्र्तनाद की भयोत्पादक प्रतिध्वनियाँ सुनकर रेणु की काया सिहर उठती है। वे अपनी पत्नी से कहते हैं - याद है ! उस बार जब पुनपुन का पानी आया था तो सबसे अधिक इन कुत्तों की दुर्दशा हुई थी। रेणु की माननीय करुणा उन्हें मनुष्यों ही नहीं जीव-जन्तुओं के प्रति भी संवेदनशील बनाती है। वे 1949 ई॰ की बाढ़ की याद करते हैं - “उस बार महानंदा की बाढ़ से घिरे बापसी थाना के एक गाँव में हम पहुँचे। हमारी नाव पर रिलीफ के डाक्टर साहब थे। गाँव के कई बीमारों को नाव पर चढ़ाकर कैंप में ले जाता था। एक बीमार नौजवान के साथ उसका कुत्ता भी ‘कुँई-कुँई’ करता हुआ नाव पर चढ़ आया। डाॅक्टर साहब कुत्ते को देखकर ‘भीषण भयभीत’ हो गए और चिल्लाने लगे - आ रे ! कुकुर नहीं, कुकुर नहीं .... कुकुर को भगाओ ! बीमार नौजवान छप्-से पानी में उतर गया - हमारा कुकुर नहीं जाएगा तो हम हुँ नहीं जाएगा ! फिर कुत्ता भी छपाक् पानी में गिरा - हमारा आदमी नहीं जाएगा तो हम हुँ नहीं जाएगा।

यह है मनुष्य और कुत्ते का भावात्मक संबंध, जो सदियों से चला आ रहा है। रेणु जीवन के लघु प्रसंगों को मानवीय संस्पर्श में इस तरह पिरोते हैं कि वह अत्यंत मर्मस्पर्शी बन जाता है। दूसरे लेखक इस प्रकार के प्रसंगों को प्रायः अनदेखा कर जाते हैं, किन्तु रेणु इन्हीं गौण प्रसंगों से अपनी कथा को सजाते हैं और वह जीवंत कलाकृति बन जाती है। इतनी मार्मिक और विरल संवेदनशीलता, जो आज के कथा-साहित्य से प्रायः ओझल होता जा रहा है, रेणु की कथाकृतियों को अब भी जीवंत और प्रासंगिक बनाए हुए हैं। उनके कथा-रिपोर्ताज भी इससे वंचित नहीं हैं। वे सीमांत के आदमी के जीवन पर गहरी नजर रखते हैं और इतनी गरीबी, अभाव एवं संकटों से भरे हुए जीवन में पैठ कर उसके जिंदादिली एवं जिजीविषा को रेखांकित करते हैं। वे बाढ़ जैसे महाविनाश में घिरे हुए बेसहारा लोगों के साथ, जीव-जन्तुओं की भी खबर देते हैं। सड़क पर पलनेवाले कुत्तों की भी उन्हें चिन्ता सताती है।

रेणु की लोक-संस्कृति से गहरी सम्पृक्ति थी। इस लोक-संस्कृति के अनेक रंगों एवं रूप-छवियों की प्रस्तुति उनके कथा-साहित्य में मिलती है। उनके रिपोर्ताजों में भी जगह-जगह इसकी झलक मिलती है। नमूने के तौर पर यह प्रकरण देखें: “परमान नदी की बाढ़ में डूबे हुए एक ‘मुसहरी’ (मुसहरों की बस्ती) में हम राहत बाँटने गए। खबर मिली थी कि वे कई दिनों से मछली और चूहों को झुलसाकर खा रहे थे। किसी तरह जी रहे हैं। किंतु टोले के पास जब हम पहुँचे तो ढोलक और मंजीरा की आवाज सुनाई पड़ी। जाकर देखा, एक ऊँची जगह ‘मचान’ बनाकर स्टेज की तरह बनाया गया है। ‘बलवाही नाच’ हो रहा था। लाल साड़ी पहनकर काला-कलूटा ‘नटुआ’ दुलहिन का हाव-भाव दिखला रहा था; यानी वह ‘धानी’ है। ‘घरनी’ धानी घर छोड़कर मायके भागी जा रही है और उसका घरवाला (पुरुष) उसको मनाकर राह से लौटाने गया है। घरनी कहती है - ‘तुम्हारी बहन की जुबान बड़ी तेज है। दिन-रात खराब गाली बकती रहती है और तुम्हारी बुढ़िया माँ बात के पहले तमाचा मारती है। मैं तुम्हारे घर लौटकर नहीं जाती।’ तब घरवाला उससे कहता है, यानी गा-गाकर समझाता है - ‘चल गे धानी घर घुरी, बहिनिक दैबै टाँग तोड़ी ...धानी गे, बुढ़िया के करबै घर से बा-हा-र’ (ओ धानी, घर लौट चलो ! बहन के पैर तोड़ दूँगा और बुढ़िया को घर से बाहर निकाल दूँगा !) इस पद के साथ ही ढोलक पर द्रुत ताल बजने लगा - धागिड़गिड़-धागिड़गिड़, चकैके-चकधुम, चकैके-चकधुम !’ कीचड़-पानी में लथपथ भूखे-प्यासे नर-नारियों के झुण्ड में मुक्त खिलखिलाहट लहरें लेने लगती है। हम रिलीफ बाँटकर भी ऐसी हँसी उन्हें दे सकेंगे क्या !"

बाढ़ से घिरे हुए लोग, भूखे-प्यासे और लुटे-पिटे लोग हँसने-मुस्कुराने और जिन्दा रहने के लिए नाचते हैं, गाते हैं, नाट्य करते हैं। यही उन्हें मृत्यु के भयानक थपेड़ों से बचाता रहता है। इस तरह हम पाते हैं कि हाशिए के ये लोग अपने भय और दहशत को लोक-संस्कृति का सहारा लेकर अपने भीतर सुरक्षा का भाव पैदा करते हैं। वे गाँव के लोग हों या शहर के। ये लोग दीन-हीन-निर्धन हैं, पर लाचार नहीं। ये संकटों से घबराते नहीं, बल्कि उससे लड़ते हैं। मृत्यु-बोध, कुंठा, हताशा, निराशा, अकेलापन आदि का भाव उनमें नहीं पनपता।

रेणु ने बाढ़ के अनेक जीवंत स्मृतियों के अंकन किए हैं। कुछ सम्पन्न घरानों के लोग बाढ़ को मनोरंजन का विषय समझते हैं। वे उसका लुत्फ उठाते हैं। बाढ़ जहाँ लोगों को त्रासद स्थिति में डाल देती है, वहीं वह एक खास वर्ग के लिए मनोरंजन का विषय है। रेणु एक ऐसे ही दृश्य को अंकित करते हुए लिखते हैं - “1967 में जब पुनपुन का पानी राजेन्द्रनगर में घुस आया था, एक नाव पर कुछ सजे-धजे युवक और युवतियों की टोली - किसी फिल्म में देखे हुए कश्मीर का आनंद घर-बैठे लेने के लिए निकली थी। नाव पर स्टोव जल रहा था - केतली चढ़ी हुई थी, बिस्कुट के डिब्बे खुले हुए थे, एक लड़की प्याली में चम्मच डालकर एक अनोखी अदा से नैस्कैफे के पाउडर को मथ रही थी - ‘एस्प्रेसो’ बना रही थी, शायद। दूसरी लड़की बहुत मनोयोग से कोई सचित्र और रंगीन पत्रिका पढ़ रही थी। एक युवक दोनों पाँवों को फैलाकर बाँस की लग्गी से नाव खे रहा था। दूसरा युवक पत्रिका पढ़ने वाली लड़की के सामने, अपने घुटने पर कोहनी टेककर कोई मनमोहक ‘डायलाॅग’ बोल रहा था। पूरे वाॅल्युम में बजते हुए ‘ट्रांजिस्टर’ पर गाना आ रहा था - ‘हवा में उड़ता जाए, मोरा लाल दुपट्टा मलमल का, हो जी हो जी !’ हमारे ब्लाॅक के पास गोलंबर नाव पहुँची ही थी कि अचानक चारों ब्लाॅक की छतों पर खड़े लड़कों ने एक ही साथ किलकारियों, सीटियों, फब्तियों की वर्षा कर दी और इस गोलंबर में किसी भी आवाज की प्रतिध्वनि मँडरा-मँडराकर गूँजती है। सो सब मिलाकर स्वयं ही जो ध्वनि-संयोजन हुआ उसे बड़े-से-बड़ा गुणी संगीत-निर्देशक बहुत कोशिश के बावजूद नहीं कर पाते। उन फूहड़ युवकों की सारी ‘एक्जिबिशनिज्म’ तुरत छू-मंतर हो गई और युवतियों के रँगे लाल-लाल ओंठ और गाल काले पड़ गए। नाव पर अकेला ट्रांजिस्टर था जो पूरे दम के साथ - नैया तोरी मँझधार, होश्यार, होश्यार !"

अब इस दृश्य की तुलना ‘बलवाही नाच’ वाले दृश्य से कीजिए। बिल्कुल विषम दृश्यों को एक-दूसरे के बगल में रखकर रेणु जीवन की विषमता का दिग्दर्शन कराते हैं। इसीलिए उनके रिपोर्ताजों में एकरसता नहीं है। रामचन्द्र शुक्ल ने ‘विरुद्धों का सामंजस्य’ का जो सिद्धांत रचा था, वह हिन्दी कथा-साहित्य में सबसे अधिक रेणु में ही दिखलाई पड़ता है। यही वह तत्त्व है, जिसके कारण उनकी रचनाएँ अर्थगर्भी एवं सरस बन पड़ी है। मध्यरात्रि में भी वे जगे हुए हैं और बाहर की गूँजती ध्वनियों को सुनते रहते हैं। रह-रह कर एक प्रश्न ऊँची आवाज में पूछा जाता है - का हो रामसिगार, पनिया आ रहलौ है ? फिर इसका उत्तर - ऊँहूँ, न आ रहलौ है। चारों ब्लाॅकों के प्रायः सभी फ्लैटों की रोशनी जल रही है, बूझ रही है। सभी जगे हुए हैं। कुत्ते रह-रहकर सामूहिक रुदन शुरू करते हैं और उन्हें रामसिंगार की मंडली डांटकर चुप करा देती है।

रेणु को सहसा अपने उन मित्रों और स्वजनों की याद आई जो कल से ही पाटलीपुत्र काॅलोनी, श्रीकृष्णपुरी, बोरिंग रोड के अथाह जल में घिरे हैं .... जितेन्द्रजी, विनीता जी, बाबू भैया, इंदिरा जी, पता नहीं कैसे हैं - किस हाल में हैं। टेलिफोन डेड है। अपने कमरे के एकान्त में जगे हुए, करवट बदलते हुए उनके मन में इच्छा होती है कि कुछ लिखना चाहिए। फिर उनके मन में प्रश्न उठता है - लेकिन क्या लिखना चाहिए ? फिर उन्हें लगता है कि कुछ भी लिखना संभव नहीं और क्या जरूरी है कि कुछ लिखा ही जाए ? फिर वे स्मृतियों को जगाते हैं और पिछले साल अगस्त में नरपतगंज थाना के चकरदाहा गाँव के पास छाती-भर पानी में खड़ी एक आसन्नप्रसवा महिला को याद करते हैं जो उनकी ओर गाय की तरह टुकुर-टुकुर देख रही थी। फिर वे अपनी स्मृतियों को याद करना छोड़कर, आँख मूँदकर सफेद भेड़ों के झुंड को देखने की कोशिश करते हैं - उजले-उजले सफेद भेंड़ ... सफेद भेड़ों के झुंड ! फिर उजले भेंड़ अचानक काले हो गए। वे बार-बार आँखें खोलते हैं, फिर मूँदते हैं। काले को उजला करना चाहते हैं। किन्तु, भेड़ों के झुंड भूरे हो जाते हैं।

रेणु के मन में मंथन हो रहा है। मन का रंग लगातार बदल रहा है। चित्त अस्थिर है, अशांत है। वे शारीरिक और मानसिक - दोनों तरह की यंत्रणा से घिरे हुए हैं। ऐसे में अकेलापन, बेचैनी और उद्विग्नता उनको मथ रही है। बाहरी और भीतरी द्वन्द्व का उन्होंने अपने रिपोर्ताज में बेहद बारीकी और कारीगरी से चित्रण किया है - “दोनों ओर से तेज धारा गुजर रही है। पानी चक्राकार नाच रहा है, अर्थात् दोनों ओर गड्ढे गहरे हो रहे हैं। ..... बेबस कुत्तों का सामूहिक रुदन, बहते हुए सूअर के बच्चों की चिचियाहट, कोलाहल- कलरव-कोहराम ! ..... हो रामसिंगार, रिक्शवा बहलौ हो।  धर-धर-धर !“ कितने कम शब्दों में बाढ़ का रेखाचित्र उन्होंने प्रस्तुत कर दिया है। यह दृश्य उन्होंने छत पर खड़े होकर देखा, फिर थर-थर काँपते हुए छत से उतर कर फ्लैट में आए और ठाकुर रामकृष्ण परमहंस की तस्वीर के पास आकर बैठ गए तथा प्रार्थना करने लगे - ठाकुर ! रक्षा करो ! बचाओ इस शहर को ... इस जलप्रलय में ....। बात पूरी भी नहीं हुई कि मानों रामकृष्ण परमहंस उन्हें डाँटते हुए बोले - “अरे दुर साला ! काँदछिस केन ? .... रोता क्यों है ! बाहर देख ! साले ! तुम लोग थोड़ी-सी मस्ती में जब चाहो तब राह-चलते ‘कमर दुलिए-दुलिए (कमर लचकाकर, कूल्हे मटकाकर) ट्वीस्ट नाच सकते हो। रंबा-संबा-हीरा-टीरा और उलंग नृत्य कर सकते हो और बृहत सर्वग्रासी महामत्ता रहस्यमयी प्रकृति कभी नहीं नाचेगी ? ..... ए-बार नाच देख ! भयंकरी नाच रही है - ता-ता थेई-थेई, ता-ता थेई-थेई ! तीव्रा तीव्रवेगा शिवनर्तकी गीतप्रिया वाद्यरता प्रेतनृत्यपरायणा नाच रही है। जा, तू भी नाच !“ रेणु अगरबती जलाकर, शंख फूँकते हैं - नाचो माँ ! .... उलंगिनी नाचे रणरंगे, आमरा नृत्य करि संगे। ता-ता थेई-थेई, ता-ता थेई-थेई ..... मदमत्ता मातंगिनी उलंगिनी - जी भर कर  नाचो !“
यह है प्रकृति का विनाशकारी, प्रलयंकर शक्ति-स्वरूप, जिस पर मनुष्य का कोई वश नहीं। पटना शहर में सड़कों पर अब रिक्शा, साइकिल, स्कूटर, कार नहीं, नौका चल रही हैं। कुछ मनमौजी लड़के सड़क पर पानी में नहा रहे है। बाढ़ के तमाशबीन मकानों की छतों, खिड़कियों और बालकनी से बाढ़ का नजारा ले रहे हैं। ऐसे में एक जीपवाला फँस गया। ‘टाॅप गियर’ पर गुर्राती हुई आवाज अचानक बंद हो गई। इसके बाद ‘सेल्फ’ को चालू करने की चेष्टा में कुछ देर ‘खचचचच .... खचचचच ....’ फिर निस्तब्ध ! निश्चय ही ‘गियर बाॅक्स’ में पानी भर गया होगा। जीप के फँस जाने पर, आसपास ‘जल-विहार करने वालों और जल-उत्सव देखने वालों को बड़ी खुशी हुई। जीप के बेबस होते ही एक सम्मिलित हँसी की लहर चारों ओर फैल गई। रेणु को याद आता है कि जब इसी तरह पुनपुन की बाढ़ में वे फँस गए थे तो देखनेवालों का पहला जत्था हँसते-हँसते लोटपोट हो गया था। उनकी ओर देखकर ताने देता हुआ एक छोकरा जोर-जोर से बोला था - “अच्छा ! हा-हा-हा-हा .... घर में गैस का सलींडर, पाँच मिनट मे ही खाना बनाने वाला कूकर, दिन-रात चलता रेडियोग्राम, पलंग के पास टेलिफोन और ठंडा पानी का फ्रीज ! अब बोलो - बच्चू ! कहाँ सटक गई सारी नवाबी? एँ ? ही-ही-ही-ही !“ फिर रेणु देखते हैं - जीप से उतरकर कई लोग पीछे से गाड़ी को धकेलने लगे तो नहानेवाले लड़कों की टोली मदद करने आ गई - अरे साहब ! आगे धकेलकर कहाँ ले जाएगा ? पीछे की ओर ठेलकर वापस कीजिए। कुछ लड़के सामने से धकेलने लगे - मार जवानो - हइयो ! कुछ पीछे से ठेलते रहे - मार जवानों हइवो ! गाड़ी एक गड्ढे से निकलकर दूसरे में फँस गई। फिर लड़के खुश होकर नहाने लगे।

इन आवारा लड़कों की चुहलबाजियाँ और मनमौजीपन रेणु को बेहद दिलचस्प लगती है। उन्हें डर लगता है कि बाढ़ के गंदले पानी में नहाने से इन्हें कहीं फ्लू, सर्दी, बुखार, टायफायड आदि के अलावा पानी में बहते जहरीले साँपों से भी खतरा हो सकता है। किन्तु, ये लड़के बेफिक्र होकर जल-किल्लोल करते हैं और तरह-तरह के करतब कर एक नाटकीय माहौल का सृजन करते हैं। वे गौर से इन लड़कों की एक-एक गतिविधि पर नजर गड़ाए हुए हैं। एक नीमजवान ‘नवसिखुआ’ कैमरावाला लड़का कमर भर पानी में खड़े होकर तस्वीरें ले रहा है। नहानेवाले लड़के उसके सामने जाकर मुँह चिढ़ा रहे हैं। एक लड़का गले तक पानी में डूबकर अद्भुत आवाज में डूबती हुई लड़की का अभिनय करते हुए पुकारा - ब-चा-ओ ! .... बचाओ ! मैं डूबी जा रही हूँ। .... लोग कैमरे वाले पर बिगड़ रहे हैं - यहाँ लोग कल से घिरे हैं। न कहीं नाव, न रिलीफ और ये फोटो लेने वाले सिर्फ तस्वीरें ले रहे हैं ? इसी को कहते हैं कि किसी का घर जले और कोई मौज से तापे ... मत खींचने दो किसी फोटोवाले को कोई भी फोटो .... इनको पैसा कमाने का यही मौका मिला है ? नहाने वाले लड़कों ने वहाँ पहुँचकर पानी उलीचना - छींटना शुरू कर दिया। एक लड़का ड्रम पर चढ़ गया और अपने पैंट के अग्रभाग के एक विशेष स्थान की ओर संकेत करके बोला - इसका फोटो लो ...। कुछ लोग हँसे। कुछ ने मुँह फेर लिया और कई लोग एक साथ - अरे -रे-रे-रे हरमजदवा ... कहकर चुप हो गए। रेणु को जिंदादिली भरे इन नजारों में रस मिलता है। वे लिखते हैं - “फोटो लेने वाला लड़का ‘डिमोरलाइज्ड’ होकर कैमरा समेटकर चला गया ... मेरा कोई मित्र होता या मैं खुद होता तो इस ‘पोज’ को कभी ‘मिस’ नहीं करता। .... लेकिन कैमरावालों के प्रति लोगों का अचानक यह आक्रोश            क्यों ? यह तो अच्छी बात नहीं।“
रेणु को यह अच्छा नहीं लगता। क्यों ? क्योंकि उनके कई मित्र फोटोग्राफर हैं और इस क्षेत्र में उनका महत्त्वपूर्ण योगदान है। वे अपने इन मित्रों के नाम लेकर याद करते हैं। वे छत पर जाकर अपने ब्लाॅक के लड़कों को समझाते हैं कि किसी फोटो लेने वाले को ‘हूट’ न किया जाए। वे तुरत मान गए और कहा कि हम नीचे जाकर इन लड़कों को समझा देते हैं। बाढ़ में बहती हुई और तेज दुर्गन्ध छोड़ती हुई एक गाय की लाश आती है। फिर कुछ समय बाद एक कुत्ते की लाश ! रेणु दूर से, किन्त गौर से उसे देखते हैं - “यह अलसेसियन कुत्ता है। दोनों कान शान से खड़े हैं ? रौब में कहीं कोई कमी नहीं। कान से पूँछ तक इसकी मुद्रा और तेवर देखकर ही समझ लेता हूँ - इसने बहादुरी से मौत को वरण किया है। मौत की छाया पर झपट्टे मार कर लड़ता हुआ मरा है। .... बाढ़ पीड़ित ग्रामीण क्षेत्रों में पशुओं की - गाय, बैल, घोड़े, बकरी आदि की लाशें बहुत बार देख चुका हूँ .... अलसेसियन कुत्ते की लाश, शहर की बाढ़ का प्रतीक, पहली बार देख रहा हूँ।"

रेणु की दृष्टि में मनुष्य ही नहीं, पशु-पक्षी पर भी यह प्राकृतिक प्रकोप किस तरह पड़ता है, यह तथ्य ओझल नहीं होता। यही समग्र मानवीय दृष्टि है। वे समाज को वैज्ञानिक ढंग से विश्लेषित करते हैं किन्तु रचनात्मकता को आँच नहीं आने देते। वे मनुष्य की अच्छाइयों के साथ-साथ उसकी कमजोरियों का भी चित्रण करते हैं। ‘मानुष बने रहो’ नामक अध्याय में इस बाढ़ की हालत में भी मध्यवर्गीय क्षुद्र मानसिकता, उसकी ‘हिप्पोकेसी’ को उधेड़ कर रख देते हैं। समाचारपत्रों में छपा है कि दिल्ली में इतने हजार किलो माडर्न रोटी आ रही है। दिल्ली वालों के दैनिक राशन में रोटी की कटौती: विदेश से ‘केक’ और ‘चीज़’ भी: आगरे के पेठे: कलकत्ते से भी रोटियाँ: प्राणरक्षक दवाइयाँ और कपड़े। रेणु बताते हैं कि छत पर एक भाई साहब उत्तेजित, असंतुष्ट और क्रुद्ध थे। सम्भव है उन्होंने सुबह अखबार पहले पढ़ लिया हो और उनकी छत पर हेलिकाॅप्टर ने जो पाँच पैकेट गिराये थे उनमें से तीन भाई साहब तथा उनके परिवार के लोगों को मिले थे, जिनमें बस चिनुरा, भूने चने, पाॅप काॅर्न और दालमोठ थे। इस पर “भाई साहब के मुँह से, घुले हुए पान की जाफरानी पीक की गुड़-गुड़ाहट के साथ लानत-भरी आवाज निकली - क्या तमाशा है ! फिर, पीक थूककर चालू हो गए - ऐज इफ वी वार लेबरर ... तमाशा है .... दिल्ली का ‘ब्रेड’ कहाँ है ? बतलाइए। बटर केक, चीज कुछ भी नहीं, सिर्फ चूड़ा, चना, फरही ? ...... बोरिंग रोड, कृष्णापुरी या पाटलीपुत्र कोलोनी की बात छोड़िए ... यहीं, अभी राजेन्द्र नगर में ही कंट्राक्टर, फलाने प्रसाद सिंह के एरिया में जो पैकेट गिराये गये हैं, सब में ‘ए-वन’ चीजें - मतलब, ब्रेड - बटर - चीज सब कुछ और हमलोगों की छत पर सिर्फ ये ‘राॅटर्न’ चबेने ? बोलिए, इसका क्या जवाब है ? एँ ? ... खुद, सरकारी रेडियो बोलता है कि राजेन्द्रनगर इज़ ए पाॅश एरिया - आलीशान इलाका है राजेन्द्र नगर और वहा गिराई जाती हैं .... दिस इज शीयर पार्सियालिटी ... नहीं तो और क्या .... अरे साहब, खा गया - खा गया - सब खा गया।“
यह है मध्यवर्गीय मानसिकता, जिसे रेणु अंग्रेजी मिश्रित भाषा के द्वारा अभिव्यक्त करते हैं। इस अभिवयक्ति में व्यंग्य की छौंक भी है। ‘विट’ और हास्य-व्यंग्य उनकी रचनात्मकता को जीवंत बनाता है। वे लोकमत, लोकरुचि को कहीं भी नजरअन्दाज नहीं करते। उदाहरण के रूप में निम्न प्रसंग को देखें: पटना रेडियो स्टेशन पर बाढ़ के कारण प्रसारण बन्द हो गया था, किन्तु फतुआ-ट्रांसमिशन सेंटर से प्रोग्राम प्रसारित किया जा रहा था। आवाज किसी पेशेवर ‘अनाउंसर’ की नहीं। सीधे और सपाट ढंग से वह बीच-बीच में सूचना देता है कि छज्जूबाग के मुख्य स्टुडियो में पानी आ जाने के कारण फतुहा से प्रोग्राम हो रहा है। .... अब आप पूरे समाचार सुनिए। पटना की बाढ़ की स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ है। पिछले अठारह घंटे से पटना का सम्पर्क देश के शेष भागों से कटा हुआ है। दूरसंचार के सभी साधन भंग हो गए हैं, गाड़ियों का आना-जाना बंद है क्योंकि पटना जंकशन रेलवे स्टेशन की रेल की पटरियाँ पानी में डूब गई हैं। आज एयर इंडिया का विमान पटना हवाई अड्डे पर नहीं उतर सका। ... अब आप फिल्मी गीत सुनिए ... हम तुम एक कमरे में बंद हों और चाबी खो जाए ...। अनाउंसर पेशेवर नहीं है। लेकिन रिकाॅर्ड उसने चुनकर लगाया है।"

रेणु ने इस रिपोर्ताज में समाज के विभिन्न वर्ग, सम्प्रदाय के लोगों के जीवन के अनेक प्रसंग, संदर्भ और छवियों को रूपायित किया है। इसमें साधारण मनुष्य, पशु-पक्षी, आवारागर्द लड़के, बाढ़ में घिरे हुए लोग और बाढ़ के तमाशबीन, लेखक, पत्रकार, फोटोग्राफर, अनेक मित्र-परिजन के साथ-साथ अपनी छवि को भी रूपायित किया है। इसी कारण बाढ़ पर लिखा उनका यह रिपोर्ताज जीवंत, सार्थक और पठनीय है। इतने तरह के जीवन-प्रसंग इस रचना में गुंथे हुए हैं कि वे अपनी रचनात्मक अर्थ-गर्भिता के कारण पैबस्त की तरह नहीं लगते।

यह ज्ञातव्य है कि रेणु जब 1975 ई॰ में यह रिपोर्ताज लिख रहे थे, तब वे पेट के अल्सर के कारण बहुत पीड़ित थे। दूसरी ओर इमर्जेंसी के कारण उनकी पीड़ित या यंत्रणाप्रद मनःस्थिति थी। प्रकृति के इस प्रकोप ने उन्हें और भी आक्रांत कर दिया था। वे लिखत हैं: “ ... कल रात को भयावने बादलों को देखकर मुँह से सहसा निकला था और मैंने सिगरेट की डब्बी पर लिख दिया था - ‘तुम्हीं क्यों बाकी रहोगे आस्माँ ! कहर बरसाकर शहर पर देख लो।’ .... कहर ‘बरसा’ कर या ‘बरपा’ कर ? नहीं, बरसाकर ही ठीक है ! ... किन्तु मुझे संदेह है कि ये पंक्तियाँ मेरी नहीं किसी और शायर की है ... दुष्यंत को लिखकर पूछूँ ? बहुत देर तक दुष्यंत की एक गजल की कई पंक्तियों को मन-ही-मन दुहराया। फिर शमशेर के शेर की इन दो पंक्तियों को तरन्नुम के साथ गुनगुनाता रहा - जहाँ में अब तो जितने रोज अपना जीना होना है। तुम्हारी चोटें होनी है, हमारा सीना होना है। जहाँ में अब तो जितने रोज ..."

यह रेणु का अन्तद्र्वन्द्व है। व्यथित एवं भावाकुल हृदय है। इस रिपोर्ताज का अंत यौनाचार्य नामक एक साहित्यिक बंधु के प्रसंग से होता है, जिनके अनुसार इस बाढ़ में आदमी तो क्या मछलियाँ भी ‘सेक्सी’ हो गई थीं ....। रेणु को लगा कि अब यौनाचार्य ‘काम’ से गए। बाद में उन्होंने सुना कि उनकी अवस्था संगीन है - सिर चकराता है ओर सिर के अदर ‘वैकुअम’ जैसा लगता है। आँखों के आगे सरसों के फूल नजर आते हैं। .... फिर रेणु पटना शहर पर टिप्पणी करते हैं - “यों, पटना शहर भी बीमार ही है। इसके एक बाँह में हैजे की सूई का और दूसरी में टायफायड के टीके का घाव हो गया है। पेट में ‘टेप’ करके जलोदर का पानी निकाला जा रहा है। आँखें जो कंजक्टिवाइटिस (जोय बांग्ला) से लाल हुई थी - तरह-तरह की नकली दवाओं के प्रयोग के कारण क्षीणज्योति हो गई है। कान तो एकदम चैपट ही समझिए - हियरिंग एड से भी कोई फायदा नहीं। बस, ‘आइरन लंग्स’ अर्थात् रिलीफ की साँस के भरोसे अस्पताल के बेड पर पड़ा हुआ किसी तरह ‘हुक-हुक’ कर जी रहा है। ऊँ सर्वविघ्नानुत्सारय हुँ फट् स्वाहा ....."

पटना शहर ही नहीं, स्वयं रेणु की स्थिति भी कुछ समय बाद ऐसी ही हुई। और, हर आदमी इस तरह की त्रासदी का शिकार कभी-न-कभी होता ही है। किन्तु, रेणु ने अपनी इस अंतिम रचना में कथात्मकता, नाटकीयता और काव्यात्मकता के द्वारा जीते-जागते समाज का जो गतिशील चित्र उपस्थित किया है, उसका साहित्यिक महत्त्व तो है ही, समाज-वैज्ञानिक महत्ता भी है और जीवन में इतनी विषमता जब तक रहेगी, बदहाली और पस्ती का आलम जब तक रहेगा, उसकी प्रासंगिकता बनी रहेगी।

‘भूमिदर्शन की भूमिका’ 1966 ई॰ में मध्य बिहार में पड़े अकाल का मार्मिक कथात्मक दस्तावेज है। 1975 ई॰ में रेणु पटना की बाढ़ में स्वयं घिरे हुए थे, किन्तु 1966 ई॰ में सूखाग्रस्त क्षेत्रों के लोगों तक वे यायावर अज्ञेय के साथ पहुँचते हैं। सूखे से सम्बन्धित यह रिपोर्ताज भी रेणु के आत्मीय संस्पर्श से स्पंदित है। सूखा क्षेत्र में भूख से लड़ते हुए ग्रामीण लोगों के बीच रेणु की मानवीय दृष्टि, सहृदयता और सहानुभूति बार-बार उभरती है और इन लोगों की पीड़ा को इस तन्मयता और गहराई से वे पहचान कर अभिव्यक्त करते हैं कि मानों स्वयं उसी के अंग हों। इस रिपोर्ताज में भी कथात्मकता, नाटकीयता और काव्यात्मकता का अद्भुत सम्मिश्रण मिलता है और इन तत्त्वों की छवियों से दृश्यों और घटनाओं के यथार्थ-विधान को जोड़ कर उसे अधिक संश्लिष्ट रूप में तो उभारता ही है, साथ ही उनसे उत्पन्न संवेदनाओं को भी गहराता है। ज्ञातव्य है कि आत्मीय संस्पर्श देने की प्रक्रिया में लेखक स्मृतियों के माध्यम से बार-बार कुछ मार्मिक अतीत-संदर्भों से जुड़ जाता है। ये संदर्भ वर्तमान के यथार्थ से कहीं टकराकर, कहीं जुड़कर उसके प्रभाव को अधिक घनीभूत करते हैं। बाढ़ वाले रिपोर्ताज में ऐसे सन्दर्भ अनेक बार आए हैं। इन सन्दर्भों का किसी विशेष परिस्थिति में घिरे हुए आदमी के मन में कौंधना बड़ा स्वाभाविक होता है। बाढ़ में घिरा हुआ आदमी कहीं बाहर जा नहीं सकता है, इसलिए बैठा-बैठा अतीत की स्मृतियों में बार-बार खो जाता है, किन्तु एक रचनाकार केवल उस स्वाभाविकता का ही निर्वाह नहीं करता, बल्कि वह उसे एक रचनात्मक रूप भी देता है अर्थात् उससे कोई ऐसा प्रभाव रचता है जो वर्तमान के प्रभाव से जुड़कर उसे अधिक सघन करता है। लेखक की वैयक्तिकता उसकी मूल्य-दृष्टि में भी देखी जा सकती है। मूल्य-दृष्टि वैयक्तिक नहीं होती, सामाजिक होती है, किन्तु उसे धारण करने वाला व्यक्ति ही होता है। एक ही समय में, एक ही परिस्थिति में कोई व्यक्ति मूल्य-दृष्टि सम्पन्न होता है, कोई उस दृष्टि का निषेध करता है। रेणु के लेखन में शुरू से ही मूल्य-दृष्टि रही है। विषम से विषम परिस्थिति में वह मूल्य का प्रकाश कहीं-न-कहीं से पा लेता है। देश और समाज की स्थितियाँ निरन्तर क्रूर बनती गईं और लेखक की मूल्य-दृष्टि को यह क्रूरता आहत करती गई, किन्तु लेखक का कुछ निजी संस्कार ऐसा रहा है कि वह मूल्य-दृष्टि को सर्वथा छोड़ नहीं सका। किन्तु मूल्यों के टूटने और उसे धारण किए रहने का तीखा द्वन्द्व उसके परिवर्ती लेखन में दिखाई पड़ता है।"

‘भूमिदर्शन की भूमिका’ का प्रारम्भ इस प्रकार किया गया है - “पिछले कई वर्षों से सैकड़ों शब्द, नाम, देश, समस्याएँ और समाचार मेरे लिए बेमानी हो रहे हैं, होते जा रहे हैं, उनमें - डेमोक्रेसी, चाइना, चुनाव, रेल-दुर्घटना, खाद्यान्न, भ्रष्टाचार, जनता, सत्यमेवजयते, कफ्र्यू, फायरिंग, बाढ़-फ्लड, दहाड़, सूखा-जरी-सुखाड़ जैसे नित्य के समाचारों में इस्तेमाल होने वाले शब्द भी हैं जिनके बिना आजकल किसी का काम नहीं चल सकता।“ शब्द अपने अर्थ खोते जा रहे हैं, क्यों ? क्योंकि ये सिर्फ समाचारों में प्रयुक्त होते हैं। इनकी अर्थवत्ता का लोप दरअसल इनसे भारतीय शासकवर्ग के सरोकारों का न होना है। इसलिए ये समस्याएँ आज भी मुँह-बाये खड़ी है। यह एक संकट है। यह लेखक की एक खास प्रकार की मानसिकता का भी घोतक है, जो उसके टूटते-बिखरते सपनों को भी दर्शाता है। अपनी ‘तब शुभनामें’ कहानी की शुरुआत में भी रेणु ऐसी ही बातें करते हैं - “एक-एक कर बहुत सारे शब्दों को ‘नकारता’ जा रहा हूँ, ‘नकार’ दिया है। नेति-नेति ! माता, मातृभूमि, जन्म-भूमि, देश, राष्ट्र, देशभक्ति - जैसे चालू शब्दों की अब मुझे जरूरत नहीं होती। माँ की ‘ममता’ और मातृभूमि पर मर-मिटने के संवाद और गीतों की बातें अब सिर्फ बम्बई और मद्रास के फिल्म प्रोड्यूसर ही करते हैं। गाँव-समाज से नेह-छोह तोड़े दो दशक हो गए। अब कभी अपने गाँव की याद नहीं आती। गाँव के ‘चैपाल’ और ‘गोहाल’ और ‘अलाव’ के किस्से भूल चुका हूँ। कोसी-कछार की हवा मुझे समय-असमय निमंत्रण नहीं देती और न दूर किसी गाँव के ताड़ या खजूर या नारियल के पेड़ ही इशारों से मुझे बुलाते हैं।"

लेखक जिन शब्दों को नकारता जा रहा है, वही ज्यादा महत्त्वपूर्ण और जरूरी हैं। दरअसल, इन्हीं शब्दों के प्रति उसका सघन लगाव रहा है। स्वाधीनता-संघर्ष में इन्हीं शब्दों को उसने अपनी आत्मा में बसाया था और उसके लिए संघर्ष किया था। किन्तु, आजादी के बाद ये शब्द अपनी संवेदनशीलता खोते गए। देशभक्ति समाज में न होकर, लोगों के हृदय में न होकर मात्र एक शब्द बनकर रह गया। देश में यह पतनशीलता का दौर था। 1967 ई॰ धूमिल ने एक कविता लिखी थी - ‘बीस साल बाद’, जिसमें आजादी के प्रति मोहभंग को दर्शाने वाली उसकी निम्न पंक्तियों की याद यहाँ बरबस आती है - “हवा से फड़फड़ाते हुए हिन्दुस्तान के नक्शे पर गाय ने गोबर कर दिया है।" इसी कविता में आगे वे लिखते हैं -

क्या आजादी सिर्फ तीन थके हुए रंगों का नाम है
जिन्हें एक पहिया ढोता है
या इसका कोई खास मतलब होता है।

तात्पर्य यह कि शब्दों का अर्थहीन हो जाना हमारे राष्ट्रीय एवं सामाजिक सरोकारों का लुप्त हो जाना है। दूसरे शब्दों में कहें, हमारा संवेदनहीन हो जाना है। रेणु बताते हैं कि इसी कारण जब ‘हथिया-नच्छत्तर’ नहीं ‘फरा’ और भयानक सूखे की आशंकाओं और संभावनाओंभरी खबरें प्रकाशित होने लगीं तो ‘फ्लड-बाढ़-दहाड़’ की तरह ‘ड्राउट’ सूखा-सुखाड़-भूखमरी भी मेरे लिए धीरे-धीरे बेमतलब हो गए। इसी कारण, कलकत्ते के एक प्रसिद्ध दैनिक का विशेष संवाददाता - जिसको विशेष रूप से ‘ड्राउट’ देखने के लिए भेजा गया था - रेणु की बातें सुनकर हतप्रभ हो गया - हुँ ! ड्राउट देखने आए हैं मानो छतरपुर - सोनपुर का मेला देखने आए हैं ! उसके जाने के बाद रेणु को अपने ‘लेखक’ पर अचरज मिली दया आ गई। वे सोचते हैं कि उनका ‘लेखक’ जो इस तरह से कुंठित और पतित हो गया है कि हर अहम सवाल और समस्या पर मुँह बिचकाकर एक ही बात कहता है कि सब झूठ है। बकवास है। आॅल फ्राड। स्टंट ! आइने में अपनी काया की छाया से वे पूछते हैं - तुमने कभी कोसी-कवलित जनों, अकाल-पीड़ितों और शरणार्थियों के दुख-दर्द को भोगकर जीती-जागती छवियाँ आँकी थीं ? क्या हो गया तुझे जो इस तरह ‘बोतल प्रसाद’ हो गया तू ?

रेणु इस तरह आत्मालोचन करते हैं, अपने-आप से ही जूझते हैं। वे देखते हैं कि समाज का एक वर्ग सूखा जैसे मानवीय त्रासदी की भी तिजारत करता है और इन आपदाओं का अपने स्वार्थ में उपयोग करता है। केन्द्र से लेकर राज्य तक के ‘अन्नदाता’ ड्राउट देखने आ रहे हैं। बिहार के दक्षिणी हिस्से में, पलामू और हजारीबाग की पहाड़ियों और जंगलों की धरती की छातियाँ दरकती जाती हैं, पानी पाताल की ओर खिसकता जा रहा है, आदमी भूख से ऐंठ-ऐंठकर मरने लगते हैं। जबकि अकाल के नाम पर बाहर से आए लोगों के कारण पटना के होटलों में कमरा मिलना मुश्किल है। तंदूरी चिकन के आर्डर पर आर्डर दिए जा रहे हैं। रेणु को लगता है कि हमारा देश शव-साधक हो गया है। रेणु भी अपने-आप में सिमटे हुए हैं। किन्तु, ‘दिनमान’ के सम्पादक अज्ञेय पटना पहुँचते हैं और रेणु को अकालग्रस्त क्षेत्रों में ले जाना चाहते हैं। रेणु अज्ञेय को टाल नहीं सकते, क्योंकि अज्ञेय सिर्फ ‘दिनमान’ के संपादक ही नहीं हैं - एक पुराने क्रांतिकारी, कवि-उपन्यासकार और चिंतक हैं। वे अज्ञेय ही नहीं यायावर भी हैं जो सूखी धरती पर भूख से तिलमिलाकर मृत्यु से साक्षात्कार करने वालों से साक्षात्कार करने के लिए आये हैं। रेणु अज्ञेय के विषय में बताते हैं: “अज्ञेय प्रसिद्ध मितभाषी हैं। किन्तु मुझे हमेशा यही लगा है कि उनका मौन ज्यादा मुखर होता है। उन्होंने मुझसे कोई सवाल किए बिना - चुप रहकर ही - पूछना शुरू कर दिया - आप सूखा क्षेत्र में हो आए हैं ? क्यों नहीं ? लेखक क्या समाज से बाहर का प्राणी है ?        क्यों ? ऐसी उदासीनता क्यों ? तुम इस हद तक बीमार हो ? क्यों ? जवाब दो -        क्यों ?“
आगे, रेणु अज्ञेय की करुणा की चर्चा करते हैं - “अज्ञेय आज तक ‘बोधगया’ कभी नहीं गए, बोधि का दर्शन नहीं किया। फिर कहाँ पाई करुणा ? ... मैं भी बोधगया कभी नहीं गया, .... बोधगया के रास्ते के गाँव संकटग्रस्त हैं। बौद्धधर्म स्वीकार करता है कि दुख है और इतना ही पर्याप्त है कि हम दुख से मुक्ति पा सकते हैं। सुख पाएंगे या नहीं, हम नहीं जानते ..... बौद्ध संसार से परे कोई वस्तु नहीं मानते। बुद्ध ईश्वर के विषय में पूर्णतया अज्ञेयवादी हैं .....।“ इस प्रकरण के तुरत बाद रेणु रामकृष्ण परमहंस का स्मरण करते हैं - “देवघर में भूखे-नंगे संथालों को देखकर, काशी-यात्रा स्थगित करके बैठे हैं - पहले इन्हें भरपेट भोजन दो .... चूल्हे में जाए तुम्हारी काशी की गंगा .... मैं तीर्थ करने नहीं जाता .... इन्हें भरपेट खाने को दो, ये ही शिव हैं, ये ही नारायण .... “ रेणु ने बुद्ध, रामकृष्ण, जयप्रकाश एवं अज्ञेय की करुणा को भूखे-नंगे लोगों से जोड़ दिया है। वे अज्ञेय के साथ बोधगया की राह पर ‘कोखजली धरती’ का दर्शन करने निकलते हैं और उन्हें भारत की प्राचीन सांस्कृतिक परम्परा के कुछ गौरव-स्तम्भ याद आते हैं। बोधगया में बौद्धमंदिर एव महाबोधि वृक्ष को देखकर वे सोचते हैं - “मन्दिर के प्रांगण में घूमते हुए मुझे रह-रहकर .... रिपुंजय, बिम्बिसार, अजातशत्रु, शिशुनाग, महापद्मनंद, चन्द्रगुप्त, अशोक, शून्य पुराण और कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो की याद आई .... राहुल जी, भदंत और नागार्जुन की याद आई। .... वर्षों पहले पढ़ी बातें, ‘बज्रयान’ और ‘ब्रजत्व’ की व्याख्या: ब्रज्त्व लाभ करना मनुष्य का जन्मसिद्ध अधिकार है। मनुष्य का अधिकार ही सबसे बड़ा है। मनुष्य ही सत्य है, और सब मिथ्या। .... महासुख ही महाप्रभु, महाशून्य, वही करुणा, वही सर्वदेवता। एक्क न किज्जई मंत न तंत, निउ धरनी लई केलि परंत। निअ घर घरनी जाब न मज्जई, ताब कि पंचवर्ग बिहरिज्जई .... !!"

बोद्धगया से आगे बढ़ने पर सूखी हुई धरती के नजारे दिखाई पड़ते हैं। अज्ञेय के पास कैमरा है। वे कोखजली धरती और उसके दृश्यों के साथ-साथ ग्रामीण क्षेत्र के लोगों के चित्र भी खींच रहे हैं। उनकी आँखें टोह लेती हुई। घास ‘गढ़’ कर यानी खोदकर लौटती हुई औरतें .... सिर पर टोकरियाँ। धान का बोझा नहीं, सूखी-झुनाई घास ! साथ में वह नन्हीं बच्ची ! ..... मगध की छोरियाँ, कुछ गोरियाँ (कुछ कारियाँ भी !) कुछ भोरियाँ .... बाजरे की कलगी नहीं, बिछली घास भी नहीं ..... घास पर टोकरियाँ लेकर तेजी से चली जा रही हैं। आगे जाने पर देखा - एक खेत में काला-कलूटा, दुबला-पतला, भूखा-प्यासा, थका-हारा, बूढ़ा धान के सूखे पौधों को हँसिया से काट रहा है। यह इस संकट से लड़ रहा है। गया शहर से नवादा की ओर जाने पर ग्राम गुरुचक्र और बुद्धगैरे के नाम पढ़कर रेणु को एक समाजशास्त्रीय गप्प शुरू करने का अवसर मिला: “इस रास्ते से बुद्ध गए होंगे। और, ग्राम गुरुचक्र में ‘श्रीचक्र’ की तरह कोई अनुष्ठान सम्पन्न हुआ होगा। वात्स्यायन जी भी मुस्कुराकर इस बातचीत में शरीक होना चाहते थे कि अचानक सड़क के दोनों ओर का भू-भाग - लैंडस्केप - सपाट, सू-खा-आ-आ !! - यह क्या ? जहाँ तक दृष्टि जाती है - एक तृण नहीं। कहीं एक तिनका भी हरा नहीं। बंजर-परती धरती नहीं ..... धान के खेत हजारों एकड़। प्रकृति के प्रकोप की मारी धरती ! .... हँसुआ पहुँचते-पहुँचते बोतलप्रसाद यानी लेखकजी न जाने कहाँ हवा में ‘बिला’ गए। उनकी जगह पर रह गया - बिहार के एक गाँव का एक किसान का बेटा, जो सिर्फ यही सोच रहा है कि यदि उसके जिले में, इलाके में ऐसा सूखा पड़ा होता तो उसकी जमीन, उसके गाँव, गाय-बैल, औरत-बच्चे ऐसे ही .... इसी तरह .... !"

रेणु अकालग्रस्त क्षेत्र को देखकर अपने-आपको उन्हीं परिस्थितियों में डालकर अनुभव करते हैं, क्योंकि लेखक होने से पहले वे एक किसान हैं। कृषि ही उनकी जीविका का साधन है। यही कारण है कि एक लेखक होने के नाते वे अकालग्रस्त क्षेत्रों को सिर्फ ऊपरी नजर से नहीं देखते, अपितु उसे गहराई से महसूस भी करते हैं। वे जीवंत चित्र आँकते हैं: “अब हमारी आँखें और कुछ नहीं देखतीं .... सिर्फ सूखा और अकाल ! ..... आने-जाने वालों की गठरियों में क्या है - गेहूँ, मकई, बाजरा ? .... इधर कहाँ जा रहे हैं सभी लोग ? वह बूढ़ी बकरी लेकर कहाँ जा रही है ? जरूर बेचने जा रही होगी ? .... वह लड़की हमारे गाँव की सुरती की तरह लगती है। यह बूढ़ा नई लालटेन खरीदकर ले जा रहा है। ... उस गाँव में निश्चय ही किसी की शादी हुई है या गौना हुआ है, रंगे हुए कपड़े सूख रहे हैं। शादी या गौने में ‘भोज’ हुआ होगा ? बच्चे पढ़ने जा रहे हैं ? क्या खाकर जा रहे हैं ? .... दूर-दूर तक खेतों में लोग दिखाई पड़ते हैं, हल जोतते हैं, कुदाल चलाते हुए ... लोग लड़ रहे हैं।“
बिहार के अकाल पर रेणु के अलावा अज्ञेय ने भी रिपोर्ताज लिखा था। ‘सारिका’ पत्रिका में ख्वाजा अहमद अब्बास ने भी अकालग्रस्त क्षेत्रों का दौरा कर ‘बिहार की डायरी’ नामक रिपोर्ताज लिखा था, जो धारावाहिक रूप में छपा था। इसके अंत में उन्होंने कई जरूरी सवाल उठाये थे, जिसका उल्लेख करना यहाँ प्रासंगिक होगा - “बिहार का सूखा और काल - बंगाल के महाकाल की तरह एक ऐतिहासिक ट्रेजेडी है - मगर इस ट्रेजेडी ने बिहार की जनता को - हिन्दुस्तान की जनता को - चैंका दिया है। झंझोड़ दिया है। ललकार दिया है। सोचने, समझने और सवाल करने पर मजबूर कर दिया है। कब तक हमारे किसान आसमान की ओर देखते रहेंगे ? कब तक बारिश के लिए भगवान से प्रार्थना करते रहेंगे ? कब तक सूखा और काल और बाढ़ का चक्कर चलता रहेगा ?"

ख्वाजा अहमद अब्बास राजकपूर की फिल्मों में पटकथा लिखने वाले लेखक थे। उन्होंने बिहार के अकाल का दर्शन कर बेहद सटीक बातें लिखी हैं। आज भी देश में इन समस्याओं से निजात नहीं पाया गया है। रेणु ने अकालग्रस्त क्षेत्रों का दौरा कर जो जीती-जागती छवियाँ अंकित की हैं, वैसे दृश्य आज भी दिखाई पड़ते हैं। ये दृश्य दारुण एवं भयावह हैं - “पगडंडी के दोनों ओर सूखी ‘बारी-झारी’ की क्यारियाँ - जंगली ‘भुटके’ का साग भी नहीं ! मिट्टी के बरतन-बासन-कुत्ते का डोलता और हाँफता हुआ एक कंकाल बिना बोले-भूँके एक जोर चला जाता है। एक माता अपने बच्चे को गोदी में लेकर आ रही है, हमें देखकर ठिठक गई। उसका बच्चा अवाक्-उदास आँखों से हमारी ओर देखता रहता है। माँ मुँह फेर लेती है। काले-काले होंठों के बीच, सफेद दाँतों पर बिजली-सी कौंध गई। हम गाँव के मध्य में पहुँचे। एक मिट्टी की गिरी-पड़ी दीवार के पास एक ‘खुनखुन’ - बूढ़ी बैठी थी, हमें देखते ही बड़बड़ाने लगी। क्रोध से उसके नथुने के आसपास की सिकुड़ी-सिमटी चमड़ी थर-थर काँपने लगी - उसकी घुड़कती आँखें और टूटी दंत-पंक्तियाँ ... मैं मन-ही-मन ‘कालिका सहस्र नाम’ जपने लगा - घोररूपा, घोरद्रंष्ट्रा, घोरा, घोरतरा, शुभा ... कोटराक्षी ... बहु भाषिणी, .... प्रचंडा ..... चंडी .... चंडवेगिनी, यक्षिणी, योगिनी, जरा, राक्षसी, डाकिनी, वेदमयी, वेदविभूषणा ... निष्ठुरवादिनी ... माँ !!“
रेणु ने भूख और गरीबी से बेहाल भूमि-पुत्रों से संवाद करना शुरू किया। एक बच्चे का जन्म हुआ है, जिसका नाम ही ‘अकलवा’ रख दिया गया है। बिनोदवा की माँ कितनी सही बात बोलती है कि भगवान भी मालिक की ओर है, वह अन्धा-बहरा है। नहीं तो इस अन्याय को वह देखता। तीन-तीन दिन पर उनलोगों को मड़ुआ की एक रोटी नहीं मिलती और मालिक लोगों की हवेली में पूड़ी-बुंदिया। वे रोआब दिखाते हैं - चोरी में पकड़ा देगा, डकैती में फँसा देगा। जेल में देगा। बिनोदवा की माँ सही कहती है - “जेहल में देगा, त उहे दे दो। जेलवा में खाए के त मिलतई ? .... हः - हः, गरीब के देखनेवाला को-य न-ही ....।“ आगे वह क्षुधित मन से शाप देती है। इसका तर्क देती है - पेटवा जरैहे त मुँह से गरिया निकसय है। रेणु को लगता है कि इनसे वे क्या कहें ? कह दें - जाकर खाना भेज दूँगा ? दूध भेज दूँगा ? दवा भेज दूँगा ? पर यह सच नहीं होगा। लेखक यह कर नहीं सकता। वह लिख सकता है और लोगों के दुख-दैन्य एवं पीड़ा को अंकित कर दूसरे लोगों तक पहुँचा सकता है। इससे ज्यादा वह कुछ नहीं कर सकता। यह उसकी सीमा है। यह उसकी विवशता है। ऐसे में उन्हें नक्षत्र मालाकार की याद आती है। वे बताते हैं - “1949 में पूर्णिया-भागलपुर के कुछ इलाकों में अकाल पड़ गया था। सभी बड़े किसानों और गल्ले के व्यापारियों ने अनाज छिपा लिया था। ‘हाहाकार’ मचा कि बंगाल के बाद इस बार बिहार की बारी है। किसान-मजदूरों की पार्टियाँ आवश्यक बैठक बुलाकर अकाल की समस्या पर विचार करने का प्रोग्राम तय ही कर रही थीं।  उधर, नक्षत्र मालाकार ने हजारों भुक्खड़ों की टोली लेकर बड़े किसानों और व्यापारियों के ‘बखार’ और ‘गोले’ को लुटवाना शुरू कर दिया। रोज-रोज खबरें आने लगीं - आज मोहनपुर में .... आज ढोलबाजा में ... आज पीरपैती के हाट पर। उसका नाम सुनते ही गरीबों के गाँव में खुशी की लहर दौड़ जाती, अमीरों की हवेलियों में सन्नाटा छा जाता और अधिकारियों का आरामहराम !“ रेणु ने तब अपने रिपोर्ताज ‘हड्डियों का पुल’ में उसकी आलोचना कर दी थी। तब नक्षत्र मालाकार ने कहा था - “तुम जो मन आए, लिखो। मुझे गालियाँ दो। मगर, एक बार इन गाँवों में आकर देखो। .... सब कुछ भूल जाओगे। .... आदमी इतना बेदर्द हो सकता है ? .... सात दिन के भूखे बच्चों के मुँह पर हँसी देखकर जेल-फाँसी और नरक सब कबूल करके तुम भी वही शुरू करोगे जो मैं कर रहा हूँ। .... दस-पन्द्रह वर्षों बाद, अब लगता है कि साथी नक्षत्र ने ठीक ही कहा था - जेल-फाँसी और नरक सब कबूल ...।"

रेणु के मन में भावों का उद्वेग उठता है, फिर ठहर जाता है। तमाम कोशिशों के बावजूद प्राकृतिक आपदाओं में हर वर्ष हजारों लोग मरते हैं, मरते जाते हैं, पर इससे मौजूदा व्यवस्था को कोई फर्क नहीं पड़ता। सब वैसा ही चलता रहता है। वे अकालग्रस्त गाँवों का दौरा समाप्त करते हुए अपने-आपसे पूछते हैं - “रत्तू सिंह मर जाएगा तो क्या होगा ? इतने लोग मर गए तो क्या-क्या हुआ ? ... क्या होगा ? कुछ नहीं होगा !"

आजादी के इतने वर्षों के बाद भी देश की प्रमुख समस्या भूख और बेरोजगारी है। लोग अन्न के बगैर मरते हैं। किन्तु, प्रशासन के लोग अब भी इन्हें ढँकने की कोशिश करते हैं। नागार्जुन ने इसी सन्दर्भ में एक व्यंग्य कविता लिखी थी - मरो भूख से, फौरन आ धमकेगा थानेदार ! घरवालों से लिखवा लेगा, वह तो था बीमार।

‘ऋणजल-धनजल’ के बाढ़ एवं अकाल पर लिखे रिपोर्ताज समाज के बहुरंगी, बहुस्तरीय एवं बहुआयामी जीवन के जीवंत दस्तावेज हैं। ये समाजवैज्ञानिक अध्ययन की नई दिशाएँ खोलते हैं। ये कल्पना-प्रसूत कथा-रचनाएँ नहीं है, वरन् सामाजिक सत्य से  सीधे सरोकार रखते हैं। भले ही इनमें कलागत बारीकियाँ नहीं हैं, भाषा के खेल एवं अभिव्यंजना के कौशल नहीं हैं, किन्तु लेखक ने इन जीवन-चित्रों को अपनी संवेदना से भिंगोकर उकेरा है, जिसके कारण ये भाव-प्रवण हैं। प्रसिद्ध कथा-समीक्षक मधुरेश की रेणु के रिपोर्ताजों पर की गई यह टिप्पणी कितनी सार्थक है - “रेणु के रिपोर्ताजों में उनके लेखन की प्रायः सारी विशेषताएँ एक साथ मौजूद हैं। इन्हें पढ़ने के दौरान अपने समूचे परिवेश के प्रति लेखक की साझेदारी का अहसास हमेशा बना रहता है। यह ठीक है कि इस साझेदारी का रूप और स्तर, स्थितियाँ और अनुपात हमेशा एक-से नहीं हैं, लेकिन उनकी उपस्थिति वहाँ पूरी तरह से कभी और कहीं गायब नहीं है। वह सूखा या बाढ़ की गद्यात्मक रिपोर्ट मात्र नहीं देते, समूची स्थिति का अंकन करते हैं, और उस स्थिति में अलग-अलग सामाजिक स्तर और मानसिकता, सोच और सरोकारों वाले लोगों की प्रतिक्रियाओं को भी अंकित करते चलते हैं। दूसरे की सोच एवं सरोकारों को समेट कर चलने का यह आग्रह एक लेखक की हैसियत से रेणु की अपनी सोच और सरोकार को भी स्पष्ट करता है। भाषा की रचनात्मकता, उसका ध्वनि-संयोजन और चित्रात्मकता रेणु के गद्य का सबसे बड़ा आकर्षण है। वस्तुतः अपने इस गुण के कारण ही रेणु के ये रिपोर्ताज सूखा या बाढ़ की जानकारी भरी अखबारी तफसीलों से बहुत भिन्न अपनी जीवंतता और रचनात्मक ऊर्जा की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं।"

रेणु के इन दोनों रिपोर्ताजों में भी (उनकी अन्य रचनाओं की तरह) ‘समग्र मानवीय दृष्टि’ मिलती है। वे अपनी इन रचनाओं में भी कलात्मक ऊँचाइयाँ छूते हैं और 1966 तथा 1975 की इन आपदाओं एवं संकटों को अपनी कलम से अविस्मरणीय बना देते हैं। इतने वर्षों बाद इन्हें पढ़ने पर वैसी ही ताजगी मिलती है, जब ये पहली बार प्रकाशित हुए थे एवं अपार पाठकों के द्वारा सराहे गए थे।

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