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शनिवार, 9 मई 2020

समकालीन गीत : कथ्य और तथ्य— अवनीश सिंह चौहान


''तमाम गीतकारों में समय और सत्य को ठीक-ठीक समझे बगैर ही अपने लिखे को छपने-छपाने की बेकली है''— 'नये-पुराने' पत्रिका के यशस्वी सम्पादक, आलोचक, नवगीतकार कीर्तिशेष आ. श्री दिनेश सिंह की यह बात बहुत महत्वपूर्ण है। महत्वपूर्ण इसलिए कि कोई भी साहित्यिक सर्जना तभी प्रासंगिक एवं प्रभावशाली बनती है जब उसका कथ्य अपने समय और समाज को भलीभाँति प्रतिबिंबित करता हो। कहने में यह कुछ अटपटा-सा लग रहा है कि आज कई समकालीन कवि अपने समय और सत्य को समझे बिना ऐसे (नव)गीत रच रहे हैं, जोकि पाठकों को कभी अतीत के खण्डहर में ले जाते हैं या कभी भविष्य की अंधेरी सुरंग में भटकने के लिए छोड़ देते हैं। ऐसे (नव)गीतों का कथ्य परीलोक की कथाओं, तोता-मैना के संवादों, वैयक्तिक अवसादों, अबूझ पहेलियों, सतही अथवा सपाट दृष्टिकोणों, नाहक एवं नाटकीय चिंताओं आदि को समोये हुए प्रतीत होता है। शायद तभी उनमें समकालीन जीवन-जगत का कुछ भी रचनात्मक दिखाई नहीं पड़ता— न सामाजिक-सांस्कृतिक संदर्भ, न मानसिक प्रवृत्तियॉ और न ही देश-दुनिया की कोई अन्य तार्किक और वैज्ञानिक बात। वहाँ तो बस  समय-सापेक्ष वैचारिकी और व्यवहारिकी से परे शब्दों का एक भ्रामक जाल रहता है, जिसमें गीत के शिल्प की शर्तों का निर्वहन हुआ तो हुआ, वरना वह भी नहीं।

आज (नव)गीत लिखने के कई 'ट्रेंड' चलन में हैं— कई बार जहाँ (नव)गीत का कथ्य अस्पष्ट, उलझा और जटिल होने से ऐसा बिम्ब बनता है कि उसको समझने के लिए एक अलग आलोचना-शास्त्र रचे जाने की आवश्यकता महसूस होने लगती है, वहीं कुछ (नव)गीतों का आरंभ एवं समापन कथात्मक शैली में भी देखा जा सकता है, जिसको पढ़कर कोई पाठक 'हुंकारी' क्यों लगाना चाहेगा? कभी-कभी तो अनगढ़ शिल्प होने से (नव)गीत न तो (नव)गीत ही रह पाता है और न ही वह नई कविता की श्रेणी में रखे जाने की स्थिति में होता है, क्योंकि साहित्यिक अनुसंधान से तो यही पता चलता है कि (नव)गीत का शिल्प नई कविता के शिल्प से भिन्न होता है। और जो (नव)गीतकार भाव-विचार तथा भाषा में एकरूपता की भी समझ नही रखते हैं उनके लिए यह संकट दोहरा हो जाता है; क्योंकि छंद का सही ज्ञान न होने पर तुकान्त तो मिलाये जा सकते हैं, किन्तु प्रासंगिक भाव-विचार और सम्प्रेषणीय एवं प्रभविष्णु भाषा का अभाव होने से (नव)गीत में लयात्मकता एवं प्रभावोत्पादकता नहीं आ पाती। इस सन्दर्भ में वरिष्ठ कवि, आलोचक आ. श्री वीरेन्द्र आस्तिक कहते हैं— ''एक तरफ गीत की विरासत का भार, दूसरी तरफ यथार्थग्रही कथ्य की चिन्ता और उसके बाद कविता से विशिष्ट हो पाने की दमतोड़ मेहनत— इन तीन शक्तियों की कदमताल में उसका स्वयं संयमित-अर्जित निखार कभी खुलकर नहीं हँस सका। वह इन्हीं चुनौतियों का सामना करने में सशक्त, अशक्त होता रहा है।''

आज के कुछ (नव)गीतों में अखबारी पंक्तियों को 'सैट' कर (नव)गीत का 'लुक' दिया जाता है, किन्तु उसका कथ्य अधपचा होने से भावक को वैसी अर्थध्वनि और मिठास महसूस नहीं होती, जिसकी वह अपेक्षा करता है; जबकि कई (नव)गीत ऐसे भी देखने को मिल जायेंगे, जिनकी सर्जना किसी लोकप्रिय (नव)गीत का मुहावरा या धुन चोरी कर की गई हो और ऐसे (नव)गीतों का रचनाकार यह भ्रम पाले रहता है कि पाठक उसकी इस हरकत को समझ नहीं पायेंगे, क्योंकि उसके द्वारा की गई शब्दों की हेराफेरी से उसकी दृष्टि में उसका यह सृजन युग-सापेक्ष एवं मौलिक हो गया है! ऐसे (नव)गीतों का जब भी मूल्यांकन होता है, तब उन पर प्रश्न-चिन्ह लग जाना स्वाभाविक है।

एक 'ट्रेन्ड' और भी है। वरिष्ठ गीतकार आ. श्री गुलाब सिंह के शब्दों में कहूँ— ''तुम मुझे कहो महान/ मैं तुम्हें कहूँ महान/ चश्मा दो अंगुल का/ अंतहीन आसमान।'' आशय यह कि जो (नव)गीत (नव)गीत नहीं है, उसे (नव)गीत मान लिया जाये और जो (नव)गीतकार (नव)गीतकार नहीं है उसे (नव)गीतकार मान लिया जाये। या कहें कि एक दूसरे की पीठ थपथपाने की जो परिपाटी देखने को मिल रही है, उससे भी समकालीन गीत की आलोचना में काफी अड़चनें आ रही हैं। ऐसे में समकालीन गीतकार एक दूसरे पर 'अच्छा-अच्छा' लिखकर आलोचनाकर्म कर लेते हैं या फिर किसी आलोचक को पकड़कर ठेके पर अपने रचनाकर्म की समालोचना करवा लेते हैं। तब झूठ का ऐसा आवरण निर्मित कर दिया जाता है, जिससे पाठक उसमें उलझकर रह जाये— किन्तु, झूठ का यह आवरण बहुत दिन तक नहीं रहता। पाठक किसी न किसी दिन सच जान ही लेते हैं। इसलिए मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं कि ऐसे गीतकार अपनी चालाकियों/फितरतों से बाज आयें और यदि वे स्वयं ऐसा नहीं कर पा रहे हैं, तो सजग कवियों/आलोचकों का यह दायित्व बनता है कि वे बिना किसी भय और आशंका के उनको सही रास्ता दिखाएँ।

इधर समकालीन गीत (नवगीत) को लेकर तमाम फ़तवे भी जारी हुए हैं— 'गीत ब्रह्म है/ गीत महेश/ यही चण्डिका/ यही गणेश' और 'गीत गगन है/ गीत धरा है/ इन्द्रलोक की/ अप्सरा है' आदि। लेकिन सच यह है कि (नव)गीत के नाम पर आज जो कुछ परोसा जा रहा है, वह कई बार जीवन के वास्तविक धरातल से छिटका हुआ दिखाई पड़ता है और जहाँ तक शिव एवं ब्रह्म जैसी उपमाओं का प्रश्न है तो यह इस वैज्ञानिक युग में (नव)गीत-सर्जना के लिए कितना सही है, सोचना पड़ेगा। एक बात और— कहा जाता रहा है कि (नव)गीत का लय से और लय का जीवन से गहरा सम्बन्ध है। यह शत-प्रतिशत सही भी है, किन्तु वर्तमान परिप्रेक्ष्य में जन-मन की लय (नव)गीत की लय से कितनी मिल पा रही है, यह बात भी विचारणीय है।

विचारणीय यह भी है कि आये दिन (नव)गीतकारों की साहित्यिक कृतियॉ थोक के भाव में प्रकाशित हो रही हैं। लेकिन यह भी सुनने को मिल ही जाता है कि अभी ऐसी कृति की प्रतीक्षा है, जो 'वंशी और मादल' की तरह जनता में हलचल पैदा कर सके। आखिर क्यों? शायद इसलिए कि आज कम ही (नव)गीतकार ऐसे हैं जिनकी कृतियों के दो-तीन से अधिक संस्करण निकल पाये हों (यहाँ उन तथाकथित संस्करणों की बात नहीं की जा रही है जो वास्तव में 40-50 प्रतियों के निकलते हैं और बाजार में 400-500 प्रतियाँ प्रकाशित होने का झूठ फैला दिया जाता है)। इससे सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि जनता तक अपनी पहुँच के सन्दर्भ में आज का (नव)गीतकार कितना भ्रम मे जी रहा है और कितना यथार्थ के धरातल पर। हालांकि यहाँ पर कहा जा सकता है कि हिन्दी साहित्य, विशेषकर हिन्दी (नव)गीत को अभी बाज़ार नही मिला है, ''क्योंकि बाजारवाद जहाँ से आ रहा है, वहीं से संस्कृति का आयात हो रहा है, परिणामस्वरूप हमारे जीवन पर आज पश्चिमी संस्कृति ने अपना शिकंजा कस लिया है'' (आ. श्री प्रभाकर श्रोत्रिय)। इस आयातित संस्कृति के प्रभाव में हमने अपनी भाषा-साहित्य को दरकिनार कर विदेशी भाषा-साहित्य (विशेषकर अंग्रेजी) को ही सबकुछ मान लिया है। इससे अंग्रेजी का बाज़ार तो बढ़ा, किन्तु हिन्दी का बाज़ार (अपवादों को छोड़कर) घट गया। बाजारवाद के इस युग में, अपने ही देश में, हिंदी जैसी समृद्ध भाषा के बाजार के सिकुड़ने का प्रत्यक्ष प्रभाव हिंदी रचनाकार के आर्थिक हितों पर तो पड़ना ही था। यही हुआ और हो भी रहा है। परिणामस्वरूप हिन्दी का कवि-गीतकार जिन्दगीभर खटता रहता है और जाने-अनजाने उसका श्रम, सम्पत्ति और समय लुटता रहता है।

इक्कीसवीं सदी ने एक नायब सौगात अवश्य दी है— इंटरनेट पर साहित्य की सशक्त उपस्थिति का दर्ज होना। अब विश्वभर में कोई भी, कहीं भी, कभी भी और किसी भी भाषा में साहित्य लिख-पढ सकता है, प्रकाशित कर-करा सकता है और प्रतिक्रियाएँ ले-दे सकता है। इससे साहित्य का आशातीत प्रचार एवं प्रसार भी हुआ है। इस प्रकार से समकालीन गीत (नवगीत) का भी काफी-कुछ विस्तार हुआ है। हिंदी समय, अनुभूति, कविताकोश, अभिव्यक्ति, सृजनगाथा, रचनाकार, भाषांतर, साहित्य कुंज, पूर्वाभास, आँच, जय विजय, हस्ताक्षर, नवगीत विकि, संग्रह और संकलन, गीत-पहल, खबर इंडिया, साहित्य शिल्पी, हिंद-युग्म, अपनी माटी, डिजिटल इण्डिया, प्रभा साक्षी, भड़ास4मीडिया, ट्रू मीडिया, रैनबो न्यूज, एम्स्टलगंगा, अविराम साहित्य, स्वर्गविभा, साहित्य मुरादाबाद, नवगीत की पाठशाला, नवगीत, कारवाँ, आखर कलश, साखी, हिन्दी विश्व जैसी तमाम 'वेबसाइट्‌स' एवं 'ब्लॉग्स' और गीत-नवगीत, नवगीत की पाठशाला, संवेदनात्मक आलोक,  नवगीत लोक, नवगीत वार्ता, नवगीत चर्चा, नवगीत समूह, नवगीत कविता, गीत-नवगीत सलिला, गीत-गांव, गीत-गुंजन आदि फेसबुक समूहों के माध्यम से (नव)गीत की पताका विश्वभर में फहरी और बिना किसी शुल्क के यह सुविधा सभी 'डिजिटल ऑडियंस' को मिल रही है। लेकिन इससे भी हिंदी कवि/साहित्यकार का अभी तक कोई आर्थिक लाभ नही हुआ है, बल्कि पुस्तक की जो प्रतियाँ पहले थोड़ा-बहुत बिक भी जाती थीं और जिसका लाभ अधिकांशतः प्रकाशक को ही मिलता था, उस पर भी भारी प्रभाव पड़ा है। कुलमिलाकर इससे इंटरनेट को संचालित करने वाली सॉफ्टवेयर कंपनियों ने ही भरपूर लाभ उठाया है। यानी की जो लाभ पहले केवल प्रकाशक का होता था, 'यूजर्स' (प्रयोक्ताओ) के बढ़ने से उसमें कुछ हिस्सा अब इन कंपनियों को भी मिलने लगा है। किन्तु, चिन्तनीय यह है कि प्रकाशकों की भाँति ही ये कम्पनियाँ साहित्य सेवा में लगे लोगों को अपने लाभ से ढेलाभर भी देने की इच्छुक नहीं लगतीं?

इस सबके बावजूद एक लाभ जरूर हुआ है— इंटरनेट पर आसानी से छपने-छपाने की सुविधा होने से तमाम तकनीकी ज्ञान रखने वाले जागरूक साहित्यकार वहाँ अपना 'स्पेस' बनाने में काफी हद तक सफल हो रहे हैं। (प्रिंट मीडिया की कई पत्र-पत्रिकाओं में भी छपने-छपाने की ऐसी सुविधा है, बशर्ते रचनाकार पत्र-पत्रिका की वार्षिक/आजीवन सदस्यता ले ले और संपादक मण्डल से सम्बन्ध बना ले)। समकालीन गीत (नवगीत) के क्षेत्र में भी यह सब आसानी से देखा-समझा जा सकता है। इंटरनेट पर अपने अच्छे साहित्य के दम पर कई गीतकवि अपना 'स्पेस' बना रहे हैं और कई अन्य 'स्पेस' बनाने की प्रक्रिया में हैं। सोशल मीडिया (फेसबुक, व्हाट्सप्प, ट्विटर, इंस्टाग्राम, यूट्यूब आदि) में और चलताऊ ब्लॉग्स पर कई ऐसे गीतकवि भी हैं जो तुकबन्दी से आगे की राह नही पकड़ पाये हैं— कथ्य और शिल्प दोनों स्तर पर। हाँ, एक काम जरूर हुआ है— ऐसे तथाकथित रचनाकारों ने गुटबन्दी कर एक दूसरे की रचनाओं पर 'बहुत सुन्दर', 'जय हो', 'बधाई', 'शुभकामनाएँ', 'वाह, भाई', 'बहुत अच्छा है', 'क्या बात है', 'मजा आ गया' जैसे प्रशंसात्मक 'कमेंट्‌स' करने की एक 'स्टाइल' इजाद कर ली है; वही 'स्टाइल' जिसे आ. श्री गुलाब सिंह जी 'चश्मा दो अंगुल का' के रूप में देखते हैं। ऐसे (नव)गीतकारों की किसी से तुलना करना तो कठिन है, लेकिन वास्तविक जीवन-जगत से दूर 'ड्राइंग रूम' या 'कैफे' लेखन से जुड़े हुए बकबादी एवं बेस्वादी साहित्यकारों की अगर श्रेणियाँ बनाई जाएँ, तो उनमें से किसी एक श्रेणी में इन्हें भी रखा जा सकता है। और इनके लिए आ. गुलाब सिंह जी की यह बात भी कही जा सकती है— ''आज के उलझे हुए कठिन और थका देने वाले जीवन का चित्रण चन्दन के पालने पर बैठकर मोरपंख की लेखनी का प्रयोग करने वालों से संभव नहीं है।''

'ड्राइंग रूम' या 'कैफे' लेखन की एक बात और भी है। इस लेखन परम्परा के तमाम साहित्यकारों के पास प्रत्यक्ष अनुभव कम होने के कारण उनका संवेदन-तन्त्र कथ्य के श्रोत से उस गहराई से नहीं जुड़ पाता, जिस गहराई से जनता के बीच रहने वाला साहित्यकार अपने को जोड़कर कलम चलाता है। इस प्रकार की सतही सर्जना से पाठक को महसूस हो सकता है कि यह तो सिर्फ शब्दों की जादूगरी है और जादूगर तो अपना हुनर दिखाता है, बदले में 'वाह-वाही' पाता है, श्रोत और श्रोता से उसे कोई लेना-देना नहीं होता। कविसम्मेलनी या ऑनलाइन मंच से भी जुड़े तमाम श्रोता/दर्शक यही फलसफा मानकर चलते है। यहाँ पर वरिष्ठ कवि आ. श्री सत्यनारायण याद आते हैं— ''दिन गए/ वासर गए, बीते महीने/ बरस गुजरे/ ये अंधेरे/ और होते रहे गहरे/ उजालों का भरम/ देते रहे/ सारे टिमटिमाते दिए।'' इस 'भरम' की भनक गीतकवि को तो है ही, जनता-जनार्दन को भी है, किन्तु जनता तो कई बार यह मानकर चलती है— ''ढोल/ ढाँपे पोल बाजे/ बाजने दे'' (आ. दिनेश सिंह जी)। आखिर क्यों? एक तो उपर्युक्त कारण से और दूसरा इसलिए कि अब कई रचनाकारों का आचरण काफी बदल गया है। वे आदर्शो/मूल्यों की बात जिस लय और गति के साथ करते हैं, अब उस तरह का उनका जीवन नही रहा है। यानी वे कहते कुछ हैं, करते कुछ हैं और दूसरों से अपेक्षाएं कुछ और रखते हैं। वरिष्ठ गीतकार आ. डा. शिवबहादुर सिंह भदौरिया भी कहते हैं—''अब किसको/ किससे नापेंगे/ तोड़ चुके पैमाने लोग।'' ऐसी विडंबनात्मक स्थिति जन-मन में अविश्वास जगाती है और जब किसी के मन मे अविश्वास जाग जाता है तो उसे 'कनविन्स' कर पाना बहुत कठिन होता है। इसलिए सबसे पहले रचनाकार को स्वयं बदलना होगा— ''हम बदलेंगे, जग बदलेगा'' (आ. आचार्य श्रीराम शर्मा) और तब उसकी युगबोधी मधुर सीख का कोई असर जन-मन पर पड़ने की उम्मीद की जा सकती है। कार्य कठिन जरूर है, किन्तु इसके लिए कोशिश तो की ही जा सकती है—''खुले नहीं दरवाजा/ तब तक बैठे रहो भगत'' (आ. श्री नीलम श्रीवास्तव)।

यहाँ पर सिनेमाई गीतों की चर्चा करना भी समीचीन लगता है। वर्तमान में फिल्मी गीतों में जहाँ कथ्य में हल्कापन, दोअर्थी शब्दों का प्रयोग, सपाटबयानी, पुनरावृत्ति और अजाने संगीत की संगति एवं किसी बाला के देह प्रदर्शन के साथ गीत की प्रस्तुति से जनता में हलचल पैदा करने की कोशिश की जा रही है, लेकिन ऐसे गीत न तो बड़ी बात कह पाते हैं और न ही लम्बे समय तक जन-मन में अपना स्थान ही सुनिश्चित कर पाते हैं। पुराने अच्छे फिल्मी गीत (कथ्य और शिल्प के स्तर पर सशक्त) आज भी गाये-गुनगुनाये जाते हैं, जबकि आज के तमाम फ़िल्मी गीत कुछ समय बाद ही बाजार से तो गायब हो ही जाते हैं, मन से भी उतर जाते है। कहते हैं कि जो गीत टिकाऊ नहीं होते, बस कुछ समय के लिए बिकाऊ होते हैं, उनसे साहित्य और समाज का भला होता दिखाई नहीं पड़ता। तथापि, इस समकालीन फिल्मी फार्मूले को कविसम्मेलनी मंच पर और सोशल मीडिया में भी खूब आजमाया जा रहा है। इससे गीत वर्तमान में अपनी ग्राह्‌यता और प्रचार-प्रसार— दोनों में बुरी तरह से पिछड़ रहा है। यह बात गीतकवि भी भलीभाँति जानते हैं और शायद इसीलिये वे अपने लोकधर्मी एवं अर्थप्रवण (नव)गीतों के माध्यम से संकेतों में बहुत कुछ कह देते हैं

1. आज तो
    ज्वालामुखी पर
    थरथराते हुए घर हैं। — आ. श्री माहेश्वर तिवारी 

2. आँख में आँसू नहीं हैं 
     किन्तु चेहरा सुन्न है 
     राम जाने किस व्यथा से 
     अनमना मन खिन्न है। — आ. श्री मयंक श्रीवास्तव 

3. ऊपर नीचे आग 
    बीच में
    एक चना है उछल रहा। — आ. श्री मधुकर अष्ठाना 

 4. सुनो! 
     पत्ते खड़खड़ाये
    ऑधियॉ आने को हैं। — आ. श्री निर्मल शुक्ल 

5.  रचनाओं से खेल रहा है 
     मन सैलानी                 
     चुप रहना। — आ. श्री रामनारायण रमण 

इन सब विषम स्थितियों के बावजूद इक्कीसवीं सदी में (विशेषकर प्रथम दशक के उत्तरार्द्ध से लेकर अब तक) समकालीन गीत (नवगीत) में नयी पीढ़ी ने अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज करायी है। इस पीढ़ी में जहाँ कम आयु के रचनाकार हैं, तो वहीं बड़ी उम्र के रचनाकार भी। इनमें कई तो ऐसे भी रचनाकार हैं, जो प्रौढ़ावस्था में या उसके भी बहुत बाद ढलती उम्र में नवगीत के क्षेत्र में आये और अपनी रचनाधर्मिता से साहित्य जगत को चमत्कृत कर रहे हैं। इस नयी आवत में मनोहर अभय, शिवानंद सिंह 'सहयोगी', कृष्ण भारतीय, रघुवीर शर्मा, जगदीश पंकज, राकेश चक्र, मंजुलता श्रीवास्तव, आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', कल्पना रामानी, संतोष कुमार सिंह, रवि खंडेलवाल, राघवेन्द्र तिवारी, पूर्णिमा वर्मन, शंकर दीक्षित, आनंद कुमार गौरव, रामकिशोर दाहिया, अनिल मिश्रा, रंजना गुप्ता, जय चक्रवर्ती, रमाकांत, विनय भदौरिया, जय शंकर शुक्ल, संध्या सिंह, ओमप्रकाश तिवारी, भावना तिवारी, मधु शुक्ला, मनोज जैन मधुर, जगदीश व्योम, संजय शुक्ल, रणजीत पटेल, शीला पांडे, पंकज परिमल, सौरभ पाण्डेय, आनंद तिवारी, त्रिलोक सिंह ठकुरेला, राम शंकर वर्मा, प्रदीप शुक्ल, विनय मिश्र, योगेंद्र वर्मा 'व्योम', मालिनी गौतम, कल्पना मनोरमा, ओमप्रकाश तिवारी, शशि पुरवार, अविनाश ब्यौहार, कृष्णमोहन अम्भोज,  रोहित रूसिया, धीरज श्रीवास्तव, धर्मेन्द्र कुमार सिंह 'सज्जन', अवनीश सिंह चौहान, कृष्ण नन्दन मौर्य, अवनीश त्रिपाठी, रविशंकर मिश्र, योगेन्द्र प्रताप मौर्य, दौलतराम प्रजापति, चंद्रेश शुक्ल 'शेखर', गरिमा सक्सेना, राहुल शिवाय, शुभम् श्रीवास्तव 'ओम', चित्रांश वाघमारे आदि ने समकालीन गीत (नवगीत) में 'जीवन-राग के विराट स्वरुप' को दर्शाने की उम्मीद जगायी है।

यहाँ पुनः 'राग और आग' की बात करने वाले आ. दिनेश सिंह जी याद आ रहे हैं। आ. दिनेश सिंह जी (नव)गीत को "रागवेशित आवेग की केन्द्रीय अनुगूंज" मानते हैं। शायद इससे उनका अभिप्राय रागात्मकता के साथ अर्थ की एकरूपता से है, जिसमें छन्द और टेक का आवर्तन नियमों के तहत हुआ हो। आ. नचिकेता जी कहते हैं— "एक अच्‍छा और उदात्त गीत वह होता है, जिसमें कवि अपनी भाषा में स्‍वयं को इस कदर विलीन कर देता है कि उसकी उपस्‍थिति का आभास नहीं होता और भाषा का अपना स्‍वर गीत में गूँजने लगता है।" कई बार देखने में आता है कि (नव)गीत में भाषा के संस्कारों के साथ छन्दानुशासन एवं लयात्मकता तो रहती है, किन्तु काव्यत्व का अभाव होता है और यह अभाव (नव)गीत को रसहीन बना देता है— ऐसे में रचनाकार को भाषिक संरचना के साथ युगबोधी कहन पर भी विशेष ध्यान देना चाहिए। आ. श्री राम सेंगर जी भी मानते हैं "कविता या साहित्य की किसी भी विधा के रचनाकार की निर्णायक कसौटी विचारधारा ही है। संवेदना और विचार दोनों के समाजसापेक्ष संतुलन से ही काव्यसृजन की दिशाएँ खुलती हैं।" कुल मिलाकर, समकालीन गीत (नवगीत) सही मायने में समकालीन गीत (नवगीततभी कहलायेगा जब उसमें व्याकरण-सम्मत वैचारिकता एवं व्यावहारिकता के साथ भावप्रवणता, सहजता एवं गेयता को वैज्ञानिक एवं तार्किक ढंग से समावेशित कर कोई महत्वपूर्ण बात कही गयी हो। इतना ही नहीं, विश्व, देश, धर्म, समाज और व्यक्ति को ध्यान में रखकर अपने परिवेश और अस्तित्व के प्रति सजग रहते हुए समकालीन गीतकवि (नवगीतकार) को अपनी समझ तो विकसित करनी ही होगी, उसे अपने आचरण को शुद्ध और उद्‌देश्यों को स्पष्ट भी करना होगा, ताकि समाज में वांछित चेतना और परिवर्तन लाया जा सके। यदि ऐसा संभव हुआ तो निश्चय ही उसके (नव)गीत सूचना साहित्य की चौहद्‌दी से आगे जाकर शक्ति (ऊर्जा प्रदायी) साहित्य की सीमा में प्रवेश कर सकेंगे।
....
[नोट : इस आलेख में समकालीन गीत, जोकि नवगीत के उदय के बाद बीसवीं सदी के अंतिम दशक में प्रकाश में आया, का उदय एवं विकास-क्रम प्रस्तुत नहीं किया जा रहा है और न ही इस बात पर विचार रखे गये हैं कि कब और कैसे नवगीत के पर्याय के रूप में कविता, गीत, गीत-नवगीत, समकालीन गीत आदि शब्द चलन में आये। इस पर किसी अन्य आलेख में बातचीत की जाएगी — अवनीश सिंह चौहान]

Samkaleen Geet: Kathya aur Tathya. First Published on Feb 11, 2012. Revised on May 09, 2020

13 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
    घूम-घूमकर देखिए, अपना चर्चा मंच
    लिंक आपका है यहीं, कोई नहीं प्रपंच।।
    --
    आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार के चर्चा मंच पर की जाएगी!
    सूचनार्थ!

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  2. आपके आलेख ने नवगीत के रूप-विधान पर सार्थक चर्चा की है। पठनीय और विचारणीय आलेख ।अवनीश जी बहुत बधाई और शुभकामनाएँ।

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  3. समकालीन गीत पर आपका आलेख समकालीनता को लेकर उसके कथ्य और तथ्य को निरूपित करते हुए समीचीन वक्तव्य के साथ बहुत अच्छा बन पड़ा है। विविध काल खंडों में नवगीत के आधार स्तंभों के विचारों ,भावनाओं और कथनों को लेकर के आपके द्वारा विरचित यह आलेख एक पड़ताल है, जहां पर व्यक्ति की जिजीविषा और उसका लेखन उसके अनुभव के साथ शाब्दिक परिणति तक किस रूप से पहुंच रहा है इसको विवेचित किया गया है ।
    डॉ अवनीश सिंह चौहान की आलोचना दृष्टि निश्चित तौर पर अपने समय की बहुत सारे उपकरणों के आधार पर विविध काल खंडों के युगबोध को व्यंजक एवं विरचित करते हुए एक आईना दिखाने के समान है, जहां आपने गीत के आरंभ के गीतकारों की कथन उनके विचार उनकी रचनाओं की पृष्ठभूमि को देने का प्रयत्न किया है, वहीं पर आपने विविध पत्र-पत्रिकाओं में समकालीन गीत या नवगीत के साथ उसके शिल्प, उसके प्रारूप, उसके बिंब, उसके प्रतीक, उसके उपमान उसके रूपाकार को लेकर अपनी बात बहुत ही विशिष्ट प्रक्रिया में विवेचित किया है। प्रक्रिया में इसलिए कह रहा हूं कि आप सीधे निष्कर्ष तक नहीं जा रहे हैं अपितु प्रक्रिया के माध्यम से अनुभूतियों को व्यक्त करने के प्रयत्न को रेखांकित कर रहे हैं ।इसके साथ-साथ आपने एक सूची प्रदान की है जिसमें आज के समय में समकालीन गीत लेखन में सक्रिय रचनाकारों का नाम उल्लेख मैं समझता हूं आज के युग में बहुत बड़ा काम है।
    हर व्यक्ति जो कहीं न कहीं किसी न किसी रूप में समकालीन गीत के लेखन में अपने स्वयं के प्रयत्नों के फलस्वरूप कुछ हविष्य आहुति के रूप में गीत की लेखन रूपी हवन में अर्पित करते हुए होता बनने की अपनी आकांक्षा को, अपने प्रयत्न को, अपने भाव को, अपने विचार को सामने रखने में प्रयत्नशील है ,उनके उस प्रयत्न को आकार देना, शब्द देना रूपकार देना, व्यक्त करना निश्चित तौर पर अवनीश सिंह चौहान जैसे रचनाकार, आलोचक के लिए ही संभव हो सकता है। डॉक्टर साहब निश्चित तौर पर आपका यह आलेख हमारी आंखें खोल देने के लिए पर्याप्त है। निरंतर लिखने की ओर प्रवृत्त रहने वाले उद्धत नवगीतकारों को जोकि पूर्व में क्या लिखा है उसे न पढ़कर के एक टकसाली रचनाकार बन गए हैं, जिनके पास अपना आकार है उनसे रचनाएं डाले जा रहे हैं बिना इस बात की चिंता किए युग की मांग क्या है।
    युग के मांग के अनुसार साहित्यकार जब अपनी साहित्य को सक्रियता के बाने में डालकर प्रस्तुत करता है तो ऐसे ही पल के लिए कहा जाता है कि साहित्य समाज का दर्पण है ।साहित्य किसी भी विधा में लिखी जाए, किसी भी भाव में लिखा जाए, किसी भी रूपकार में लिखा जाए, जब तक उसमें युगधर्म ,युगबोध अथवा कालखंड ध्वनित नहीं हो, व्यक्त नहीं हो निश्चित तौर पर अपने कालखंड के साथ न्याय करता हुआ नहीं प्रतीत होता।
    डॉ अवनीश सिंह चौहान आपके इस आलेख के लिए मैं आपको कोटिश: धन्यवाद देता हूं और आशा करता हूं कि आने वाले दिनों में नवगीत की आलोचना अथवा समालोचना के बृहद फलक को देखते हुए इसके उपकरणों पर, टूल्स पर भी चर्चा करेंगे ।
    बहुत-बहुत धन्यवाद

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  5. बहुत उपयोगी जानकारी, आभार

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  6. समकालीन साहित्य पर अद्भुत लेख

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  7. कुछ मुट्ठी भर गद्य कवियों और उनके पैरोकारों को छोड़ दें तो छंद भारतीय कविता और जीवन से कभी गायब नहीं हुआ है. आज भी व्यापक जन जीवन के सारे क्रिया कलाप, श्रम व्यापार, अनुष्ठान, पर्व त्योहार, कर्म कांड और सुखदुख के क्षण, उत्साह एवं उमंग की अभिव्यक्ति तो लयछंदों में ही होती है. छंदोबद्ध होने मात्र से कोई कविता छोटी नहीं होती, बल्कि प्रभावशाली और लोकप्रिय जरूर हो जाती है. नागार्जुन की कविता "अकाल और उसके बाद" तो छंदोबद्ध कविता ही है. इस विषय पर इससे अधिक प्रभावशाली, स्मरणीय और सुगठित कविता कोई दूसरी है क्या. जाहिर है कि कविता बड़ी या छोटी अपने रूप से नहीं, वरना प्रभावी और वैचारिक अंतर्वस्तु की द्वंद्वात्मक एकता और जीवन की गहरी पकड़ से होती है.
    -- नचिकेता, पटना (व्हाट्सएप पर टिप्पणी)

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  8. हालांकि मैं निजी तौर पर वेद प्रकाश जी को जानता हूँ. उनके सामाजिक और साहित्यिक जीवन, रचना दृष्टि और साहित्यिक ज्ञान से भी वाकिफ हूं. शायद वेद प्रकाश जी को नहीं पता है कि कविता का उदय ही गीत के रूप में हुआ है. अगर गीत में सामाजिक जीवन की अभिव्यक्ति संभव नहीं होती तो रामविलास शर्मा यह नहीं कहते कि कविता एक सामाजिक क्रिया है, गीत तो और भी. नामवर सिंह भी नहीं मानते कि समाज को बदलने में गीत क्रांतिकारी भूमिका निभाते हैं. इसलिए वेद प्रकाश गीत पर मूर्खतापूर्ण टिप्पणी करने के पहले समकालीन गीत साहित्य को थोड़ा पढ़ लें. सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक जीवन का ऐसा कौन सा पक्ष है जिस पर समकालीन गीत न लिखे गए हैं. कहीं कहीं तो कविता से पहले भी. हाँ गीत, गजल, दोहे और आज की गद्य कविता की विषय वस्तु की समानता के बावजूद अनुक्रिया, रचना प्रक्रिया और रचनात्मक व प्रभाव संगठक उद्देश्यों में भिन्नता होती है. अगर आज की गद्य कविताओं का सामाजिक सरोकार इतना ही प्रगाढ़ है तो व्यापक सामाजिक जीवन से पूरी तरह विस्थापित क्यों है?
    नचिकेता, पटना.

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  9. (यहाँ पहले डॉ अनिल पाण्डेय की टिप्पणी दी जा रही है, फिर उसका जवाब मेरे द्वारा दिया गया है)
    ...
    खण्ड-एक
    ...
    अच्छा लेख है और निष्पक्ष होकर लिखा गया है| बेलाग और दो टूक | जरूरत यह भी समझने की है कि गीत और नवगीत के मध्य एक विभाजक रेखा थी जो बहुत हद तक जिम्मेदार रचनाकारों की दुनिया को समृद्ध करती थी और उन्हें स्वयं अलग हो जाना पड़ता था जो समय के साथ स्वयं को सक्रिय न रख पाते थे| इधर नवगीत की जगह, और जैसा कि आपने भी बराबर उसे कोष्ठक में रखना उचित समझा है, समकालीन गीत के रूप में प्रचारित करने की कोशिश की गयी है| यह कोशिश ऐसे रचनाकारों को सीधे बगैर किसी परीक्षा के शामिल करने की कोशिश तो नहीं कि जो कभी नवगीत लिख ही नहीं पाए, अपने समय के साथ चल न पाए, उन्हें भी शामिल किया जाए? समकालीन कविता की तर्ज पर समकालीन गीत का यह विधान एक नई भीड़ लेकर आएगा जो ऊपर दिए गए और किये गए प्रश्नों में उलझा कर रख देगा| कुछ रचनाकारों को छोड़ दें तो इधर के युवा बहुत अच्छा कार्य कर रहे हैं फिर उन्हें इस द्वंद्व में उलझाने का मतलब क्या?

    आप ध्यान से देखें तो माहेश्वर तिवारी जी के यहाँ नवगीत के दर्शन आज तक नहीं होते| एक दो नवगीत हों या दो चार ये अलग बात है| बुद्धिनाथ मिश्र के यहाँ भी नवगीत नहीं है| यहाँ तक देवेन्द्र शर्मा इंद्र जी भी पूरे जीवन अपने बनाए घेरे से बाहर नहीं निकल सके और समकालीनता उन्हें मुंह चिढाने लगी| अब जब आप समकालीन गीत रखेंगे तो यह सब आसानी से उसमें समाहित हो जाएंगे जोकि अभी नहीं होना चाहिए|

    आप बताइये अभी नवगीत का मूल्यांकन हुआ ही कहाँ है? तू मुझे सुना मैं तुझे सुनाऊँ अपनी प्रेम कहानी" जैसी स्थिति से आगे नवगीत के समीक्षा और आलोचक निकल ही कहाँ पाए? आपने भी इस बात की चिंता व्यक्त किया है इस लेख में| तो समकालीन गीत रखकर एक तो एक बड़ी संख्या मूल्यांकित होने से अधूरी रह जाएगी जो जबरजस्ती नवगीतकार के रूप में प्रचारित किये और आज भी किये जा रहे हैं| यह कितना अच्छा हो कि नवगीत को ही समकालीन नवगीत कहा जाए? यदि नाम परिवर्तन को लेकर जल्दबाजी है तो अन्यथा तो यह सही ही है|

    आप द्वारा दिया गया नामोल्लेख भी बहुत स्पष्ट और साफ़ है जिसे देखते हुए ख़ुशी हुई| पुस्तकों का प्रकाशन होना चाहिए और होते रहना चाहिए| ऐसा होने से विधाएँ समृद्ध ही होती हैं और रचनाकार भी बड़े मात्रा में सक्रिय होते हैं, नवगीत के लिए यह भी एक तरह से हितकर है| जो काम जरूरी है वह ये कि रोज खुलती दुकानों से और इन दुकानों पर जुटती भीड़ से हो सके तो नवगीत को सुरक्षित रखा जाए| नवगीत की पाठशाला आदि खोलने से कोई नवगीत सीखेगा, भ्रम है| इन दुकानों के माध्यम से अपनी सत्ता तो कायम रखी जा सकती है लेकिन नवगीत की स्थिति को दमदार नहीं बनाया जा सकता| जैसे आप समकालीन गीत के नाम को वरीयता देंगे वैसे ही ये दुकान और बड़ी मात्रा में नवगीत की जमीन को कब्जाने लगेंगे, जिसे बहुत श्रम पूर्वक तैयार किया गया है और जिस पर आज के युवा, जिसमें आप स्वयं हैं, बड़ी मस्ती से निकल पड़े हैं|

    उदहारण के लिए दो नाम रखूंगा मात्र जो विशुद्ध गीतकार हैं और जिनका कोई लेना-देना नहीं है नवगीत से -एक पूर्णिमा वर्मन, दो- ओम नीरव| यह अजीब बात हो सकती है कि जो स्वयं नवगीतकार न हो सके वे नवगीत की पाठशालाएं चला रहे हैं| ये मात्र उदाहरण हैं एक बड़ी संख्या बाज़ार में है जिसे हम आप सभी जान रहे हैं|

    तो मेरे कहने का मतलब यह है कि अभी पूरी शक्ति इस अर्थ में लगे कि सही रचनाकारों पर कार्य हो सके, जो नवगीतकार हैं| नवगीत को समकालीन गीत कहने की जरूरत कम से कम मुझे नहीं लगती| बाकी लेख बहुत सुंदर सर| मेरी हार्दिक शुभकामनाएँ आपको|
    -- डॉ अनिल पाण्डेय

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    1. खण्ड-दो
      ...
      प्रिय डॉ अनिल पाण्डेय जी

      टिप्पणी करने के लिए ह्रदय से आभार।

      1. दरअसल 'समकालीन गीत' कब और कैसे अस्तित्व में आया और किन-किन नवगीतकारों ने इसका कब और कैसे प्रयोग किया है?, आपने बिना पड़ताल किये इस पर टिप्पणी कर दी। इसलिए आपकी यह चिंता- " समकालीन गीत का यह विधान एक नई भीड़ लेकर आएगा" निराधार है।
      2. आपने आ. माहेश्वर तिवारी और डॉ बुद्धिनाथ मिश्र को पढ़ा और समझा ही कितना है? अगर पढ़ा-समझा होता तो इस तरह से आपने विचार न रखे होते। क्या किसी प्रबुद्ध रचनाकार को पूरी तरह से खारिज किया जा सकता है?
      3. आप ने कहा- "आप बताइये अभी नवगीत का मूल्यांकन हुआ ही कहाँ है?" (इस प्रकार का प्रश्न अन्य विधाओं पर भी किया जा सकता है)। इस प्रकार के अविश्वास से भरे हुए प्रश्न भ्रमित ही नहीं करते है, अतार्किक दुनिया में भटकने के लिए छोड़ देते हैं। मेरी दृष्टि में नवगीत में काफी काम हुआ है, वर्तमान में हो रहा है और भविष्य में और होने की पूरी उम्मीद है।
      4. नवगीत को "समकालीन नवगीत" कहना हास्यास्पद है।
      5. कहते हैं पाठशाला ज्ञान का केंद्र होती है बशर्ते उनका उद्देश्य स्पष्ट एवं क्रियान्वयन सुचारु रूप से हो। इसलिए कृपया साहित्य-सेवी 'पाठशालाओं' (सेवा हेतु) को दुकान कहकर (व्यापार हेतु) व्यक्ति विशेष के प्रति अपनी नकारात्मक दृष्टि को उजागर न करें।
      6. 'पुस्तकों के प्रकाशित होते रहने' के सन्दर्भ में इस लेख में कहीं भी ऐसा कुछ भी नहीं कहा गया है, जिसे यहाँ आपको लिखना पड़े। कृपया लेख को पुनः पढ़ लें। 'पुस्तकों का प्रकाशित होना बहुत जरूरी है, किन्तु प्रश्न है कि किस प्रकार की पुस्तकें आप और हम चाहते हैं?
      7. बड़े आश्चर्य की बात है कि आपको पूर्णिमा वर्मन एवं ओम नीरव की रचनाओं में नवगीत के दर्शन नहीं होते हैं। आप पहले इन लोगों के प्रति अपनी नकारात्मक दृष्टि को बदल लें, तो आपके लिए ज्यादा उपयुक्त रहेगा।
      8. आपने अपनी टिप्पणी में कुछ रचनाकारों के नाम न जोड़े जाने के लिए भी कहा है, कृपया लेख को पुनः पढ़ें ताकि आप जान सकें कि ये नाम क्यों नहीं रखे जा सके हैं। हाँ, निर्मल शुक्ल जी का नाम पहले से ही उद्धृत है। आपने ध्यान से नहीं पढ़ा होगा।

      आपका शुभेच्छु
      अवनीश सिंह चौहान

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  10. 'समकालीन गीत - कथ्य और तथ्य '
    इस आलेख में बहुत जरूरी और सही-सही चिन्ताओं को आपने उजागर किया है। किसी भी विधा में और किसी भी कालखण्ड में लिखे जा रहे में कुछ लोग और कुछ रचनाएँ घेरे से बाहर की होती ही हैं। यह विशेष चिन्ता का विषय नहीं है। समय उस पर अपना निर्णय ले ही लेता है। महत्वपूर्ण यह है कि आज नवगीत कविता जिस जगह पर है, वहाँ नवगीत में समयानुकूल बदलाव, अपने समय की यथार्थ परक उपस्थित देखने को मिल रही है। आपने कुछ नाम भी लिए, यह प्रमाण के रूप में भी देखा जा सकता है।
    एक अच्छे आलेख के लिए बधाई आपको।

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  11. जिज्ञासा
    ...
    कृपया किसी ऐसे नवगीतकार का नाम बताइए जिसने अपने गद्य या पद्य लेखन में या अपने रिकॉर्डेड वक्तव्य में कभी नवगीत के पर्याय के रूप में कविता, गीत, गीत-नवगीत, समकालीन गीत आदि का प्रयोग कभी न किया हो?

    - अवनीश सिंह चौहान

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