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सोमवार, 21 अक्तूबर 2024

पुस्तक चर्चा : समय से संवाद करते नवगीत — योगेन्द्र प्रताप मौर्य


पुस्तक: एक अकेला पहिया (नवगीत-संग्रह) 
ISBN: 978-93553-693-90
कवि: अवनीश सिंह चौहान 
प्रकाशन वर्ष : 2024
संस्करण : प्रथम (पेपरबैक) 
पृष्ठ : 112
मूल्य: रुo 250/-
प्रकाशक: प्रकाश बुक डिपो, बरेली
फोन :  0581-3560114

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नवगीत अपनी पैंसठ-वर्षीय यात्रा पूरी कर चुका है। इस यात्रा में कई उतार-चढ़ाव भी आये। आज नवगीत काव्य की समृद्ध और महत्त्वपूर्ण विधा बन चुका है। साहित्यिक अकादमियाँ इसे सहज स्वीकार कर रही हैं। शोध हो रहे हैं। ऐसा इसलिए हो रहा कि नवगीत भी अपने नये स्वरूप में उपस्थित हुआ है। कहने का आशय यह कि गीत खुद का मेटामॉरफोसिस (Metamorphosis) कर नवगीत बना; यह रूपान्तरण अथवा कायापलट कथ्य और शिल्प में दिखने लगा। गीत निजी प्रेम और रोमांस से ऊपर उठकर सम्पूर्ण मानव जाति के दुख-दर्द, शोषण, अन्याय के विरुद्ध आवाज उठाने लगा; हताशा अथवा निराशा के बीच लोगों में उम्मीद जगाने लगा। वरिष्ठ नवगीतकार वीरेंद्र आस्तिक के अनुसार नवगीत होने का अर्थ है— "जीवन-राग का विराट् स्वरूप, जिसमें एक तरफ शोषण-उत्पीड़न या गरीबी के निचले से निचले स्तर का दुखद और दारुण चित्रण मिलता है तो दूसरी तरफ घर-परिवेश का उल्लास, नैसर्गिकता, लालित्यपूर्ण सौंदर्य, स्त्री-पुरुष के प्रेम-प्रणय के रागात्मक संबंध, व्यक्तित्व-बोध और जीवन-दर्शन के अनेक आयाम मिलते हैं। कहने का आशय यही कि नवगीत जीवन-राग के विराट् स्वरूप को दिखाता है।"

आज नवगीत किसी परिचय का मोहताज नहीं है। इस पर विमर्श हो रहा है। चर्चाएँ हो रही हैं। नवगीत पत्र-पत्रिकाओं में खूब प्रकाशित हो रहे हैं। विशेषांक निकल रहे हैं। नवगीत की नयी पीढ़ी अक्षय पाण्डेय, अवनीश त्रिपाठी, अनामिका सिंह, रविशंकर मिश्र, गरिमा सक्सेना, रूपम झा, राहुल शिवाय, शुभम् श्रीवास्तव ओम (स्मृतिशेष), चित्रांश वाघमरे, विवेक आस्तिक और भाऊराव महंत अपनी नयी ऊर्जा के साथ नवगीत लेखन, संपादन और समीक्षा में लगे हैं। इस पीढ़ी में वरिष्ठ, चर्चित और गंभीरता से लिया जाने वाला नाम अवनीश सिंह चौहान का है, जिनका सद्यः प्रकाशित नवगीत संग्रह— "एक अकेला पहिया" है, जिसमें कुल चौवालीस नवगीत संकलित हैं। इसके पहले बहुचर्चित नवगीत संग्रह "टुकड़ा कागज का" प्रकाशित हो चुका है, जिसके अब तक तीन संस्करण आ चुके हैं। यही नहीं अवनीश सिंह चौहान की कई पुस्तकें अंग्रेजी भाषा में भी प्रकाशित हैं। इन्होंने कई पुस्तकों का संपादन भी किया है। प्रतिष्ठित वेब पत्रिका 'पूर्वाभास' और 'क्रिएशन एंड क्रिटिसिजम' इन्हीं के संपादन में निकलते हैं। इनको उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान, लखनऊ का 'हरिवंशराय बच्चन युवा गीतकार सम्मान', अभिव्यक्ति विश्वम, लखनऊ का 'नवांकुर पुरस्कार' और वेब पत्रिका कविता कोश का 'प्रथम कविता कोश सम्मान' के साथ-साथ कई अन्य सम्मानों/ पुरस्कारों से अलंकृत किया जा चुका है।

अवनीश सिंह चौहान की भाषा सहज है। अच्छी बात यह है कि ये नवगीत संप्रेषणीय हैं, कहीं भी बोझिल नहीं लगते हैं। नवगीतों में विषयों की विविधता है। इनके नवगीतों में पी.पी.टी., प्रोजेक्ट, ब्रेकिंग न्यूज, चीटिंग, चैटिंग आदि प्रचलित अंग्रेजी शब्द भी सहज रूप से आते हैं। संग्रह के पूरे चौवालीस नवगीतों में देश-समाज, आम आदमी, शिक्षा, प्रेम, सौंदर्य, रिश्ते-नाते, गाँव-शहर, तकनीक, जीवन स्थितियाँ, ढोंग-पाखंड, व्यंग्य आदि से संबंधित विषयों को सम्मिलित किया गया है। ये नवगीत, नवगीत की कसौटी पर खरे उतरते हैं और समय से संवाद करते हैं।

स्मृतिशेष नचिकेता के अनुसार— "सम्पूर्ण मानवीय संवेदना के सर्वोच्च निचोड़ की सार्थक और संगीतात्मक अभिव्यक्ति गीत है", जिसे वर्तमान में नवगीत कहा जाता है। इस परिप्रेक्ष्य में अवनीश सिंह चौहान का एक नवगीत, जिसमें मानवीय संवेदना मुखर हुई है, देखा जा सकता है—

ये बंजारे मारे-मारे
फिरते रहते गली-गली

भट्टी जलती, लोहा तपता
लाल रंग जीवन पर चढ़ता

श्रम औ' रोटी के रिश्ते का—
धर्म निहाई एक बली

नये-नये औजार बनाएँ
नाविक के पतवार बनाएँ

रही कठौती इनकी फूटी
खा लेते हैं भुनी-जली

ये ना चोर, नहीं ये डाकू
घर-घर के ये हँसिया-चाकू

खैर सभी की चाहें हरदम
सुनते सबकी बुरी-भली। ('ये बंजारे', पृ. 31-32)

इस गीत से श्रम और रोटी के यथार्थ को समझा जा सकता है। जीवन के लिए रोटी जरूरी है और रोटी के लिए श्रम जरूरी है। बंजारे इसी जीवन-यापन के लिए अपना स्थान बदलते रहते हैं,आज यहाँ हैं तो कल वहाँ। "भट्टी जलती, लोहा तपता/ लाल रंग जीवन पर चढ़ता/ श्रम औ' रोटी के रिश्ते का—/ धर्म निहाई एक बली"— ये पंक्तियाँ अद्भुत हैं। यहाँ हम लाल रंग को कई रूपों में ले सकते हैं, जैसे प्रेम, त्योहार, उत्सव और ऊर्जा आदि। ये प्रचंड धूप में धधकती भट्टी के सामने खुद तपकर लोहा तपाते हैं। औजार बनाते हैं। किंतु कुछ अपवादों को छोड़कर इनके जीवन में कोई सकारात्मक परिवर्तन नहीं हुआ है। ये जिन स्थितियों में पहले थे, उन्हीं स्थितियों में आज भी जी रहे हैं। अशिक्षित हैं, गरीब हैं, मुख्य धारा से कटे हैं। लोगों की खरी-खोटी सुनकर भी चुप रहते हैं और अपना काम करते रहते हैं।

अवनीश सिंह चौहान एक जागरुक नवगीत कवि हैं और एक जागरुक नवगीत कवि की यह जिम्मेदारी भी बनती है कि वह अपने आसपास घटित दृश्यों पर नजर रखे, उन घटित दृश्यों को गीत में ढाले। अवनीश सिंह चौहान यह काम बखूबी करते हैं। यहाँ स्त्री-विमर्श का एक गीत देखा जा सकता है। यह नवगीत संग्रह का शीर्षक गीत भी है—

वक्त बना जब उसका छलिया
देह बनी रोटी का जरिया

ठोंक-बजाकर देखा आखिर
जमा न कोई भी बंदा
पेट वास्ते सिर्फ बचा था
'न्यूड मॉडलिंग' का धंधा

व्यंग्य जगत का झेल करीना
पाल रही है अपनी बिटिया

चलने को चलना पड़ता, पर—
तनहा चला नहीं जाता
एक अकेले पहिये को तो
गाड़ी कहा नहीं जाता

जब-जब नारी सरपट दौड़ी
बीच राह में टूटी बिछिया

मूढ़-तुला पर तुल जाते जब
अर्पण और समर्पण भी
विकट परिस्थिति में होता है
तभी आधुनिक जीवन भी

मुकर गया था तट पर नाविक
बहती रही उफन कर नदिया। ('एक अकेला पहिया', पृ. 37-38)

यह नवगीत स्त्री की जिजीविषा और संघर्ष का बयान करता है। एक स्त्री, जो बेसहारा है, वह अपने और बिटिया के जीवन-निर्वाह की खातिर ऐसे व्यवसाय (न्यूड मॉडलिंग) में लग जाती है, जो समाज के नजरिये से गलत है। यहाँ यह भी देखना है कि समाज ही ऐसे व्यवसायों को जन्म देता है और यह समाज ही उस औरत की हँसी भी उड़ाता है। एक ओर नारी को आगे बढ़ाने की बात होती है, तो दूसरी ओर उस पर फब्तियाँ भी कसी जाती हैं। आखिर इसके लिए जिम्मेदार कौन है? अंतिम बंद की पंक्ति देखें— "मुकर गया था तट पर नाविक/ बहती रही उफन कर नदिया।" यहाँ नाविक (पुरुष) तो मुकर गया, किंतु नदिया (स्त्री) उफन कर बहती रही। कहने का अर्थ यह कि नारी अकेले ही अपना जीवन व्यतीत करने को बाध्य है। उसे किसी के साथ होने की जरूरत तो है, किन्तु वह विषम स्थिति में अपना सहारा स्वयं बन सकती है; क्योंकि वह स्वावलंबी है; स्वाभिमानी है। 'एक अकेला पहिया' की व्यंजना दूर तक जाती है।

स्मृतिशेष युवा नवगीतकार शुभम् श्रीवास्तव ओम के अनुसार— "नवगीत कोरी भावुकता को गीत में पिरोना नहीं, बल्कि तर्क और बुद्धि की कसौटी पर जाँची-परखी गई संवेदनाओं की गीतात्मक प्रस्तुति है, नवगीतकार होना गीत-लेखन में कवि का प्रयोगधर्मी होना ही तो है।" बदलते दौर में लोगों की जीवन-शैली में बदलाव हुआ है। रहन-सहन में भी आधुनिकता आयी है। संयुक्त परिवार अब एकल परिवार का रूप ले लिया है। लोग गाँव छोड़ शहर की तरफ भागने लगे हैं। महँगाई इतनी है कि आम आदमी के लिए घर का खर्च चलाना मुश्किल होता जा रहा है। इस स्थिति से निपटने के लिए पति-पत्नी दोनों जॉब कर रहे होते हैं। ऐसे में सबसे बड़ी समस्या बच्चों की देखभाल की आती है। इसके लिए हम बच्चों को आया के हवाले करते हैं। यहाँ अवनीश सिंह चौहान के एक नवगीत की कुछ पंक्तियाँ देखी जा सकती हैं—

कौन करे बच्चों की 'केयर'
सबके अपने प्लान

मम्मी जी ऑफिस करती हैं
पापा की भी ड्यूटी
अगल-बगल जो बाल श्रमिक हैं
किस्मत उनसे रूठी

बच्चे जीते रामभरोसे
क्यों कोई दे जान

बच्चे किए हवाले— आया,
क्या सच्ची, क्या खोटी
कभी खिलाती, कभी झिड़कती
कभी दिखाती सोटी

माँ बिन बच्चे की बेकदरी,
अभिभावक अनजान। (खिलौने भी उदास हैं, पृ. 39)

अवनीश जी मजदूरों और गरीबों के पक्षधर हैं। गीत की पंक्तियाँ देखें—

मुखड़े पर चुपड़ी है हल्दी,
चंदन और मलाई
भीतर से हम ला न सके हैं
फूलों-सी तरुणाई

पूरा दिन खटकर मिल पाते
हैं दो-चार निवाले
दोनों आँखों के नीचे हैं
धब्बे काले-काले

दर्पण रोज दिखाता रहता
सारे खंदक-खाईं

जैसे हैं वैसा दिखना भी
बहुत कठिन है भाई। ('कठिन है भाई', पृ. 41)

हम जैसे हैं वैसा हमें दिखना भी चाहिए। हमें धनिक-वर्ग की नकल नहीं करना चाहिए। किंतु ऐसा नहीं होता है। कई बार हम अंध अनुकरण में लगे होते हैं। इससे अपनी स्वाभाविक सहजता धूमिल पड़ती जाती है। इस प्रकार अवनीश जी के अधिकांश नवगीतों का स्वर व्यंग्यात्मक है, जैसे— 'कठिन है भाई', 'संशय है', 'गुरु हथियाने में', 'कविवर बड़े नवाब', 'वे व्यापारी निकले', 'छटे हुए वे', 'बॉस' आदि।

कुछ कवि अपने आप को बड़ा कवि होने का भ्रम पाल बैठते हैं। ऐसे कवि जुगाड़ वाले कवि होते हैं। संपादकों से चिरौरी कर अखबारों-पत्रिकाओं में छप जाते हैं। बड़े साहित्य संस्थानों से परिचय बनाकर बड़े पुरस्कार हथिया लेते हैं। कवि-सम्मेलनों में रटी-रटायी पंक्तियाँ पढ़कर तालियाँ पिटवाते हैं। वे मंचों पर सब कुछ पढ़ते हैं, सिवाय कविता के। अवनीश जी समाज में जो विसंगतियाँ देखते हैं उन पर अपनी कलम चलाकर सच्चाई को समाने लाने में जरा भी नहीं हिचकते हैं। एक गीत देखें—

कहते हैं कुछ लोग यहाँ पर
धनी कलम के भैया जी

भैया जी की कविताएँ हैं
नहीं ओढ़नी, नहीं बिछौना
शब्द बहुत पर कथा न कोई
कौन छुए अब दिल का कोना

साँसें फूल गयीं मथ-मथ कर
निकली नहीं चिरैया जी

स्याही नहीं शबनमी, लेकिन—
छपते हैं वे अख़बारों में
ढूँढ़ श्रोत लेते परिचय के
अकादमी की बाजारों में

घूम रहे रस की खानों में
लिक्खा नहीं सवैया जी

काव्य-समारोहों में आते
जैसे शादी में जाते हैं
ताली पीटें लोग बोर हों
निरा गद्य वे झिलवाते हैं

फूटा ढोल बजाते हरदम
उनका यही रवैया जी। ('लिक्खा नहीं सवैया जी', पृ. 53-54)

अथवा—

अपने को जोगी कहते हैं,
किंतु बड़े वे संसारी हैं

उन्हें पता है कब चुनना है
शब्द-शब्द को फुलवारी से
संवादों में उन्हें पिरोकर
जाल बिछाना हुस्यारी से

फँसी चिड़ी तो ठीक,नहीं तो
कह देते वे 'सो सॉरी' हैं। ('छटे हुए वे', पृ. 69)

आज के समय में आदमी की पहचान मुश्किल है। कोई खुद को कितना ही साफ-पाक कह ले, किंतु भीतर से वह स्वार्थपरक जीवन जीता है। भला आदमी बनने का दिखावा करता है। ऐसे लोग मौके की तलाश में रहते हैं। कोई इनके जाल में फँस गया तो काम बन गया, नहीं फँसा तो दूसरे को फँसाने की तैयारी शुरू हो जाती है। जरूरत पड़ी तो इन्हें नीचे तक गिरने में भी कोई गुरेज नहीं हैं, बस किसी तरह इनका काम बनना चाहिए है। सच पूछिये तो आजकल की राजनीति में भी यही गड़बड़झाला चल रहा है। अपनी पार्टी में काम नहीं बना तो दूसरी पार्टी की तरफ हो जाना, और कुर्सी पा जाना। यही नहीं आजकल के कितने ही साधु-संत ऐसे हैं, जो लोगों को माया-मोह, भोग-विलास से दूर रहने का उपदेश देते हैं, किंतु स्वयं इन्हीं चीजों में लिप्त पाये जाते हैं। ऐसे कई बाबा जेल में हैं। निदा फाजली का एक शेर है— "हर आदमी में होते हैं दस-बीस आदमी/ जिसको भी देखना हो कई बार देखना।"

जहाँ भी देखिए जातिवाद, क्षेत्रवाद, सम्प्रदायवाद, भाई-भतीजावाद चरम पर है। अवनीश सिंह चौहान इन सभी मुद्दों पर भी अपनी आवाज उठाते हैं। सियासत की असलियत व्यक्त करता उनका एक नवगीत देखिए—

निश्छल तन-मन, उभरी साँटें
दर्द गया कब चुभने का

निम्न-जनों को नंगा करती
आज सियासत तभी चमकती
शब्द-बाण चौतरफा बरसे
भय न किसी को मरने का

धन अकूत हो, नैतिक वक्ता
जनता तो है ही ज्यों लत्ता
निर्बल होना यदि 'क्राइम' है
आग फूस में लगने का। ('अखिल देश बस कहने का', पृ. 57)

राजनीतिक पार्टियों की बुनियाद झूठ और छल पर टिकी हुई होती है। ये पार्टियाँ आम जनता को बाँटने का कार्य करती हैं। एक जाति को दूसरी जाति से लड़वाती हैं, और नेता स्वयं को अमुक जाति के मसीहा के रूप में प्रदर्शित करने में लगे होते हैं। आज यदि किसी के पास अकूत धन-दौलत है, तो वह कोई पार्टी जॉइन कर उसके सिंबल से चुनाव लड़कर विधायक-सांसद बन सकता है। चुनाव जीतने पर वह भले ही जनता के विकास के लिए कुछ करे या न करे, इससे पार्टी को या किसी और को कुछ लेना-देना नहीं है। इसीलिये उत्तर आधुनिक समय में अनेक परिभाषाएँ बदलाव की माँग करती हैं। आम जनता को सरकार से क्या उम्मीद रहती है? क्या सरकार आम जनता के हितों की रक्षा कर पाती हैं? लोक कल्याणकारी योजनाएँ जरूरतमंद के पास पहुँच पा रही हैं? क्या भोजन, स्वास्थ्य और शिक्षा आम आदमी की पहुँच में हैं? ऐसे प्रश्नों का संतोषजनक उत्तर नहीं मिल पाता है। नेता लोग अपने लाभ के लिए अमुक पार्टियों से जुड़े होते हैं। आज के नेता ही देश को दीमक की तरह चाट रहे हैं। लोगों को आपस में लड़वा रहे हैं और अपनी राजनीति चमका रहे हैं। अवनीश सिंह चौहान के एक गीत की पंक्तियाँ भी इस संदर्भ में देखी जा सकती हैं—

पैदल यात्राएँ औ'
चुनाव की चर्चाएँ
नया साल लेकर आया है
नव आशाएँ

रेप,कत्ल सब जस के तस,बस—
मूरत कौन बड़ी है चर्चा
देश-धरोहर के सौदागर
कर्जा ले-ले करते खर्चा

उल्टा पहिया चला—
काँपती हैं शंकाएँ। (‘खाली झोले का जादू’, पृ. 79)

पिछले वर्षों में कोरोना त्रासदी आयी। पूरी दुनिया इस महामारी से जूझी। मौत के आँकड़ों ने हिला कर रख दिया। लोग घरों में कैद रहने को विवश हुए। अचानक लगे लॉकडाउन से कामगार, मजदूर बुरी तरह प्रभावित हुए। कितनों की नौकारियाँ छूट गईं। ऐसी कठिन परिस्थिति में भी अवनीश सिंह चौहान लोगों को निराश नहीं करते हैं, बल्कि इस निराशाजनक स्थिति से निपटने के लिए उनके गीत उम्मीद जगाते हैं। वे कहते हैं कि 'सूरज निकलेगा पूरब में/ होगी फिर से प्रात वही।' गीत की पंक्तियाँ देखिए—

कोरोना का डर है, लेकिन—
डर-सी कोई बात नहीं

धूल, धुआँ, आँधी, कोलाहल
ये काले-काले बादल
जूझ रहे जो बड़े साहसी
युगों-युगों का लेकर बल

जीत न पाए हों वे अब तक
ऐसी कोई मात नहीं। ('कोरोना का डर', पृ. 77)

अवनीश सिंह चौहान अपने इस नवगीत संग्रह के आखिरी कुछ पृष्ठों पर प्रेमगीत रचते हैं। प्रेम ही सृष्टि का सर्जक होता है। ये प्रेमगीत 'तुम ही हो आधार' से शुरू होकर 'कहाँ मिलोगे' तक पहुँचते-पहुँचते भक्ति-भाव में बदल जाते हैं। वृंदावन कवि के रग-रग में बसा हुआ है। ऐसा इन गीतों से गुजरने पर पता चलता है, कारण साफ है कि वृंदावन में कवि का घर है। वे कहते हैं कि—

राग, रंग, रस, गंधमयी है
अपनी धरती वृंदावन

सुबह हुयी तो मंदिर जागे
दीप-दान, पूजा-अर्चन
राधे-राधे कह सब करते
इक-दूजे का अभिवादन

साँस-साँस में कृष्ण चेतना
भीतर-बाहर चले भजन। ('अपनी धरती वृंदावन', पृ. 107)

अथवा—

वंशी वाले कहाँ मिलोगे
क्या तुम वृंदावन में?

कहीं सुना यमुना के जल में
बसते रमण-बिहारी
परिकम्पा में हौले-हौले
चलते गौ-हितकारी

किंतु, मुरारी कभी मिलो तुम
मेरे अंतर्मन में। ('कहाँ मिलोगे', पृ. 111)

इस प्रेम में भक्ति भाव स्पष्ट झलकता है। कृष्ण के प्रति कवि का अनुराग अनायास है। भक्तिधारा के अंतर्गत सगुण और निर्गुण दो धाराएँ आती हैं। अवनीश सिंह चौहान सगुण भक्ति में विश्वास रखते हैं।

कुल मिलाकर, अवनीश सिंह चौहान एक संवेदनशील नवगीत कवि हैं। वे समाज में घटने वाली घटनाओं पर पैनी नज़र रखते हैं। उनका यह नवगीत संग्रह— "एक अकेला पहिया" लोगों को हताशा से उबारता है तथा उन्हें जीवन में संघर्ष करना सिखाता है। प्रतिकूल परिस्थितियों में भी इस संग्रह की रचनाएँ सकारात्मक संदेश देती हैं।.मुझे आशा ही नहीं, अपितु पूर्ण विश्वास है कि इस नवगीत संग्रह को भी पिछले नवगीत संग्रह की भाँति पाठकों द्वारा अपार स्नेह मिलेगा।




समीक्षक के बारे में :
 :  
ग्राम व पोस्ट— बरसठी, जनपद— जौनपुर में जन्मे व उत्तर प्रदेश सरकार के शिक्षा विभाग में कार्यरत योगेन्द्र प्रताप मौर्य युवा पीढ़ी के जाने-माने नवगीतकार व समीक्षक हैं। मो. 9454931667

Ek Akela Pahiya (Hindi Navgeet).  Book Review by Yogendra Pratap Maurya