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रविवार, 1 जनवरी 2017

वीरेन्द्र आस्तिक और उनके पाँच नवगीत — अवनीश सिंह चौहान


कानपुर (उ.प्र.) जनपद के गाँव रूरवाहार (अकबरपुर तहसील) में 15 जुलाई 1947 को जन्मे मूर्धन्य कवि, आलोचक एवं सम्पादक श्रद्धेय श्री वीरेंद्र आस्तिक जी बाल्यकाल से ही अन्वेषी, कल्पनाशील, आत्मविश्वासी, स्वावलंबी, विचारशील, कलात्मक एवं रचनात्मक रहे हैं। बाल्यकाल में मेधावी एवं लगनशील होने पर भी न तो उनकी शिक्षा-दीक्षा ही ठीक से हो सकी और न ही विरासत में मिले शास्त्रीय संगीत और गायन में वह आगे बढ़ सके। जैसे-तैसे 1962 में हाईस्कूल की परीक्षा अच्छे अंकों से उत्तीर्ण की और एक-दो वर्ष संघर्ष करने के बाद 1964 में देशसेवा के लिए भारतीय वायु सेना में भर्ती हो गये। पढ़ना-लिखना चलता रहा और छोटी-बड़ी पत्रिकाओं में वीरेंद्र बाबू और वीरेंद्र ठाकुर के नामों से छपना भी प्रारम्भ हो गया। आपकी पहिला कविता 1971 में 'साप्ताहिक नीतिमान' (जयपुर ) में छपी थी। उन दिनों आस्तिक जी दिल्ली में रहा करते थे। दिल्ली में नई कविता का दौर चल रहा था, सो उन्होंने यहाँ नई कविता और गीत साथ-साथ लिखे। 

1974 में भारतीय वायु सेना छोड़ने के बाद वह कानपुर आ गए और भारत संचार निगम लि. को अपनी सेवाएँ देने लगे। कानपुर में छंदबद्ध कविता की लहर थी। इस नये माहौल का उनके मनोमस्तिष्क पर गहरा प्रभाव पड़ा और वह गीत के साथ ग़ज़लें भी लिखने लगे। 1980 में आ. रामस्वरूप सिन्दूर जी ने एक स्मारिका प्रकाशित की, जिसमें — 'वीरेंद्र आस्तिक के पच्चीस गीत' प्रकाशित हुए। उनकी प्रथम कृति— 'परछाईं के पांव' (गीत-ग़ज़ल संग्रह) 1982 में प्रकाशित हुई। 1984 में उन्होंने कानपुर विश्वविद्यालय, कानपुर से एम.ए. (हिंदी) की परीक्षा उत्तीर्ण की। 1987 में उनकी पुस्तक— 'आनंद! तेरी हार है' (गीत-नवगीत संग्रह) प्रकाशित हुई। उसके बाद 'तारीखों के हस्ताक्षर' (राष्ट्रीय त्रासदी के गीत, उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान से अनुदान प्राप्त, 1992), 'धार पर हम' (1998, बड़ौदा विश्वविद्यालय में एम.ए. पाठ्यक्रम में निर्धारण : 1999-2005), 'आकाश तो जीने नहीं देता' (नवगीत संग्रह 2002), 'धार पर हम- दो' (2010, नवगीत-विमर्श एवं नवगीत के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर) एवं 'दिन क्या बुरे थे!' (नवगीत संग्रह 2012) का प्रकाशन हुआ। इसी दौरान सितम्बर 2013 में भोपाल के जाने-माने गीतकवि एवं सम्पादक आ. राम अधीर जी ने 'संकल्प रथ' पत्रिका का महत्वपूर्ण विशेषांक— 'वीरेन्द्र आस्तिक पर एकाग्र' प्रकाशित किया। 

आस्तिक जी को साहित्य संगम (कानपुर, उत्तर प्रदेश) द्वारा 'रजत पदक' एवं 'गीतमणि- 1985' की उपाधि— 17 मई 1986, श्री अध्यात्म विद्यापीठ (नैमिषारण्य, सीतापुर) के 75 वें अधिवेशन पर काव्य पाठ हेतु 'प्रशस्ति पत्र'— फरवरी 1987, अखिल भारतीय साहित्य कला मंच (मुरादाबाद) द्वारा 'अलंकार सम्मान'— 2012, उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान (लखनऊ) द्वारा 'सर्जना पुरस्कार'— 2012, निमित्त साहित्यिक संस्था (कानपुर) द्वारा 'अलंकरण सम्मान'— 2013, श्री सत्य कॉलेज ऑफ हायर एजुकेशन (मुरादाबाद) द्वारा 'गीतांगनी  पुरस्कार/सम्मान'— 2014, बैसवारा शोध संस्थान (लालगंज, रायबरेली) द्वारा 'सुमित्रा कुमारी सिन्हा स्मृति सम्मान'— 2015, संकल्प संस्थान (राउरकेला, उड़ीसा) द्वारा 'संकल्प साहित्य शिरोमणि सम्मान'— 2016 आदि से अलंकृत किया जा चुका है। 

संपादन के साथ लेखन को धार देने वाले आस्तिक जी के नवगीत किसी एक काल खंड तक सीमित नहीं हैं, बल्कि उनमें समयानुसार प्रवाह देखने को मिलता है। यह प्रवाह उनकी रचनाओं की रवानगी से ऐसे घुल-मिल जाता है कि जैसे स्वातंत्र्योत्तर भारत के इतिहास के व्यापक स्वरुप से परिचय कराता एक अखण्ड तत्व ही नाना रूप में विद्यमान हो। इस दृष्टि से उनके नवगीत, जिनमें नए-नए बिम्बों की झलक है और अपने ढंग की सार्थक व्यंजना भी, भारतीय जन-मन को बड़ी साफगोई से व्यंजित करते हैं। राग-तत्व के साथ विचार तत्व के आग्रही आस्तिक जी की रचनाओं में भाषा-लालित्य और सौंदर्य देखते बनता है— शायद तभी कन्नौजी, बैंसवाड़ी, अवधी, बुंदेली, उर्दू, खड़ी बोली और अंग्रेजी के चिर-परिचित सुनहरे शब्दों से लैस उनकी रचनाएँ भावक को अतिरिक्त रस से भर देती हैं। कहने का आशय यह कि भाषाई सौष्ठव के साथ अनुभूति की प्रमाणिकता, सात्विक मानुषी परिकल्पना एवं अकिंचनता का भाव इस रस-सिद्ध कवि-आलोचक को पठनीय एवं महनीय बना देता है। संपर्क: एल-60, गंगा विहार, कानपुर-208010, संपर्कभाष: 09415474755। 

गूगल से साभार 
1. रोज तमाशा

मानुष हार नहीं माने
वह जय की आशा जीता है

लघु जन हों या हों
भारी भरकम पद वाले
संघर्ष सभी का
जीवन को ही मथ डाले

घोर तिमिर में भी कोई
सूरज की भाषा जीता है

किसी दीन को देखो, जैसे
कोई दिगम्बर
जिए खुलापन
हर मौसम का
गुस्सा पीकर

प्रकृति-पुरूष है या औघड़?
क्षण-क्षण दुर्वासा जीता है

आओ, गौर करें हम
उन जिम्मेदारों पर
रोज उगलते
संवेदनहीन विचारों पर

एक सदन
दो आंसू रोकर
रोज तमाशा जीता है।

2. असली-नकली

कौन बताए
असली-नकली
सब थैली के चट्टे-बट्टे

कोई,  भाई-बहन बनाकर
अपना सगा बना लेता
और किसी के पुरखों का
वलिदानी-पाठ रूला देता

सबके सब आस्तीन चढ़़ाकर
लहराते भाषा के कट्टे

शोर दहाड़ों का इतना है
श्रमिक भूलते महँगाई
बेईमान हुए ‘लाइन’ में
लग, मिली न ब्लैक् कमाई

भय-दहशत से मरे-मरे कुछ
कारिन्दों के खाकर डण्डे

जनता डरी-डरी-सी, ऐसे
देश-भक्त अधिनायक से
मुद्रा के आपात़काल में
मांगे वर गणनायक से

दो दृष्टि हमें हे, दया निधे
इस भू पर गड्ढे ही गड्ढे।

3. एक बाजीगर

भीड़ अद्भुत!
एक बाजीगर शहर में
इक जमूरा
बोलता है हर बशर में

यह शहर है या कोई है
राजपूताना किला
चीन्ह कर, आँखें मिलाकर
हो रहा है दाखिला

ब्लैक गुब्बारों ढ़का
अम्बर गदर में

घर तलाशी? क्यों नहीं,
कितनी कहाँ नकदी धॅसी
गोरे-कालों की लड़ाई में
है आजादी फँसी

नाक में दम- घुस गया
कानून घर में 

दुंदुभी जय की बजे है
साँप सूँघी भीड़ है
यह करिश्मा
या कि जनता
एक टूटी रीढ़ है

शून्य खाते,
लैप’, मोबाइल समर में।

4. तू सोच ‘कूल’ होकर

आक्रोश तो बहुत है
तू सोच ‘कूल’ होकर

बम को जवाब बम से
देकर हुआ फना तू
ताकत अगर है ज्यादा 
तो शब्द-बम बना तू

धिक्कार है उसे जो
मरता है शूल होकर

वो ज्ञान, ज्ञान ही क्या
बस, कम्पनी चलाए
इस दौर में भी गाँधी!
क्यों तू न दिल से जाए

जीना बहुत सरल है
सत्ता का ‘टूल’ होकर

‘वैलून’ जो गगन है
जुड़ते नहीं धरा से
ठहरेंगे कब तलक वे
पूछो जरा हवा से

हम कौस्तुभ हुए पर
गलियों की धूल होकर।

5. बुझना नहीं है

बुझना नहीं है
जग तो बहेसिया है
चुपचाप रह मेरे मन

देखा बहुत जगत ये
चहुँ ओर है हताशा
किस मुक्ति की जुगत में
हर मर्हला है प्यासा

जिस धार बह रहे वे
उसके उलट बहे मन

ये हाँफती कवायद
ये हाँफते जिगर हैं
हर ओर छीना-झपटी
सब चाहते शिखर हैं

देखा, शिखर भी तनहा
जुड़ना जमीन से मन

तम में अजान दे-दे
तुम कितने तप रहे हो
होती सुबह न दिखती
सूरज-से जल रहे हो

बुझना नहीं है वश में
जगता हुआ चले मन।

Poet and Critic Virendra Astik, Kanpur, U.P.

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