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बुधवार, 14 नवंबर 2012

प्राण शर्मा और उनकी तीन गज़लें — अवनीश सिंह चौहान

प्राण शर्मा

छोटी आयु से ही शब्द-साधना करने वाले लब्धप्रतिष्ठ साहित्यकार प्राण शर्मा का जन्म वजीराबाद (पाकिस्तान) में 13 जून 1937 को हुआ। आपकी प्राथमिक शिक्षा दिल्ली में हुई और पंजाब विश्वविद्यालय से आपने एम. ए. एवं बी.एड. किया। प्राण शर्मा जी की अब तक तीन कृतियाँ- ‘ग़ज़ल कहता हूँ’, ‘सुराही’ (मुक्तक-संग्रह) और पराया देश ( कथा संग्रह ) प्रकाशित हो चुकी हैं। साथ ही ‘अभिव्यक्ति’ में प्रकाशित ‘उर्दू ग़ज़ल बनाम हिन्‍दी ग़ज़ल’ और ‘साहित्य शिल्पी’ में ‘ग़ज़ल: शिल्प और संरचना’ पर कई महत्‍वपूर्ण लेख प्रकाशित हो चुके हैं। 1982 में कादम्बिनी द्वारा आयोजित अंतरराष्ट्रीय कहानी प्रतियोगिता में सांत्वना पुरस्कार, 2006 में हिंदी समिति लंदन द्वारा साहित्य सम्मान एवं 2011 में भारतीय उच्चायोग, यू. के.द्वारा विशिष्ट सम्मान से अलंकृत प्राण शर्मा जी 1965 से यू.के. में प्रवास कर रहे हैं। संपर्क: । आपकी तीन गज़लें यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ :- 

(1)  
चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार 

वो सबके दिल लुभाता है कभी हमने नहीं देखा
कि कौवा सुर में गाता है कभी हमने नहीं देखा।

ये सच है झोंपड़े सबको गिराते देखा है लेकिन
महल कोई गिराता है कभी हमने नहीं देखा।

जवानी सबको भाती है चलो हम मान लेते हैं
बुढापा सबको भाता है कभी हमने नहीं देखा।

उड़ाओ तुम भले ही पर कोई बरखा के मौसम में
पतंगों को उड़ाता है कभी हमने नहीं देखा।

वे आपस में तो लड़ते हैं मगर पंछी को पंछी से
कोई पंछी लड़ाता है कभी हमने नहीं देखा।

बहुत कुछ देखा है जग में मगर ए `प्राण` दुश्मन को
गले दुश्मन लगाता है कभी हमने नहीं देखा।

(2)  

दिल पे क्या-क्या लिखा नहीं जाता
पर ये पन्ना भरा नहीं जाता।

आग पर तो चला हूँ मैं भी पर
पानियों पर चला नहीं जाता।

अपने बच्चे को कैसे माँ दे दे
दिल का टुकडा दिया नहीं जाता।

यूँ तो सुनता हूँ शोर दुनिया का
शोर दिल का सुना नहीं जाता

मांगते हो तुम अपना दिल मुझसे
दे के तोहफा लिया नहीं जाता।

माफ़ उसको तो कर दिया मैंने
दिल से लेकिन गिला नहीं जाता।

दूर इतनी निकल आयें हैं हम
`प्राण`अब तो मुड़ा नहीं जाता।


(3)

ज़ेहन पर अपने झुंझलाता हूँ
चीज़ रख कर मैं भूल जाता हूँ।

भूल माना कि भूल है लेकिन
भूल बच्चों की भूल जाता हूँ।

कोई तो बात है खुशी में भी
अपने मन को उदास पाता हूँ।

छेद उसमें कभी नहीं करता
जिसकी थाली में 
`प्राण` खाता हूँ।

Pran Sharma Kee Teen Gazalen

8 टिप्‍पणियां:


  1. ये सच है झोंपड़े सबको गिराते देखा है लेकिन
    महल कोई गिराता है कभी हमने नहीं देखा।

    दिल पे क्या-क्या लिखा नहीं जाता
    पर ये पन्ना भरा नहीं जाता।

    आग पर तो चला हूँ मैं भी पर
    पानियों पर चला नहीं जाता।

    सु्न्दर गज़ल , हर शेर लाजवाब और सोचने को मजबूर करता हुआ ……………भाईदूज की हार्दिक शुभकामनायें

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  2. maaph usko to kar diya maine
    dil se lekin gilaa nahiin jata.
    tathaa-
    koee baat hai khushii men bhe
    apne man ko udhaas paata hoon.

    bahut sundar gajal ke madhyam se aapne gehrii baat kahii hai.itni behtareen gajlon ke liye priya bhai Pran Sharma jee ko badhai.

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  3. प्राण जी गज़ल के शाहंशाह हैं --यह मेरा मानना ही नहीं यदि मैं गलत नहीं तो यावत साहित्यजगत मानता है. उनकी गज़ले जीवन का यथार्थ बयां करती हैं. पहली गज़ल ने मन मुग्ध कर दिया. दोनों अन्य गज़लें भी उल्लेखनीय हैं.

    रूपसिंह चन्देल

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  4. अच्छी प्रभावशाली ग़ज़लें। यह शे'र बहुत खूब लगा - आग पर तो चला हूँ मैं भी पर
    पानियों पर चला नहीं जाता।

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  5. जिंदगी यूँ ही बढ़ने का नाम है ...पीछे मुड कर देखना भी माना है ...


    खूबसूरत अहसास लिए तीनो गज़ले

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