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रविवार, 10 अप्रैल 2016

कृष्ण नन्दन मौर्य और उनके पाँच नवगीत — अवनीश सिंह चौहान

कृष्ण नन्दन मौर्य

युवा रचनाकार कृष्ण नन्दन मौर्य का जन्म १ सितंबर १९७८ को मेरठ, उत्तर प्रदेश, भारत में हुआ। शिक्षा : डॉ राम मनोहर लोहिया अवध विश्वविद्यालय, फैजाबाद से स्नातक। प्रकाशन : 'पलाश', 'साहित्य समीर दस्तक', 'शब्द–सरिता' आदि प्रिंट पत्रिकाओं सहित अंतर्जाल पर 'अनुभूति', 'साहित्य–रागिनी', 'कवि–मन', 'शब्द–व्यंजना' एवं 'अभिव्यक्ति' में मुक्तक, गीत, ग़ज़ल एवं हास्य-व्यंग्य रचनाओं का निरंतर प्रकाशन। समवेत संकलन : 'दामाने ज़िन्दगी' एवं 'स़हर' में ग़ज़लें प्रकाशित। गोष्ठियों एवं स्थानीय मंचों पर सक्रिय उपस्थिति। सम्मान : आकाशवाणी लखनऊ द्वारा पुरस्कृत, 'गहमर वेलफेयर सोसाइटी' द्वारा गीत–लेखन में प्रशस्ति–पत्र एवं आकाशवाणी इलाहाबाद से कविताओं एवं हास्य–व्यंग्य वार्ताओं का प्रसारण। सम्प्रति : भारत संचार निगम लि. में कार्यरत। संपर्क : १५४, मौर्य नगर, पल्टन बाजार, प्रतापगढ़ (उ.प्र.) – २३०००१, मोबाइल- 9455132100, ई-मेल – krishna.n.maurya@gmail.com।

चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार
1. सरकारों की भाषा
 
राजतिलक होते ही
तज मनुहारों की भाषा
राजा बोल रहे
डंडों हरकारों की भाषा।


जब-तब करते हैं
बातें केवल अपने मन की
प्रश्न उछाले उन पर जिसने
खैर नहीं उसकी

रुचती है उनको अब
बस दरबारों की भाषा।


छिना मंत्रिपद
चचा विदुर का
खरी-खरी कह के
बागी लगते हैं उनको
अब
बोल पितामह के

अगुआ है उनकी
गंधार-कुमारों की भाषा।


कर उपकार एक
सौ-सौ अहसान जताते हैं
हासिल नहीं तीन भी
औ तेरह गुहराते हैं

महज काग़जी दौड़ों
आत्म-प्रचारों की भाषा।


फलाँ आयँ
या ढिमका
फिर-फिर खेल वही होता
जितना साब रटाते
उतना ही कहता तोता

सर बदले
पर वही रही
सरकारों की भाषा।


2.
कभी सोचता हूँ

कभी सोचता हूँ
क्या जिनगी बीतेगी
भागे-भागे?


हाय-हपस हारा-हूँसी से
फारिग होंगे कनबोझे
ऐंचा-तानी बखत कभी
हो ही जाएँगे सम-सोझे


किंतु जुगत पीछे होती
चलती मुश्किल आगे-आगे।


घर, दलान, खलिहान, खेत
जर-ज़ेवर की
तकरारों में
सुबह शाम चुक जाती
यों
इनके उनके मनुहारों में


फट ही जाते मन
आखिर कब तक जुड़ते
तागे-तागे।


जो जगता वह ही है पाता
जो सोता
वह है खोता
पढ़ा पोथियों में
पर पाया
जग में उल्टा ही होता


वे सो कर घी चाभ रहे
हम टाप रहे जागे-जागे।


हाट, डेयरी, माल, रेस्तराँ
जू, जिम, जलसाघर, मंदिर
दफ्तर, थाना, कोर्ट
हर कहीं
हूँ भरसक हाजिर-नाजिर

किन्तु
हृदय की विजिटर-बुक पर
दर्ज
फक़त नागे-नागे।


3. बिटिया खुश है  

टेडी-बियर, पालना, झूला
वाकर भले छिना
पर बिटिया खुश है
प्यारा सा भैया उसे मिला।


उसकी भाषा में
उससे घंटों बतियाती है
वह सोता तब सोती
वह जगता
जग जाती है


बाल नोंच लेता जब
धौल जमाती नेह-सना।
 

इससे, उससे, सबसे
केवल उसका ही किस्सा
कुछ भी पाती
रखती पहले
'बाबू' का हिस्सा


टहलाना है उसे
भले
दूभर खुद का चलना।


नेह बँट गया अब
कह सब
जब उसे चिढ़ाते तो
दो पल को
उदास हो कहती
तुम सब झूठे हो


इक भोली मुस्कान
और सब शिकवे-गिले फना।

4.
अब के बादल

उमड़-घुमड़
दिन-दुपहर-साँझ बिताते हैं
अब के बादल
कहाँ बरसने आते हैं।


आस भरी आँखों
धरती तकती रहती
फुल पिक्चर अषाढ़ की
बाकी ही रहती 

छींटों का
ट्रेलर भर दिखला जाते हैं।
 

छा जाने में ही
सारा दम खरच रहे
करतब से रीते
बातों से छलक रहे 

गरज-चमक से
प्यासों को बहलाते हैं।

   
नभ-पर्दे पर झिमझिम का
तिलिस्म रचकर
खुश हो लेते
कुछ पल सूरज को ढँककर 

विज्ञापन-सी
दो बूँदें
टपकाते हैं


5. क्या होगा कल का
 
आँखों की टंकी से
पानी छलका
'बेबी' के गालों पर
भर-भर ढुलका।

जाने क्या बात हुई
रूठे बाराती
गुड़िया की
गुड्डे से टूट गई शादी


बप्पा को आया
फिर दौरा दिल का
 

सुनते, कहते
करते, काम 'शेम-शेम',
लोग बड़े
खेल रहे नफ़रत का 'गेम'

बचपन के हाथों में
खंजर झलका
 

साँझ-सुबह देख
देश-दुनिया की 'न्यूज'
मन की भोरी अम्मा
रहतीं 'कनफ्यूज'

मुआ आज बीता
क्या होगा कल का


Krishna Nandan Maurya

1 टिप्पणी:

  1. बहुत ही सरल-सहज भाषा में अपने समय की सच्चाइयों को नवगीतों में अभिव्यक्त करने की अच्छी कोशिश |

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