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रविवार, 20 मई 2018

'किंबहुना' : स्त्री संघर्ष की कथा — राजा अवस्थी

कृति - किंबहुना (उपन्यास)
लेखक - ए. असफल
प्रकाशन - ज्ञान गीता प्रकाशन
एक्स. नवीन शाहदरा, दिल्ली - 110032
प्रकाशन वर्ष - 2017, मूल्य - 295/-

साहित्य अपने समय के समाज का आईना होता है। यह सिर्फ उक्ति भर नहीं है, बल्कि प्रत्येक समय और समाज में साहित्य के माध्यम से लगातार प्रमाणित होने वाला सत्य है। यूँ तो हर देश और काल में साहित्य अपने विविध रूपों में अपने समय को, उसके भीतर घटित होने वाली घटनाओं को अपनी दृष्टि के साथ अंकित करता चलता है। यह दृष्टि ही यह निर्धारित करती है कि वह साहित्य किस रूप में होगा और वह रूप अपनी सीमा व सामर्थ्य भर अपने समय का प्रतिरूप बनता है। साहित्य कभी इतिहास नहीं होता, किन्तु इतिहास का अक्षुण्ण रूप साहित्य के भीतर ही शेष व सुरक्षित रह सकता है, क्योंकि इतिहास तो कोई भी सत्ता अपने पक्ष में, अपनी दृष्टि से लिखवा लेती है, किन्तु साहित्य में जो लिखा जा चुका है, उसे संशोधित या परिवर्तित कर पाना आसान नहीं, बल्कि असंभव - सा होता है। साहित्य के इतिहास न होने का कारण यह भी है कि साहित्यकार तथ्यों को नहीं बल्कि उसकी भाव दृष्टि में तथ्यों और सत्यों के मिलकर समष्टि के लिए हितकारी परिपाक में परिणित होने के बाद ही उसे किसी रचना का रूप देता है। यही कारण है कि प्रत्येक कथ्य अपने अनुसार अपनी विधा का चयन कर लेता है। साहित्य अपने समय की संस्कृति और परम्पराओं के अंकन के साथ उनमें हो रहे परिवर्तन पर पैनी दृष्टि रखता है और उसे भी अपनी रचना का हिस्सा बनाता चलता है। ऐसी पैनी दृष्टि से गुज़रकर आया है ए. असफल का नवीनतम उपन्यास 'किंबहुना'।

'किंबहुना 'अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष का उद्घोष करती, संघर्ष करती स्त्री की कथा है। बहुत जाने-माने चेहरों और स्थानों के बीच विकसित हुई इस कथा में यह बेहद शातिराना यानी कार्पोरेटिया किस्म का उद्घोष है। इसमें कहीं आपको तीखा आक्रोश या उबलते विद्रोह जैसी बात नहीं दिखेगी, बल्कि 'किंबहुना' की नायिका आरती कुलश्रेष्ठ आपको कहीं दमित, शोषित या बेचारी - सी भी लग सकती है। किन्तु, थोड़ा ठहरकर देखते हैं, तो पाते हैं कि आरती आरम्भ से ही बहुत ठण्डेपन से किन्तु लगातार विद्रोह करती हुई और अपने ही चाहे पथ पर बढ़ने वाली स्त्री है। उसका यही तेवर और शैली अन्त तक बनी रहती है। जिन दिनों वह आलम से प्रेम विवाह करती है, तब भी उनके बीच प्रेम जैसी या देह के सुख जैसी भी कोई चीज दिखती नहीं। विवाह के बाद भी कभी प्रेम के उन्माद में वे टूटकर मिले हों, "ऐसा कोई संकेत तक उपन्यास में नहीं है, बल्कि आरती के लिए वह एक कैद से अधिक कुछ नहीं था।

कथा जब आगे बढ़ती है, तो अपने स्वाभाविक विकासक्रम में आरती और आलम के तलाक प्रकरण पर आती है। इस बीच आरती की नौकरी पर संकट और भरत मेश्राम से मुलाकात के बाद उन दोनों का लिव इन जैसे रिश्ते की तरह साथ आना, किन्तु भरत का अपनी ब्याहता पत्नी से तलाक का केस खारिज़ हो जाता है और भरत के साथ आगे सम्मानजनक संभावनायें न देखकर आरती भरत से अपनी सगाई एक झटके में तोड़ देती है। भरत का धनाड्य और प्रभावशाली परिवार से होना आरती को सुरक्षा देने में संभव है किन्तु स्वतंत्रता की जो चेतना आरती के भीतर पहले से ही है, उसको बचाने के लिए मेश्राम परिवार से भिड़ जाती है। भरत की माँ, बहन, खुद भरत के द्वारा भी यह याद दिलाने के बावज़ूद कि'अब तक तो कितने करम-कुकरम किए! और पति-पत्नी की तरह रहे। फिर, अब क्या हो गया? "वह भरत से फिर देह का कोई रिश्ता नहीं बनाती। संघर्ष के इस मोड़ पर आरती की जिन्दगी में कार्पोरेट जगत के शातिर शीतल का प्रवेश होता है। शीतल के बल पर ही वह भरत मेश्राम जैसे मगरमच्छ से भी निपट लेती है।

इस पूरे प्रकरण के लिए उपन्यासकार अपनी कथा का ताना-बाना बुनने के लिए जिस सूत्र का इस्तेमाल करता है, वह बिलकुल नया और आधुनिक है। पिछले कुछ सालों यानी 2-4 सालों में सोशल मीडिया और उस पर वाट्सएप शहरी मध्यमवर्ग के बीच छाया हुआ है। यहाँ बहुत सारे सम्बन्ध - सम्पर्क वाट्सएप पर ही बन-बिगड़ और निभ रहे हैं। 'किंबहुना' का उल्लेखनीय तथ्य व तत्व यह भी है कि लेखक ने सोशल साइट्स के द्वारा कथा सूत्रों का विकास इस तरह से किया है कि ऐसा लगता है जैसे यह इस तरह के अलावा किसी और तरह से हो ही नहीं सकता था।

'किंबहुना' की कथा को तीन भागों में बाँटकर देखा जा सकता है। इसका पहला भाग एस टी डी बूथ पर पनपता है, जबकि दूसरा और तीसरा भाग पूरी तरह वाट्सएप के माध्यम से आगे बढ़ते हैं। दूसरे भाग में भरत मेश्राम से वाट्सएप पर बातचीत और आरती की समस्या के समाधान के साथ ही होटल में भरत के लिए आरती का देह - समर्पण! तीसरे भाग में वाट्सएप पर शीतल के साथ कविताओं का, बातचीत का और प्रेमालाप का लम्बा सिलसिला है। आरती के भरत से अलग होने के प्रकरण में दूर बैठे शीतल के द्वारा निर्णायक भूमिका निभाना उसे आरती के बहुत निकट ले आता है। अब तक उनकी आमने-सामने की मुलाकात नहीं हुई। तभी आरती को एक साहित्यिक सम्मान के लिए जयपुर जाना होता है, उधर से शीतल भी पहुँच जाता है। यात्रा के अंतिम दिन आरती शीतल को भी स्वयं को सौंप देती है और यह सोचती है कि बहुत एहसान हैं शीतल के मुझ पर, इस तरह मैं भी कुछ हल्की हो जाऊँगी। यानी इस एहसान के बदले देह! और जैसे उसे पहले से ही मालुम भी है कि इन मेहरवानियों की परिणति यही होना है। भरत के सम्बन्ध में भी वह यही सोचती है कि मेरा साथ दिया तो पूरी कीमत भी वसूल ली।

'किंबहुना' हुए वर्तमान समाज में निरन्तर बढ़ती जा रही स्वार्थ की प्रवृत्ति के साथ स्त्री और पुरुष के सम्बन्धों की पड़ताल करता उपन्यास है। आरती अपने आॅफिसियल संकट से निपटने में भरत से सहायता लेती है और भरत को एक स्त्री देह की जरूरत है, जो उसे आरती के रूप में मिल जाती है। भरत से मुक्ति के लिए शीतल आता है, उसे भी एक स्त्री देह की जरूरत है। यह उपन्यास यौनिक शुचिता की अवधारणा को तोड़ता हुआ आगे बढ़ता है। यहाँ ये यौन सम्बन्ध बहुत सहज रूप में घटित होते हैं। कहीं किसी के मन में कोई ग्लानि या अपराधबोध या विवशता जैसी बात मन में नहीं आती। दोनों ही उस आनन्दलीला में बराबर के सहभागी हैं। यही वह उल्लेखनीय तत्व है, जो आज के मनुष्य में स्थायी रूप से बढ़ता जा रहा है। 'किंबहुना' में इसे सहज रूप में प्रस्तुत करना लेखक की सफलता ही मानी जाएगी।

'किंबहुना' सोशल मीडिया के माध्यम से पनपे साहित्यिक समूहों और वहाँ भी शीतल जैसे लोगों के द्वारा दुकानदारी शुरू कर देने व उसमें लोगों के फँसने का किस्सा है, तो माउण्टआबू में सनसेट प्वाइंट पर फोटोशूट के लिए आतुर आरती के चित्रण में कथाकार की चित्रात्मकशैली का जीवन्त नमूना भी है। यूँ 'किंबहुना' के रचनाकार ने अपने चरित्रों के नाक - नक्श का ब्यौरा हर संभव जगह पर इस तरह दिया है कि वह चरित्र स्पष्ट उभर कर साकार हो गया है। शीतल उपन्यास में एक ऐसे वर्ग का प्रतिनिधित्व करता है जिसे किसी तरह का उत्तरदायित्व लेने से परहेज है। उसे स्त्री तो चाहिए, किन्तु पत्नी नहीं, जिसके प्रति किसी भी तरह की जवाबदारी उसे उठानी पड़े! वहीं आरती जैसी मुक्तिकामी, मुक्तिचेता स्त्री की वास्तविक स्थिति का चित्रण इस उपन्यास की उपलब्धि मानी जा सकती है। यह मुक्तिचेतना ही उसे कभी आलम के नर्क में ले जाती है, तो फिर भरत और शीतल जैसों की देह की भूख मिटाने का साधन भी बनाती है।

'किंबहुना' का अंत बेहद नाटकीय अंदाज़ में होता है। भरत मेश्राम नौकरी छोड़कर, सारा फण्ड सरेंडर करके, घर आरती की बेटी के नाम लिखवाकर, सिंधुजा फाउण्डेशन के बलोदा बाजार स्थित मंदिर में महंत बन जाता है। यह बलौदा बाजार वही जगह है, जहाँ आरती रह रही है। दिखने में तो यह वैराग्य जैसा लग सकता है, किन्तु गहराई से देखें तो यहाँ भी भरत की आरती के प्रति आसक्ति और उसके पास रहने की कामना ही प्रबल दिखती है, अन्यथा आरती के घर के पास बने मंदिर में ही पुराने महंत को हटवाकर महंत बनने की क्या जरूरत थी।

'किंबहुना' यानी 'वास्तव में' आधुनिक समाज में स्त्री - पुरुष सम्बन्धों, स्वार्थों और जातीय सम्बन्धों के महत्व के साथ मुक्तिकामी स्त्री की चेतना व संघर्ष को रेखांकित करता हुआ उपन्यास है। पठनीयता के स्तर पर यह बेजोड़ है। एक बार पढ़ना शुरू करके आप इसे पढ़कर ही मानेंगे। 'किंबहुना' के चरित्र बहुत जाने-पहचाने लगते हैं। यह उपन्यास इसलिये भी महत्वपूर्ण कहा जाएगा कि इसका कथानक हमारे आज की कथा कहता है।
                                          

 
समीक्षक :
राजा अवस्थी
गाटरघाट रोड, आजाद चौक
कटनी 483501 (म. प्र.)
मोबा: 09617913287
ई-मेल: raja.awasthi52@gmail.com

Kimbahuna by A Asafal

19 टिप्‍पणियां:

  1. गत वर्ष ज्ञान गीता प्रकाशन दिल्ली से प्रकाशित उपन्यास किंबहुना जोकि कारपोरेट जगत के दुष्चक्र और महत्वाकांक्षी महिलाओं तथा धूर्त पुरुषों की कहानी है पर राजा अवस्थी की समीक्षा ध्यातव्य है ।यह न सिर्फ पुस्तक की कमी को पूरा कर देती है बल्कि तमाम खतरों से भी आगाह करा देती है।

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  2. ऊपर की पोस्ट से उपन्यास को पढ़ने की जिज्ञासा बढ़ गयी है.. लेखक को इतने सुंदर उपन्यास को आम जन तक पहुंचाने हेतु हार्दिक बधाई...

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  3. सटीक और सार्थक समीक्षा
    सादर

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  4. श्री राजा अवस्थी जी का इस उपन्यास पर सटीक आकलन पढ़ा ।
    स्पष्ट है कि इस उपन्यास की कथा वस्तु वर्तमान परिवेश की है । साहित्यकार समय की सच्चाई और उसकी विसंगतियों की ओर संकेत करता है समाधान देना उसकी भूमिका में नहीं आता न ही उसकी जिम्मेदारी है । ए असफल जी हर दृष्टि से कथावस्तु के निर्वाह में सफल हुए है । वर्तमान समाज में स्थाई होती जा रही कड़वी सच्चाई को आपने बखूबी बयाँ किया है । नारी जीवन और उसकी उसके सार्वजनिक जीवन की सत्यता के साथ पुरुष मानसिकता को भी कहानी। में निडरता और शिद्दत से उकेरा गया है ।
    अवस्थी जी का समीक्षात्मक आलेख उपन्यास के प्रति उत्सुकता पैदा करता है और पाठक को पढ़ने के लिए प्रेरित भी करता है । उपन्यासकार श्री ऐ असफल जी एवम समीक्षात्मक आलेख के लिए श्री राजा अवस्थी जी को बधाई, शुभकामनायें ।।
    शैलेन्द्र शरण , खण्डवा (म प्र)

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    1. सादर धन्यवाद आदरणीय शैलेन्द्र शरण जी।

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  5. आदरणीय ए. असफल जी के उपन्यास "किंबहुना" पर एक बेहतरीन समीक्षा. आदरणीय राजा अवस्थी जी को कोटिशः बधाई.
    सादर
    अशोक कुमार शर्मा, कानपुर.

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  6. ए असफल के उपन्यास 'किंबहुना' पर राजा अवस्थी की समीक्षा पढ़कर इस पूरे कथानक,उसके पात्रों के चरित्र और आज के भारतीय समाज के उस हिस्से की परिस्थितियों के यथार्थ का बोध होता है,जहाँ अपनी महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए अपने सामाजिक ,सांस्कृतिक मूल्यादर्शों की बलि देने में अब कोई संकोच नहींहै.स्त्री की आजादी के इस तौर-तेवर को पुरुष अपनी लिप्सा पूर्ति के लिए इस्तेमाल करते हुए वस्तुतः अपने उसी मर्द होने के अहम को ही पूरा करता है. राजा अवस्थी की इस समीक्षा को पढ़ने के बाद मुझे इसे पढ़ने की कोई उत्सुकता नहीं हुई.अपनी कहानियों के लिये चर्चित ए असफल का यह उपन्यास पढ़ना खुद को आईने के सामने देखने जैसा है.यह लेखक की सफलता भले हो,इसकी सार्थकता क्या है?

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    1. आदरणीय अग्रज
      सादर नमन
      यह संभवतः समीक्षा की कमी ही कही जाएगी, जो आपके मन में उपन्यास पढ़ने की उत्सुकता पैदा नहीं कर सकी। फिर भी एक बार पढ़कर देखें। आप जैसे विद्वान शिक्षक, चर्चित कथाकार, अकादमी द्वारा पुरस्कृत उपन्यास के लेखक को भी यह उपन्यास रोचक और पठनीय लगेगा, ऐसा मेरा विश्वास है और आपको जानते हुए है। जहाँ तक सार्थकता का प्रश्न है, तो यह उपन्यास सतर्क करता है उन स्त्रियों को, उन लड़कियों को, जो नासमझी में गलत लोगों को अपना लेती हैं। सार्थकता को प्रश्न उठना भी चाहिए किन्तु इस बात का जवाब साहित्य की किसी भी विधा की कोई भी रचना तत्काल पूरी तरह नहीं दे सकती। हाँ, समय अवश्य इसका उत्तर खोज लेगा। इसे पढ़िए अवश्य। आपको भी पसंद आएगा।

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    2. प्रिय पाठक जी, आपने समीक्षा की बेहतरीन समीक्षा की। यह आपके शब्द भंडार लेखकीय अनुभव और संवेदना शक्ति को प्रमाणित करती है। किन्तु आप की अंतिम पंक्तियां मेरी समझ से परे हैं, "यह उपन्यास पढ़ना खुद को आईने में देखने जैसा है!" फिर आप यह लिखते हैं- यह लेखक की सफलता भले हो, इसकी सार्थकता क्या है?" मुझे लगता है आप के बयान में कहीं कोई अंतर्विरोध जरूर है! कृपया, स्पष्ट करें मार्ग प्रशस्त होगा!

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  8. किंबहुना- एक समीक्षा-डॉ योगिता बाजपेई'कंचन'

    स्त्री के संघर्ष की कथा -
    यह उपन्यास एक ऐसा उपन्यास है जो समाज के वर्तमान चेहरे को स्पष्ट रूप से बिना किसी लाग-लपेट के दिखाने में सर्वथा सक्षम है मेरी ओर से इसके लेखक श्री असफल जी को कोटिशः बधाइयाँ| वास्तव में इसकी पात्रा आरती कुलश्रेष्ठ एक नाम नहीं वरण आज तथाकथित आधुनिक समाज की एक स्त्री का रूप है समाज आज उस दोराहे पर खड़ा है जहां विवाह की शुचिता अप्रासंगिक सी मालूम होती है भरत का तलाक के लिए असफल प्रयास पूरी तरह से दर्शाता है कि जिस पुरुष के पास धन संपदा वैभव है उस पुरुष से स्त्री तलाक नहीं लेती ।चाहे उसका हृदय पूर्ण रूप से किसी आरती के लिए ही समर्पित क्यों ना हो ।यहां यह उपन्यास समूचे स्त्री जगत की इस स्वार्थपरक दृष्टिकोण को तार-तार करके रखता है। आलम से आरती का सफलतापूर्वक तलाक ले लेना और भरत का असफल तलाक ,अत्यंत ही स्पष्ट एवं गहरा कुठाराघात है समाज की स्वार्थी मानसिकता पर ।इसमें दोष स्त्री और पुरुष दोनों का झलकता है ।अपनी साहित्यिक अभिरुचि और व्यवसायिक तरक्की के क्रम में पुरुषों के सानिध्य में आना स्त्री का देह समर्पण करना बिना किसी अपराध बोध के,यह सब जितना प्रासंगिक है उतना ही समीक्षातीत भी । मेरे विचार से आज आरती विवाह के पहले भी पैदा हो रही है ,क्योंकि डिग्री लेने का मकसद अब सीधे सीधे नौकरी से है।और नौकरी का अर्थ किसी भी तरह की स्तरहीन पहचान को अपना लेना है और इसमें केवल नवयुवती ही जिम्मेदार नहीं है बल्कि गौर करें कि उसके अज्ञानी माता पिता की भी बराबर की भागीदारी है।घर में एक युवा बच्चे का रहना अब जितनी बड़ी समस्या उस युवक युवती की है।उतनी ही बड़ी समस्या अब माता पिता की भी है आज सामान्यतया इक्कीस बाईस बरस की नवयुवतियां किसी भी स्तरहीन नौकरी के लिए घर से बाहर रहने को तैयार हैं और इसमें माता पिता का पूर्ण सहयोग है।उन्हें अपनी आजादी का अर्थ आधुनिकता के नाम पर सिद्धांत हीन दिनचर्या, अनुशासनहीन जीवन और खोखली तरक्की मे ही दिखता है। ऐसी स्थिति पूरी तरह से लिव इन रिलेशनशिप के लिए उर्वरक भूमि का कार्य करती है है। इसलिए उपन्यास में आरती का संघर्ष मैं एक आदर्श संघर्ष के रुप में देखती हूं क्योंकि आज भी इस उपन्यास में आलम के साथ तलाक में प्रेम पर चोट ,और भरत जैसे पात्र का गठन जिसने प्रेम की पराकाष्ठा (आरती की बेटी के नाम मकान करना और स्वयं उस मंदिर में महंत बन जाना जो आरती के घर के समीप है )को छुआ या शीतल जैसे पात्र का गठन जिसने व्यवसायिक कार्यों में यौन शुचिता को कोई स्थान नहीं दिया पूरी तरह से समाज के संक्रमण काल को परिलक्षित करता है।ऐसे साहसिक सच को लिख पाना और स्थापित कर देना किसी सफल सजग एवं संवेदनशील लेखक के ही बस की बात है। साहित्य अपनी इन्हीं विशेषताओं के कारण समाज का दर्पण कहलाता है और जब तक आईने में असल चेहरा न दिखे समाज में परिवर्तन की उम्मीद नहीं की जा सकती ।आज के परिपेक्ष्य में बहुत आवश्यक है कि समाज या तो विवाह के खोखले बंधन से मुक्त हो जाए या उसे एक आदर्श मानकर स्थापित करे ।आधुनिकता का दंश पुरुष और स्त्री पर इतना गहरा है कि विवाह की आदर्श संभावनाएं लगभग समाप्त ही हो चुकी है अब विवाह केवल धन संपदा पर टिका है जहां आर्थिक विपन्नता है वहां कोई सामंजस्य नहीं है जहां सामंजस्य दिखता है वह वैचारिक नहीं है ।वह किसी न किसी स्वार्थ के रुप में या स्त्री की विवशता है या पुरुष की विवशता है। तो ऐसे वैवाहिक संबंध एक विकृत समाज को ही जन्म देंगे यदि विवाह पूरी तरह से अस्वीकार्य हो जाए तो भी लिव- इन -रिलेशनशिप के साथ एक उम्मीद तो बनती है कि समाज में एक स्वच्छ और सुंदर चेहरे का निर्माण हो सकता है लेकिन अस्पष्ट धरातल तो एक अभी एक शंकु ही है। आज की दोहरी मानसिकता में डूबा समाज दिशाहीन है इस स्थिति का हूबहू चित्रण लेखक श्री असफल जी ने अपने उपन्यास में किया है वे सचमुच बधाई के पात्र हैं और ऐसा साहित्य ही समाज में परिवर्तन लाने में सक्षम होता है ऐसा मैं मानती हूँ।अपने इन शब्दों के साथ मैं लेखक को पुनः बधाई एवं शुभकामनाएं प्रेषित करती हूँ।

    डॉ योगिता बाजपेई 'कंचन'

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    1. आदरणीय डॉ योगिता बाजपेयी जी
      बधाई। बधाई इसलिए कि आपने समीक्षा को माध्यम बनाकर उपन्यास की बेहतरीन समीक्षा की है। आपने कथा पर अपना स्पष्ट दृष्टिकोण भी प्रस्तुत किया। हार्दिक बधाई आपको।

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  10. आदरणीय डॉ योगिता बाजपेयी जी
    बधाई आपको। बधाई इसलिए कि आपने समीक्षा को माध्यम बनाकर उपन्यास की बेहतरीन समीक्षा की है। आपने कथा पर अपना स्पष्ट दृष्टिकोण भी प्रस्तुत किया। हार्दिक बधाई स्वीकारें।

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