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शुक्रवार, 14 जनवरी 2022

पंत और छायावाद का घोषणा-पत्र — अभिजीत सिंह


शोध आलेख : पूर्वाभास, वर्ष 1, अंक 1, जनवरी 2022

सुमित्रानंदन पंत
सुमित्रानंदन पंत द्वारा रचित काव्य संग्रह 'पल्लव' का प्रकाशन सन् 1928 में हुआ था। इसी काव्य संग्रह की भूमिका को 'छायावाद का घोषणा पत्र' के नाम से जाना जाता है, जिसमें पंत ने भाषा, साहित्य पर पड़ने वाले भाषा के प्रभाव, तत्कालिक समय का भाषा से संबंध, ब्रजभाषा और खड़ी बोली और हिंदी साहित्य में खड़ी बोली के सक्रिय पदार्पण पर विस्तार से अपने विचार व्यक्त किए थे।

सुमित्रानंदन पंत ने अपने काव्य संग्रह 'पल्लव' की भूमिका में छायावादी कविता का पक्ष विस्तार से प्रस्तुत किया है। पंत ने सभी छायावादी कवियों का पक्ष लेकर अपनी कविता के वैशिष्ट्य का उद्घाटन किया है और पुरानी कविता से उसकी भिन्नता को उद्घाटित करते हुए उसके महत्व को भी स्पष्ट किया है। 'पल्लव' की इस भूमिका को छायावाद का घोषणा पत्र कहने के पीछे कारण ही यही है कि इसमें छायावाद के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए उसके भाव भाषा और छंद का सोदाहरण परिचय दिया गया है। साथ ही ब्रजभाषा और खड़ी बोली के बीच हिंदी के काव्य भाषा बनने की प्रक्रिया को भी उजागर किया गया है। स्वर, छंद और व्यंजनों की दृष्टि से पंत का यह विवेचन अत्यंत महत्वपूर्ण है। इसमें हिंदी कविता के विकास पर प्रकाश डालते हुए ब्रजभाषा के माधुर्य का विवेचन है एवं बिहारी रसखान एवं देव जैसे कवियों का भी मूल्यांकन किया गया है। इस भूमिका में पंत ने भाव और भाषा के तादात्म्य का पक्ष लिया है। साथ ही कविता के लिए चित्र भाषा की आवश्यकता को भी प्रतिपादित किया है । इसके अतिरिक्त पंत ने काव्य में शब्द और अर्थ के सामंजस्य पर भी बल दिया है। उनके अनुसार 'काव्य में शब्द और अर्थ की अपनी स्वतंत्र सत्ता नहीं रहती, वे दोनों भाव की अभिव्यक्ति में डूब जाते हैं, तब भिन्न-भिन्न आकारों में कटी छंटी और शब्दों की शिलाओं का अस्तित्व ही नहीं मिलता, राग के लेप से उनकी संधियां एकाकार हो जाती हैं।' तथा भाषा के संबंध में पंत का कहना है कि भाषा संसार का नादमय चित्र है, ध्वनिमय स्वरूप है। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि यह भूमिका छायावाद का मानचित्र प्रस्तुत करती है और हिंदी आलोचना की वर्तमान स्थिति पर अपना असंतोष व्यक्त करती है। अतः 'पल्लव' की यह भूमिका न केवल पंत के अपितु समस्त छायावाद के काव्य आदर्शों का प्रतिबिंब है।

'पल्लव' में सन् 1918 से 1925 तक की रचनाएं संकलित हैं। पंत के छायावादी काव्य - व्यक्तित्व का सबसे अच्छा प्रस्फुटन 'पल्लव' में ही हुआ है । प्रेम-गीत, कल्पना प्रधान गीत, भाव प्रधान गीत तथा वे कविताएं जिनमें कल्पना और भावों का उचित सम्मिश्रण है - इसमें संकलित हैं। आचार्य रामचंद्र शुक्ल का मानना था कि - "पंत जी की पहली प्राण रचना पल्लव है जिसमें प्रतिभा के उत्साह या साहस का तथा पुरानी काव्य पद्धति के विरुद्ध प्रतिक्रिया का बहुत बढ़ा चढ़ा प्रदर्शन है। इसमें चित्रमयी भाषा, लाक्षणिक वैचित्र्य, प्रस्तुत विधान आदि की विशेषताएं प्रचुर परिमाण में भरी सी पाई जाती हैं।"1 

पल्लव की यह भूमिका द्विवेदी युग और छायावाद के संधिकाल के दौरान होने वाले परिवर्तनों पर इतना गहन विश्लेषण प्रस्तुत करती है कि इसकी गहराई में जाने पर अलग से शोध की संभावनाओं को तलाशने जैसा अनुभव होता है। फिर भी इस लेख में उन मुद्दों की एक रूपरेखा भर तैयार करने का प्रयत्न किया गया है जो छायावाद को एक साहित्यिक आंदोलन के रूप में प्रतिष्ठित करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर रहे थे। पंत के काव्य विकास एवं पल्लव जैसी रचना के पल्लवित होने के संदर्भ में डॉक्टर बच्चन सिंह कहते हैं - "सुमित्रानंदन पंत का काव्य विकास अंतर्मुखता से निरंतर बहिर्मुख होने का इतिहास है। जिस प्राकृतिक परिवेश में उनका जन्म एवं पालन पोषण हुआ वह स्वयं कविता से कम आकर्षक और लुभावना नहीं है।  उनके जन्म भूमि कौसानी ने उनके मन में सौंदर्य और प्रेम का जो बीजवपन किया वह समय पाकर 'पल्लव' के रूप में पल्लवित हुआ।"2

एक स्थान पर लिखते हैं - "हम खड़ी बोली से अपरिचित हैं, उसमें हमने अपने प्राणों का संगीत अभी नहीं भरा ; उसके शब्द हमारे हृदय के मधु से सिक्त होकर अभी सरस नहीं हुए, वे केवल नाम मात्र हैं, उनमें हमें रूप - रस - गंध भरना होगा।"3  दरअसल पंत के इस कथन से यह सोचने पर मजबूर होना पड़ता है कि जिस समय पंत यह पंक्तियां लिख रहे थे उस समय खड़ी बोली गद्य में प्रेमचंद और प्रसाद तथा पद्य में निराला और प्रसाद जैसी विभूतियां हो चुकी थी, कामायनी की रचना हो चुकी थी जिसे आधुनिक काल का महाकाव्य भी कहा जाता है। फिर वे ऐसे कौन से कारण थे जो खड़ी बोली के ऐसे परिपक्व रचनाकारों व रचनाओं की उपस्थिति के बावजूद पंत को यह कहने पर मजबूर कर रहे थे की खड़ी बोली में प्राणों का संगीत अभी तक नहीं भरा गया है और उसमें रूप, रस और गंध का अभाव है? लेकिन यदि पंत की इस धारणा को मात्र काव्य भाषा के प्रसंग से जोड़कर देखें तो वास्तव में छायावादी कविता में एक उच्च आयाम की ओर अग्रसर होने के बावजूद खड़ी बोली, ब्रज के लावण्य और प्रभाव क्षमता से युक्त नहीं हो पाई थी। निराला या प्रसाद जैसे खड़ी बोली के प्रतिष्ठित कवियों को पाने के बाद भी ब्रजभाषा का सांगीतिक आकर्षण आमजन में बना हुआ था। ऐसे में ब्रजभाषा, खड़ी बोली के सामने किसी चुनौती से कम नहीं थी। और इस चुनौती की भावना पर दृष्टिपात करने पर यह चर्चा स्वत: ही महावीर प्रसाद द्विवेदी की ओर मुड़ जाती है, जिन्होंने खड़ी बोली की समृद्ध परंपरा के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया और नए कवियों को खड़ी बोली में रचने को निरंतर प्रेरित व प्रबोधित किया। ऐसे में महावीर प्रसाद द्विवेदी को अलगा कर इस मुद्दे पर कोई बात हो ही नहीं सकती। द्विवेदी जी ने गद्य और पद्य की एक भाषा पर विशेष जोर दिया था और भाषाई सुधारों के अलावा रचनाओं के विषयों को भी लेकर सचेत रहे थे। मैथिलीशरण गुप्त की 'भारत-भारती' और 'साकेत' के पीछे द्विवेदी जी की प्रेरणा भी क्रियाशील थी। यानी हम समझ सकते हैं कि छायावाद के शुरुआत के बाद तक भी उस वक़्त के साहित्य और साहित्यकारों पर उनका पुख्ता प्रभाव रहा है।

ब्रजभाषा के अलंकृत काल के तमाम कवियों - देव, बिहारी, रसखान, पद्माकर, घनानंद और मतिराम आदि की कविताओं पर पंत विशेष रुप से रुष्ट दिखते हैं। ब्रजभाषा के भाषागत और विषयगत सौंदर्य पर न्योछावर होते हुए भी पंत इस अलंकृत काल की भाषा को 'जीर्ण-शीर्ण छिद्रों की झोली', 'अलंकारों के व्यभिचार का काल'4 और 'अनुप्रासों की अराजकता का काल'5 आदि कहने से कतराते नहीं दरअसल इस तथ्य को समझने के लिए हमें थोड़ा सा पीछे आना होगा। भारतेंदु या महावीर प्रसाद द्विवेदी ने अपने समय में भले ही ब्रजभाषा और खड़ी बोली का संघर्ष कहें या विवाद सुलझा लिया हो, लेकिन उस समय की एक अंतर्धारा छायावाद के पूर्वार्ध तक चलती रही है। प्रसाद ने भी शुरू में ब्रजभाषा में रचनाएं लिखी हैं। 'चित्राधार' काव्य संग्रह ब्रजभाषा में ही है। जगन्नाथदास रत्नाकर तो अंत तक ब्रज में ही लिखते रहे। गद्य में तो खड़ी बोली प्रतिष्ठित हो चुकी थी, लेकिन कविता के मामले में अभी भी एक वर्ग ऐसा था जो यह मानता था कि काव्यशास्त्रीय सौंदर्यबोध की परिपाटी को अब भी ब्रजभाषा के माध्यम से ही जीवित रखा या विकसित किया जा सकता है। क्योंकि इस वर्ग का मानना था की भाषा का संस्कार जो है विशेष रूप से कविता में, वह निरंतर प्रयुक्त होते होते परंपरा की नई अर्थ-छायाओं और अर्थ छवियों की सृष्टि करता है, क्योंकि ब्रजभाषा एक विशिष्ट सौंदर्यबोध की ओर संकेत करने के कारण और विशिष्ट संवेदनात्मक वातावरण की निरंतर सटीक अभिव्यक्ति के कारण इस क्षेत्र में मंजी हुई भाषा थी। ब्रजभाषा और खड़ी बोली के इस संघर्ष को यदि 'भक्ति काल के स्वर्ण युग' वाले नजरिए से देखने का प्रयास करें तो यह तो मानना ही पड़ेगा कि जातीय व राष्ट्रीय निर्माण की मंशा तले खड़ी बोली पर चाहे कितना ही काम क्यों ना हुआ हो लेकिन कुछ एक सशक्त कवियों को छोड़कर आज भी खड़ी बोली की कविताएं ब्रजभाषा की पंक्तियों की तरह जन मन में अपनी जगह कहां बना पाई हैं? समकालीन कविता के वरिष्ठ हस्ताक्षर केदारनाथ सिंह ने अपने एक वक्तव्य में अपने गांव के एक संस्मरण को सुनाते हुए कहा था की गांव में उनके घर पर काम करने वाली एक गरीब महिला को जब यह पता चला कि केदारनाथ जी कविता लिखते हैं तो उसने यह बताते हुए कि वह आज भी तुलसी, सूर की कविताएं पढ़ती है और उसे वह कविताएं याद रहती हैं, उनसे उनकी कोई पुस्तक मांगी उसकी इस मांग पर केदारनाथ जी को यह चिंता सताने लगी कि जो महिला रोज सुबह शाम तुलसी, कबीर और सूर की कविताएं गुनगुनाती होगी वह अब उनकी कविताओं को पढेगी और जाहिर तौर पर सूर, कबीर और तुलसी की कसौटी पर ही उनकी भी कविताओं को कसने की चेष्टा करेगी। अपने समय के सबसे बड़े कवि की यह चिंता भाषा की दृष्टि से अवधी या ब्रज की उत्कृष्टता का प्रमाण है। 

पंत भी एक तरफ ब्रजभाषा के सांगीतिक लावण्य पर न्योछावर दिखते हैं तो दूसरी तरफ अलंकृत काल के कवियों को लगभग लगभग खारिज ही कर देते हैं। खड़ी बोली के सामने ब्रज की महत्ता का भी प्रतिपादन करते हैं, लेकिन अंततः खड़ी बोली में राष्ट्रभाषा का गौरव भी देखते हैं - 'हमें भाषा नहीं राष्ट्रभाषा की आवश्यकता है।'6 धारणाओं की इन टकराहटों को यदि सिर्फ काव्य उपकरणों के दृष्टिकोण से देखें तो यहां घोर अंतर्द्वंद दिखाई पड़ता है, लेकिन हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि पंत भाषा और काव्य को लेकर अपने जीवन में काफी संवेदनशील रहे थे। लेकिन जब उनकी यह संवेदना उनके युगबोध की चेतना में एकमेक होती थी तो इस मिश्रण का प्रभाव अलग तरीके से पड़ा करता था। इस प्रभाव को लोकवृत्त की अवधारणा से जोड़ें तो समझ आता है कि पंत की कविताओं में प्रकृति अपने खालिस और एकांतिक रूप में दिखती हुई भी लोकचेतना से इतर नहीं थी। इसी युगबोध और लोकवृत्त के बदलते स्वरूप के कारण ब्रज के पराभव या तिलांजलि की आवश्यकता पड़ी। क्योंकि अब ब्रज भाषा में आधुनिक भावों की अभिव्यक्ति संभव नहीं रह गई थी, वह अब सिर्फ एक युग विशेष की काव्य-परिधि का द्योतक भर रह गई थी। ऐसे में भाषा माध्यम परिवर्तित करना एक युगीन आवश्यकता थी - यह बात पंत भली-भांति समझ रहे थे। स्वाधीनता आंदोलन के नजरिए से भी देखें तो ब्रज एक अप्रासंगिक भाषा थी। स्वाधीनता आंदोलन की चेतना को जन जन तक पहुंचाने और तमाम संवादों के लिए खड़ी बोली सर्वाधिक उपयुक्त ठहरती थी। इसीलिए पंत खड़ी बोली में अभिव्यक्ति की उत्कृष्ट संभावनाएं देखते हैं। ऐसे में यदि इन सारी चीजों के बरक्स हम यह कहें कि पंत द्वारा श्रृंगारिक कवियों का विरोध उन्हें खारिज करना नहीं था बल्कि युगबोध व युगीन आवश्यकताओं के मद्देनजर एक प्रतिक्रिया थी तो उचित ही होगा।

'पल्लव' की भूमिका में ब्रज के लावण्य पर बात करते हुए पंत बांग्ला भाषा के उच्चारण के सौंदर्य पर भी काफी कुछ चर्चा करते हैं। यह इसलिए था कि बांग्ला भाषा का उस वक्त तक बड़ा जबरदस्त प्रभाव भारतीय साहित्य पर ही नहीं विश्व साहित्य तक पर पड़ चुका था। 1910 में प्रकाशित गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर की गीतांजलि को 1913 में नोबेल पुरस्कार मिल चुका था। हिंदी में भी बांग्ला के प्रभाव से अनुवाद का एक दौर चला था जिसमें बांग्ला के तमाम उपन्यासों का हिंदी में अनुवाद हुआ था। इसी कारण तत्कालिक हिंदी काव्य परंपरा पर भी बांग्ला का प्रभाव पड़ा था। ऐसे में बांग्ला से किनारा कर लेना किसी कवि हृदय के लिए भला कैसे संभव हो पाता?

बहरहाल, पल्लव की भूमिका में भाषा, उसकी युगीन आवश्यकताओं और उन युगीन आवश्यकताओं के आधार पर भाषा के नए स्वरूप के गठन पर तमाम तकनीकी और विश्लेषणात्मक चर्चाएं की गई हैं। पंत द्वारा लिखित पल्लव की भूमिका के नजरिए से देखें तो छायावाद की व्याख्या के नए आयाम खुलते हैं। छायावादी युग की काव्य भाषा, काव्य में प्रयुक्त अलंकार, बिंब, प्रतीक और तत्कालीन समाज से उनके संबंधों पर अलग नजरिए से देखने में सहूलियत मिलती है। संभवत इसी कारण प्रख्यात आलोचक रामस्वरूप चतुर्वेदी ने पंत और पल्लव के बारे में सच ही लिखा था - "छायावाद की पहली पहचान बनाने वाले कवि सुमित्रानंदन पंत हैं।"7

संदर्भ :
1. शुक्ल, आचार्य रामचंद्र, हिंदी साहित्य का इतिहास, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, 2009, पृ. 364
2. सिंह, डॉ. बच्चन, आधुनिक हिंदी साहित्य का इतिहास, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, 2007, पृ. 207
3. पंत, सुमित्रानंदन, पल्लव, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2017, पृ. 50
4. वही., पृ. 31
5. वही., पृ. 31
6. वही., पृ. 23
7. चतुर्वेदी, रामस्वरूप, हिंदी साहित्य और संवेदना का विकास, लोकभारती प्रकाशन, 2010, पृ. 231

लेखक :
डॉ अभिजीत सिंह बानरहाट कार्तिक उरांव हिंदी गवर्नमेंट कॉलेज, जलपाईगुड़ी, पश्चिम बंगाल में असिस्टेंट प्रोफेसर (हिंदी विभाग) हैं। ईमेल : abhisingh1985123@gmail.com

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