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शनिवार, 30 मार्च 2013

नटिन भौजी - जय राम सिंह गौर

जय राम सिंह गौर

वरिष्ठ कथाकार जय राम सिंह गौर का जन्म 12 जुलाई1943 को ग्राम रेरी, जनपद कानपुर (देहात) में हुआ। आपने डाक विभाग को आपनी सेवाएँ दीं और सेवानिवृत्ति के बाद वर्तमान में आप पूर्णकालिक अध्ययन एवं लेखन कार्य कर रहे हैं। आपने न केवल कहानियाँ लिखी, बल्कि कविता, गीत एवं दोहे भी लिखे हैं। आपका एक कहानी संग्रह-‘मेरे गाँव का किंग एडवर्ड’ प्रकाशित हो चुका है। संपर्क:180/12, बापू पुरवा कालोनी, किदवई नगर, कानपुर (नगर)- 208023. मो:09451547042। ईमेल: jrsgaur@gmail.com ।   लोकजीवन से जुडी आपकी एक मार्मिक कहानी यहाँ प्रस्तुत है:-

मेशा घूँघट के भीतर, दो अँगुलियों के बीच से झाँकती-नाचती आँखें नटिन भौजी की पहचान थी।
चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार 

उसकी चपलता बस महसूस करने की बात थी। चाल-चलन में उस पर कभी कोई उँगली नहीं उठा पाया। समय के साथ चल कर भी वह अकेली ही चलती और गाँव-टोले के संबन्धों का वह बखूबी निर्वाह भी करती। जिसे जो प्यार-आदर मिलना चाहिए, खुले हाथों सबको बाँटती।...गाँव जाने पर, मिलते ही राम-राम कहती फिर घर-गृहस्थी के न जाने कितने सवाल कर डालती, ‘बड़ी बहू ठीक है? उनके बच्चा भा कि नाहीं?, चाची की तबियत अब ठीक रहत है?...आदि-आदि। उसकी फिक्र या मुस्कराहट बस दो आँखें ही छलकातीं, होंठ तो ‘शाद ही कभी किसी ने देखे हों। उसकी प्रसन्नता का अंदाजा बस उसकी आखों से ही लगाया जा सकता था। आँखें भी पास से ही देखी जा सकती थीं। उसके घूँघट का कोण रास्ता देखने तक ही बना रहता। उसके चलने और रास्ता देख्ने को यदि एक त्रिभुज में व्यक्त किया जाय तो निश्चय ही समकोण त्रिभुज बनेगा। उसके सवालों के जचाब देने के बाद ही हम आगे घर की ओर बढ़ पाते। वह अपने भी हाल-चाल एक सांस मे सुना डालती कि रज्जन की नौकरी लागि गै, वो जयपुर मा है, वहिकै सादी हुइ गै, भगवान की किरपा से दुई पोता हैं, बहू हेईं हमरे पास रहति है।’ फिर पूछ बैठती,‘ अब तौ त्यौहार करि के जहिहो?’

‘ अरे नाहीं कल जाँय का है।’
‘ नाहीं यह तो गलत बात है, आए हौ तौ त्यौहार करिके जाव।’
‘ त्यौहार पर फिर आ जइबे, अबै तो काफी दिन हैंै’
‘ तब फिर ठीक है, हाँ आएव जरूर, सब लरिका-बच्चन के साथ।’ वो कहती और उसकी आँखें अपनी स्वाभाविक हँसी से भर जातीं।

लेकिन आज नटिन भौजी को देखा तो सहसा विश्वास नहीं हुआ कि यह वही नटिन भौजी हैं। मुँह खोले बैठी थी। धोती का पल्लू जरूर सिर पर था। दोनो हाथो की कुहनियाँ पैर की गाँठ पर टिकी और मुँह हथेलियों पर रखे सूने रास्ते की तरफ ताक रहीं थीं। अब न पहले सी लाज न कोई डर, न किसी के आने की खबर न जाने की।

उसकी यह उदास मुद्रा देख कर, मैने उन्हें टोकना ठीक न समझा, आगे बढ़ गया। पर मन में तमाम सवाल सर उठाने लगे। घर पहुँच कर छोटे भाई से पूछा,-‘क्यों छोटे नटिन भौैजी बीमार हैं क्या?
‘हाँ उसका दिमाग कुछ चल गया है। ’
‘क्या हुआ है उन्हें ?’
‘उसका बेटा, रज्जन हरामी निकला। एक दिन किसी बात पर उसने भौजी पर हाथ उठा दिया और अपने बीबी-बच्चे लेकर जयपुर चला गया।
‘तुम लोगों ने कुछ नही किया ?’ मैने पूछा। 
‘जब तक मालूम पड़ा वह जा चुका था। ’

लगा, यह तो बड़ा अजीब हुआ।... क्या हो सकता है, बेटे ने माँ पर हाथ क्यों उठाया होगा! मन कुछ बोझिल सा होने लगा तो सोचा चलो खेतों की तरफ टहल चलें, वहाँ कुछ और लोग मिलेंगे।अपने चक पर गया। ट्यूबवेल के कमरे के बाहर चारपाई पड़ी थी। उसी पर बैठ गया। अप्रैल का महीना था, मटर-चना पकने पर थे। गेहूँ की बालियाँ भी गदरा गईं थीं। हार भरा-पूरा दिख रहा था। गाँव मे इस तरह के अपने खेत देख कर सब अपने भविष्य का ताना-बाना बुन लेते हैं। दूसरे चक पर कुछ लोग होरा भून रहे थे। उनमे से किसी की निगाह मेरे ऊपर पड़ी। राम-राम हुई और होरा खाने के लिए मुझे बुला लिया। खेत पर होरा भून कर खाने का मजा ही कुछ और होता है। काफी दिनो बाद इस तरह का मौका सामने था। मुझे ‘शहर गए दसियों साल बीत चुके थे और इस तरह की मस्ती की तो ‘शहर में कल्पना ही नही की जा सकती। गया, होरा चबाए और फिर अपने चक पर आ गया। लेटा ही था कि ‘बबुआ राम-राम, कबै आए ?’ 

‘ बबुआ होरा खाएव की नाही ?’
‘ हाँ भइया,थोड़ी दर पहिले ही खाए हैं। ’
‘ अच्छा रुकेव, अभईं आएन।’ कह कर भोला चले गए। तनिक देर में चार-पाँच गन्ने लेकर आ गए। बोले,‘ होरा के बाद ऊँख न चुही जाय तौ का मजा।’
और गन्ने  चूसे गए। भोला गाँव भर की खबर रखते थे, कुछ इधर-उधर की बातों के बाद चल पड़ी बातें नटिन भौजी की। भोला का चेहरा कुछ उदास हो गया बोले,‘नटिन बहू बड़ी अभागी आय।’
‘ काहे ?’ मेरे मुँह से निकला। 
‘ अरे बिचारी न जवानी मा सुख पाएस न बुढ़ापा मा।’ भोला ने गहरी साँस लेकर कहा। बात आगे बढ़ती पर तभी दूर से एक आवाज आई, ‘भोला पानी फूटिगा, जल्दी आव।’ और वह फरुहा उठा कर चले गए।
मै चारपाई पर फिर लेट गया, और गाँव के खलवे मे बसे उस नट परिवार की जैसे फिल्म सी मेरे भीतर चलने लगी।

याद आया वह दिन जब नटिन चाची अपने लड़के की ‘शादी का निमंत्रण देने घर आई थी। न्योते की सुपारी उन्होने ताऊ जी के पैरों के पास रखते हुए अपना माथा जमीन पर टिका दिया था। इस न्योते का मतलब था कि हमारा परिवार इस ‘शादी में उनकी मदद करे। ताऊ जी ने सुपारी फौरन उठा कर मुस्कराते हुए कहा था,‘यह तो बड़ी खुशी की बात है, जाव पटे भाई को भेज देना।’ 

‘अच्छा मालिक।’ कह कर नटिन चाची टोले के अन्य घरों में न्यौता देने चली गई थी।
‘शाम को पटे बाज आए थे। 
‘जोहार मालिक।’
‘आव भाई, लरिका की ‘शादी कहाँ तय किए हो ?’ ताऊ जी ने उससे पूछा था।
‘ मालिक सरगाँव मा।’ और फिर ताऊ जी के पूछने पर उसने बताया था कि लड़की और उसका परिवार ठीक-ठाक है।
‘ अच्छा अब बताव तुम्हे का चही ?’
‘ मालिक बाग मा डेरा लगावैं का हुकुम मिल जाय, जलावन की लकड़ी, आटा-तेल बस।’ पटे बाज ने अपनी फर्माइस ताऊ जी के सामने रखी।
‘ सब हो जाएगा।’ ताऊ जी ने कहा, तो वह जमीन पर माथा टिका, जुहार करके चला गया था। इसी तरह के अश्वासन उसे ऊँचे टोले के हर घर से मिले थे। विवाह के तीन-चार दिन पहले ताऊ जी ने उसे फिर बुलवाया। पटे बाज आया। उसी तरह जुहार करके बोला था,‘का हुकुम मालिक ?’
‘ अरे हुकुम नाही, पूछे का बुलावा रहय कि सब इंतजाम हुइगा ? ’
‘ हुइगा मालिक सब आपै के चरनन का परताब आय।’ पटेबाज ने आसमान की ओर, जैसे दुआ के लिए हाथ उठा कर कहा था।
‘ ध्यान राख्यो कउनौ कमी न रहि जाय, गाँव की इज्जत का सवाल है।’
‘ अरे मालिक अइस इंतजाम होई कि सब देखत रहि जइहैं।’ कहते हुए उसका चेहरा जो कह रहा था, उसे ‘शब्दों में नही पिरो सकते। जुहार करके वह चला गया।

‘शादी की चहल-पहल तीन पहले ही पटेबाज के घर पर दिखने लगी थी। आस-पास के गाँवों के उसके रिस्तेदार जुटने लगे थे। सुबह ‘शाम वे हमारे देवी-देवताओं के साथ अपने देवी-देवताओं की पूजा करते थे। उनके एक ही देवता याद रह गए हैं, ‘शायद वही थे भी नटों के एक मात्र देवता ‘जखई बाबा।’ जिनका गाँव के बाहर एक स्थान नियत था। जिसे यह लोग थान कहते थे। ‘शादी एक दिन पहले बड़े से हरे बाँस में लाल झंडा बाँध कर थान के प्रांगण मे गाड़ा गया, फूल, खीर चढ़ाई गई और धूप भी सुलगाई गई। औरतों ने अपनी भाषा में देव-गीत गाए, जिनके अर्थ तो हमारी समझ मे बिल्कुल नही आए पर इस बहाने यह देखने को जरूर मिला कि उनकी आस्था किसी अदृश्य के प्रति कितनी प्रगाढ़ है।

अब ‘जखई बाबा’ केवल नटों के देवता नहीं रह गए थे।वे गाँव-जवार सबके देवता हो गए थे। गाँव-जवार में जब किसी की भैंस बीमार होती या दूध कम कर देती, सब ‘जखई बाबा’ के थान पर खीर चढ़ाते थे। यह पूजा हम बच्चों के लिए बड़ी रोचक थी। भैंस-गाय के एक समय के पूरे दूध की खीर बनाई जाती थी। ‘थान’ पर दो चम्मच चढ़ाके, जितने लोग साथ जाते थे सब वहीं बैठ कर खाते थे, खीर वापस घर नहीं लाई जाती थी। यह हम बच्चों के लिए वादान बन गया था। मुहल्ले का कोई भी खीर चढ़ाने जाता हम बच्चे भी साथ हो लेते और खीर की दावत उड़ाते। 

नटों की पूजा में लड़की और लड़के वालों के दोनो परिवार शामिल हुए थे। ढोल, थाली और कुछ पारम्परिक वाद्य-यंत्र नटों ने बजाए थे, औरतें-आदमी सब नाचे थे। गाँव भर इस उत्सव में जुट गया था। कुछ लोग नाचने वाली औरतों पर रुपए भी न्योछावर कर रहे थे जिन्हे नटों के बच्चे लूट रहे थे।

इसी तरह तीन दिन तक कार्यक्रम चलते रहे और पटेबाज के लड़के कलाबाज की ‘शादी हो गई। ‘शादी के रस्मो-रिवाज, जो हम अपने घरों मे देखते, वैसा कुछ नही दिखा। अगले दिन मण्डप उखाड़ा गया। औरतें उसमे बंधा फूस और कलश के पास अँकुरा आए धान के पौधों को उखाड़ टोकरे में रख कर उसे सिरवाने गाँव के बड़े तालाब की ओर चल दीं। सिर पर मौर रखे आगे-आगे कलाबाज, पीछे उसकी नवविवाहिता(नटिन भौजी ) कपड़े को ऐंठ कर बनाया कोड़ा लिए। विवाह-गीत गाती औरतों का झुन्ड साथ में। यह शायद उनके यहाँ की कोई रस्म रही होगी कि वधू, वर को कोड़ा मारते हुए ताल तक ले जाती है और फिर वर, वधू को कोड़ा मारते हुए घर तक लाता है। तो नटिन भौजी कोड़े मारते हुए कला बाज को तालाब तक ले गई। जल की पूजा हुई। और कोड़े खाती हुई घर आ गई। औरतें घड़ों में तालाब से पानी-कीचड़ भर लाई थीं। लौटते हुए जो मिला उसी पर, होली जैसा उल्लास जीते-दिखाते, वो कीचड़ उसी पर डाल देतीं। इसी दिन बकरे की बलि दी गई, देवी पूजी गई, जखई बाबा पूजे गए। फिर पटे बाज के घर से बचे-खुचे मेहमान भी विदा हो गए।

फिर एक दिन कि जब नटिन चाची, जतन से सँवार कर, अपनी बहू लेकर मुँह दिखाई करवाने मेरे घर आई थी। बेल-बूटे दार घाँघरा, फूलों वाला जम्पर पहने और कढ़ाई वाली चटक लाल चूनर ओढ़े थी, नटिन भौजी। पाँवों मे चाँदी के मोटे-मोटे खड़ुए साँवले रंग पर अलग चमक रहे थे। नटिन चाची और बहू ने जमीन पर माथा टेक कर अम्मा को प्रणाम किया। अम्मा ने कहा,‘अब बहू का मुँह तो दिखाओ।’ 

नटिन चाची ने दोनो हाथों की दो-दो उँगलियों से बहू का घँूघट कुछ चैड़ा किया, मै छोटा था इस लिए अम्मा के कंधे पर सर रखे उनके पीछे खड़ा था। नटिन चाची ने अपनी बहू से यह भी कहा था, ‘ यो लाला तुम्हार देवर लागी।’ याद है कि सुरंग के भीतर जैसे हल्की रोशनी मे किसी देवी की मूर्ति की आँखें चमक रही हों। अजंता-एलोरा की गुफाओं मे जिस प्रकार पार्वती अपनी छटा विखेरती हैं। या राम गढ़ की गुफाओं मे पाली या किसी अन्य भाषा मे लिखे नाट्य-सूत्र और भित्त-चित्र। नटिन भौजी ने हौले से पुतलियाँ नचा कर मेरी ओर निहारा था। घूँघट के भीतर से नटिन भौजी की वो चमकती आँखें कभी नही भूलीं। अम्मा ने भी तनिक झाँक कर नई बहू का मुँह देखने के बाद उसके आँचल में एक भेली गुड, चावल और एक रुपया चाँदी का डाला था। चाची-भौजी दोनो ने फिर उसी तरह अम्मा को प्रणाम किया और दूसरे घर की ओर चल पडी। इन लोगों के पीछे-पीछे अपने टोले के तीन-चार घरों मे मै गया कि ‘शायद पूरा चेहरा दिख जाय,पर नहीं, एक बार जितना देखा उस दिन उतना ही हर घर में देखने को मिला।

पटे बाज और उसकी पत्नी अपनी बहू की तारीफ करते अघाते नहीं थे। वो थी ही ऐसी सुशील, सुन्दर, कमेसुर और प्यारी गुड़िया जैसे। तितली जैसी फुर्र उड़ते हुए काम करती। मेरी तब तक तो मसें भी नही भीगीं थीं, लेकिन मेरे गोल में कुछ बड़ी उम्र के लड़के भी थे। एक था किसना। उसने ‘ाायद किसी दिन भौजी को कहीं देख लिया होगा, वह एक दिन अपने गोल में बोला,‘ अबे यार, नटिन भौजी है बहुत टनाटन माल, मिल जाय तौ मजा आ जाय। ’ मुझे उसका हाथ और आँखें मटका कर यह कुछ बताना अच्छा न लगा। क्यों, नही जानता। घर आकर ताऊ जी को बता दिया कि किसना ऐसा कह रहा था। बस किसना की उसके घर में वो गत बनाई गई कि अगले दिन उसने मुझे धमकाते हुए कहा कि, ‘कि तुमका देखि लेबे।’

अब मैं डरा कि यह तो मेरी कुटम्मस करेगा। घर भाग आया और ताऊ जी से फिर बताया कि किसना हमको मारने के लिए कह रहा है। उस दिन किसना का घर में फिर इलाज किया गया। ‘शाम को खाना नही मिला और जब तक उसने हमसे माफी नही मागी उसे घर में नहीं घुसने दिया गया। 

नटों का परिवार सीमित था। ये चार प्राणी और इनके पास अपने खाने-पीने की व्यवस्था के लिए चार भैंसे, दो गाय और दो साँड़ भैंसा। बकरन भैंसे वो ‘शहर के चट्टोंं से खरीद लाते। जब तक दूध देतीं दूध-घी बेंचते और बियाने के समय फिर ‘ाहर के चट्टों मे बेच आते। इससे उन्हे मजे की कमाई हो जाया करती। साँ़ड़ भैसों से आस-पास के गावों से भी गर्भाधानके लिए लोग अपनी भैंसे लाते और बदले में इन्हे पैसा या आनाज दे जाते। इसके अतिरिक्त साल मे दो बार ज्यौरा मिलता। इस तरह इनके परिवार को खाने-पीने की कोई परेशानी नही होती। यह लोग अपनी पारम्परिक जानकारी के अनुसार जड़ी-बूटियों से जानवरों का इलाज भी करते थे।

गाँव मे कतकी का मेला औरतों और बच्चों के लिए विशेष महत्व रखता था। हालाँकि बड़े-बूढ़े भी शा म को सज-धज कर कुछ देर आपसी मिला-भेंटी करने आ जाते थे। इस अवसर पर नटों का तमाशा भी होता। जिसे पटेबाज आस-पास के गावों मे रहने वाले नटों के साथ मिल किया करते थे। खेल की तैयारी दो दिन पहले से शुरू हो जाती थी। चैक मे बड़े-बडे बाँस गाड़े जाते, उनके ऊपरी सिरे पर एक मचिया बाँधी जाती और मोटे रस्से से भी ऊपर उन्हे जोड़ा जाता, जिस पर चल कर नट लोग अपने अजीब-अजीब करतब दिखाते।इस बार का यह सालाना खेल आस-पास के गाँवों के लिए इस कारण भी विशेष आकर्षण का केन्द्र था, क्यों कि पटे बाज की नई बहू भी अपने करतब दिखाने वाली थी। यह नटों के यहाँ की परम्परा थी कि घर आई नई बहू अपने करतब दिखाती थी। इस बार कला बाज के लिए विशेष करतब दिखाने का इंतजाम भी किया गया था। नीम की ऊची डाल से,जमीन मे खूँटा गाड़ के एक रस्सा बाँधा गया था।

होते करते अगला दिन आया। मतलब नटों के तमाशे का दिन। जमींदारी गए वैसे तो सालों बीत चुके थे लेकिन गाँव में अभी भी पुराने जमींदारों का पूरा मान-सम्मान बरकरार था। इस लिए हम लोगों के परिवार के सदस्यों के बैठने के लिए अलग वी.आई.पी. इंतजाम था।

खैर पटे बाज ने ढोल बजाना शुरू किया। वो बूढ़ा हो चला था, कहा करता था कि,‘ बाबू ढोल मा नटन केर जिउ बसत है जो नट ढोल न बजा सकै वह नट कइस! ’ साथ मे नटिन चाची लकड़ी की चोपों से थाली बजा कर संगत देनी ‘ाुरू की। इसका मतलब था कि अब नटों का खेल शुरू होने वाला है। लेकिन क्या कमाल का ढोल बजाता था पटे बाज, कितनी तन्मयता थी उसमे कि सुनने वालों के दिल धड़कने लगते और बच्चे अपनी सांस साधे, कौतूहल से खेल शुरू होने का इंतजार करते।

हम लोग अपने धराऊ कपड़े पहने ताऊ जी के साथ तमाशे में मौजूद थे। पटे बाज ने ढोल बजाना रोका, ताऊ जी के सामने आकर जुहार किया और तमाशा शुरू करने की अनुमति माँगी। फिर अपने कुल-देवता का स्मरण कर पटे बाज ने ‘जय बजरंग बली’ का जयकारा लगाया।

बाजे बजना फिर शुरू हुआ। पटे बाज, कला बाज और उसके साथी नट अनेक प्रकार के वाद्य बजा रहे थे। नटिन चाची वही थाली लकड़ी की चरेपों से बजा कर सब यंत्रों का साथ दे रही थीं। पुनः जयकारा लगा, बाजे बजने बन्द हुए।

नटिन भौजी उठी। आज के लिए नटिन चाची ने अपनी बहू को बिल्कुल गुड़िया की तरह सजाया था। रंगीन घाँघरा, जम्पर, ओढ़नी ओढ़े वह बाँस पर चढ़ी। चढ़ने पहले उसने धरती माता को सिर टिका कर प्रणाम किया। बाँस पर चढ़ कर मचिया पर चढ़ी और फिर दोनो हाथ फैला कर शरीर का संतुलन बनाते हुए रस्से पर चल कर एक छोर से दूसरे छोर पहुँच गई। कला बाज बड़ी तन्मयता से ढोल बजा रहा था, कि उसे दीन-दुनिया का कुछ होश ही न हो जैसे। उसके सधे हाथ ढोल पर थाप दे रहे थे और निगाहें रस्से पर चलती हुई अपनी बीबी पर अपलक टिकी हुईं थीं। भौजी दो बार रस्से पर इधर से उधर गई। फिर वो सर पर दो खाली घड़े रख कर रस्से पर इस छेार से उस छोर चली गई। तालियाँ गूँज उठ। भौजी नीचे उतरी। नटिन चाची ने आगे बढ़ कर उसकी बलैंयाँ लीं और गले से लगा लिया। शायद कला बाज भी ऐसा ही कुछ करना चाह रहा हो, पर उसका खिला हुआ चेहरा ही भीड़ ने देखा।

एक के बाद एक नटों ने बड़े अद्भुत करतब दिखाए। बाँसों के ऊपर बँधी मचिया पर इलायची बाज ने जो कलाबाजी-करतब दिखाए वो बेहद हैरत-अंगेज थे। एक कलाबाजी के बाद लगता कि इस बार जरूर नीचेे गिरेगा और अपने हाथ-पैर तोड़ लेगा। लेकिन बाह इलायची बाज! उसके संतुलन में जरा भी कमी नही आई और उसने उसके बाद तीन भालों को जोड़ कर बनाए त्रिभुज को एक बाँस मे फंसा कर ऊपर उठाया और उसे हवा मे उछाल कर खुद पैर फैला कर जमीन पर लेट गया। भाले ऊपर से गिरे। एक उसके बाएं,एक दाएं और एक दोनो टांगो के बीच गिर कर जमीन मे धंस गए। वह बिल्कुल महफूज। लोगों ने तालियाँ बजा कर उसकी तारीफ की और वह सबको अभिवादन कर एक तरफ बैठ गया।

अब बारी आई कला बाज की। शरीर पर केवल लँगोट पहने खड़ा हुआ। उसकी छाती पर एक चमड़े का टुकड़ा बाँधा गया। वह अपने इष्ट का ध्यान कर नीम के पेड़ पर चढ़ा और जिस डाल पर रस्सा बँधा था उस पर पहुँच गया। तो नटिन भौजी के घूँघट मे फंसी दो उँगलियों के बीच झाँकती आँखें अपने पति पर जा टिकीं। कला बाज दोनो हाथों से पकड़ कर रस्से पर लेट गया। उसने दोनो हाथ हवा में पंछियों की तरह फैलाए और तूफानी गति से सरकता हुआ जमीन पर आ लगा। हम सब खड़े हो गए और नटिन भौजी भी खड़ी हो गई। उसके घूँघट में फँसी दोनो उँगलियाँ हटीं, दोनो हाथ जुड़े और आसमान की ओर उठ गए थे। कला बाज सीधा भागता हुआ ताऊ जी के पास आया और अपना सर उनके पैरों पर रख दिया। ताऊ जी ने उसके सर पर हाथ फेरा और ग्यारह रुपए उसे ईनाम के तौर पर दिए।

पटे बाज ने चैक में एक चादर फैला दी थी। सब लोगों ने उसमे कुछ न कुछ धन डाला। मुझे आज तक याद है कि मेले में खर्च करने को दी गई एक अठन्नी की पूँजी को मैने उस चादर में डाल दिया था। ताऊ जी यह देख रहे थे। जब मै वापस उनके पास आया तो उन्होने मेरी पीठ पर हाथ फेरा था।

नट परिवार का जीवन बड़े आराम से चल रहा था। नटिन भौजी के आजाने से परिवार की खुशियाँ और बढ़ गईं थीं। समय पंख पसार कर उड़ रहा था।

एक दिन मुझे नटिन चाची के यहाँ घी लाने के लिए भेजा गया। घर के बाहर कोई नही दिखा। सोचा ‘ाायद पटे बाज भैंस चराने गए होंगे सो अंदर चला गया। देखा कि कला बाज और नटिन भौजी एक चटाई पर आमने-सामने पत्थर की मूर्ति-से बैठे हैं। कला बाज के कपड़ों से लग रहा था कि अभी कहीं बाहर से लौटा है। उनके बीच एक दोने मे मिठाई रक्खी थी जिसमे से ‘ाायद किसी ने भी कुछ खाया नही था। दोनो की दृष्टि एक-दूसरे मे ऐसी गुम्फित हो गई थी कि किसी की पलक भी नही झपक रही थी।

मेरे कहने पर कि ‘भौजी हमार घी! ’ उनकी एकाग्रता टूटी। भौजी उठ कर धत्त कहती हुई भीतर भागी। कला बाज ने हाथ बढ़ा कर उसे पकड़ना चाहा पर उसके आँचल को भी न छू पाया। इतनी फुर्तीली थी भौजी। तनिक देर में उसने घी की भड़िया ला कर मुझे थमा दी, और मेरे गाल में चिकोटी काटते हुए बोली,‘ लाला कोउ ते कहेव ना।’
कला बाज बोला,‘अरे बबुआ समझदार हैं कोउ ते न कहियैं।’
घी लेकर मैं लौट पड़ा और रास्ते भर सोचता रहा क्या किसी से न कहना!

जाड़े के दिन थे। अगले दिन घी के पैसे देने फिर भौजी के घर जाना पड़ा। बाहर किसी को न देख कर भीतर चला गया। मुझे यह तो पता था कि घर का कोई बड़ा जब घर के भीतर आता है तो खाँसता है पर छोटों पर यह नियम लागू नहीं होता। मैं कमरे के सामने पहुँचा तो देखा कि चटाई के ऊपर एक रजाई पड़ी है। फिर लगा कि उसके भीतर दो बिल्लियाँ फँसी हैं और लड़ रही हैं। डर गया, फिर जोर से पुकारा ‘भौजी! ’ दिखा कि कोई रजाई के भीतर से निकल कर भागा। और रजाई के भीतर की उथल-पुथल जो समुद्र की सुनामी लहरों जैसी लग रही थी शात हो गई। थोड़ी देर सन्नाटा रहा फिर भौजी घूँघट काढ़े बाहर आई, मुझसे पैसे लिए, फिर गालों में चुटकी काटते हुए बोली,‘ तुम बड़े वो हौ।’ और खिलखिलाते हुए भाग गई। तब इन बातों का मतलब कुछ नही समझ पाया था। जब समझा तो सारे दृ‘य आज भी आँखों मे तैर जाते हैं। 

भौजी और कला बाज का प्यार परवान चढ़ा। वो बेटे की माँ बनी। नट परिवार की खुशियों में चार चाँद लग गए। लेकिन ऊपर वाले को क्या मंजूर है कोई नही जानता।
कला बाज को ‘हाइड्रोफोबिया’ हो गया। तमाम झाड़-फूँक कराई गई, सब बेकार। गाँव के कुछ समझदार लागों ने कहा भी कि इसे शहर ले जाओ, पर नटों के अन्धविश्वास अपने थे। वो चल बसा। 

बेटे के अचानक चले जाने का दःुख पटे बाज और नटिन चाची नही झेल सकी। एक महीने के अंतर से यह दोनो भी भगवान को प्यारे हो गए। बस नटिन भौजी और उसकी गोद में रज्जन। भौजी के मायके वालों ने गाँव आकर उसे बहुत समझाया कि अभी उम्र ही क्या है, दूसरी शादी कर ले पर उसने किसी की एक न मानी। एक दिन घर मे सुना अम्मा से कह रही थी ‘ चाची किस्मत के आगे तौ कउनौ जोर चलत नाईं। मेहनत करके रज्जनवा का पढ़इबे, जित्ता यो पढ़ा चाही। ’

अम्मा ने भी उसकी हिम्मत बढ़ाई थी। भौजी घरों-घरों जाकर आटा पीसने से लेकर दाल-धान कूटने का काम करके रज्जन की पढ़ाई के लिए अतिरिक्त आय करने लगी। धीरे-धीरे उसकी जिंदगी रेंगने लगी। रज्जन स्कूल, स्कूल से कॉलेज गया फिर बी.ए. पास करते ही उसकी जयपुर में सरकारी नौकरी लग गई। भौजी के सारे दुख काफूर हो गए। रज्जन की शादी हुई। डेढ़ दो साल के अंतर पर उसकी बहू ने जुड़वा बच्चों को जन्म दिया। रज्जन हर महीने घर खर्च के लिए अच्छी रकम भेज देता। होते करते भौजी का घर पक्का बन गया।

रज्जन अपनी बहू को जयपुर नही ले गया था। शायद इसलिए कि कोई बता रहा था कि वहाँ जा कर वह राम सिंह चैहान हो गया है। बरहाल इन चैहान साहब को जयपुर की हवा लगी तो वह पीने के आदी हो गए।

इस बार होली पर रज्जन घर आया हुआ था। गाँव के रीत-रिवाज भूला नही था। सब घरों में जाकर पैलगी की अपने और जयपुर के हाल बताए। होली पर भाँग और शराब का चस्का तो जोर मारता ही है। त्यौहार पर रज्जन के चाचा भी पास के गाँव से मिला-भेंटी करने आए थे। रज्जन अपने साथ अग्रेंजी की बोतल लाया था। वही उसने चाचा के सम्मान मे पेश की। दोनो ने पी। रज्जन शायद औकात से ज्यादा पी गया था। भौजी ने कहा, ‘ बस करो तुम लोग चलो खाना लगा दीन है, खाओ चलै। ’

पीना रोक दिया गया। दोनो लोग खाने बैठे। होली का त्योहार छेड़-छाड़ का, हँसी-ठिठोली का, उस पर देवर-भाभी का रिस्ता। रज्जन के चाचा ने अपनी भौजी से कुछ ठिठोली कर दी। भौजी ने भी उसी तरह से जवाब दे दिया। जो रज्जन को बहुत नागवार गुजरा। चाचा के चले जाने के बाद उसने माँ से पूछा, ‘ तुम चाचा से मजाक काहे करती रहौ?’
‘ तौ का हुइगा। ’
‘ए सब कब से चल रहा है ? ’
‘का कब से चल रहा है ? ’ भौजी ने सहजता से कहा।
इस बार रज्जन की आवाज कड़क के साथ गरजी, ‘ बताओ ए कब से चल रहा है ? ’
‘ अरे का कब से चलि रहा है? ’ भौजी भी खीजते हुई बोली थी।

बस रज्जन ने उठ कर भौजी को एक करारा थप्पड़ जड़ दिया। थप्पड़ इतना करारा था कि वह फर्श पर लुढ़क गई। और विधवा होने के बाद की जिंदगी की रील जैसी उसके अंदर चल गई। किस हौसले से पाला था इसे! क्या-क्या अरमान सँजोए थे। भौजी के सामने वह दिन भी घूम गया जब किसना ने उसे एक खेत में पकड़ लिया था, जीवन भर सहारा देने का वादा किया था और उसने किस तरह उससे विनती करके स्वयं को गिरने से बचाया था।.......अक्सर जाड़े की रातों में अगिन उठने पर वो ठंडे पानी से नहा कर खुद को शांत करती थी।.....उसे लगा कि किसना तो उस दिन से सम्हल गया पर मेरा बेटा ?........रज्जन ने नशे मे न जाने भौजी को कितना मारा। वो बेहोश हो गई थी। सुबह जब उसे होश आया तो कराहते हुए उसने देखा कि वह घर में अकेली है। रज्जन अपने बीबी-बच्चे लेकर जा चुका था। घर के बाहर चबूतरे पर अपना सर पकड़ कर भौजी बैठ गई। और एक टक स्टेशन जाने वाली सड़क को सूनी आँखों से निहारती रही।..

A Hindi Story by Jay Ram Singh Gaur

बुधवार, 27 मार्च 2013

मानवीय संबंधों में समरसता का पर्व 'होली' — ललित गर्ग

ललित गर्ग
ई-253, सरस्वती कुंज अपार्टमेंट
25, आई0पी0 एक्सटेंशन
पटपड़गंज, दिल्ली-92
मो. 09811051133

lalitgarg11@gmail.com

भारतवर्ष की ख्याति पर्व-त्यौहारों के देश के रूप में है। प्रत्येक पर्व-त्यौहार के पीछे परंपरागत लोकमान्यताएं एवं कल्याणकारी संदेश निहित है। इन पर्व-त्यौहारों की श्रृंखला में होली का विशेष महत्व है। इस्लाम के अनुयायियों में जो स्थान ‘ईद’ का है, ईसाइयों में ‘क्रिसमस’ का है, वही स्थान हिंदुओं में होली का है। होली का आगमन इस बात का सूचक है कि अब चारों तरफ वसंत ऋतु का सुवास फैलनेवाला है। यह पर्व शिशिर ऋतु की समाप्ति और ग्रीष्म ऋतु के आगमन का प्रतीक है। वसंत के आगमन के साथ ही फसल पक जाती है और किसान फसल काटने की तैयारी में जुट जाते हैं। वसंत की आगमन तिथि फाल्गुनी पूर्णिमा पर होली का आगमन होता है, जो मनुष्य के जीवन को आनंद और उल्लास से प्लावित कर देता है।

होली का पर्व मनाने की पृष्ठभूमि में अनेक पौराणिक कथाएं एवं सांस्कृतिक घटनाएं जुड़ी हुई हैं। पौराणिक कथा की दृष्टि से इस पर्व का संबंध प्रह्लाद और होलिका की कथा से जोड़ा जाता है। प्रह्लाद के पिता हिरण्यकश्यप नास्तिक थे तथा वे नहीं चाहते थे कि उनके घर या पूरे राज्य में उन्हें छोड़कर किसी और की पूजा की जाए। जो भी ऐसा करता था, उसे जान से मार दिया जाता था। प्रह्लाद को उन्होंने कई बार मना किया कि वे भगवान विष्णु की पूजा छोड़ दे, परंतु वह नहीं माना। अंततः उसे मारने के लिए उन्होंने अनेक उपाय किए, परंतु सपफल नहीं हुए। हिरण्यकश्यप की बहन का नाम होलिका था, जिसे यह वरदान प्राप्त था कि वह अग्नि मंे नहीं जलेगी। हिरण्यकश्यप ने अपनी बहन को आदेश दिया कि वह प्रह्लाद को लेकर आग में बैठ जाए ताकि प्रह्लाद जलकर राख हो जाए। होलिका प्रह्लाद को लेकर जैसे ही आग के ढेर पर बैठी, वह स्वयं जलकर राख हो गई, भक्त प्रह्लाद को कुछ नहीं हुआ। बाद में भगवान विष्णु ने नृसिंह अवतार लेकर हिरण्यकश्यप का वध किया। उसी समय से होलिका दहन और होलिकोत्सव इस रूप में मनाया जाने लगा कि वह अधर्म के ऊपर धर्म, बुराई के ऊपर भलाई और पशुत्व के ऊपर देवत्व की विजय का पर्व है। एक कथा यह भी प्रचलित है कि जब भगवान श्रीकृष्ण ने दुष्टों का दमन कर गोपबालाओं के साथ रास रचाया, तब से होली का प्रचलन शुरू हुआ। श्रीकृष्ण के संबंध में एक कथा यह भी प्रचलित है कि जिस दिन उन्होंने पूतना राक्षसी का वध किया, उसी हर्ष में गोकुलवासियों ने रंग का उत्सव मनाया था। लोकमानस में रचा-बसा होली का पर्व भारत में हिन्दुमतावलंबी जिस उत्साह के साथ मनाते हैं, उनके साथ अन्य समुदाय के लोग भी घुल-मिल जाते हैं। उसे देखकर यही लगता है कि यह पर्व विभिन्न संस्कृतियों को एकीकृत कर आपसी एकता, सद्भाव तथा भाईचारे का परिचय देता है। फाल्गुन की पूर्णिमा के दिन लोग घरों से लकड़ियां इकट्ठी करते हैं तथा समूहों में खड़े होकर होलिका दहन करते हैं। होलिका दहन के अगले दिन प्रातःकाल से दोपहर तक फाग खेलने की परंपरा है। प्रत्येक आयुवर्ग के लोग रंगों के इस त्यौहार में भागीदारी करते हैं। इस पर्व में लोग भेदभाव को भुलाकर एक दूसरे के मुंह पर अबीर-गुलाल मल देते हैं। पारिवारिक सदस्यों के बीच भी उत्साह के साथ रंगों का यह पर्व मनाया जाता है।

जिंदगी जब सारी खुशियों को स्वयं में समेटकर प्रस्तुति का बहाना माँगती है तब प्रकृति मनुष्य को होली जैसा त्योहार देती है। होली हमारे देश का एक विशिष्ट सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक त्यौहार है। अध्यात्म का अर्थ है मनुष्य का ईश्वर से संबंधित होना है या स्वयं का स्वयं के साथ संबंधित होना। इसलिए होली मानव का परमात्मा से एवं स्वयं से स्वयं के साक्षात्कार का पर्व है। असल में होली बुराइयों के विरुद्ध उठा एक प्रयत्न है, इसी से जिंदगी जीने का नया अंदाज मिलता है, औरों के दुख-दर्द को बाँटा जाता है, बिखरती मानवीय संवेदनाओं को जोड़ा जाता है। आनंद और उल्लास के इस सबसे मुखर त्योहार को हमने कहाँ-से-कहाँ लाकर खड़ा कर दिया है। कभी होली के चंग की हुंकार से जहाँ मन के रंजिश की गाँठें खुलती थीं, दूरियाँ सिमटती थीं वहाँ आज होली के हुड़दंग, अश्लील हरकतों और गंदे तथा हानिकारक पदार्थों के प्रयोग से भयाक्रांत डरे सहमे लोगों के मनों में होली का वास्तविक अर्थ गुम हो रहा है। होली के मोहक रंगों की फुहार से जहाँ प्यार, स्नेह और अपनत्व बिखरता था आज वहीं खतरनाक केमिकल, गुलाल और नकली रंगों से अनेक बीमारियाँ बढ़ रही हैं और मनों की दूरियाँ भी। हम होली कैसे खेलें? किसके साथ खेलें? और होली को कैसे अध्यात्म-संस्कृतिपरक बनाएँ। होली को आध्यात्मिक रंगों से खेलने की एक पूरी प्रक्रिया आचार्य महाप्रज्ञ द्वारा प्रणित प्रेक्षाध्यान पद्धति में उपलब्ध है। इसी प्रेक्षाध्यान के अंतर्गत लेश्या ध्यान कराया जाता है, जो रंगों का ध्यान है। होली पर प्रेक्षाध्यान के ऐसे विशेष ध्यान आयोजित होते हैं, जिनमें ध्यान के माध्यम से विभिन्न रंगों की होली खेली जाती है। 

यह तो स्पष्ट है कि रंगों से हमारे शरीर, मन, आवेगों, कषायों आदि का बहुत बड़ा संबंध है। शारीरिक स्वास्थ्य और बीमारी, मन का संतुलन और असंतुलन, आवेगों में कमी और वृद्धि-ये सब इन प्रयत्नों पर निर्भर है कि हम किस प्रकार के रंगों का समायोजन करते हैं और किस प्रकार हम रंगों से अलगाव या संश्लेषण करते हैं। उदाहरणतः नीला रंग शरीर में कम होता है, तो क्रोध अधिक आता है, नीले रंग के ध्यान से इसकी पूर्ति हो जाने पर गुस्सा कम हो जाता है। श्वेत रंग की कमी होती है, तो अशांति बढ़ती है, लाल रंग की कमी होने पर आलस्य और जड़ता पनपती है। पीले रंग की कमी होने पर ज्ञानतंतु निष्क्रिय बन जाते हैं। ज्योतिकेंद्र पर श्वेत रंग, दर्शन-केंद्र पर लाल रंग और ज्ञान-केंद्र पर पीले रंग का ध्यान करने से क्रमशः शांति, सक्रियता और ज्ञानतंतु की सक्रियता उपलब्ध होती है। प्रेक्षाध्यान पद्धति के अन्तर्गत ‘होली के ध्यान’ में शरीर के विभिन्न अंगों पर विभिन्न रंगों का ध्यान कराया जाता है और इस तरह रंगों के ध्यान में गहराई से उतरकर हम विभिन्न रंगों से रंगे हुए लगने लगा।

यद्यपि आज के समय की तथाकथित भौतिकवादी सोच एवं पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव, स्वार्थ एवं संकीर्णताभरे वातावरण से होली की परम्परा में बदलाव आया है । परिस्थितियों के थपेड़ों ने होली की खुशी और मस्ती को प्रभावित भी किया है, लेकिन आज भी बृजभूमि ने होली की प्राचीन परम्पराओं को संजोये रखा है । यह परम्परा इतनी जीवन्त है कि इसके आकर्षण में देश-विदेश के लाखों पर्यटक ब्रज वृन्दावन की दिव्य होली के दर्शन करने और उसके रंगों में भीगने का आनन्द लेने प्रतिवर्ष यहाँ आते हैं ।

बसन्तोत्सव के आगमन के साथ ही वृन्दावन के वातावरण में एक अद्भुत मस्ती का समावेश होने लगता है, बसन्त का भी उत्सव यहाँ बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है । इस उत्सव की आनन्द लहरी धीमी भी नहीं हो पाती कि प्रारम्भ हो जाता है, फाल्गुन का मस्त महीना । फाल्गुन मास और होली की परम्पराएँ श्रीकृष्ण की लीलाओं से सम्बद्ध हैं और भक्त हृदय में विशेष महत्व रखती हैं। श्रीकृष्ण की भक्ति में सराबोर होकर होली का रंगभरा और रंगीनीभरा त्यौहार मनाना एक विलक्षण अनुभव है। मंदिरों की नगरी वृन्दावन में फाल्गुन शुक्ल एकादशी का विशेष महत्व है । इस दिन यहाँ होली के रंग खेलना परम्परागत रूप में प्रारम्भ हो जाता है । मंदिरों में होली की मस्ती और भक्ति दोनों ही अपनी अनुपम छटा बिखेरती है।

इस दिव्य मास और होली के रंग में अपने आपको रंगने के लिये भक्तगण होली पर सुदूर प्रान्तों एवं स्थानों से वृन्दावन आकर आनन्दित होते हैं। उनकी वृन्दावन तक की यात्रा कृष्णमय बनकर चलती हैं और उसमें भी होली की मस्ती छायी रहती है। रास्ते भर बसों में गाना-बजाना, होली के रसिया और गीत, भक्ति प्रधान नृत्य, कभी-कभी तो विचित्र रोमांच होने लगता है । वृन्दावन की पावन भूमि में पदार्पण होते ही भक्तों की टोलियों का विशेष हृदयग्राही नृत्य बड़ा आकर्षक होता है । लगता है, बिहारीजी के दर्शनों की लालसा में ये इतने भाव-विह्वल हैं कि जमीन पर पैर ही नहीं रखना चाहते । कोई किसी तरह की चिन्ता नहीं, कोई द्वेष और मनोमालिन्य नहीं, केवल सुखद वातावरण का ही बोलबाला होता है। होली को सम्पूर्णता से आयोजित करने के लिये मन ही नहीं, माहौल भी चाहिए और यही वृंदावन आकर देखने को मिलता है।

दरअसल मनुष्य का जीवन अनेक कष्टों और विपदाओं से भरा हुआ है। वह दिन-रात अपने जीवन की पीड़ा का समाधान ढूंढने में जुटा रहता है। इसी आशा और निराशा के क्षणों में उसका मन व्याकुल बना रहता है। ऐसे ही क्षणों में होली जैसे पर्व उसके जीवन में आशा का संचार करते हैं। जर्मनी, रोम आदि देशों में भी इस तरह के मिलते-जुलते पर्व मनाए जाते हैं। गोवा में मनाया जाने वाला ‘कार्निवाल’ भी इसी तरह का पर्व है, जो रंगों और जीवन के बहुरूपीयपन के माध्यम से मनुष्य के जीवन के कम से कम एक दिन को आनंद से भर देता है। होली रंग, अबीर और गुलाल का पर्व है। परंतु समय बदलने के साथ ही होली के मूल उद्देश्य और परंपरा को विस्मृत कर शालीनता का उल्लंघन करने की मनोवृत्ति बढ़ती जा रही है। प्रेम और सद्भाव के इस पर्व को कुछ लोग कीचड़, जहरीले रासायनिक रंग आदि के माध्यम से मनाते हुए नहीं हिचकते। यही कारण है कि आज के समाज में कई ऐसे लोग हैं जो होली के दिन स्वयं को एक कमरे में बंद कर लेना उचित समझते हैं।

सही अर्थों में होली का मतलब शालीनता का उल्लंघन करना नहीं है। परंतु पश्चिमी संस्कृति की दासता को आदर्श मानने वाली नई पीढ़ी प्रचलित परंपराओं को विकृत करने में नहीं हिचकती। होली के अवसर पर छेड़खानी, मारपीट, मादक पदार्थों का सेवन, उच्छंृखलता आदि के जरिए शालीनता की हदों को पार कर दिया जाता है। आवश्यकता है कि होली के वास्तविक उद्देश्य को आत्मसात किया जाए और उसी के आधार पर इसे मनाया जाए। होली का पर्व भेदभाव को भूलने का संदेश देता है, साथ ही यह मानवीय संबंधों में समरसता का विकास करता है। होली का पर्व शालीनता के साथ मनाते हुए इसके कल्याणकारी संदेश को व्यक्तिगत जीवन में चरितार्थ किया जाए, तभी पर्व का मनाया जाना सार्थक कहलाएगा।

An Article On Holi by Lalit Garg

शुक्रवार, 22 मार्च 2013

उज्जैन : श्लोक से लोक तक की आस्था का केन्द्र महाकालेश्वर - शैलेन्द्रकुमार शर्मा

डॉ. शैलेन्द्रकुमार शर्मा

डॉ. शैलेन्द्रकुमार शर्मा का जन्म 20 अक्टूबर 1966 को उज्जैन, म.प्र. में हुआ। शिक्षा: बी.एससी. एम. ए.(हिंदी)- स्वर्ण पदकलब्ध, एम.फिल.,पीएच. डी., यू.जी.सी.- नेट। मुख्यतः आलोचना, रंगमंच, लोक- साहित्य और संस्कृति, राष्ट्रभाषा हिन्दी एवं देवनागरी लिपि से जुडे शोध एवं लेखन में विगत ढाई दशकों से सक्रिय। विक्रम विश्वविद्यालय के हिन्दी विभागाध्यक्ष के रूप में कार्य करते हुए अनेक नवाचारी प्रयत्न, जिनमें विश्व हिंदी संग्रहालय एवं अभिलेखन केंद्र, मालवी लोक साहित्य एवं संस्कृति केन्द्र तथा भारतीय जनजातीय साहित्य एवं संस्कृति केन्द्र की संकल्पना एवं स्थापना प्रमुख हैं। प्रकाशित कृतियाँ: पच्चीस, जिनमें प्रमुख हैं - शब्दशक्ति सम्बन्धी भारतीय और पाश्चात्य अवधारणा तथा हिंदी काव्यशास्त्र, मालवा का लोक-नाट्य माच और अन्य विधाएं, अवन्ती क्षेत्र और सिंहस्थ महापर्व, मालवसुत पं. सूर्यनारायण व्यास, हरियाले आँचल का हरकारा:हरीश निगम, आचार्य नित्यानंद शास्त्री और रामकथा कल्पलता, देवनागरी विमर्श, मालव मनोहर, हिंदी भाषा संरचना, हरदिल अजीज भगवती शर्मा, सोंधवाडी साहित्य, संस्कृति और व्याकरण, मालवी भाषा और साहित्य, लोक कवि झलक निगम, हरीश प्रधान: व्यक्ति और काव्य, ज्ञानसेतु, झालावाड़: इतिहास, संस्कृति और पर्यटन, झालावाड़ की मूर्तिकला परंपरा, पीयूषिका आदि। विविध विषयों पर डेढ़ सौ से अधिक शोध एवं समीक्षापरक निबंधों का प्रकाशन। देश-विदेश के प्रमुख पत्र -पत्रिकाओं में 750 से अधिक आलेख, समीक्षा आदि का प्रकाशन। पुरस्कार/सम्मान: जगन्नाथ स्मृति राजभाषा सम्मान 2012, संतोष तिवारी समीक्षा सम्मान, आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी राष्ट्रीय सम्मान, शब्द साहित्य सम्मान, शातिदूत- संस्कृति और शांति अवार्ड, हिन्दी भाषा भूषण, राष्ट्रीय कबीर सम्मान, विश्व हिन्दी सेवा सम्मान , राष्ट्रभाषा सेवा सम्मान,अक्षरादित्य सम्मान,हिन्दी सेवी सम्मान, राष्ट्रीय प्रतिभा सम्मान आदि। दस से अधिक राष्ट्रीय/अंतर्राष्ट्रीय स्तर की संगोष्ठियों का समन्वयसंप्रति: प्रोफेसर एवं कुलानुशासक, विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन। संपर्क: एफ -2/27 ,विक्रम विश्वविद्यालय परिसर, उज्जैन, म.प्र- 456010, मोबाईल :098260-47765, निवास : 0734-2515573. ई मेल: shailendrasharma1966@gmail.com. आपका एक आलेख यहाँ प्रस्तुत है:-

अवन्तिकायां विहितावतारं मुक्तिप्रदानाय च सज्जनानाम्‌।
अकालमृत्योः परिरक्षणार्थं वंदे महाकालमहासुरेशम्‌॥

सुपूज्य और दिव्य द्वादश ज्योतिर्लिंगों में परिगणित उज्जयिनी के महाकालेश्वर की महिमा अनुपम है। सज्जनों को मुक्ति प्रदान करने के लिए ही उन्होंने अवंतिका में अवतार धारण किया है। ऐसे महाकाल महादेव की उपासना न जाने किस सुदूर अतीत से अकालमृत्यु से बचने और मंगलमय जीवन के लिए की जा रही है। शिव काल से परे हैं, वे साक्षात्‌ कालस्वरूप हैं। उन्होंने स्वेच्छा से पुरुषरूप धारण किया है, वे त्रिगुणस्वरूप और प्रकृति रूप हैं। समस्त योगीजन समाधि अवस्था में अपने हृदयकमल के कोश में उनके ज्योतिर्मय स्वरूप का दर्शन करते हैं। ऐसे परमात्मारूप महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग से ही अनादि उज्जयिनी को पूरे ब्रह्माण्ड में विलक्षण महिमा मिली है। पुरातन मान्यता के अनुसार समूचे ब्रह्माण्ड में तीन लिंगों को सर्वोपरि स्थान मिला है – आकाश में तारकलिंग, पाताल में हाटकेश्वर और इस धरा पर महाकालेश्वर।

आकाशे तारकं लिंगं पाताले हाटकेश्वरम्‌।
भूलोके च महाकालोः लिंगत्रय नमोस्तुते॥

शिव की उपासना अनेक सहस्राब्दियों से चली आ रही है और शिवलिंग के रूप में उनका अर्चन संभवतः सबसे प्राचीन प्रतीकार्चन है। वैदिक वाङ्‌मय के रुद्र ही परवर्ती काल में शिव के रूप में लोक में बहुपूजित हुए, जो अघोर और फिर घोर से भी घोरतर रूप लिए थे। उज्जयिनी अति प्राचीनकाल से जुड़े दर्शन, पूजा पद्धति और कला परम्पराओं के विकास में इस क्षेत्र का विशिष्ट योगदान रहा है। शैव धर्म की चार धाराओं- शैव, कालानल, पाशुपत और कापालिक का संबंध न्यूनाधिक रूप से उज्जैन, औंकारेश्वर, मंदसौर सहित समूचे मालवांचल से रहा है। पुराणों से संकेत मिलता है कि उज्जयिनी पाशुपतों की पीठ स्थली रही है। शंकर दिग्विजय के अनुसार यहाँ कापालिक निवास करते थे। महाकालेश्वर यहाँ के अधिष्ठाता देवता है। इनका ज्योतिर्लिंग दक्षिणामूर्ति होने से तांत्रिक साधना का दृष्टि से विशेष महत्त्व रखता है।उज्जैन के महाकाल वन का तांत्रिक परम्परा में विशिष्ट स्थान है। स्कंदपुराण के अवंती खंड के अनुसार साधना की दृष्टि से अत्यंत उपयोगी पाँच स्थल-श्मशान, ऊषर, क्षेत्र, पीठ और वन यहीं उपलब्ध हैं-

श्मशानमूषरं क्षेत्रं पीठं तु वनमेव च।
पंचैकत्र न लभ्यंते महाकालवनाद्‌ ऋते॥

प्राचीन मान्यता के अनुसार उज्जयिनी यदि नाभिदेश है तो भूलोक के प्रधान पूज्यदेव महाकाल हैं। सृष्टि का प्रारंभ उन्हीं से हुआ है-कालचक्रप्रवर्तको महाकालः प्रतापनः। वस्तुतः भगवान्‌ महाकाल की प्रतिष्ठा और महिमा से जुड़े अनेक पौराणिक आख्यान मिलते हैं, जिनसे अवंती क्षेत्र में शैव धर्म की प्राचीनता के संकेत मिलते हैं । शिवपुराण के अनुसार सतयुग और त्रेतायुग के संधिकाल के प्रथम चरण में हिरण्याक्ष की विजययात्रा के दौरान उसके सेनापति दूषण ने अवंती पर आक्रमण किया था। उस समय उज्जयिनी में राजा चंद्रसेन का राज्य था। पुरोहितों ने इस संकट के निवारण के लिए भगवान्‌ शिव की पूजा की सलाह दी, तब राजा ने स्वयं शिवजी का चमत्कार एक ग्वाले की शिवभक्ति में प्रत्यक्ष देखा। ग्वाला जहाँ शिव की पूजा किया करता था। वहीं वैदिक अनुष्ठानपूर्वक शिव मंदिर की स्थापना करवाई गई। संभवतः वही भगवान महाकालेश्वर के देवालय की स्थापना का प्रथम दिन था। विभिन्न युगों की गणना के आधार पर यह समय आज से करीब ग्यारह हजार नौ सौ वर्ष पहले अनुमानित है। त्रेता युग में सम्राट भरत के मित्र चित्ररथ अवंती क्षेत्र के राजा थे। भरत की चौथी पीढी के राजा रन्तिदेव ने इस क्षेत्र को अपने राज्य में मिला लिया था। त्रेतायुग में अयोध्या में राजा हरिद्गचंद्र हुए थे, उनसे कुछ ही समय बाद महेश्वर (माहिष्मती) में हैहयवंश में कार्तवीर्य अर्जुन जैसे प्रतापी सम्राट हुए, जो सहस्रबाहु के नाम से प्रख्यात हैं। उन्हीं के सौ पुत्रों में से एक आवंत या अवंती थे, जिनके नाम पर यह क्षेत्र अवंती कहलाया। त्रेतायुग में राम के पुत्र कुश स्वयं महाकालेश्वर के दर्शन के लिए अवंतिका में आए थे।

पौराणिक मान्यताओं के अनुसार स्वयं भगवान राम और श्रीकृष्ण ने महाकालेश्वर का पूजन किया था। महाकालेश्वर की प्राचीनता को लेकर अनेक पौराणिक, साहित्यिक और अभिलेखीय प्रमाण उपलब्ध हैं, जो शैव साधना की दृष्टि से इस स्थान की महिमाशाली स्थिति को रेखांकित करते हैं। महाकाल स्वयं प्रलय के देवता हैं, इसीलिए उज्जयिनी सभी कल्पों तथा युगों में अस्तित्वमान रहने से 'प्रतिकल्पा' संज्ञा को चरितार्थ करती है। पुराणों का संकेत साफ है-'प्रलयो न बाधते तत्र महाकालपुरी।' मृत्युलोक के स्वामी महाकाल इस नगरी के तब से ही अधिष्ठाता हैं, जब सृष्टि का समारंभ हुआ था। उपनिषदों एवं आरण्यक ग्रंथों से लेकर वराहपुराण तक आते-आते इस बात का स्पष्ट संकेत मिलता है कि महाकाल तो स्वयं भारतभूमि के नाभिदेश में स्थित हैं- 'नाभिदेशे महाकालस्तन्नाम्ना तत्र वै हरः... इत्येषा तैत्तिरीश्रुतिः।' महाकाल का उल्लेख ब्रह्माण्ड पुराण, अग्नि पुराण, शिव पुराण, गरुड़ पुराण, भागवत पुराण, लिंग पुराण, वामन पुराण, विष्णु पुराण, मत्स्य पुराण, भविष्य पुराण, सौर पुराण सहित अनेकानेक पुराण एवं प्राचीन ग्रंथों में सहज ही उपलब्ध है। भागवत में उल्लेख मिलता है कि श्रीकृष्ण, बलराम और मित्र सुदामा ने गुरु सांदीपनि के आश्रम में विद्याध्ययन पूर्ण कर स्वघर लौटने के पूर्व गुरुवर के साथ जाकर महाकाल की भक्ति भावनापूर्वक पूजा की थी। उन्होंने एक सहस्र कमल शिव जी के सहस्रनाम के साथ अर्पित किए थे।

पुराणकाल में तो महाकालेश्वर की विशिष्ट महिमा थी ही, पुराणोत्तर दौर में प्रद्योत युग, मौर्य युग, शुंग, शक, विक्रमादित्य, सातवाहन, गुप्त, हर्षवर्धन, प्रतिहार, परमार, मुगल, मराठा आदि सभी युगों में वे बहुलोकपूजित रहे हैं। विभिन्न युगों में उज्जैन में विकसित कला परम्पराएँ भी शैव धर्म के विविधायामी रूपांतर का साक्ष्य देती आ रही हैं।

सम्राट विक्रमादित्य की रत्नसभा के अनूठे रत्न महाकवि कालिदास (प्रथम शती ई. पू.) ने अपनी प्रिय नगरी उज्जयिनी और महाकालेश्वर मंदिर का वर्णन बड़े मनोयोग से किया है। उनके समय में यह पुण्य नगरी अपार वैभव और सौंदर्य से मंडित थी। इसीलिए वे इसे स्वर्ग के कांतिमान खण्ड के रूप में वर्णित करते हैं- 'दिवः कान्तिमत्खण्डमेकम्‌'। कालिदास के पूर्व भी यह नगरी अवन्ती या मालव क्षेत्र की प्रमुख नगरी थी ही, इसे राजधानी होने का भी गौरव मिला हुआ था। यहाँ सम्राट का राजप्रसाद भी था, कालिदास ने जिसके महाकाल मंदिर से अधिक दूर न होने का केत किया है-'असौ महाकालनिकेतनस्य वसन्नदूरे किल चन्द्रमौलेः।' उज्जयिनी के राजभवन और हवेलियाँ भी दर्शनीय थे, जिनके आकर्षण में मेघदूत को बाँधने की कोशिश स्वयं कालिदास ने की है।

कालिदास के समय उज्जयिनी शैव मत का प्रमुख केन्द्र थी। महाकवि के समय से शताब्दियों पूर्व से ही इस नगरी में शैव साधना एवं शैव स्थलों की प्रतिष्ठा रही थी। इसके अनेक पौराणिक साहित्यिक, पुरातात्त्विक एवं मुद्रा शास्त्रीय प्रमाण उपलब्ध हैं। महाकवि कालिदास ने भी शैव मत की प्रतिष्ठा की दृष्टि से उज्जयिनी की महिमा को विशेष तौर पर रेखांकित किया है। उनके काल में उज्जयिनी की पहचान महाकाल मंदिर और क्षिप्रा से जुड़ी हुई थी। लोकमानस में महाकाल की प्रतिष्ठा तीनों लोकों के स्वामी और चण्डी के पति के रूप में थी। उनका मंदिर घने वृक्षों से भरे-पूरे महाकाल वन के मध्य में था। वनवृक्षों की शाखाएँ बहुत ऊपर तक फैली हुई थीं। मंदिर का परिसर सुविस्तृत था, जिसके आँगन में सायंकाल को महाकाल के अर्चन एवं संध्या आरती के बाद नृत्यांगनाओं का नर्तन होता था। उन नर्तकियों के पैरों की चाल के साथ-साथ मेखलाएँ झनझनाती रहती थीं। उनके हाथों में रत्न जटित हत्थियों वाले चँवर रहते थे। नर्तन-पूजन के पश्चात्‌ वे मंदिर से बाहर निकलती थीं। मंदिर के अन्दर शिव-कथा पर आधारित प्रस्तर-शिल्प भी थे। महाकाल मंदिर में साँझ की पूजा विशेष महिमाशाली मानी जाती थी। उस समय नगाड़ों के गर्जन के साथ महाकालेश्वर की सुहावनी आरती होती थी। उधर महाकाल वन के वृक्षों पर साँझ की लालिमा छा जाती थी, जो श्रद्धालुओं को मोहित कर देती थी। कवीन्द्र रवीन्द्र ने भी इस प्रसंग को रेखांकित किया है -

महाकाल मंदिरेर माझे
तखन गंभीरमन्द्रे संध्यारति बाजे।

महाकाल की पूजा पद्धति का संकेत भी कालिदास साहित्य में प्राप्त होता है। रघुवंश तथा मेघदूत से ज्ञात होता है कि महाकाल के सुप्रसिद्ध मंदिर में पशुपति शिव की प्रतिमा रही। सन्ध्या के समय उस पर धूप आ जाने से ऐसा लगता है, मानो उसने गजचर्म पहन लिया हो। इससे स्पष्ट है कि मंदिर में महाकाल की प्रतिमा इस प्रकार प्रतिष्ठित थी कि उस पर संध्या का प्रकाश पड़ता था। या तो वह प्रतिमा बिना छत के देवायतन में प्रतिष्ठित थी अथवा पूर्व-पश्चिम में गर्भगृह ऐसा खुला था कि भीतर की प्रतिमा पर पूरी धूप आती रहती थी। मेघदूत का एक श्लोक तो स्पष्ट संकेत करता है कि महाकाल मंदिर में नृत्य करते शिवजी की अनेक भुजाओं वाली प्रमुख प्रतिमा थी जिसे भवानी भक्तिपूर्वक निहार रही हैं।

पश्चादुच्चैर्भुजतरुवनं मण्डलेनाभिलीनः
सान्ध्यं तेजः प्रतिनवजपापुष्परक्तं दधानः।

नृत्यारम्भे हर पशुपतेरार्द्रनागाजिनेह्णवां
शान्तोद्वेगस्तिमितनयनं दृष्टभक्तिर्भवान्या॥

कालिदास नीललोहित से मुक्ति की कामना भी करते हैं। स्कन्दपुराण के अवन्तीखण्ड (अध्याय-2) में नीललोहित का स्वरूप दिया गया है। तदनुसार उसमें पाँच मुख, दस भुजा, पन्द्रह आँखें, साँप की यज्ञोपवीत, जटा, चन्द्र और सिंहचर्म का वस्त्र बताया गया है। यह रूप महाकाल पशुपति का नहीं है। नटराज शिव की उज्जैन से प्राप्त आठवीं शती की एक खण्डित प्रतिमा ग्वालियर में सुरक्षित है। किन्तु कालिदास से यह प्रतिमा सदियों बाद बनी। कालिदास के युग में महाकाल की प्रतिमा रही, यह बृहत्कथा के संस्करणों से भी पुष्ट होता है। उसमें एक व्यक्ति महाकाल प्रतिमा के घुटनों पर सिर टिकाकर रोता है। उसमें महाकाल के हाथों की भी चर्चा है। मेघदूत में शिवलिंग का संकेत तो नहीं मिलता है, किन्तु ज्योतिर्लिंग अवश्य रहा होगा। पौराणिक परम्परा इस बात की बार-बार पुष्टि करती है।

गुप्त और हर्षवर्धन युग (335-848 ई.) में भी उज्जयिनी शैव मत का एक प्रमुख केन्द्र रही। महाकवि वाण ने अपनी कादम्बरी में उल्लेख किया है कि यहाँ महाकाल स्वरूप में शिव की आराधना की जाती है। यहाँ शंकर के अनेक मंदिर थे तथा प्रमुख चौराहों पर भी शिवलिंग स्थापित थे। यहाँ पर आधिपत्य रखने वाले यशोवर्धन, हर्षवर्धन जैसे अनेक शासक शिव के उपासक थे। हर्षवर्धन किसी भी सैनिक अभियान के पूर्व नील-लोहित शिव की पूजा किया करता था। यहाँ शिव के साथ शक्ति की पूजा का भी समन्वय रहा है।गुप्त युग में महाकाल मंदिर अत्यंत प्रशस्त और भव्य था। इसके अतिरिक्त अन्य देवी-देवताओं के अनेक मंदिर थे। मंदिरों पर स्वर्ण-कलश और श्वेत पताकाएँ सुशोभित होती थीं। उनकी भित्तियों पर देव, दानव, सिद्ध, गंधर्व आदि के चित्र बने थे। यहाँ शिव की कामदेव के रूप में भी पूजा की जाती थी।

महाकाल वन जहाँ देश-दुनिया के श्रद्धालुओं को आकर्षित करता रहा है, वहीं एक दौर में यहाँ आक्रांताओं ने हमले भी किए। एक मान्यता के अनुसार 1235 ई. के आसपास आततायी शासकों ने मालवा पर हमले के दौरान उज्जैन को भी लूटा था। महाकाल मंदिर में भी लूट-खसोट की गई थी, जिसका उल्लेख अंग्रेज इतिहासकारों ने किया है। परवर्ती काल में यह मंदिर हिन्दू-मुस्लिम सद्‌भावना का केन्द्र भी बना। अनेक मुस्लिम शासकों ने महाकाल सहित उज्जैन के विभिन्न मंदिरों में पूजा-प्रबंध के लिए सरकारी सहायता उपलब्ध करवाई। शाहजहाँ, औरंगजेब आदि सहित एक दर्जन मुस्लिम शासकों की ऐसी सनदें मिली हैं जिनसे ज्ञात होता है कि उन्होंने अपने शाही खजाने से महाकालेश्वर एवं अन्य मंदिरों में पूजा आदि के लिए मदद की थी। देश के प्रमुख मंदिरों में नंदादीप (निरंतर प्रदीप्त रहने वाला दीपक) लगाने की प्रथा रही है। उसका निर्वाह महाकाल मंदिर में आज भी हो रहा है। इस परम्परा के निमित्त 1061 हिजरी में सम्राट आलमगीर ने चार सेर घी रोजाना जलाने के लिए एक सनद के माध्यम से राशि स्वीकृत की थी, जो धार्मिक सहिष्णुता का नायाब उदाहरण है।

मराठाकाल में राणोजी शिंदे के दीवान रामचंद्र बाबा सुखटनकर (या शेणवी) ने उज्जयिनी में धार्मिक पुनर्जागरण किया। उन्होंने 1730 के आसपास महाकाल के वर्तमान मंदिर, रामघाट, पिशाचमुक्तेश्वर घाट आदि का निर्माण करवाया था। इसी प्रकार पुराणोक्त चौरासी महादेव तथा अनेक शाक्त तथा शैव स्थलों के जीर्णोद्धार या नवीन प्राण-प्रतिष्ठा का कार्य भी मराठाकाल में संभव हुआ। सिंधिया राज्य के संस्थापक महादजी ने महाकाल मंदिर और उसके पुजारी वर्ग का आस्थापूर्वक पोषण किया। भोज, ग्वालियर, होल्कर राज्य के राजवंशियों की ओर से महाकालेश्वर के पूजन आदि के लिए निरंतर सहायता प्राप्त होती रही थी।

वर्तमान महाकालेश्वर मंदिर एवं परिसर सुविस्तृत, विशाल और अलग-अलग युगों की कला संपदा को सहेजे हुए है। महाकाल के दक्षिण मूर्ति शिवलिंग की विस्तीर्ण रजत निर्मित जलाधारी अत्यंत कलामय और नागवेष्टित निर्मित हुई है। शिवजी के सम्मुख नंदी की पाषाणमूर्ति धातुपत्रवेष्टित विशाल प्रतिमा है। गर्भगृह में पश्चिम की ओर गणेश जी, उत्तर की ओर भगवती पार्वती और पूर्व में कार्तिकेय की प्रतिमा स्थापित है। मंदिर में निरंतर दो नंदादीप तेल एवं घी के प्रज्वलित रहते हैं। मंदिर के गर्भगृह में प्रवेश के लिए पुरातन गलियारे के साथ ही अब विशाल सभागारयुक्त गलियारे बन गए हैं, जहाँ एक साथ सैकड़ों लोग दर्शन-आरती का आनंद ले सकते हैं महाकालेश्वर के ठीक ऊपरी भाग में ओंकारेश्वर की प्रतिमा है तथा सबसे ऊपरी तल पर नागचन्द्रेश्वर की। नागचंद्रेश्वर के दर्शन वर्ष में एक बार नागपंचमी के दिन ही होते हैं।

महाकालेश्वर परिसर में वृद्धकालेश्वर (जूना महाकाल), राम-जानकी, अवंतिका देवी, अनादिकल्पेश्वर, साक्षी गोपाल, स्वप्नेश्वर महादेव, सिद्धि विनायक, हनुमान, लक्ष्मी-नृसिंह आदि सहित अनेक लघु मंदिर भी हैं। मंदिर परिसर में विशाल कोटितीर्थ कुंड भी है, पुराणों में जिसकी बड़ी महिमा वर्णित है। कुंड के चहुँ ओर अनेक शिव मंदरियाँ हैं, जो इस स्थान के कला वैभव को बहुगुणित करती आ रही हैं। महाकाल मंदिर तथा आसपास के अन्य मंदिरों में परमारकालीन शिलालेख लगे हुए है जिनमें राजाभोज, उदयादित्य, नरवर्मन, निर्वाणनारायण, विज्जसिंह आदि राजाओं के भग्न शिलालेख प्राप्त हुए है। एक शिलालेख गुजरात के राजा सिद्धराज जयसिंह का भी है, जिसने उज्जयिनी पर विजय प्राप्त करने के पश्चात्‌ जिसकी स्मृति में यह अभिलेख मंदिर में लगवाया होगा। परमारकाल की अनेक कलात्मक प्रतिमाएँ मंदिर क्षेत्र में स्थान-स्थान पर लगी हुई हैं, जिनमें शेषशायी विष्णु, गरुडासीन विष्णु, उमा-महेश, कल्याण सुंदर, शिव-पार्वती, नवग्रह, अष्टदिक्‌पाल, पंचाग्नि तप करती पार्वती, गंगा-यमुना आदि की प्रतिमाएँ प्रमुख हैं। पूर्व में यहाँ परमार राजाओं की प्रतिमाएँ भी लगी हुई थीं जिनमें से एक वर्तमान में विक्रम कीर्ति मंदिर स्थित पुरातत्त्व संग्रहालय में प्रदर्शित है।

महाकाल मंदिर में त्रिकाल पूजा होती है। प्रातःकाल सूर्योदय से पहले शिव पर चिताभस्म का लेपन किया जाता है। यह पूजा महिम्नस्तोत्र के 'चिताभस्मालेपः' श्लोक के अनुरूप होती है। इस पूजा हेतु किसी विशिष्ट चिताभस्म की निरंतर प्रज्वलित रहने वाली अग्नि से योजना की जाती है। तत्पश्चात्‌ क्रमशः प्रातः आठ बजे, मध्याह्‌न में और सायंकाल के समय महाकाल की पूजा, शृंगार आदि किया जाता है। रात्रि में 10 बजे शयन आरती होती है। विभिन्न व्रत, पर्व और उत्सवों के समय महाकालेश्वर मंदिर का परिसर असंख्य श्रद्धालुओं की आस्था की विशेष केन्द्र बन जाता है। प्रतिवर्ष श्रावण मास के चार और भादौ मास के दो सोमवार पर निकलने वाली सवारियाँ देश-दुनिया के भक्तों और पर्यटकों के आकर्षण का केन्द्र बनती हैं। इन सवारियों का मूल भाव यही है कि महाकाल राजाधिराज हैं और वे उज्जयिनी की मुखय सड़कों पर निकलकर प्रजा का हाल-चाल जानते हैं। इसी प्रकार की सवारियाँ कार्तिक मास में निकलती हैं। दशहरा पूजन के लिए महाकाल नए उज्जैन में पहुँचते हैं। महाशिवरात्रि, हरिहर मिलाप, रक्षाबंधन, वैशाख मास, नागपंचमी जैसे अनेक पर्वोत्सव भी इस मंदिर को विशेष आभा देते हैं। बारह वर्षों में उज्जैन में आयोजित सिंहस्थ के समय लाखों श्रद्धालु महाकालेश्वर के दर्शन के लिए पहुँचते हैं।

महाकाल कालगणना के अधिष्ठाता देव भी है। खगोलशास्त्रीय दृष्टि से उज्जयिनी का महत्त्व सुदूर अतीत से बना हुआ है। इसी स्थान से कर्क रेखा गुजरती है, जो भू-मध्य रेखा को काटती है। इसी दृष्टि से उज्जैन को पृथ्वी और कालगणना का केन्द्र माना गया है। क्षिप्रा नदी में नृसिंह घाट के पास कर्कराजेश्वर मंदिर है। ऐसी मान्यता है कि वहीं पर कर्क रेखा, भूमध्य रेखा को काटती है। यह स्थान महाकाल मंदिर से अधिक दूर नहीं है। स्पष्ट है कि महाकाल पृथ्वी के केन्द्र बिन्दु पर स्थित हैं और वे ही कालगणना के प्रमुख यंत्र 'शंकु यंत्र' के मूल स्थान हैं।

श्लोक से लोक तक सभी की आस्था का केन्द्र हैं महाकालेश्वर। लोक और लोकोत्तर सभी कामनाओं की पूर्ति के लिए भक्तगण अपनी-अपनी इच्छा उनके सम्मुख रखते हैं और उनकी पूर्ति के लिए मानवलोकेश्वर महाकाल का भंडार कभी रिक्त नहीं होता है।

Ujjain: Mahakaleshwar

रविवार, 17 मार्च 2013

दिनेश पालीवाल की दो व्यंग्य रचनाएँ

डॉ. दिनेश पालीवाल

३१ जनवरी १९४५ को जनपद इटावा (उ.प्र.) के ग्राम सरसई नावर में जन्मे डॉ दिनेश पालीवाल जी सेवानिवृत्ति के बाद इटावा में रहकर स्वतंत्र लेखन कार्य कर रहे हैं। आप गहन मानवीय संवेदना के सुप्रिसिद्ध कथाकार हैं । आपकी ५०० से अधिक कहानियां, १५० से अधिक बालकथाएं, उपन्यास, सामाजिक व्यंग, आलेख आदि प्रितिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे हैं। दुश्मन, दूसरा आदमी , पराए शहर में, भीतर का सच, ढलते सूरज का अँधेरा , अखंडित इन्द्रधनुष, गूंगे हाशिए, तोताचश्म, बिजूखा, कुछ बेमतलब लोग, बूढ़े वृक्ष का दर्द, यह भी सच है, दुनिया की सबसे खूबसूरत लड़की, रुका हुआ फैसला, एक अच्छी सी लड़की(सभी कहानी संग्रह) और जो हो रहा है, पत्थर प्रश्नों के बीच, सबसे खतरनाक आदमी, वे हम और वह, कमीना, हीरोइन की खोज, उसके साथ सफ़र, एक ख़त एक कहानी, बिखरा हुआ घोंसला (सभी उपन्यास) अभी तक आपकी प्रकाशित कृतियाँ हैं। आपको कई सम्मानों से अलंकृत किया जा चुका है। संपर्क: राधाकृष्ण भवन, चौगुर्जी, इटावा (उ.प्र.)। संपर्कभाष: ०९४११२३८५५५। ई-मेल: paliwaldc@gmail.com।

1. व्यंग्य: रंदाः सलमान रुश्दी, कमल हासन और हुसैन आदि
चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार

मता बनर्जी ने सलमान रुश्दी को कलकत्ता आने से रोक दिया। वे आधी रात की संताने नामक अपने उपन्यास पर बनी फिल्म के प्रमोशन के लिए आ रहे थे, साथ ही कलकत्ता में विश्व पुस्तक मेला लगा हुआ है। मेला में रुश्दी की किताबें सबसे ज्यादा बिकती हैं, उनके प्रचार-प्रसार के लिए और पुस्तक मेले में होने वाली लेखकों की गोष्ठी में हिस्सा लेने आ रहे थे। लेकिन जैसा कि रुश्दी के साथ अक्सर हमारे देश में हो रहा है, वही फिर हुआ। पहले भी उन्हें जयपुर लेखक सम्मेलन में भाग लेने के लिए नहीं आने दिया गया। विरोध प्रदर्शनों के चलते और कानून-व्यवस्था के सवालों के कारण उन्हें हमारे देश में अक्सर आने से रोक दिया जाता है। वोट बैंक का सवाल है और जन-नाराजी का भी। एक किताब को छोड़ कर रुश्दी ने कोई किताब ऐसी नहीं लिखी जिस पर बहुत विवाद हुआ हो। वैसे विवाद हर सही और समझदार लेखक की किताब पर, कहानी-उपन्यास-कविता पर होता रहता है। कोई नई बात नहीं है। मंटो हों या प्रेमचंद, स्मत चुगताई रही हों प्रेमचंद, कृशन चंदर रहे हों या किशन सिंह बेदी, पाकिस्तानी शाइर रहे हों या दुनिया की अन्य भाषाओं और देशों के रचनाकार, प्रतिबंध, मुकदमा, बंदिश, विरोध प्रदर्शन आदि अक्सर झेलते रहे हैं। 

फिल्में तो अक्सर इन हादसों की शिकार होती रहती हैं। कभी इन फिल्मों के कारण इस्लाम खतरे में आ जाता है तो कभी हिन्दुत्व! मजहबी और धार्मिक लोगों की भावनाएं इतनी नाजुक होती हैं कि वे किसी भी बात पर भड़क जाती हैं। धर्म और मजहब एकदम खतरे में पड़ जाता है। टीवी-अखबारों में हो-हल्ला मच जाता है। हालांकि हल्ला मचाने वालों ने अक्सर उस फिल्म को न देखा होता है, न उसकी कथा पढ़ी होती है फिर भी ऐसा नहीं है कि समझदार लोग यह राजनीतिक खेल समझते नहीं हैं। इसके पीछे की वोट पालिटिक्स से देश की जनता अच्छी तरह वाकिफ है और मजा यह कि फिर कौआ कान ले जाता है और सबके सब लठ्ठ ले कर कौए के पीछे दौड़ने लगते हैं।

कौआ तो हाथ आता नहीं, न कान अपनी कनपटी पर हम देखने की कोशिश करते हैं, बस हाय-हाय करने लगते हैं कि कौआ कान ले गया! अब हम क्या करें! बिना कान के हमारा काम कैसे चलेगा? 

कमल हासन की ताजा फिल्म विश्वरूपम को ले कर इन दिनों जम कर हो-हल्ला मचा। फिल्म पर प्रतिबंध लगा दिया गया। कोर्ट के आदेश के बावजूद कमल हासन को मजहबी लोगों को फिल्म दिखानी पड़ी और उनसे हरी झंडी लेने के बाद ही वह फिल्म सिनेमाघरों में जा पाई। हम जरा-जरा बातों पर आहत हो जाते हैं। जरा-जरा बातों पर हमें अपना मजहब-धर्म खतरे में पड़ता दिखाई देने लगता है। कैसा नाजुक है हमारा मजहब, धर्म, संप्रदाय, जाति-बिरादरी कि जरा-जरा बातों पर मिट्टी के खिलौने की तरह टूटने लगती है! टसल मामला वोट पालिटिक्स का है। गोलबंदी का है। अपने वोट खिसकने न देने की चालें हैं। जनता को, आम दर्शकों को , पाठक को इन सब बातों से कुछ लेना-देना नहीं है। पर हमें राजनीतिक फिरकापरस्त यह समझाने लगते हैं कि हमें इन्हीं बातों से मतलब होना चाहिए। न बढ़ते प्याज के दामों से कोई मतलब होना चाहिए, न बढ़ते अपराधों से। न घटती आमदनी और कम होती जीवन की सुविधाओं से कुछ लेना-देना होना चाहिए, न अपने दुख-दर्दों से। हमें तो सिर्फ और सिर्फ मजहब से, संप्रदाय से, धर्म से, जाति से, खाप से ही मतलब होना चाहिए! उन्ही पर जान देनी और लेनी चाहिए! 

हुसैन साहब ने कुछ चित्र बनाए तो हमने उनके सैकड़ों-हजारों चित्रों की परवाह नहीं की, न उनकी विश्व-ख्याति की चिंता की। उन्हें देश छोड़ने पर मजबूर कर दिया और वे बहादुर शाह जफर की तरह अफसोस करते हुए दुनिया से कूच कर गए कि अपने बतन में दो गज जमीन नहीं पा सके ! कमल हासन भी इसी तरह व्यथित हुए और कहने को विवश हुए कि वे इस देश को छोड़ देंगे, जहां विचारों की अभिव्यक्ति पर इतनी पावंदियां हैं ।

2 . व्यंग्य: रंदा: जिंदगी उलझी हुई पहेली है 

र आदमी के लिए इस जिंदगी के मायने अलग-अलग हो सकते हैं। हर आदमी जिंदगी जीता भी अलग-अलग तरह है। हर आदमी जीना भी अलग तरह चाहता है। यह दूसरी बात है कि वह अलग तरह जी हुई जिंदगी अक्सर दूसरों जैसी ही होती है। जिंदगी के फलसफे पर दुनिया के तमाम दार्शनिकों, विचारकों, चिंतकों, विव्दानों, लेखकों-कवियों का सोच अलग-अलग हो सकता है।

फिराक गोरखपुरी कहते हैं--जो उलझी थी कभी आदम के हाथों, गुत्थी वो अब तक सुलझा रहे हैं। यानी जिंदगी की पहेली तो आदम-हव्वा के जमाने से ही उलझ गई थी। वह उलझी हुई गुत्थी वे अब तक सुलझा रहे हैं और वह सुलझ नहीं रही है। तब से अब तक लाखों कवि-शायर, लेखक-दार्शनिक, चिंतक हो गए , इस गुत्थी नुमा पहेली को बूझते-सुलझाते पर यह कंबख्त अभी तक वैसी की वैसी ही उलझी हुई है। इसे न कोई अब तक समझा है, न आगे समझ सकेगा। इसीलिए कबीर इसे जतन से ओढ़ने के पक्षधर रहे और जब इस दुनिया से जाने लगे तो इसे ज्यों की त्यों बेदाग रख कर चल दिए! सवाल हम आम आदमियों का है जो इसे जतन से नहीं ओढ़ पाए और इसे दाग-दाग कर लिया है।

बहुतों के लिए जिंदगी एक सुहाना सपना हो सकती है। सुहाना सफर हो सकती है। बहुतों के लिए यह दुःस्वप्न हो सकती है। बहुतों के लिए जीवन कांटों भरा, ऊबड़-खाबड़, ऊंचा-नीचा, अंतहीन दुखों भरा, पथरीला, फिसलन भरा, रपटीला या गरम रेतीला रास्ता हो सकता है, जिसे वह जैसे-तैसे संभल-संभल कर चलने के बावजूद गिरता-पड़ता किसी तरह तय करता है। सजाएं भुगतता है। अनकिए अपराधों के दंड भुगतता है। यातनाएं-यंत्रणाएं भोगता है। अपने अगले-पिछले जन्मों के पाप या दुर्भाग्य समझ कर रोता-झींकता किसी तरह जीता है और जीते-जी मरता रहता है। 

जिंदगी किसी के लिए अर्थवान है तो किसी के लिए निरर्थक, बेतुकी, बेहूदा, बेवफा और न जीने काबिल! किसी के लिए यह विचारपूर्ण यात्रा है, तो किसी के लिए विचारशून्य, व्यर्थ, निरर्थक। वास्तव में जिंदगी किसी रहस्य-रोमांच से भरी एक थ्रिलर टायप उपन्यास की पुस्तक है। जितने लोगों से आप जिंदगी में मिलते हैं, दोस्ती-दुश्मनी करते हैं, प्रेम-नफरत करते है, उन सबके साथ आपके अलग तरह के अनुभव होते हैं, जो एकदम अनजाने, अद्भुत, अचरजपूर्ण और रहस्यमय होते हैं। पृष्ठ दर पृष्ठ लोगों के साथ आपका और आपके साथ लोगों का अजब-गजब व्यवहार होता चलता है और आप चकित होते हुए इसे पढ़ते रहते हैं कि इसके बारे में ऐसा तो आपने कभी सोचा नहीं था, यह सोचते रहते हैं! अमुक आदमी ऐसा निकलेगा, आपके साथ ऐसा करेगा! आप चकित रहते हैं। 

जिंदगी अक्सर कटु-कठोर सच्चाई होती है। इसे आप कुछ बनाना चाहते हैं पर यह योजना के अनुसार नहीं ढलती। अलग तरह की बन जाती है। यह एक ऐसी यात्रा है जिसमें जोखिमें बहुत हैं, दुर्घटनाएं ज्यादा घटती हैं और खुश होने के अवसर बहुत कम मिलते हैं। इसीलिए कुछ लोग इसके उलझे पचड़े में नहीं पड़ते। कहते हैं, जैसी है, वैसी जी लो यार! इसमें अर्थवत्ता मत ढूंढो। निरर्थक है सब कुछ। घटने दो जैसा घट रहा है। बीतने दो, जैसी बीत रही है। तुम्हारे हाथ में कुछ नहीं है। दरअसल जीवन ऐसी चीज ही नहीं है जिसके बारे में कुछ गंभीरता से सोचा जाए। गंभीरता से सोचोगे तो जी नहीं पाओगे! हंसो-हंसाओ और चिंता-फिक्र धुएं में उड़ाते चलो। प्लेटो कहते हैं कि जिंदगी का मकसद उसे उच्चतम मूल्यों की तरफ ढकेलना है। अरस्तू कहते हैं कि जीवन का उद्देश्य अच्छाइयों की ऊंचाइयों पर पहुंचना होना चाहिए। फ्राइड कहते हैं कि जिंदगी सुख, सेक्स और भय-भूख के वशीभूत हो जीनी पड़ती है। यह न वरदान है, न अभिशाप। जैसी है, वैसी है। वैसी ही जीनी पड़ेगी। इसका न कोई उद्देश्य है, न लक्ष्य।

Dr. Dinesh Paliwal

शुक्रवार, 15 मार्च 2013

संस्मरण: हमारे रेडियो जी - राहुल यादव

राहुल यादव

युवा रचनाकार राहुल यादव का जन्म 10 नवम्बर 1985 को भवानीपुर, जौनपुर, उ.प्र. में हुआ। आपने भारतीय सूचना प्रौद्योगिकी संस्थान-इलाहाबाद से सूचना प्रौद्योगिकी में बी.टेक. एवं कार्नेगी मेलन विश्वविद्यालय-पिट्सबर्ग से इन्फार्मेशन नेटवर्किंग में एम.एस. किया। तत्पश्चात आप कैलिफोर्निया में एक सॉफ्टवेर इंजिनियर के तौर पर कार्य करने लगे| सिनेमा, खास तौर पर भारतीय समान्तर सिनेमा में रूचि रखने वाले राहुल को संगीत सुनना भी बहुत पसंद है। आजकल वे कॉलेज से जुड़े हुए कुछ सस्मरणों पर अंग्रेजी और हिन्दी भाषा में ब्लॉग लेखन कर रहे हैं। ई-मेल: rahuljyadav1@gmail.com। सो यहाँ पर आपका एक संस्मरण प्रस्तुत है:-

चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार
रेडियो जी से मेरी पहली मुलाक़ात मेरे गाँव में हुई थी| मेरे पापा को शादी में मेरे नाना जी ने तीन मुख्या चीजें दी थी| एक काले रंग की १८ इंच की एटलस साइकिल जिसे मेरे चचेरे भईया लोगों ने गाँव में जम के इस्तेमाल किया| दूसरी चाभी भरकर चलने वाली एक एच.एम.टी. घडी जिसे मेरे पापा आज भी पहनते हैं| और तीसरा एक रेडियो, जिसकी मैंने अभी चर्चा की| काले रंग का रेडियो जिसके ऊपर भूरे रंग का एक चमड़े का कवर भी लगा हुआ था जो की चिपुटिया बटन से बंद होता था| मेरे दादा जी (जिन्हें हम बब्बा कहते थे) के बार बार डांटने पर भी मेरे भैया लोग रेडियो से चिपके रहते थे, जो की उस समय मेरी समझ से परे था| वो तो बाद में जब मैं क्रिकेट के लिए दीवाना हुआ तो लगा की क्रिकेट विश्व कप (१९९२) की कमेंट्री सुनने के लिए रेडियो से चिपके रहना बड़ा लाजिमी था|

फिर १९९४ में जब गर्मी की छुट्टियों में गाँव में आनद भैया की शादी हुई तो वड़ोदरा से ताऊ जी एक बड़ा रेडियो ले आये| था तो वैसे वो टेप रेकॉर्डर या कैसेट प्लयेर , लेकिन हम सब उसे रेडियो ही बोलते थे| तभी मैंने जिंदगी में पहली बार कैसेट भी देखा| टेप रेकॉर्डर बहुत बड़ा था, बिजली तो थी नहीं गाँव में तो उसमें एक के पीछे एक बड़े साइज़ की ६ बैटरी लगानी पड़ती थी| एक बटन दबाओ तो हौले से कैसेट डालने वाला खांचा खुलता था, फिर उसमें कैसेट डाल के उसे बंद करके दूसरा बटन दबाओ तो गाना बजने लगता था| वैसे कक्षा ४ का बच्चा छोटा तो नहीं बोला जायेगा, लेकिन फिर भी मुझे टेप रेकॉर्डर छूने की सख्त मनाही थी|

फिर जब हम फ़तेहपुर आये तो टेप रेकॉर्डर हर बर्थ-डे पार्टी का एक अहम् किरदार था| केक, समोसे वगरह खा के पेप्सी ख़तम करने के बाद टेप रेकॉर्डर का बजाना तय था| कुछ बच्चे जो बचपन से ही नाचने गाने में शौक़ीन थे वो तो खुद अपना जौहर दिखा देते थे| और कुछ जो थोडा शर्मीले किस्म के थे उन्हें कालोनी की आंटी लोग नाचने पर मजबूर कर देती थी| "अरे अपना मंटू तू चीज बड़ी मस्त मस्त पर बहुत अच्छा नाचता है, बेटा जरा नाच के दिखा दो ", फिर कालोनी के कोई एक बड़े भईया कैसेट को आगे पीछे भगा के गाना लगाते थे और मंटू चालू हो जाते थे| अच्छी बात ये रही की मेरे साथ कभी ऐसा नहीं हुआ|

लेकिन इन सब के बाद भी टी.वी. के आ जाने के कारण हमें कभी टेप रेकॉर्डर या रेडियो की जरूरत नहीं महसूस हुई, या यूं कहिये की हमने कभी सोचा ही नहीं इस बारे में| फिर एक दिन हम स्कूल से आये तो देखा की एक सफ़ेद रंग का डब्बा रखा हुआ है फ्रिज के पास| उत्सुकतावश मम्मी से पुछा तो उन्होंने ये कहकर बात टाल दी की कोई अंकल का कुछ सामान पड़ा हुआ है| बात आई गयी हो गयी| लेकिन अगली सुबह जब हम जागे तो घर में भजन बज रहा था| सामने देखा तो टी.वी. बंद थी| लगा की ये आवाज कहाँ से आ रही है| बेड के बगल में देखा तो हमारे सनमाईका वाले स्टूल पर टेप रेकॉर्डर बज रहा था| ये सब ऐसे अचक्के में हुआ की टेप-रेकॉर्डर के लिए खुश होने का मौका ही नहीं मिला|

टेप रेकॉर्डर फिलिप्स कम्पनी का टू-इन-वन टेक्नोलोजी वाला था| टू-इन-वन बोले तो आप उस पर कैसेट भी बजा सकते हो और रेडियो भी चला सकते हो| काले रंग का टेप रेकॉर्डर जिसके सामने के आधे भाग में स्पीकर था और दूसरे आधे भाग में कैसेट डालने वाला खांचा| उसी के ऊपर हर रेडियो की पहचान, चैनल वाला रुलेर था जिसमें फ्रीक्वेंसी सफ़ेद रंग से लिखी हुई थी और एक लाल रंग की डंडी स्पीकर के बगल में लगे गोल पहिये को घुमाने से रूलर पर इधर उधर सरकती थी| ऊपर की तरफ एक बड़ा गोल पहिया था जिसे घुमाने से आवाज कम तेज़ होती थी| उसी के बगल में एक खिसकने वाली बटन थी जिसे खिसककर एक किनारे ले आओ तो कैसेट बजता था और दूसरे किनारे ले जाओ तो रेडियो| ऐसी ही एक दूसरी बटन रेडियो का ए.एम./एफ.एम./एस.एम. बदलने के लिए थी| पीछे की तरफ एक ढक्कन था जिसे खोलो तो चार बड़े साइज़ की बैटरी डालने की जगह थी|

रूलर के ऊपर की तरफ ही कैसेट को कण्ट्रोल करने वाली बटनें लगी थी| पहली बटन गाना रोकने (पॉस करने) की थी जिसे आधा दबाकर रखने से गाना बहुत पतली से आवाज में तेज़ तेज़ भागता था, पॉस करने से ज्यादा हमने उस बटन का इस्तेमाल इसी काम के लिए किया हालाँकि हमें इसके कारण डांट बहुत पड़ी| आगे की बटनें गाना चलाने और, आगे पीछे करने की थी| आखिरी बटन आवाज रिकॉर्ड करने वाली थी| अब चूंकि उस बटन के दबाने से कैसेट में अगड़म बगड़म चीजें रिकॉर्ड करके कैसेट के ख़राब होने का खतरा था, इसलिए हमें पापा ने ये बताया की इस बटन को दबाने से रेडियो जल जायेगा और सब ख़राब हो जायेगा और इसलिए इस बटन को कभी नहीं छूना है| जब तक हमें उस बटन की असलियत नहीं पता चली तब तक मेरा भाई इसी से यही समझता था की बड़े बेवकूफ है रेडियो वाले, आखिर ऐसी बटन की जरूरत ही क्या थी|

रेडियो के साथ ही पापा जी तीन कैसेट लाये थे| एक तो भजन वाली, दूसरी लता मंगेशकर जी के बहुत पुराने गानों की कैसेट| डिस्को सोंग्स का जमाना था और बचपन में लता जी के सभी धीर धीरे बजने वाले गाने थकेले बकवास लगते थे| तीसरी कैसेट थी राजा हिन्दुस्तानी की| अब न तो हमें भजन में कोई इंटेरेस्ट था न ही लता जी के पुराने गानों में तो हमने हमारे चहेते मामा से रिक्वेस्ट करी| मामा जी इलाहबाद में रहते थे और अक्सर हमारे घर आया करते थे| मामा जी ने ४-५ कैसेट गोविंदा, करिश्मा, रवीना के गानों से रिकॉर्ड करवा के हमको दे दी| कैसेट आने पर सबसे पहला काम तो हमने ये किया की सभी गाने बजा बजा के गानों ली लिस्ट एक सफ़ेद कागज पर लिखकर हर कैसेट के कवर के ऊपर चिपका दी ताकि पता रहे की किस कैसेट में कौन सा गाना है| फिर हम सब वही गाने सुना करते थे, रेडियो हमने अब भी सुनना स्टार्ट नहीं किया था और टी. वी. की वजह से रेडियो जी की पूछ वैसे भी बहुत कम थी|

फिर जब हम प्रतापगढ़ आये तो १ साल के लिए एंटेना न होने की वजह से टीवी नहीं चला| फिर तो रेडियो जी की चाँदी हो गयी| सुबह से शाम तक हमारे घर में विविध भारती बजता रहता था| सुबह सुबह "चित्रलोक" जैसे गानों वाले ढेर सरे प्रोग्राम और शाम को "हवा महल" जैसे श्रव्य नाटक| एक साल के बाद टी.वी. लगाने के बाद भी टेप और रेडियो से हमारा मोह नहीं छूटा| 

मेरे छोटे भाई ने तब तक गाने रिकॉर्ड करने वाली रहस्यमयी बटन की सच्चाई भी खोज कर ली थी| और साथ ही साथ लखनऊ से पकड़ने वाले एक दूसरे FM चैनल की भी खोज कर ली गयी थी जिस पर ढेर सारे काँटा लगा टाइप रीमिक्स गाने आते थे| जैसे ही कोई अच्चा गाना आता था मेरा भाई उसे लता जी के पुराने गानों वाली कैसेट पे रिकॉर्ड कर लेता था| अब चूंकि गाना रिकॉर्ड करते समय इस बात का ख्याल रखना पड़ता था की गाना सही जगह पर रिकॉर्ड हो इसलिए वो पेंसिल या नीले रंग वाली रेनोल्ड्स पेन को कैसेट के दांतों वाले छेद में डाल के घुमा फिरा के ठीक जगह पर ले आता था और पहले से सब फिट करके रखता था| और तो और गाना रिकॉर्ड करते समय इधर उधर की फालतू आवाज न रिकॉर्ड हो इसलिए वो पंखा भी बंद कर देता था|

रेडियो के साथ एक अच्छी बात ये थी की बिजली न होने पर भी इसे बैटरी डाल कर चलाया जा सकता था| किसी ने बता दिया था की बैटरी को धूप में रखने से फिर से थोड़ी सी चार्ज हो जाती है, तो जब एवर-रेडी की वो चार बैटरियां रेडियो नहीं चला पाती थी तो उन्हें धूप में रख देते थे| और अगर धूप में रखने पर भी काम न चले तो नयी बैटरी आने तक इमरजेंसी टोर्च की रिचार्जेबल बैटरी रेडियो के साथ तार जोड़-जाड कर फिट कर लेते थे और काम चलाते थे|

फिर एक दिन पापा जी के एक एक मित्र राजबिहारी अंकल रेडियो मांग कर ले गए| राज बिहारी अंकल बहुत फक्कड़ स्वाभाव के थे, मुहं में हमेश गुटखा या पान ठुसा रहता था और उन्हें किसी भी चीज के लिए ना करना मुश्किल था| रेडियो जी गए तो चुस्त तंदरुस्त अवस्था में लेकिन दो महीना बाद वापस आये फटेहाल अवस्था में| कैसेट बजने पर खर्र खर्र की आवाज आती थी | कैसेट को आगे पीछे करने वाली बटन ने काम करना बंद कर दिया था| और साथ ही रेडियो का एफ.एम./एस.एम. बदलने वाला बटन गायब हो गया था|

फिर धीरे धीरे हम सभी घर से पढाई के लिए इधर उधर निकल लिए| मम्मी बिजली चली जाने पर जब टीवी नहीं चलती थी, तो कभी कभी रेडियो पर गाने सुन लिया कराती थी| आधी कैसेट्स तो ख़राब हो गयी, कुछ खो गयी और कुछ जो बची उनमें छोटे भाई के रिकॉर्ड किये हुए रीमिक्स गाने थे जो की मम्मी को पसंद नहीं थे| फिर जब पापा का ट्रान्सफर सीतापुर से हुआ तो टेप रेकॉर्डर मम्मी ने किसी को ऐसे ही दे दिया|

मेरे भेतीजे को गाने सुनने का बहुत शौक़ है| एक दिन ऐसे ही बात चली तो बोला की चाचा मुझे भी रेडियो सुनना बहुत पसंद है| मुझे सुन कर अच्छा लगा, मैंने कहा अपना रेडियो तो दिखाओ| तो उसने झट से अपना चमचमाता स्मार्ट फोन निकला और रेडियो का एक अप्प्लिकेशन खोल कर दिखा दिया| मैंने मन ही मन कहा, लो ये है इनका रेडियो| शायद इसे ही जनरेशन गैप कहते हैं और पता ही नहीं चला की कब हम जनरेशन गैप के उपरी पायदान पर पहुँच गए| बाकी का तो पता नहीं लेकिन आज भी जब मैं रेडियो का नाम सुनाता हूँ तो खर्र खर्र की आवाज, रेडियो का स्टेशन वाला वो रूलर , कैसेट का दांतों वाले दो सफ़ेद पहिये और काले रंग की फिल्म अनायास ही याद आ जाती है।

Sansmaran of Rahul Yadav

बुधवार, 13 मार्च 2013

अच्‍छे शहरी- मनीष कुमार सिंह

मनीष कुमार सिंह 

संवेदनशील कथाकार मनीष कुमार सिंह का जन्म 16 अगस्त, 1968 को पटना में हुआ। प्राइमरी के बाद आपकी शिक्षा इलाहाबाद में हुई। स्नातक की परीक्षा इलाहाबाद विश्‍वविद्यालय से उत्‍तीर्ण करने के पश्चात आप भारत सरकार में राजपत्रित अधिकारी हो गए। साहित्य में विशेष अभिरुचि होने के कारण आप हिन्दी में लेखन भी करने लगे। मनीष जी की कहानियों में देशकाल और वातावरण का सजीव चित्रण देखा जा सकता है जिसका प्रमाण आपके तीन कहानी संग्रह- ‘धर्मसंकट’, ‘आखिरकार’ और ‘अतीतजीवी’ भी हैं। साथ ही विभिन्न पत्रिकाओं, यथा-'समकालीन भारतीय साहित्‍य', 'भाषा', 'साक्षात्कार ','पाखी', 'परिकथा ','लमही, 'परिंदे', 'समय के साखी', 'प्रगति वार्ता', 'अक्षरा', 'भाषा स्‍पंदन', 'प्रगतिशील आकल्‍प', 'साहित्‍यायन', ‘मैसूर हिन्‍दी प्रचार परिषद पत्रिका’, 'पुष्‍पगंधा', 'सुखनवर', 'अक्षर पर्व' ‘पाठ‘, ‘समकालीन सूत्र‘,'शब्‍द योग', 'कथादेश' इत्‍यादि में आपकी कई कहानियॉं प्रकाशित हो चुकी हैं। संपर्क: 240-सी,भूतल,सेक्टर-4, वैशाली,गाजियाबाद (उत्तर प्रदेश), पिन-201012, मो. 09868140022, (0120) 2771654. ई-मेल: manishkumarsingh513@gmail.com. आपकी एक कहानी यहाँ प्रस्तुत है:-

चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार
ड़कों की सफाई ही नहीं बल्कि डिवाइडर पर गेरुए रंग के नए गमलों में उत्‍तम प्रजाति के पौधे लगे देखकर कोई अल्‍पबुद्वि प्राणी भी समझ सकता था कि विशिष्‍ट अति‍थि के आगमन के उपलक्ष्‍य में ही ऐसा होता है। बरसों से उपेक्षित पड़े इलाके का दिन घूर की तरह फिर आया था। वे सब लोग जो अपने घर के कूड़े को ऑख बचाकर यू ही खुलेआम दो मकान छोड़कर सड़क पर फेंक देते थे आज चार-छह के सुविधाजनक समूह में इकठ्ठा होकर सरकार व प्रशासन के पक्षपातपूर्ण रवैये की बड़ी निर्भीकता से निन्‍दा कर रहे थे। ''गर्वनमेंट को आम आदमी की सुध कहॉ है। वो तो मिनिस्‍टर साहब आ रहे हैं इसलिए इतना हो-हंगामा हो रहा है। सुनते हैं कि दो अफसर सस्‍पेंड कर दिए गए हैं।'' एक अधेड़ उम्र के सज्‍जन ने बेहद संजीदगी से सरकार की कार्यप्रणाली पर टिप्‍पणी की। इस पर एक बड़ी उम्र के सज्‍जन सभ्‍यता से व्‍यंग्‍यपूर्वक मुस्‍कराने लगे। ''छोडि़ए जनाब! गवर्नमेंट हमारे-आपके कहने से बदल नहीं जाएगी। डिमोक्रेसी हो या जो भी...हाकिम हमेशा हाकिम रहेगा और ताबेदार अपनी जगह रहेगा। मैं पूछता हू कि आखिर इसमें क्‍या बुरा है? अगर इसी बहाने बरसों से गंदी दीवारें साफ हो जाती हैं। बेकार के नारे मिट जाते हैं तो बुरी बात नहीं है। लोग पब्लिक की जमीन दबाकर दूकान खड़ी कर बैठे हैं। इसी चक्‍कर में उन्‍हें हटाया जाता है। आप गौर कीजिए कि कल तक यहॉ कितने भिखारी और आलतू-फालतू के लोग घूमते थे। आज ससुरी चिडि़या भी नहीं फटकती है।...होना चाहिए। साल में एकाध बार ऐसा हो तो बढि़या है।'' वे जिस तन्‍मयता से बोल रहे थे उससे किसी के मन में इन बातों की गुरुता पर संशय करने का कारण नजर नहीं आया।

इस वार्तालाप में लोग सड़क पर कूड़ा फेंकने की बात गोल कर गए। आखिर देश-समाज की वृहत्‍तर समस्‍याओं पर विमर्श के बीच छोटी बातें कहॉ याद रहती हैं। 

यहॉ से थोड़ी दूर एक गोलाकार पार्क था। हालॉकि यहॉ व्‍यवस्‍था इतनी अच्‍छी नहीं थी। घास के आच्‍छादित हिस्‍से से अधिक धूल से आवृत क्षेत्र थे। बच्‍चों के झूले और सी-सॉ लगे हुए थे। कहीं एकाध क्‍यारियों में पौधे में खिले फूल दिख जाते। वहीं एक पगली सी भिखारिन चिथड़े पहने एक पिचके हुए कटोरे में कुद खा रही थी। थोड़ा सा खाकर उसने मिचमिची ऑंखों से इधर-उधर देखना शुरु किया। थोड़ी दूर पर उसका तकरीबन एक-डेढ़ साल का बच्‍च भूमि पर रेंग रहा था। लोग बैठने योग्‍य जगहों पर पसरकर ताश खेल रहे थे। बच्‍चे दौड़कर एक दूसरे को पकड़ने की कोशिश में लगे थे। अधलेटी अवस्‍था में पड़े एक व्‍यक्ति ने उस महिला की तरफ कंकड़ उछाला। ''अरी जूठनखोर क्‍या चाट रही है? चल आज तूझे रबड़ी खिलाता हू।''

दो-तीन बार इस प्रकार के वाक्‍यों को दुहराते हुए उसने जिन तीन-चार कंकड़ों को उछाला उनमें से एक उसकी पीठ पर लगा। वह तत्‍काल अपना कटोरा जमीन पर फेंककर उसकी ओर मुड़ी तथा अस्‍पष्‍ट वाणी व अपरिचित भाषा में उसे भला-बुरा कहने लगी। चेहरे की भाव-भंगिमा से लगता था कि अपशब्‍दों का प्रयोग कर रही है। वह व्‍यक्ति जरा अवाक रह गया। उस भिखारिन से ऐसी तीक्ष्‍ण प्रतिक्रिया की आशा नहीं कर रहा था। कुछ देर तक बर्दाश्‍त करने के बाद अपनी जगह से उठा और उसके पास पहुचकर डॉटने लगा। ''तूझे चढ़ गयी है क्‍या? चुप रह नहीं तो...।''एक अश्‍लील गाली अर्पित करना व्‍यक्ति ने आवश्‍यक समझा। ऐसी हालत में शांत रहना या शिष्‍ट लहजे का प्रयोग पार्क में उपस्थित लोगों द्वारा दुर्बलता का चिन्‍ह माना जा सकता था। वह इनमें से कईयों का परिचित था। गाली सुनकर औरत और भड़की और अपना नीचे गिरे कटोरा उठाकर उसपर प्रहार करने को उद्यत हुई। व्‍यक्ति ने खतरा भॉपते हुए उसका हाथ मरोड़ दिया। जमीन पर गिराकर तबियत से एक लात लगायी।‍ ''अपनी औकात में रह।'' उसे उसकी औकात जताने के लिए इसी प्रकार के कतिपय अन्‍य वीरोचित उपक्रम करना चाहता था। पर यह मंजर देखकर एकत्रित लोगबाग के कारण इस प्रक्रिया में विघ्‍न उपस्थित हो गया।

''क्‍या हो रहा है भाईसाहब?'' एक ने पूछा। उस व्‍यक्ति के साफ-सुथरे शर्ट-पैंट को देखकर भाईसाहब का सम्‍बोधन नितांत उपर्युक्‍त प्रतीत होता था। ''देखिए ना मैं प्‍यार से समझा रहा हू और यह हाथापाई कर रही है।'' व्‍यक्ति ने स्‍वयं को सर्वथा निर्दोष ही नहीं अपितु जीवों पर दया करने वाला भी बताया। लेकिन जमात में शामिल दूसरा आदमी शायद सत्‍यभाषी और न्‍यायप्रिय था। उसने कहा,''यह औरत बिना छेड़े किसी से कुछ नहीं कहती है। पहले आपने इससे गलत बाती की और पत्‍थर मारा। फिर यह कंट्रोल से बाहर हुई। अजी हम भी यहीं हैं। औरों से इसने क्‍यों कुछ नहीं कहा?'' औरत के साथ उलझने वाला आदमी खुद को घिरा हुआ महसूस करने लगा। 

उसे इस कठिन स्थिति से एक परिचित ने निकाला। ''यह औरत मेनटल है। भला इतने पर कोई भड़कता है।'' महिला के गुस्‍से के अपर्याप्‍त आधार की चर्चा के बाद उसने आगे कहा,''यहॉ हमारे-आपके बच्‍चे खेलते हैं। इन सबका उनपर भी असर पड़ेगा। अरे हमारे ढ़ीलेपन के कारण ये लोग पार्को पर कब्‍जा किए हुए हैं। शहर के जितने भी सबवे हैं वे इन भिखारियों के अड्डे बन गए हैं। कोई भी चौराहा,रेड लाइट इनेस बची हो तो बताइए।'' विषय को यू सामाजिक रुप देने से मामला जम गया। उलझने वाला आदमी अवसर देखकर वहॉ से निकल गया।

अज्ञात नाम व कुल वाली स्‍त्री पिछले कई वर्षो से इस इलाके के एक हिस्‍से के रुप में थी। सड़क के किनारे शायद उसकी एक झुग्‍गी भी प्रतिस्‍थापित थी। वैसे उसके विषय में किसी ने भी ज्‍यादा उत्‍सुकता नहीं प्रदर्शित की थी। यहॉ तक कि फुरसतमंद गृहणियों ने भी नहीं। साधारण श्‍क्‍ल-सूरत वाली कृशकाय स्‍त्री गली-कूचों के मनचलों के लिए आकर्षण बनने की योग्‍यता नहीं रखती थी। फिर भी अपुष्‍ट साक्ष्‍यों के आधार पर कुछ का कहना था कि वह कतिपय अवसरों पर चौराहों पर पान की दूकान से गूजती सीटियों की शिकार हुई थी।

कुछ वष्र पहले तक इस शहर से कई किलोमीटर दूर दूसरे शहर की ओर जाने वाले मुख्‍य मार्ग के दोनो तरफ दूर तक खाली जगह थी। थोड़ी दूर पर कहीं-कहीं मजदूरों-रिक्‍शेवालों के कच्‍चे मकान व फूस की झोपडि़यॉ दिखती थीं। पगली भिखारिन इन्‍हीं कच्‍चे घरों में से किसी एक में रहती थी। वैसे उसे भिखारिन कहना उचित नहीं होगा। किसी ने उसकी दारुण दशा देखकर स्‍वत: स्‍फूर्त प्रेरणा से वशीभूत होकर कुछ खाने को दे दिया या एकाध सिक्‍के थमा दिए तो अलग बात थी। वह पेशेवर न थी। उसका बच्‍चा प्राय: गोद में चिपका रहता। सर्दी से नाक बहती रहती। देखने से पता नहीं चलता कि लड़का है या लड़की। जो भी कपड़े उपलब्‍ध होते वह पहना देती। भ्रूणों के लिंग के विषय में अपक्षाकृत सम्‍पन्‍न जन ज्‍यादा सरोकार रखते हैं। उस जैसों के लिए इसकी कोई अहमियत नहीं थी। कारण था-उसे बस जरा सा बड़ा होने पर काम पर लगा देना था। अच्‍छा और पौष्टिक खाना,अच्‍छी शिक्षा,रहन-सहन,संस्‍कार की चिंता शरीफों की तरह कहॉ करनी थी। और नह ही किसी नैतिकता को मानना था। कईयों से उसके सम्‍बन्‍ध रहे होगें। अभी जो संतान गोद में दिख रही है उससे पहले भी कुछेक होगें। शायद कुपोषण और चिकित्‍सा के अभाव में मर गए। यदि और गहरे ततीत में जाए तो पता चलेगा कि उसका मर्द रिक्‍शा चलाता था और वह घरों में काम करती थी। यानि सब कुछ व्‍यवस्थित था। बाद में किसी दुर्घटना में मर्द चल बसा और वह भी कालांतर में नियमित रुप से अपना काम ने कर सकी। आगे कईयों के साथ रही। कुछ मालकिनों ने उसे अपने यहॉ से इन्‍हीं लक्षणों के कारण हटाया। वरना शरीफ लोगों के लिए इस शहर में काम की कोइ कमी नहीं।

उस दिन बेमौसम की जोरदार बारिश हो रही थी। ठंड़ काफी थी हवा अपने साथ लायी कांटेदार ठंडक इंसानों के जिस्‍म में चुभोकर न जाने कौन सा पैचाशिक आनंद ले रही थी। गर्म लिहाफ में लिपटे घरों में महफूज लोगों के लिए तो फिर भी ठीक था। चाय-कॉफी के गर्म घूट के साथ वे टी.वी. पर मौसम का हाल देखकर चिंता से सर हिला रहे थे। चैनल वाले पूरी तल्‍लीनता से शहर के जनजीवन पर पड़े प्रभाव को दिखला रहे थे। खासकर ऑधी
के कारण फ्लाइट में विलम्‍ब की बात वे बड़ी संजीदगी से बयान कर रहे थे। उसी दौरान वह औरत अपने बच्‍चे को बंदरिया की तरह सीने सक चिपकाकर एक शामियाने के अंदर शरण लेने पहुची। दरअसल सेठ साहब के पोते के प्रथम वर्षगांठ के उपलक्ष्‍य में आयोजन हो रहा था। शहर के गणमान्‍य लोगों की गरिमामय उपस्थिति में माहौल बेहद सुसंस्‍कृत हो गया था। वरना आजकल के लड़के-लड़कियॉ तो बस डी.जे. पर उछलना-कूदना जानते हैं। ऊचे प्रशासनिक ओहदे पर विराजमान अफसर,पुलिस के आला अधिकारी व सेठजी की ही भॉति धनी लोग बड़े सलीके से स्‍वल्‍पाहार करते हुए अच्‍छी किस्‍म की मदिरा का पान कर रहे थे। सेठजी की बहू अति सुन्‍दर व भव्‍य परिधान में लिपटी कीमती उपहारों की ललित उपेक्षा कर महिलाओं से विहॅस कर परिहास कर रही थी। एक आला अधिकारी सेठजी को यह बता रहे थे कि एक पहुचे हुए ज्‍योतिषाचार्य के कहने पर आवारा कुत्‍तों को पूड़ी-खीर खिलाने पर मुझे काफी फायदा हुआ है।

इस बेमौसम की अंधड़ और बारिश ने सारा माहौल बिगाड़ दिया। गनीमत थी कि आयोजन बड़े तरीके से किया गया था। इसलिए अंदर सभी अतिथि पूर्णतया सुरक्षित एवं आरामदायक स्थिति में थेद्य। उस औरत के पहले भी कुछ आवारा किस्‍म के बच्‍चे मुफ्त का माल उड़ाने के लिए अंदर घुस गए थे। सतर्क गार्ड उन्‍हें दो-तीन बार पहले भी भगा चुके थे। इस बार अंदर आने वाले पूर्णतया शरणार्थी सरीखे थे। वे खाने-उड़ाने की नीयत से नहीं धमके थे। परंतु संभ्रांत जनों से दूरी बरकरार रखते हुए खुद को भीगने से बचाने के लिए गेट के निकट खड़े होन की संकीर्ण जगह पर उनमें प्रतिस्‍पर्द्वा होने लगी। अनपढ़ व असभ्‍य मनुष्‍य एक-दूसरे को धक्‍का देने लगे।

स्‍त्री अपने बच्‍चे को चिपकाए चीख उठी। ''अरे हरामियों जरा देख के। ऑख नहीं दी है भगवान ने। बच्‍चे को लेकर खड़ी हू।'' एक पल के लिए वे लोग उसकी आवाज सुनकर ठिठके। उसके लहजे व तर्क को सुनकर तनिक मुस्‍कराए व रसिकता पूर्वक ऑख मटकाते हुए चालू गाना गाने लगे। अपने मेहमानों की सेवा में लगे दूर खड़े सेठजी को इस कोलाहल ने आकृष्‍ट किया। उनके कानों में गंदी बातें धृष्‍टापूर्वक प्रवेश कर गयीं। उन ध्‍वनियों को उनके सुबह-शाम के पूजा-कीर्तन का तनिक भी लिहाज न था। वे जरा आवाज चढ़ाकर सात्विक क्रोध से बोले,''देखो भाई ये लोग कैसे घुस आए हैं। जरा बाहर करो इन सबको। यह शरीफों की जगह है।''‍

वह औरत बच्‍चा समेत जमीन पर गिर गयी थी। उसके घुटने छिल गए थे। बच्‍चे के सर पर भी चोट आयी थी। वह जोर से रो-चिल्‍ला रहा था। महिला उसके जीवन के प्रति आशंकित होकर हाथ उठाकर बिना किसी को लक्ष्‍य किए बद्दुआऍ दे रही थी। उसके इशारे पर न तो सेठजी के अंगरक्षक थे और न ही उसकी बिरादी के रिक्‍शे-ठेले वाले। यह असम्‍बोधित वक्‍तव्‍य अधिक देर तक नहीं चला। बारिश में भीगने का कष्‍ट करके दो गार्डो ने उसे ठेलकर थोड़ी दूर पहुचा दिया। वह अब बारिश में और भीगना नहीं चाहती थी। उसके गीले कपड़े व हथेलियॉ बच्‍चे को छत्रछाया देने में अपर्याप्‍त थे। महापुरुषों के मनोविनोद मे उसके प्रलाप से व्‍यवधान न हो यह सोचकर इन्‍द्रदेव के मेघ आकाश में ज्‍यादा निनाद करने लगे। पवन देव अपनी वेगवती धारा से उसके अपशब्‍दों को सभ्‍य ना‍गरिकों के कर्णो से दूर भगा कर ले जा रहे थे। वह भी अब उन लोगों से दूर भाग रही थी। आखिर उसे अपने बच्‍चे को निष्‍प्राण होने से बचाना था। अच्‍छे नाक-नक्‍श का सांवला बच्‍चा था। दूध के अभाव में कमजोर जरुर था लेकिन उसे पूरी उम्‍मीद थी कि अंधड़-बारिश में यह मरेगा नहीं। अभी जीएगा। कम से कम बचपन में तो नहीं मरेगा। शहर वालों को अभी भी कई तरह के काम-काज में ऐसे लोगों की जरुरत होती है।

Manish Kumar Singh Kee Ek Kahani