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सोमवार, 18 अगस्त 2014

कुछ बेक्ड कविताएँ : मर्मस्पर्शी संवेदनाओं के चित्र उकेरती कविताएँ — आनन्द कुमार 'गौरव'

[समीक्षित पुस्तक : कुछ बेक्ड कविताएँ (कविता संग्रह)। लेखक : मोनालिसा मुखर्जी।
प्रकाशक : अभिनन्दन बनर्जी, 19 राजा राम मोहन राय मार्ग,
पोस्ट - नवपल्ली, कलकत्ता - 700126 ।
प्रथम संस्करण : 2014 । पृष्ठ - 52 । मूल्य : 100 /- ]

माँ के पुनर्जन्म की मृदुल आस के जुगनू से प्रारम्भ होकर नोटों की गड्डियां गिनवाकर देवताओं को पाने पर संपन्न "कुछ बेक्ड कवितायेँ "की कविता यात्रा में "मोनालिसा मुखर्जी" ने जीवन से जुड़ी हर संवेदना के मर्मस्पर्शी पहलू को अपने अन्तर्मन से जिया है। यह आपकी प्रथम कृति है, किन्तु कविताओं का प्रवाह, लयात्मकता और संप्रेषणीयता बस देखते ही बनती है - "मैं खेल रही थी /सोचा था चाल मेरी है /अपने समय से चलूंगी /मैं पसर गई थी पेड़-तले/ कछुआ फिर जीत गया /उन नन्हे हाथों को थामने का सपना /जन्मा /और मुझमें ही जम गया।" नई कविता की भावात्मक संवेग-क्षमता की अनुपमता इन पंक्तियों में महसूस करें- "जाने से पहले /मुझे बनानी है/ एक दीवार /जुटाने हैं दो हाथ /फ़ूलों का हार /और छोड़ जाना है /एक फ्रेम-बस इतना ही करना है मुझे /ख़ुद को लावा रिस न कहलवाने के लिये।"

मोनालिसा जी की कविताएं, जहां उस नदी की खोज में हैं जो अभिव्यक्ति को स्वयं में सहेज - संवार कर उसे अपना ले, वहीं वे ईश्वर से खिन्नता व्यक्त करते हुए चुप्पी में समाहित पीर की चीख़ को ले पाने की चुनौती भी देती हैं। आपकी कविताएं भाव-विभोर कर देती हैं जब वे मम्मी के टूटे चश्मे, माँ की साड़ियों में छुपी माँ के बदन की खुशबू, डबडबाती आँखों से ताकती कविता, सर पर पैर रख बदहवास दौड़ते मन, चूल्हे की आग में झुलसती कविता, बहने दो लहरों को अनमने, चांदनी ना सही रात तो है जैसे प्रतीकों को प्रवाह देती हैं - 
"मानवता के प्रगतिवाद का पेड़ सदियों से, ठूंठ सा खड़ा है, जैसे उसे किसी अक्षम्य अपराध की सजा मिली हो   या डरा हुआ हो उन शक्तियों से जो प्रगतिवाद को वास्तविकता के धरातल पर नहीं अपितु काग़जों मात्र पर अंकित रखने की चेतावनी देते रहे हैं --- या फिर संभवतः उसे आत्मविशवास और अपनत्व की अनुभूति देकर अपनी उँगली थमा कर किसी ने चलना ही नहीं सिखाया", ऐसी भावाभिव्यक्ति, यह न मानने को विवश करती है कि यह "मोनालिस" जी की प्रथम कृति है। 

शाश्वत सत्य है कि बिखरने में एक पल नहीं लगता और संवारने में युग लग जाते हैं। इस सच्चाई को यूं कहन दी है कविमन ने -"कुछ भी नहीं संभलता /एक बार बिखरने के बाद /रेत हो जाता है सब /बनते जाते हैं मरुथल /और भटकता रहता है ख़ानाबदोश /उसी में /समेटे ऊँट पर अपना सारा कुछ .!"

वर्त्तमान विसंगतियों /विद्रूपताओं की पीर को मोनालिसा जी ने अपनी कविता में कुछ यूं जिया है - "प्रशान्त /शांत रहो /बहुत बोलते हो चुप भी करो /तुम बोलते ही क्यों हो आखिर ?/क्यों मान लेते हो कि /सब तुम्हारा दुःख समझ ही लेंगे ?/उन्हें फुर्सत नहीं अपने पचड़ों से /फिर कैसे तुम्हारे आंसू थाम सकेंगे !/इसलिये अब बस करो / अपने नदी पहाड़ और झरने / तुम्हें खुद ही ढोने होंगे " प्रशांत से शांत रहने को कहती यह कविता सही मानों में 
कविता की चीख़ है, जिसे सुनना समझना और महसूस करना आज की महती आवश्यकता है । 

माँ पर मैंने स्वयं भी रचनाएँ की हैं और बहुत सी पढ़ी ,सुनी भी हैं -गीतों में,ग़ज़लों में भी लेकिन माँ पर मोनालिसा की यह पूरी की पूरी रचना हृदय को गहराइयों तक छूने की क्षमता रखने वाली एक सम्पूर्ण और सशक्त कविता है जिसके लिये मेरा कवि उन्हें मन से बधाई देता है - "माँ /एक शब्द और ढेरों परछाइयाँ यादों की /उसकी पुचकार ,डांट फटकार /और ढेरों दुलार/------- मेरा 'मैं'और मेरा 'सब'वही है /'उसकी बिटिया वाला परिचय ही /मेरा परिचय है /मेरी हँसी /मेरे चेहरे में उसकी झलक का होना ही /मेरा 'होना' है /बाकी सब वृथा है / व्यथा है। "

आगे बढ़-बढ़कर शंकाओं में इज़ाफ़ा करती घटनाओं, पल-पल के डर, कहीं से बटोरी थोड़ी सी आशा पर निर्भर 
जीवन, न होने से होने की संभावनाओं का बनना बिगड़ना, रिश्तों का टूटना-जुड़ना, बंजारावाद, दुर्बल-समर्पण, पाने की चाह और खोने का भय, ठंडी बयार की वेदनायुक्त-मुस्कान, दो कमरों के फ्लैट और घर को छत मानने की विवशता, घुटन को विवश जीवन, कोल्हू जुते बैलों सा जीवन-प्रलोभन, परिस्तिथियों-वश बार-बार विश्वाश का टूट जाना, बेरोज़गार युवाओं का दर्द, पेड़ की छाँव की पीर, जातिवाद का विरोध, समुद्र और पृथ्वी की खींचातानी के चक्रवात, मुस्कान का मूल्य,पूजा के दो फूल हथेली पर पे रखकर मठ के किसी अन्तरकक्ष में घुल गया सा वसंत, चीख़ती रह गईं लिहाफ़ की सलवटें,निगोड़ी सुबह,अपलक अपनत्व के मुड़ आने की प्रतीक्षा, बौना अभिमान, गुणा भाग में उलझे सुर-तार,खतों की सियाही सी लिफाफों में बंद क़स्में,बदनाम आवारा नदी के किनारे,एकांतवासिता लता की मरीचिका,स्वर्ग,नर्क और मोक्ष के मायाजाल,उल्लू सीधा करने की व्यवस्थाएं,जड़-प्राणहीन काला लिबास सा शरीर, संसारी झोले उठाये लौटते कदम,पारम्परिक संज्ञाओं और विशेषणों को उतार फेंकने का मन,किनारा छूकर लौट आने का अभिशाप, अक्वेरियम के बाहर का चीखता समंदर जैसे उल्लेख्य अनूठे उपमानों से आलोकित यह कृति अंत में प्रश्न छोड़ती है "क्या गांधी बम बनाता है?/नहीं ना ?/तो फिर..."

मोनालिसा जी की कवितायेँ निःसंदेह कविता-जगत के लिये सार्थक और संग्रहणीय है। आपकी सुखी, स्वस्थ, संपन्न, यशवान, दीर्घायु की माँ शक्ति से कामना के साथ मैं आपको इस कृति के लिए साधुवाद कहता हूँ, जिसे कविता-जगत में पर्याप्त सम्मान मिलना स्वाभाविक है। 

समीक्षक : 
आनन्द कुमार 'गौरव'
ई-8-ए, हिमगिरि कॉलोनी [कांठ रोड ]
मुरादाबाद -244001 
मोबा-09719447843 
सामान्य पत्राचार- पो०बॉक्स-311 
मुख्य डाकघर, मुरादाबाद- 244001 
ईमेल-akgaurav2@gmail.com

KUCCH BAKED KAVITAYEN BY MONALISA MUKHARJI

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