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सोमवार, 8 अक्तूबर 2012

नयी कविता बनाम गीत-नवगीत - दिनेश सिंह

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रायबरेली (उ.प्र.) के एक छोटे से गाँव गौरारुपई में जन्मे दिनेश सिंह जी का नाम हिंदी साहित्य जगत में बड़े अदब से लिया जाता है। सही मायने में कविता का जीवन जीने वाला यह गीत कवि अपनी निजी जिन्दगी में मिलनसार एवं सादगी पसंद रहा। गीत-नवगीत साहित्य में इनके योगदान को एतिहासिक माना जाता है । दिनेश जी ने न केवल तत्‍कालीन गाँव-समाज को देखा-समझा और जाना-पहचाना था उसमें हो रहे आमूल-चूल परिवर्तनों को, बल्कि इन्होने अपनी संस्कृति में रचे-बसे भारतीय समाज के लोगों की भिन्‍न-भिन्‍न मनःस्‍थिति को भी बखूबी परखा, जिसकी झलक इनके गीतों में पूरी लयात्मकता के साथ दिखाई पड़ती है। इनके प्रेम गीत प्रेम और प्रकृति को कलात्मकता के साथ प्रस्तुत करते हैं। आपके प्रणयधर्मी गीत भावनात्मक जीवनबोध के साथ-साथ आधुनिक जीवनबोध को भी केंद्र में रखकर बदली हुईं प्रणयी भंगिमाओं को गीतायित करने का प्रयत्न करते हैं । अज्ञेय द्वारा संपादित 'नया प्रतीक' में आपकी पहली कविता प्रकाशित हुई थी। 'धर्मयुग', 'साप्ताहिक हिन्दुस्तान' तथा देश की लगभग सभी बड़ी-छोटी पत्र-पत्रिकाओं में आपके गीत, नवगीत तथा छन्दमुक्त कविताएं, रिपोर्ताज, ललित निबंध तथा समीक्षाएं निरंतर प्रकाशित होती रहीं। 'नवगीत दशक' तथा 'नवगीत अर्द्धशती' के नवगीतकार तथा अनेक चर्चित व प्रतिष्ठित समवेत कविता संकलनों में गीत तथा कविताएं प्रकाशित। 'पूर्वाभास', 'समर करते हुए', 'टेढ़े-मेढ़े ढाई आखर', 'मैं फिर से गाऊँगा' आदि आपके नवगीत संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं । आपके द्वारा रचित 'गोपी शतक', 'नेत्र शतक' (सवैया छंद), 'परित्यक्ता' (शकुन्तला-दुष्यंत की पौराणिक कथा को आधुनिक संदर्भ देकर मुक्तछंद की महान काव्य रचना) चार नवगीत-संग्रह तथा छंदमुक्त कविताओं के संग्रह तथा एक गीत और कविता से संदर्भित समीक्षकीय आलेखों का संग्रह आदि प्रकाशन के इंतज़ार में हैं। चर्चित व स्थापित कविता पत्रिका 'नये-पुराने'(अनियतकालीन) के आप संपादक रहे। उक्त पत्रिका के माध्यम से गीत पर किये गये इनके कार्य को अकादमिक स्तर पर स्वीकार किया गया है । स्व. कन्हैया लाल नंदन जी लिखते हैं " बीती शताब्दी के अंतिम दिनों में तिलोई (रायबरेली) से दिनेश सिंह के संपादन में निकलने वाले गीत संचयन 'नये-पुराने' ने गीत के सन्दर्भ में जो सामग्री अपने अब तक के छह अंकों में दी है, वह अन्यत्र उपलब्ध नहीं रही . गीत के सर्वांगीण विवेचन का जितना संतुलित प्रयास 'नये-पुराने' में हुआ है, वह गीत के शोध को एक नई दिशा प्रदान करता है. गीत के अद्यतन रूप में हो रही रचनात्मकता की बानगी भी 'नये-पुराने' में है और गीत, खासकर नवगीत में फैलती जा रही असंयत दुरूहता की मलामत भी. दिनेश सिंह स्वयं न केवल एक समर्थ नवगीत हस्ताक्षर हैं, बल्कि गीत विधा के गहरे समीक्षक भी. (श्रेष्ठ हिन्दी गीत संचयन- स्व. कन्हैया लाल नंदन, साहित्य अकादमी, नई दिल्ली, २००९, पृ. ६७) ।" 'नये-पुराने' पत्रिका के एक अंक को वेब पत्रिका ख़बर इण्डिया (http://khabarindiya.com/) पर भी पढ़ा जा सकता है । आपके साहित्यिक अवदान के परिप्रेक्ष्य में आपको राजीव गांधी स्मृति सम्मान, अवधी अकेडमी सम्मान, पंडित गंगासागर शुक्ल सम्मान, बलवीर सिंह 'रंग' पुरस्कार से अलंकृत किया गया था। नवगीत के इस पुरोधा का एक आलेख यहाँ प्रस्तुत है:- 
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आज के आपाधापी के युग में जहां अर्थ-संचय की दौड़ में हर कोई शाश्वत मानव मूल्यों को ध्वस्त करता हुआ धावक की भूमिका निभा रहा है, तमाम भारतीय कला विधाओं में एक विचलन की स्थित पैदा हुयी हैं जिसमें कविता की स्थिति सर्वाधिक जटिल हो गयी है। चूंकि कविता केवल वस्तुस्थिति का चित्रांकन ही नहीं करती वरन मानवीय उदात्त मूल्यों की स्थापना व उसके संवहन का दायित्व भी निभाती है। इसलिए भौतिक दबाबों से उसमें विचलन की गुंजाइश अधिक रहती है।


आज कविता विवादों से घिरी है। कवि समीक्षक अपनी-अपनी डफली और अपना-अपना राग लेकर बैठे हैं, गा-बजा रहे हैं। कौन सुन रहा है, कौन नहीं सुन रहा है इससे किसी का लेना-देना नहीं है। गीत और कविता के दो विपरीत ध्रुव स्थापित हुए हैं जैसे गीत कविता से हटकर अलग कोई तथ्य हो और उसका जीवन के लयात्मक व्यापार से कोई रिश्ता ही न हो और तुर्रा यह कि गीत भी दो मुँह के हो गये जिनमें एक को गीत या पारंपरिक गीत और दूसरे को नवगीत कहा जाने लगा है। अपने-अपने तर्को-कुतर्को के ढकोसलों से आच्छादित बेमानी बहस-मुहाबसों की एक अपरिचित नयी दुनिया रचायी-बसायी जा रही है।


कविता मानव-मन की स्वतः स्फूर्त लयात्मक अभिव्यक्ति है। जीवन की जिस गुनगुनाहट को अन्य कला विधाएं मानवीय संवेदन से भरे-पुरे राग में नही गा पाती उसे कविता गाती है। गीत उसी गान की गूँजती हुयी लय है। यह लय गीतकार के कंठ में सूखती जा रही है इसीलिए आज का गीतकार बहुत गुस्से में है। उसकी तई इस गुस्से के लिए जिम्मेदार उसके चारों ओर का परिवेश है जिससे वह अपनी भावनात्मकता का तालमेल नहीं बिठा पा रहा है। वह जन्मना जिन उदात्त मूल्यों का संवाहक और मानवीय मूल्यों का पोषक बनकर अपने इतिहास पर गर्व करता रहा है आज का परिवेश उन सभी मूल्यों, तत्वों को नकारता, धकियाता हुआ उसे नितान्त अजाने मूल्यगत बन्धनों से घेर-बाँध रहा है। वह बेचैन है, तिलमिलाया हुआ है पर अद्भुत है कि उसकी यह तिलमिलाहट और बेचैनी किसी सकारात्मक सोच से संश्लिष्ट होकर एक सर्वथा नयी व प्रासंगिक रचनाधर्मिता से नहीं जुड़ पाती बल्कि अधिकतर सारा का सारा गुस्सा नयी कविता पर उतर रहा है, यह है क्या इसे प्रबुद्ध पाठक, कवि, समीक्षक ही तय करेंगे।


सच तो यह है कि परिवेश और व्यक्ति के संबंध अन्योनाश्रित हैं। प्रायः रचनाकार अपने परिवेश से पूरी तरह प्रभावित रहता है। शून्य में रचना या रचनाकार की कोई स्थिति नहीं होती। किन्तु परिवेश जितना रचनाकार की मानसिकता के रचाव में अपनी भूमिका निभाता है, उतना ही रचनाकार भी परिवेश को प्रभावित करता है। या यों कहें कि जीवन और परिवेश आपस में एक-दूसरे को रचते-सहेजते चलते हैं। रचनाकार अपने निजत्व और अपने चारों ओर परिव्याप्त परिवेश में अपना रचना-सूत्र और कथन के तत्व तलाशता है, उन्हें अपने राग-बोध से संश्लिष्ट कर भाव-समाधि तक ले जाता है, जहाँ एक जीवन व्यापी गूँज के सहारे रचना रूप, आकार और शिल्प ग्रहण करती है। यह साधने और सधने की प्रक्रिया है जिसे ‘साधना‘ का नाम दिया जा सकता है। पर कविता या गीत किसी गणित का सवाल नहीं है जिसे किसी विशेष फॉर्मूले से हल किया जा सके या सिद्ध किया जा सके। साधनापरक सिद्धि के बिना ही कुछ सिद्ध करने की अकुलाहट अराजकता को जन्म देती है।


नयी कविता पर जो आरोप है कि उसके द्वारा गीत को नकारा जा रहा हे वह शायद वैसा और उतना नहीं है, जितना और जिस रूप में समझा और समझाया जा रहा है। प्रश्न  शायद नकारने-स्वीकारने का नहीं है बल्कि प्रासंगिकता और युग सापेक्षता का है क्योंकि नयी कविता के कवि अपने को युगबोध और समसामयिकता का प्रखर प्रवक्ता मानते हैं जो अपेक्षतया कुछ सही भी हो सकता है क्योंकि गीत तो अपनी माटी से जुड़कर शिल्प-वस्त्र धारण करता है। अपने देशज मिजाज के कारण वह अपनी एक सनातन संस्कृति का संवाहक बनकर अपनी परिचित पहचान के साथ रहना चाहता है जबकि नयी कविता अन्तर्राष्ट्रीयता के उद्घोष के साथ अपनी परायी सभी सोचों के महासमुद्र में विलीन हो जाना चाहती है। सामाजिक विसंगतियों और विद्रूपताओं को रेखांकित करने और उनसे जूझने के संदर्भ में नयी कविता का विश्वास ‘लोह को लोहे से काटने‘ का है जबकि गीत इस भूमिका में पानी से पाथर काटने की सूक्ष्म अभिव्यक्ति और स्वीकारोक्ति से दर्पित है। गीत इस देश की, इस भारत-भूमि की महानता और इसके ऐतिहासिक सानुबंधों को थाती रूप में समेटे रखना चाहता है जबकि नयी कविता महानता के स्थान पर विराटता की स्थूल अभिव्यक्ति का मानक बनना चाहती है। इस तरह तो दोनों हैं और रहेंगे अपनी-अपनी भूमिकाओं में अलग-अलग, जरूरी और प्रासंगिक।


दरअसल कविता का आदिरूप तो गीत ही है। निराला ने भी इस गीत को तरजीह दी पर जब उन्होंने कविता को जनजीवन से जोड़ने और सहज अभिव्यक्ति के लिए जटिल शास्त्रीयता को सरलीकृत करने के महान उद्देश्य से छंद के बंधन तोड़ने की बात की तो जैसे क्रान्ति हो गयी। सभी को काव्य की रचना प्रकिया ही बड़ी सरल लगने लगी। निराला के सूत्र के एक सिरे को पकड़कर प्रयोगवादी इस देश की माटी से ऊपर और बाहर पश्चिम की ओर भागकर काव्य की जड़ता को तोड़ने के नाम पर कुछ ईट-रोड़ों की खोद-खदान कर लायें और विदेशी ठप्पों से जड़े मूल्यों-कीमतों का प्रचार-प्रसार करने लगे। साथ ही काव्य में जातीय अस्मिता के सवाल को पिछड़ेपन की मानसिकता की उपज कहने लगे। ये ‘फारेन रिटर्न‘ डिग्रीधारी काव्य-भंगिमाए हमारे कवि-समीक्षकों को इतनी रास आयी कि बड़े-बड़े ‘नामवरों‘ ने अपनी सारी रचनात्मक ऊर्जा उसकी स्थापना और प्रचार-प्रसार में खपा दी। 


आज जो खूँरेजी, अनाचार और किसी भी क्रमबद्ध जीवनदर्शन की संहिता को तिलांजलि देने की अधुनातन संस्कृति विकसित हो रही है, उससे सामंजस्य बिठाने वाला कोई काव्य दर्शन तो इस देश की माटी को स्वीकार न होगा जबकि उग्रवादियों और नक्सलियों का भी बाकायदा अपना साहित्य और दर्शन हो गया है। ठाकुर प्रसाद सिंह ने अपने गीतों के संदर्भ में कहीं जिक्र किया है कि भारतीय संस्कृति पर हो रहे आधुनिकता के अंधाधुंध आक्रमण के विरूद्ध एक अहिंसात्मक धारदार हथियार की खोज में, वे संथालों के बीच चले गये जहां उन्हें -‘वंशी और मादल‘ के गीत मिले। यानी गीत अपनी माटी के पृष्ठ पर अंकित ‘समक्ष‘ का दस्तावेज है। एक विवेचनात्मक दृष्टि है उसके पास जो जितनी इतिहासपरक और देशज है उतनी ही आधुनिक भी है। यही दृष्टि गीतकार को निर्णय लेने में सक्षम बनाती है और हमें अपने निर्णायक होने का संकेत भी देती है। वस्तु-जगत, सृष्टि और संयोग का एक प्रेमपगा सूत्र है उसके हाथ जो यथार्थ का खीझ भरा चित्रण ही करती है। फिर भी जरूरी नहीं है कि जीवन-जगत से जुड़ी सभी स्थितियों को सर्वागतः गीत ही व्यक्त कर सके। अनुभूति के कुछ ऐसे भी क्षण, स्थितियाँ व भंगिमाएँ हो सकती हैं जिन्हें सार्थक और चुटीली अभिव्यक्ति नयी-कविता में ही मिल सके। इस तथ्य को इस अंक में प्रकाशित डॉ0 रामदरश मिश्र का आलेख बखूबी और काफी साफगोई से प्रस्तुत करता है। गीत और नयी कविता के बीच उपजे विवाद को निरस्त करने में डॉ0 मिश्र का आलेख बहुत उपयोगी है और ‘नये-पुराने‘ की सोच से उसका पूरा-पूरा तालमेल बैठता है। फिर भी ‘नये-पुराने‘ की ओर से इतना अवश्य कहना चाहूँगा कि जीवन में जिसके जहाँ-जितना गीति-तत्व रचा-बसा है, वहाँ से उतना ही बाहर आता है ओर जहाँ नहीं है, वहां से जो है वह आता है। इसी कारण नयी कविता और गीतकी संवेदनाएँ अलग-अलग हो जाती हैं। तरल गीत के साथ और मार से पथरायी हुयी कविता के साथ। इस तरह कविता और गीत का कथ्य भी अलग हो जाता है। निरे वाह्य प्रभावों के दबाब से जो प्रतिक्रियात्मक संवेदना जन्म लेती है, वह नयी कविता के साथ हो जाती है। इस अर्थ में नयी कविता प्रतिक्रियात्मक अधिक है पर वह भी प्रासंगिक और जरूरी है क्योंकि हर स्थिति की संवेदनात्मक अभिव्यक्ति ‘ार्तिया तरल नहीं हो सकती। इसी क्रम में एक बात और कि नये गीतों या नयी कविता के प्रारंभिक दौर में जिसे अज्ञेय द्वारा ‘नयी कविता का गीत‘ कहा गया और जिसे नयी कविता के साथ उसी स्वरूप में यहाँ-वहाँ रखा गया, वह यदि नयी कविता के साथ आज भी रहती तो हिन्दी काव्य साहित्य को और नयी कविता को भी एक लाभ मिलता कि गीत की आत्मीय प्रवृत्ति और प्रकृति की संपृक्ति के कारण वह रस विहीन न हो पाती और अपनी भाषिक संरचना के स्तर पर उसकी भंगिमाए स्वयमेव भारतीय बनी रहती या इस रूप में स्वीकार की जाती तथा उस पर विदेशी होने का आरोप भी न लगता। चूंकि कविता का आदि स्रोत गीत ही रहा है इसलिए नयी कविता को गीत से इतर अपनी स्वतंत्र पहचान और अस्मिता की स्वीकृति पाने के लिए उसके मूल तत्व नाद और लय से उसे अलग होना पड़ा। क्योंकि परिवेश की समरूपता और एकात्मकता के साथ वस्तु में कोई विशेष बंटवारा किया नहीं जा सकता था। फिर भी यह अद्भुत है कि जो नयी कविता के कवि गीत की जमीन पर पैर रखकर वहां तक गये हैं उनकी रचनाओं में आज भी गीत का प्राणतत्व उपस्थित मिलता है। चाहे वे धर्मवीर भारती हो, जगदीश गुप्त हों, रामदरश मिश्र हो अथवा अब्दुल बिस्मिल्लाह ही क्यांे न हों। किन्तु जो सीधे नयी कविता में आये हैं वे कविता की नैसर्गिक रागात्मकता से अपरिचित होने के कारण खुरदुरे और दुरूह हो गये हैं।


आज गीत की भी विडम्बनायें कम नहीं हैं। गीत (पारंपरिक) और नवगीत के पचड़े में गीतिकाव्य की बड़ी क्षति हो रही है। दोनों गीत-संज्ञाओं के पक्षधर बाकायदा शिविरबद्ध हो गये हैं और तर्कों कुतर्कों के अस्त्र-शस्त्रों से लैस एक दूसरे के प्रति आक्रामक मुद्रा में तने हुये हैं। सबसे अधिक फजीहत है उस गीत की जिसे नवगीत कहा जाता है। इस घरेलू विवाद के परिप्रेक्ष्य में इतना ही कहना समीचीन होगा कि नवगीत में गीत की अवधारणा निरस्त नहीं होती। गीत के ही पायदान पर नवगीत खड़ा हुआ है। हमारी कहन, अंदाज और रागात्मक लय भीतर से आती है तथा वैचारिकता, बौद्धिकता परिवेश के दबाब से अनस्यूत होती है जहाँ दृश्य की अनुभूतियाँ कम और भोगने की अधिक होती है। हमारी संस्कृति का दबाब, कथन में मनुष्यत्व की पूरी दीप्ति, उदात्तता और मानवीय गरिमा नवगीत की संरचना, लय और गूँज में व्याप्त रहती है। रचना के दौरान जातीय चेतना का आवेग पूरी रचना प्रक्रिया को प्रभावित किये रहता है। गीत तो स्वयं ही अपनी भाषा और अपने शिल्प का चुनाव करता है। अभिव्यक्ति के क्षणों में वह अपनी कहन को भीतर ही भीतर गुँजाता हुआ बाहर आता है। गीतकार तो मात्र उपकरण बनकर, माध्यम बनकर रह जाता है। गीत जितना ही बौद्धिक आयाम से अपने को सुरक्षित रखता है उतना ही वह खरा उतरता है। केन्द्रीय सोच के साथ-साथ उसकी आत्मीय गढ़न पूरे गीत में बजती रहती है। इस संदर्भ में प्रस्तुत अंक में रामस्वरूप सिन्दूर, भारत भूषण और रमानाथ अवस्थी के गीत देखे जा सकते हैं।


'नए-पुराने' के अंक-१  में परंपरा-प्रयोग और आधुनिकता का जो खंडो में विभाजन है वह गीत के स्वाभाविक एवं ऐतिहासिक विकासक्रम को प्रस्तुत करने के प्रयास में है न कि यह गीत विधा का वर्गीकरण है। गीत तो गीत ही है चाहे उसे पारंपरिक कहें या नवगीत। हां, रचना की श्रेष्ठता ही उसे गीत बनायेगी अन्यथा उसे तुकबन्दी ही मानना पड़ेगा। प्रस्तुत अंक में डॉ0 शिवबहादुर सिंह भदौरिया का आलेख ‘विवाद के बाहरः गीत-नवगीत‘ उक्त बिन्दु पर अच्छा प्रकाश डालता है। 


डॉ0 रवीन्द्र भ्रमर गीत (नवगीत) को फिर एक नया संस्कार देना चाहते हैं क्योंकि उन्हें चिन्ता है कि नवगीत की तरलता और ताजगी अब विलुप्त होती जा रही है और वह रूढ़ तथा बासी हो रहा है वे अब ‘अतिगीत‘ की बात करते हैं। इस संबंध में ‘पत्रमतः गीत-मत‘ में उनके विचार संकलित हैं।


डॉ0 जगदीश गुप्त कविता के उन सशक्त एवं प्रख्यात हस्ताक्षरों में से हैं। जिन्होंने ‘ाास्त्रीय छन्दो से लेकर नयी कविता तक में अपनी संवेदनाओं को भरपूर रेखांकित किया है। चूंकि वे कलाकार की हैसियत से रेखाओं को माध्यम बनाकर अपनी अनुभूतियों को अभिव्यक्ति देते रहे हैं इस नाते सृजन की सभी भंगिमाओं में उनकी कला का दबाब बराबर बना रहा है। इधर वे अस्वस्थ रहे हैं। उनकी अस्वस्थता के दौरान ही भाई हीरामणि सिंह साथी ने उससे भेटकर ‘नये-पुराने‘ के लिए उनसे विचार लेने का प्रयास किया। उनका वक्तव्य ‘अथ-बोध‘ खंड में बहस के लिए अविकल रूप में प्रस्तुत किया गया है।


विशिष्ट रचनाकार खंड में इस बार हमने डा0 शिवबहादुर सिंह भदौरिया को प्रस्तुत किया है। डॉ0 भदौरिया उन गीताकारों में से हैं जो पारंपरिक गीतों से लेकर नवगीत तक की यात्रा में निरपेक्ष भाव से गीत के साथ रहे हैं। उनकी यह यात्रा किसी वाद या आन्दोलन के दबाब में नहीं हुयी बल्कि बदलते परिवेश में स्वतः स्फूर्त आवेग और अनुभूतियों के आग्रह की परिणित रूप में उन्हें साथ लेकर चली है। नीरव पलों में गीत की गूँज में जीने वाले गीत के योगी डॉ0 भदौरिया गीत की समाधि में उतरकर गीत से सीधे साक्षात्कार करते हैं। गीत के सम्पूर्ण विकासक्रम को समझने तथा सच्चे गीत को गुनगुनाने के लिए डॉ0 भदौरिया की रचना और उनकी रचनाधर्मिता से होकर गुजरना सुखद लगेगा। 


डॉ0 श्रीपाल सिंह ‘क्षेप‘ ने अपने आलेख ‘गीतः मानव चेतना की एक अनिवार्यता‘ में गीत की शास्त्रीय  अवधारणा और व्याख्या प्रस्तुत करते हुये आधुनिकता-बोध और यथार्थ से उसकी संगति व संपृक्ति के सूत्र भी तलाशते हैं। उन्होंने गीत को वस्तु और चेतना के एकात्मीकरण की सघनतम अनुभूति की आस्थामय अभिव्यक्ति मानकर उसके सही रूप-स्वरूप को निरूपित करने का प्रयास किया है। 


डॉ0 सुरेश गौतम ने गीत के संपूर्ण विकास क्रम की उस कड़ी को महत्वपूर्ण मानते हुये तत्संबंधित रचनाधर्मिता को अपने आलेख में समेटा है जो परंपरा और नवता के बीच सामंजस्य की स्थापना में समन्वयक की सी भूमिका निभाती लगती है। 


डॉ0 ओम प्रभाकर के आलेख से गीत (नवगीत) की पृष्ठभूमि, उसकी वैचारिकता और उसकी विकास यात्रा की स्पष्ट झांकी देखने को मिलती है।डॉ0 श्याम सुन्दर घोष ने ‘नये-पुराने‘ के लिए कुछ गीत भेजे जिन्हें वे आंचलिक गीत कहते हैं। उनके पाँच आंचलिक गीत ‘आधार और अवधारणा‘ के साथ इस अंक में प्रस्तुत हैं।


चूँकि प्रस्तुत अंक में गीतों पर ही बात होनी है इसलिए जरूरी है कि लोकगीतों पर भी बात की जाये और मर्म तथा संवेदन की उस जादूगरी को देखा जाये जिन्हें लोक गीतकार ने जाने इतिहास के किन क्षणों में बिना लिपिबद्ध किये पूरी ईमानदारी से स्वर संयोजन के साथ पूरी मस्ती से हवा में ऐसे उछाला होगा कि वे युगों से एक कंठ से दूसरे कंठ में उतरते चले गये और आज भी लोक वेदना को गाये जा रहे हैं। जो मानते हैं कि आज के बेसुरे कविता-समय में गीत अप्रासंगिक हो गया है, वे इन लोकगीतों के प्रभाव को जाँचे परखें। ये लोकगीत आज भी आधुनिक कवियों के ‘टीचर‘ होने की योग्यता रखते हैं।


जनकवि मानबहादुर सिंह की निर्मम हत्या, वसु मालवीय का एक सड़क दुर्घटना में असामयिक निधन तथा डॉ0 धर्मवीर भरती का हमारे बीच से अकस्मात चले जाना ‘नये-पुराने‘ को बहुत खला। ‘स्मृति ‘शेष‘ खंड में हम उनकी याद कर ‘नये-पुराने‘ की ओर से उन्हें भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। अंत में हम प्रस्तुत अंक के लिए रचना सहयोग प्रदान कर इसे रूप और आकार देने वाले सभी रचनाकारों के आभारी हैं। इस अंक के बाद हम ‘गीत अंक-दो‘ निकाल रहे हैं। इसके लिए सामग्री संचयन का कार्य चल रहा है। 

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(नये पुराने गीत अंक-1, सम्पादक-दिनेश सिंह, प्रकाशक-राजेन्द्र राजन, द्वारा-नेहरू युवा केन्द्र, सीतापुर, उ. प्र., मुद्रक-माहेश्वरी एण्ड संस, नाका हिंडोला, लखनऊ, उ.प्र., वर्ष-1997, मूल्य-रु 35@-, प्रष्ठ-244),

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