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शुक्रवार, 24 मई 2013

दूसरी दुनिया यानी औरत की दुनिया (पार्ट 3) - संवेदना दुग्गल

डॉ. संवेदना दुग्गल

"कैसे आकाश में सूराख नहीं हो सकता, एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो"दुष्यंत कुमार की इन पंक्तियों से प्रेरणा लेने वाली डॉ संवेदना दुग्गल ने साहित्य और समाज का फ़लसफ़ा अपने पिता दिनेश पालीवाल से जाना-समझा। पिता जाने-माने कथाकार एवं लेखक और माँ समझदार गृहणी। संवेदना जी का जन्म 25 अक्टूबर 1 9 6 9  को इटावा, उ प्र में हुआ। आपने आगरा विश्विद्यालय से पीएच डी की। शीर्षक था "सुरेन्द्र वर्मा के नाटकों में शिल्प, भाषा और कथ्य।" वर्तमान में आप दिल्ली पब्लिक स्कूल, द्वारका, दिल्ली में हिन्दी की प्रवक्ता हैं। फेसबुक: http://www.facebook.com/samvedna.duggal

1. कमेरी औरतों की दुनिया के दुख
चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार



कमेरी औरतों की दुनिया तकलीफों और दुखों से भरी दुनिया है। वे औरतें चाहे घर में काम कर रही हों, खेतों में या कल-कारखानों में, दफ्तरों या होटलों में, बनने वाली सड़कों या इमारतों में सीमेंट, ईंटें या गिट्टी-बालू ढोने के काम में लगी हों, या लोहा पीटती लुहारिने। किसी भी तरह की मेहनत-मजदूरी करने वाली औरतें हों, सबके अपने दुख हैं। अपनी तकलीफें हैं। जिन पर हम कभी ध्यान नहीं देते। सरकारी आंकड़े हमेशा हम औरतों को ले कर झूठ बोलते हैं। नेशनल सेंपुल सर्विस ऑफिस जैसी सरकारी संस्था हो या इंडियन लेबर आर्गेनाईजेशन जैसी संस्था, इनके आंकड़ों के अनुसार गांवों-कस्बों में प्रति हजार स्त्रियों में 261 स्त्रियां किसी न किसी तरह के काम करके अपनी और अपने परिवार की रोजीरोटी चलाती हैं। जिनमें 207 स्त्रियां खेतों-खलिहानों या पशुओं को चराने के काम में काम में लगी हैं। शेष अपने घरों में किसी न किसी तरह के काम करती हैं। मनरेगा योजना के अंतर्गत भी बड़ी संख्या में स्त्रियां गांवों-कस्बों में काम कर रही हैं। यह दूसरी बात है कि उनका भयंकर शोषण हो रहा है। काम के बदले उन्हें बहुत कुछ सहना-झेलना पड़ता है। शहरों में प्रति हजार महिलाओं में सरकारी आंकड़ों में 138 स्त्रियां काम करती हैं, जिनमें 61 महिलाएं छोटे-बड़े, सरकारी या प्राईवेट दफ्तरों में काम करती हैं, शेष घरों में चौका-बासन, झाडू-पोंछा से ले कर मेहनत-मजदूरी या हाथ के काम में लगी हैं। आंकड़े सही नहीं हैं। हमारा अनुभव बताता है कि महिलाओं की इससे कहीं बड़ी संख्या गांवों-कस्बों, शहरों-महानगरों में काम करती डोलती है। सुबह से शाम तक मारी-मारी फिरती है तब कहीं इस मंहगाई में अपने परिवार की आमदनी में कुछ हाथ बंटा पाती है। अपने बच्चों को रूखा-सूखा खिलाने और अपने पेट में कुछ डालने का प्रबंध कर पाती है। ऐसी हर औरत को जरा कुरेदिए, उसकी तकलीफों का सैलाब उसकी आंखों और उसके रुंधे गले से फूट निकलेगा।.

मुझे भील जाति की आदिवासी महिलाओं की जिंदगी पर आधारित एक नाटक में नायिका की भूमिका करनी थी। अपने नाटक के साथियों के संग भीलों के क्षेत्र की यात्रा की। रतलाम, इंदौर, बांसवाड़ा, उदयपुर, चित्तौड आदि से होती हुई माउंट आबू से गुजारात के गांधीधाम तक। आबू रोड से ट्रेन पकड़ी। मेरे साथ मां और छोटा भाई भी। हम सब अपने डिब्बे में आमने-सामने की बर्थों पर बैठे खाना खा रहे थे। किसी स्टेशन पर तीन कमेरी लड़कियां ऊधम मचाती, आपस में हंसी-ठिठोली करतीं, चहकती हुई हमारे डिब्बे में चढ़ीं। बिना हमारे खाना खाने की परवाह किए वे तीनों धूल-मिट्टी में सनी, पसीने से गंधातीं, गंदे कपड़ों को लटकाए हमारे बीच से गुजरीं और आसपास की खाली जगहों पर बेफिक्री से बैठ गईं। पसीना सुखाने के लिए अपनी मैली-गंदी चुन्नी से चेहरे की हवा करने लगीं। बदबू का भभका हम लोगों को इतना नागवार गुजरा कि हमने खाने के टिपिन बंद कर दिए। उबकाई-सी गले में फंस गई।

हमारे नाटक के एक साथी ने उनसे बातचीत शुरू कर दी--कहां तक जाएंगी? सबसे बड़ी लड़की बोली--कहीं तक भी। जहां काम मिल जाए।--घर में कौन-कौन है? उत्तर में बोली--अंधी सास और लकवाग्रस्त ससुर। दोनों बहुत बूढ़े। उनके खाने की खातिर सुबह से शाम तक हम काम तलाशतीं और करती फिरती हैं। पूछा--पति नहीं है क्या? गंभीर हो गई वह लड़की--दूसरी को ले कर कहीं भाग गया नाशपीटा। पता नहीं जिदा है या मर-खप गया! कभी लाटा नहीं फिर! न खोज-खबर।

उसी वक्त किसी स्टेशन से खलासीनुमा नीली शर्ट पहने एक पचास-पचपन साल का खुदरा दाढ़ी वाला गंदा- गलीज-सा आदमी डिब्बे में चढ़ा और उस बड़ी लड़की की बगल में जा बैठा। इत्मीनान सेे उसने जेब से बीड़ी का बंडल निकाला और चार बीड़ियां सुलगाईं। एक अपने लिए, तीन उन तीनों लड़कियों के लिए। लड़कियों ने बेहिचक बीड़ियां ले लीं और सुट्टा मारने लगीं। वह खलासीनुमा आदमी बड़ी लड़की को पटाने लगा--चलेगी? सिपाही राम रतन भी संग होगा। अपनी इन दूसरी लड़कियों को भी संग ले चल। सबका धंधा करवा दूंगा। शाम तक इतना मिल जाएगा कि आज की रोटी पक्की! बड़ी लड़की बेहयाई से बोली--राम रतन हरामी की बात मत कर तू! साला पीकर घंटों मांस नोंचता है और बाद में लात मार कर खाली हाथ भगा देता है। एक पैसा नहीं देता कुत्ते की औलाद! और कोई गाहक हो तो बता, चलूंगी। वरना एक जगह मजदूरी तय की है कल। सेठ वहां काम देगा हमें। खाना भी।

अचानक बड़ी लड़की पलट कर मुझसे बोली--ए मेम साब! अपने खाने का डिब्बा हमें दो न। बहुत भूख लगी है। कल सेे सुसरे पेट में एक दाना नहीं पड़ा। पानी तक साला पेट में डागदर की सूजी की तरह चुभता है! तुम लोगों पर तो और भी कई डिब्बे हैं। एक हमे दे दो। हम खा कर दुआएं देंगे आपको! मां ने बिना कुछ बोले खाने का एक डिब्बा उस लड़की की तरफ बढ़ा दिया। तीनों उस डिब्बे पर टूट पड़ीं। दो मिनट तब हुए जब पूरा डिब्बा साफ कर दिया उन्होंने! खाली डिब्बा हमारी तरफ बढ़ा, संडास के पास वाश बेसिन में लगे नल से पानी पीने लगीं!

2. चितकबरी इच्छाओं को देह पर उकेरे लड़कियां!

लड़कियां हाड़मांस की बनी होती हैं। हाड़-मांस में उनके पास एक दिल होता है। खोपड़ी में एक दिमाग । उनकी देहों में चितकबरी इच्छाएं रेंगा करती है। कभी चाहती हैं, यह करें, वह मिल जाए। कभी चाहती है, वह करें तो यह मिल जाए! दही खाऊं या मही खाऊं वाली दुविधापूर्ण स्थिति उनके साथ हमेशा रहती है। वे किसी भी मामले में कभी निश्चित नहीं होतीं। फैंसले लेने में भी वे इसीलिए कमजोर और अनिर्णयग्रस्त होती हैं। वे सोचती तो दिमाग से हैं पर फैसले हमेशा दिल से कर बैठती हैं और बस यहीं वे मात खा जाती हैं जिंदगी में। असल बीमारी उनकी भावुकता है। भावनाओं में बह कर वह हमेशा दिल के गलत फैसले जिंदगी पर लाद लेती हैं। हास्टिल में रह कर एम ए और पी-एच डी कर रही थी। हास्टिल में चार सौ लड़कियां रहती थीं। उनमें कई मेरी कई साल की पुरानी सहेंलियां थीं। कुछ पढ़ने म्रें तेज तो कुछ जिंदगी के मामले में तेज-तर्रार। लेकिन पढ़ने में लद्दड़। मेरी रूम पार्टनर मीना हमेशा ख्वाबों में खोई रहने वाली हवाई किले बनाने में माहिर लड़की थी। बी ए से वह मेरी रूम पार्टनर थी। एम ए में भी मैंने उसे अपना रूम पार्टनर बनाया। बस पी-एच डी में हम अलग-अलग कमरों में रहीं। शोध छात्राओं को अलग कमरे मिलते थे, इसलिए अलग रहे, पर मेरी बगल का कमरा ही मीना का था। इसलिए अजग रहने के बावजूद हम लगभग रोज मिलते। बतियाते। सुख-दुख और सपने बांटते।

--यार! अब पढ़ाई में मन नहीं लगता। इतनी उम्र निकल गई। चाहती हूं शादी कर लूं और जिंदगी के असली मजे लूटूं। बेकार किताबों में अपना दिमाग खराब कर रही हूं। क्या मिलेगा इन किताबों में सिर फोड़ कर! दो टके की नौकरी! उससे तो अच्छा है, किसी खनदानी रईस के लौंडे को पटा लूं और उससे शादी करके ऐश की जिंदगी जीनी शुरू कर दूं। ढेर सारे नए-नए फैशन के पकड़े हों, महल सरीखा बंगला हो। नौकर-चाकर हों। मंहगी गाड़ियां हों और कहीं आने-जाने के लिए पति देव एक कुशल ड्राईवर रख दें। क्लबों में जा कर शराबें पिऊं। नाचूं, गाऊं। मस्ती मारूं। क्या रखा है, इन वाहियात किताबों की बेकार और उलझी हुई बातों में मगज खपाने की? जिंदगी में ये किताबें काम नहीं आतीं। जिंदगी में मोटी कमाई, मोटा आसामी, मोटा माल, मोटा काम ही काम आता है। आजतक बताओ जिसे इन किताबों ने जिंदगी में यह सब मोटा-मोटा दिया हो?

हंसने लगी मैं--रही तू पागल की पागल ही मीना। मोटे आसामी क्या आसानी से सड़कों पर मारे-मारे डोलते हैं कि सड़क पर गए और एक अदद मोटा आसामी पकड़ लाए! जनाब आजकल के रईस जादे और उनके बाप लोग भी किसी रईसजादी लड़की को ही पटाते और उससे रिश्ता जोड़ते हैं। पैसा पैसे को ख्ीचता है मीना रानी। कड़की लड़की को कोई फटीचर ही मिलता है। टीचर या क्लर्क जैसा कोई कीड़ा-मकोड़ा जिसके साथ जिंदगी आटा-दाल,, नून-तेल के हिसाब में ही खप जाती है। बच्चे हो जाते हैं और उन बच्चों की सारी हसरतें अधूरी रह जाती हैं। न उन्हें अच्छा पहना पाते हैं, न खिला पाते हैं, न अच्छी और मंहगी शिक्षा दिला पाते हैं। नतीजा होता है, हमारी तरह ही उनकी जिंदगी भी जरा-जरा चीजों के लिए रिरियते हुए गुजर जाती है। इसलिए हवा में उड़ना छोड़। किताबों में अपनी रही-बची खोपड़ी फोड़ और मां-बाप जहां कहें, चुपचाप वहां शादी कर ले। जैसा दूल्हा मिल जाए, उसी के साथ रोते-झींकते जिंदगी गुंजार ले। जैसे हमारी मां लोगों ने हमारे बाप लोगों के साथ गुजारी।

लेकिन मीना की नजरों से साफ लग रहा था। वह मेरी बातों से सहमत नहीं है। उसके सपने मुझसे कहीं ज्यादा बड़े और हसीन हैं। वह उन्हीं में खोई और रमी रहती है। एक दिन वह मेरे पास आई--चल रैस्तरां चलते हैं। एक मोटा आसामी पटा लिया है। तू देख उसे। तू हामी भरेगी तो चट मंगनी, पट ब्याह। शोध-वोध सब भाड़ में फैंक दूंगी। एक जिंदगी मिली है यार। उसे इन वाहियात किताबों में खपा कर नष्ट नहीं करना चाहती।

देख आई उस मोटे आसामी को। सचमुच मोटा था। करोड़पति! मंा-बाप भी तुरंत राजी हो गए। शादी कर ली। मैं उसके बारे में भूल-भाल कर अपने शोध में जुट गई। जब विश्वविद्यालय से निकली तो उस बात को दो साल हो गए थे। एक दिन उसके पिता का फोन आया--सुरेखा बिटिया तुम्हारी खास सहेली मीना ने नींद की बहुत गोलियां खा कर आत्महत्या कर ली। लाश घर ले आए हैं पोस्टमार्टम के बाद। अगर वक्त निकाल सको तो आ कर उसकी हालत देख जाओ! हमारे साथ बहुत धोखा हुआ है। दामाद बहुत हरामी निकला। बहुत बड़े लोग हैं वे, हम उनके खिलाफ पुलिस में जा कर भी कुछ कर नहीं पाएंगे। पुलिस तो तुम जानती ही हो, बड़े लोगों और नेताओं की ही गुंलाम होती है। हम साधरण आदमियों को तो वह बाहर से भगा देती है।

The Present Condition of Women- Part 2  by Dr Samvedana Duggal

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