अवनीश जी की कहन भंगिमाओं में मानवता की पुख्ता जमीन दिखाई देती है, किंतु उस पर उग आए विरोधाभासी कैक्टसों के विरुद्ध उनकी आवाज भी दर्ज है। अधिकांश नवगीतों का स्वर व्यंग्यात्मक है, जिसके पीछे लक्ष्यार्थ झलकता है। संग्रहीत रचनाओं से देश-समाज का कोई भी परिदृश्य छूटा नहीं है। वहाँ शैक्षिक जगत, आभासी दुनिया, राजनीतिक व्यवस्था, स्त्री-विमर्श और प्रेम-प्रकृति आदि के विसंगत व्यापार हैं, जिसको कवि ने खुली आँखों से देखा है। ये नवगीत अंधकार को चीरते हैं और प्रकाश में कुछ अप्रस्तुत दिखलाते हैं। आपका एक नवगीत है— 'अँगुली के बल' — दुनिया का सारा इतिहास, सारे बही-खाते आदि सब इंटरनेट पर आ गए हैं। बस 'की बोर्ड' पर अँगुली चलाने की देर है। लेकिन अवनीश जी यह भी कहते हैं— "बातों से बातें निकलीं/ हल कोई कब निकला है" ('एक अकेला पहिया' : 47) और व्यस्तता इतनी कि "इंतजार करते-करते ही/ हार गयी मृगनैनी” (48)।
शब्द इतना सस्ता पहले नहीं था। शब्द के सस्ता होने से व्यक्ति अब संवेदनहीन भी हुआ है। शब्द सूचना मात्र रह गया है। पठन-पाठन 'तोता रटंत' हो गया। जाप (कर्म) को सिद्ध करने वाला अब वह मन नहीं है। लगन, निष्ठा और पवित्रता का अभाव है। 'संशय है' नवगीत में कवि कहता है—
शोधों की गति घूम रही
चक्कर पर चक्कर
अंधा पुरस्कार
मर-मिटता है शोहरत पर
संशय है
ये साधक
सिद्ध करेंगे जाप। (‘एक अकेला पहिया’ : 46)
— वीरेंन्द्र आस्तिक, वरिष्ठ कवि व आलोचक
लौकिक और आध्यात्मिक उन्नति के लिए मनुष्य को अकेले ही अपने कर्तव्यपथ पर चलना होता हैं, क्योंकि कर्तव्य ही उसे आगे बढ़ने की शक्ति प्रदान करता है और विषम परिस्थिति आने पर पथविचलित होने से उसकी रक्षा करता है— "कर्तव्येन कर्ताभि रक्षयते" (महाभारत, भीष्म पर्व, 58.27)। हाँ, अकेले चलते-चलते अगर कारवाँ बन जाए, तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं— "मैं अकेला ही चला था जानिब-ए-मंज़िल मगर / लोग साथ आते गए और कारवाँ बनता गया" (मजरूह सुल्तानपुरी)। ऐसी स्थिति में इसे 'स्व' से ''सर्व' का विस्तार भी कहा जा सकता है। इसी विस्तार को रवीन्द्रनाथ टैगोर ने अपनी एक कविता— "एकला चलो, एकला चलो, एकला चलो रे" में करीने से रेखांकित किया हैं। इस कविता में रवीन्द्र जी संसार से भाग कर किसी अंधेरी गुफा में बैठने की बात नहीं करते, बल्कि जीवन में संघर्ष करते हुए अपने कर्तव्यपथ पर अग्रसर रहने की प्रेरणा देते हैं। ऐसा करते समय मनुष्य को कर्ता होने के अहंकार से मुक्त होकर जहाँ सेवा, प्रेम व त्याग के मन्त्र को आत्मसात कर निःस्वार्थ भाव से जन-जन के कल्याण के लिए तत्पर रहना है; वहीं अनुशासन, स्वावलंबन, परिश्रम, धैर्य, लगन एवं साहस की पतवारों को हाथों में थामकर एक सजग नाविक की तरह संसार सागर के पार भी उतरना है। कुछ इस तरह— "दुनिया में हूँ दुनिया का तलबगार नहीं हूँ / बाज़ार से गुज़रा हूँ ख़रीदार नहीं हूँ” (अकबर इलाहाबादी)।
— अवनीश सिंह चौहान
पुस्तक: एक अकेला पहिया (नवगीत-संग्रह)
ISBN: 978-93553-693-90
कवि: अवनीश सिंह चौहान
प्रकाशन वर्ष : 2024
संस्करण : प्रथम (पेपरबैक)
पृष्ठ : 112
मूल्य: रुo 250/-
प्रकाशक: प्रकाश बुक डिपो, बरेली
फोन : 0581-3560114
Available At:
AMAZON: CLICK LINK
PBD: CLICK LINK
प्रियवर प्रोफेसर अवनीश सिंह जी, आपके शैक्षणिक, साहित्यिक, विश्वविद्यालयीय अनुपम उपलब्धिओं का विस्तृत आलेखन पढ़कर मन प्रफुल्लित हो गया। यह सब आपकी कठोर साधना, ईमानदारी, कर्तव्यनिष्ठता का सुफल, सुपरिणाम है। आपकी यह प्रगतीशील जीवन यात्रा सतत्, अनवरत प्रवहमान रहे। आपको बहुत-बहुत बधाई, साधुवाद और मंगल आशीर्वाद।
जवाब देंहटाएंआपका शुभचिंतकः
प्रोफेसर पूरनमल गौड.
हरियाणा राज्यपाल नॉमिनी एवं पूर्व निर्देशक
हरियाणा साहित्य अकादमी, पंचकूला, हरियाण सरकार।
नवगीत की यात्रा का इकलौता हस्ताक्षर जिसके गीतों की बौछार कभी कभी मुझ तक भी पहुंचती रहती है । बहुत- बधाई हो Dr Sahab
जवाब देंहटाएं- राजेंद्र राजन (रज्जू भैया), लखनऊ
🙏💐🙏"टुकड़ा काग़ज़ का" और "एक अकेला पहिया" नवगीत के क्षितिज पर प्रकाशमान अतीव सुन्दर रचनाएं हैं सर == डाॅ. प्रणव गौतम के इस मंतव्य से मैं भी अक्षरशः सहमत हूं 🙏💐🙏
जवाब देंहटाएं-- डॉ राकेश कुमार तिवारी, बरेली
काम बोलता है तो नाम भी बोलता है। आपके नाम का परचम चहुंओर फैले। सुन्दर और प्रेरक कार्य के लिए बधाई 🙏
जवाब देंहटाएं-- डॉ शिवमंगल कुमार, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली