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गुरुवार, 19 दिसंबर 2019

'दिन कटे हैं धूप चुनते' — राहुल शिवाय 

कृति : दिन कटे हैं धूप चुनते (नवगीत संग्रह)
कवि : अवनीश त्रिपाठी
प्रकाशन वर्ष : 2019, मूल्य : ₹249/-
प्रकाशक : बेस्ट बुक बडीज, दिल्ली

साहित्य की सभी विधाओं में गीत, लोकमन और जीवन के सबसे समीप रहा है। सभ्यता के प्रथम सोपान पर नृत्यगीत के रूप में गीत विकसित हुआ तो वेदों में ऋचाओं के रूप में। गीत भारतीय उपमहाद्वीप में वह माध्यम रहा है जिसके द्वारा जनसाधारण ने अपने सभी सुख-दुःख, हर्ष-विषाद, उत्साह-उमंग, जय-पराजय, संघर्ष की चेतना और मुक्ति की भावना को अभिव्यक्त किया है। लोकगीत हों, मध्यकालीन भक्ति गीत हों, छायावादी गीत हों या फिल्मी गीत, ये अपनी अभिव्यंजना और गेयता से लोकजीवन में सदा व्याप्त रहे हैं और आगे भी व्याप्त रहेंगे। पर इसके बाद भी एक ओर गीत ने जहाँ असीमित प्यार, दुलार एवं स्नेह पाया है वहीं दूसरी ओर साहित्य की मुख्य धारा से गीत को अलग रखने का प्रयास भी निरंतर चलता आ रहा है। विडम्बना तो यह भी है कि इसमें प्रारंभ के वे गीतकार भी शामिल हैं जो अनुभूति की तीव्रता, गीतात्मक ऋजुता, व्याकरण और शिल्प के स्वरूप को संभाल नहीं पाये।

साठ के दशक के आस-पास जब कविता नई कविता के रूप में विकसित हो रही थी तो गीत को यह कहकर भारतीय साहित्य की मुख्य धारा से, गंभीर साहित्य-विमर्श से अलग करने का प्रयास किया जाने लगा कि गीत में रूमानियत और निजीपन है। आधुनिक बोध और अभिव्यक्ति के लिहाज से गीत की विषय वस्तु को अनुपयुक्त घोषित कर दिया गया। यही वह समय था जब गीत, नवगीत के रूप में विकसित हुआ। नया कथन, नई प्रस्तुति, प्रगतिवादी सोच, नए उपमान, नए प्रतीक, नए बिम्ब, समकालीन समस्याएँ और परिस्थितियाँ प्रस्तुत करते हुए नवगीतकारों ने ढेरों नवगीत लिखे और साहित्य की मुख्य धारा में आने का एक संघर्ष प्रारंभ हुआ जो आज साठ वर्षों का हो चुका है।

इस दौरान हिन्दी गीत/नवगीत के सफर में 2000 ई- के बाद एक नया अध्याय जुड़ने लगा। यह वह समय था जब शायद पिछले कई दशकों से अधिक गीतकार सक्रिय रूप से गीत/नवगीत लिखने लगे। इनमें ही एक नाम है अवनीश त्रिपाठी जी का। अवनीश त्रिपाठी जी के नवगीतों में जहाँ विचारों की नवता है वहीं भाषा का लचीलापन भी। इनके पास कथ्य और बिंबों को प्रयोग में लाने की कला है और हम सब जानते हैं कि नवगीत एक बिंबप्रधान काव्य-रूप है। इसमें सहजता तो अभिप्रेय है लेकिन सपाटबयानी नहीं। इसमें कथ्य और बिंबों में नयापन तथा भाषा में एक अलग तरह की मिठास एक साथ गुंथी हुई होती है, जो अवनीश जी के गीतों में सहजता से ही प्राप्य है। इनके गीतों की यह विशेषता है कि वे अपनी बात प्रतीकों, संकेतों, बिम्बों के माध्यम से रखते हैं। ‘उनका काव्य व्यंजना का काव्य है।’ यथा-‘धूप चुनना’, ‘क्षुब्ध आहुतियाँ’, ‘प्यास बोना’, ‘छाँव के भी पाँव में छाले’, ‘थोथे मुखौटे’, ‘धुएँ का मंत्र’, ‘वस्त्र के झीने झरोखे’ और उन झरोखों को ‘टाँकती अवहेलना’ जैसे प्रयोग।प्रतिभा, व्युत्पत्ति और अभ्यास-ये साहित्यकारों के तीन अपरिहारी गुण हैं। अवनीश जी में ये तीनों गुण हैं। इनमें कारयित्री प्रतिभा की अभिनवता, व्युत्पत्ति की विशदता और अभ्यास की उत्कट अभीप्सा है। इन्हीं गुणों के कारण तो इनमें यश पाने की हड़बड़ी नहीं है। यदि कुछ है तो सम्पूर्णता का भाव। शायद इस कारण ही ये निरंतर सीखते रहना चाहते हैं। ये अभ्यासी हैं, जो इनके नवगीतों को मधुर, मर्मस्पर्शी, बोधगम्य तथा प्रेषणीय बनाते हैं। ‘शैली ही व्यक्ति है और व्यक्ति ही शैली है’ के कथन को चरितार्थ करते हुए अवनीश त्रिपाठी जी अपने नवगीतों में अभिव्यक्ति को स्वतंत्र स्वरूप प्रदान करते हैं। राजनीतिक विडंबनाओं, सामाजिक विसंगतियों, मानव की यथार्थ विचारधाराओं, प्रकृति प्रेम आदि विषयों पर इनकी कलम बेधड़क चलती है। गाँव की जड़ों से लिपटी सौंधी मिट्टðी इनकी कलम की धार है। वास्तविकता में ये नवगीत सिर्फ लिखे हुए नहीं, जिये हुए नवगीत लगते हैं। तभी तो अवनीश जी अपने नवगीत में कहते हैं कि उनका दिन धूप को चुनते हुए अर्थात कठिन परिश्रम करते हुए बीता है। अवनीश जी अपने शीर्षक गीत में उस श्रमिक वर्ग का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं जो संघर्ष करते हुए अच्छे दिन की कोरी कल्पना में जी रहे हैं-

सौंपकर थोथे मुखौटे
और कोरी वेदना,
वस्त्र के झीने झरोखे
टाँकती अवहेलना,
दुःख हुए संतृप्त लेकिन
सुख रहे हर रोज घुनते।
रात कोरी कल्पना में
दिन कटे हैं धूप चुनते।

अपने समय के आम आदमी के संघर्षों, तकलीफों और संकल्पों को आज के सजग जिम्मेदार कवियों के काव्य संसार की केंद्रीय अंतर्वस्तु के रूप में देखा जाता है। अंतर्वस्तु के आलोक में उनकी काव्य यात्र की जटिलताओं को भी समझा जाता है। इस दृष्टि से अवनीश त्रिपाठी जी के नवगीतों पर विचार करें तो उनकी निरंतर गतिशील रचना यात्र हमें उस पड़ाव पर ले जाती है जहाँ से उनके नवगीत प्रौढ़ता की ओर अभिमुख होते हैं।

स्वप्नों की समिधायें लेकर
मन्त्र पढ़ें कुछ वैदिक
अभिशापित नैतिकता के घर
आओ हवन करें।

आज समाज में मानवीय मूल्यों का पतन बहुत तेजी से हो रहा है, मनुष्य की मानवीय संवेदना धीरे-धीरे लुप्त होती जा रही है। लोग अपने स्वार्थ सिद्धि के लिये किसी हद तक जाने को तैयार हैं, परिवार एकल हो गये हैं। ऐसे में रिश्तेदार फेसबुक पर खोजे जाने लगे हैं। यह समय रिश्तों की अनदेखी करने लगा है, बच्चे सोशल नेटवर्किंग, मोबाइल गेम्स की ओर इस प्रकार झुक गये हैं कि उन्हें दादा-दादी की कहानियाँ, नीति-परक् बातें बेकार-सी लगने लगीं हैं, इस परिस्थिति ने न सिर्फ बच्चों को प्रभावित किया है, अपितु बुजुर्गों का भी सुख छीन लिया है। आिखर दादा-दादी, नाना-नानी, के िखलौने बच्चे ही तो होते हैं। इस सामयिक विसंगति को शब्द देते हुये अवनीश त्रिपाठी जी लिखते हैं-

बेटे का घर-घर में बच्चे
हाथों में मोबाइल पकड़े
गेम, चैट, नेट पर सीमित वे
तकनीकी युग में हैं जकड़े
गँवई देशी, ठेठ देहाती
बोली-भाषा वाले दोनों
भरे हुए घर में एकाकी
कथा-कहानी किसे सुनाएँ?
‘अम्मा बाबू’ अपनी हालत
किससे बोलें, किसे बताएँ।

हमारा समाज, जहाँ माता-पिता ईश्वर माने जाते हैं। वहां आज दिन-ब-दिन वृद्धाश्रमों की संख्या में वृद्धि होती जा रही है। आम जीवन में पश्चिमीकरण का इस प्रकार प्रवेश हो गया है कि हम दो-हमारे दो को ही हम अपना सम्पूर्ण संसार मानने लगे हैं। हमें आँगन की बूढ़ी खाँसी शोर की तरह प्रतीत होने लगी है। इस भाव को केंद्र में रखते हुए अवनीश जी लिखते हैं-

सहयात्री के साथ नया
अनुबन्ध नहीं हो पाया
छतें, झरोखे, अलगनियों
के साथ नहीं रो पाया
पीड़ाओं का अंतर भी अब
है घनघोर उदासी
सही नहीं जाती है घर को
आँगन की बूढ़ी खाँसी।

महानगर की चकाचौंध युवा पीढ़ी को बहुत आकर्षित करती है, इसी आकर्षण के वशीभूत वे अपने गांव, खेत, खलिहान सबको छोड़कर शहर की भीड़ का हिस्सा बन जाते हैं, वास्तविकता में यह भीड़, ऐसे मानवों की भीड़ है जो सभ्यता, मानवता, सहानुभूति, अपनापन आदि बातों को भूलकर धनप्राप्ति हेतु एक दौड़ जी रहे हैं। यहाँ प्रेम और हमदर्दी के अभाव में सामाजिक मूल्य बार-बार आहत होते रहते हैं। इस शहरीपन पर चोट करते हुए अवनीश त्रिपाठी जी लिखते हैं-

रात दिन बस पोपले मुख
बुदबुदाहट, आहटें
बिस्तरों से बात करती हैं
यहाँ खिसियाहटें
गेट दीवारें पड़ी सूनी
सड़क तू आह मत भर
यह रईसों का मुहल्ला है
जरा आवाज कम कर।

या

मेज, फाईलें, बिखरे कागज
फारवर्डिंग सिग्नेचर
कसे हुए दिन खाना-पीना
रुकना-पिछड़ापन
इंटरनेट, सोशल साईट से
रिश्ता-अपनापन
टी-वी- चेहरे/मुस्कानों के
महँगे विज्ञापन

ऐसा नहीं है कि अवनीश त्रिपाठी जी के गीत सिर्फ समस्याओं के शोकगीत ही हैं वे आज के भयावह जिंदगी के खुरदुरे यथार्थ का चित्रण करते हुए हाथ, हाथ को परचम बना देने की वकालत करते हैं। चारों तरफ फैली समस्याओं के जाल से घिरी मेहनतकश जनता को शोषण के विरुद्ध आवाज उठाने की प्रेरणा देते हैं। इनके नवगीत इस बात को सिद्ध करते हैं कि साहित्य समाज का दर्पण होता है। ये नवगीत विभिन्न वर्गों में व्याप्त विषमताओं को उद्धृत करने में निश्चित रूप से सफल हुए हैं। ये सांप्रदायिक और परंपरावादी नहीं है। ये भावुक हैं और इनकी भावुकता निश्चल है जो यह आभास देती है कि यह नवगीतकार प्रकृति, मनुष्य और हर पल बदलते हुए देश काल के प्रति सजग है और अपने ढंग से लिखना चाहता है। इनका संघर्ष किसी और के साथ का
इंतजार नहीं करता है। तभी तो ये कहते हैं-

धुंध बहुत है
तुम छुप जाओ
हम मौसम से युद्ध करेंगे।

थियोडोर आडोर्नाे ने कहा है- ‘‘गीत की पुकार का मर्म वही समझ सकता है जो उसकी आत्मपरकता में अन्तर्निहित मानवीयता की आवाज सुन पाता है।’’ अवनीश जी के नवगीतों की आवाज- गंभीरता, पीड़ा और जटिलताओं का बोध उसे मानवीय संवेदनाओं से जोड़ता है। मानवीय मूल्यों की पक्षधरता, हार्दिक सहजता, गहरी सम्वेदनशीलता इनकी विशिष्ट पहचान है। ये अपने आस-पास होनेवाले हादसे, अमानवीय व्यवहार, दमन, दहन आदि को गीत के केंद्र में रखते हैं। ये जीवजगत की अत्यानिवार्य समस्याओं पर चिंतन करते हैं। ये अपने दायित्वों को भलीभाँति समझते हैं और शायद इसलिए ही विसंगतियों में दबे-फँसे इस समाज को मुक्ति की राह दिखाते नजर आते हैं। ये चिंतन और चिंता के गीतकार हैं। इनके गीतों में वसुंधरा एवं नभ दोनों को बचाने की चिंता है। शाश्वत मूल्यों की प्रतिष्ठा, नैतिकता की पुनर्स्थापना की चेष्टा इनके गीतों को अन्य से भिन्न करती है। इनके गीत लोक सामान्य भावभूमि पर मन-मन का रागात्मक संबंध स्थापित करते हैं जो वास्तविकता में गीत की अन्तश्चेतना भी है। ये जैसे भावों और विचारों को फटककर गीत प्रस्तुत करते हैं और अपने प्रयास से समाज को बदलना चाहते हैं। यथा-

नभ तक पारदर्शिता वाली
अर्थ समझती सीढ़ी होगी
मिथ्याओं का परिवर्तन कर
बस यथार्थ की पीढ़ी होगी
मन में बैठा वहम मिटाकर
हर चेहरे को बुद्ध करेंगे।

पिछले कई दशकों से जहाँ एक तरफ नई कविता/गद्य कविता के हितैषी आलोचकों ने छंद को विशेष रूप से गीत/नवगीत को साहित्य की मुख्य धरा से वंचित रखने का कुकृत्य किया है वहीं दूसरी तरफ नवगीतकारों ने नवगीत की अपनी-अपनी परिभाषाएँ भी गढ़ ली हैं। प्रयोग और नवगीत का सौंदर्य साधन ही नवगीत की आत्मा कही जाने लगी है। तत्सम शब्दों का प्रयोग देखते ही नवगीतों को छायावादी गीत की संज्ञा दी जाने लगी है। तथ्य का महत्त्व दूसरे स्थान पर रह गया है। अवनीश जी इस परिस्थिति को समझते हैं और लिखते हैं-

नवप्रयोगों की धरा पर
छटपटाता हूँ निरन्तर
गीत हूँ, नवगीत या जनगीत हूँ
क्या हूँ बता दो।

जैसा कि हम सब जानते हैं मानव इतिहास के प्राचीनतम साहित्य ऋग्वेद में मानव इतिहास के सर्वप्रथम गीत पाए गए हैं। जहाँ प्रकृति-वर्णन विभिन्न भावों की सूक्ष्म व्यंजनायें, नारी हृदय की कोमलता, दुर्बलता, काम-पिपासा, आशा, निराशा, विरह वेदना सभी गीत के रूप में ही अभिव्यक्त हुए हैं। रीतिकाल और छायावादी काल में भी लौकिक प्रेम के पर्याप्त और उच्चस्तरीय गीत प्राप्त होते हैं और क्यों न हाें? आिखर प्रेम जीवन का अविभाज्य/विकल्पहीन अंग है। इस बात को समझने, जानने वाले अवनीश त्रिपाठी जी प्रेम और सौंदर्य को भी अपने नवगीतों से विलग नहीं करते अपितु इसे प्रकृति से जोड़कर अमरता प्रदान करने का प्रयास करते हैं। यथा-

नेह की पगडंडियों पर
फागुनी पदचाप सुन
झूमती डाली लता की
महमहाई रात भर।

या

झाँक रहीं किरणें कनखी से
इच्छाएँ मधुवन की
काजल ओढ़े नयन पढ़ रहे
परिभाषाएँ मन की
नई गुदगुदी उठकर कब से
पोर-पोर तक पहुँची
खिली मंजरी फुनगी चहकी
कली-कली इँगुराई।

अवनीश जी के नवगीत बड़ी सजगता के साथ विकल्पों की तलाश कर रहे हैं। ये किसी विशेष राजनीतिक या सामाजिक पक्ष की तरफदारी में खड़े नहीं हैं। ये तो शब्दों को बोझिल किये बिना विषमता के अहम् रूपी गुब्बारे में छोटी पिन चुभो देते हैं। इनमें समकालीन जीवन यथार्थ अत्यधिक सजग और संवेदनशील है। प्राकृतिक बिम्बों के अलावा ऐतिहासिक प्रतीकों के प्रयोग से भी ये समकालीन तथ्य को बड़ी ही सफलता के साथ प्रस्तुत करते हैं। यथा-

फिर कलिंग को जीतें हम सब
फिर से भिक्षुक बुद्ध बनें
पाटलिपुत्र चलाएँ मिलकर
तथाकथित ही, शुद्ध बनें
चन्द्रगुप्त-पोरस बन जायें
अरे नवागत! आओ गायें

या

कितने रावण जलते हैं पर
सीताहरण नहीं रुक पाया

या

मछली अच्छी
मगरमच्छ या
बगुला भगत समर्पण
इस चिंतन में कई दिनों से
विक्रम हैं बेहाल

इस पुस्तक की मूल संवेदना की बात करें तो यह पुस्तक आधुनिक जनजीवन के अत्यंत करीब जान पड़ती है जो पाठकों को समस्याओं से अवगत कराती है तथा निदान का उपाय भी सुझाती है। यहाँ गीतकार ने समग्रता से अनुभवजन्य भावों को लेखनी से शब्दबद्ध किया है। अंत में मैं यही कहूंगा अवनीश जी के समय सहचर गीतों का काव्य बहुआयामी है। जिन आँखों से ये कटु यथार्थ तलाशते परखते हैं, उन्हीं आँखों में मीठे सपने भी पालते हैं। इस संकलन की सफलता हेतु इन्हें अग्रिम बधाई।

भूमिका लेखक: 
राहुल शिवाय
सदस्य - कविता कोश टीम 
ईमेल: rahulshivay@gmail.com

Din Kate Hain Dhoop Chunate by Awanish Tripathi

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