पूर्वाभास (www.poorvabhas.in) पर आपका हार्दिक स्वागत है। 11 अक्टूबर 2010 को वरद चतुर्थी/ ललित पंचमी की पावन तिथि पर साहित्य, कला एवं संस्कृति की पत्रिका— पूर्वाभास की यात्रा इंटरनेट पर प्रारम्भ हुई थी। 2012 में पूर्वाभास को मिशीगन-अमेरिका स्थित 'द थिंक क्लब' द्वारा 'बुक ऑफ़ द यीअर अवार्ड' प्रदान किया गया। इस हेतु सुधी पाठकों और साथी रचनाकारों का ह्रदय से आभार।

गुरुवार, 6 फ़रवरी 2020

राहुल शिवाय और उनके नवगीत — अवनीश सिंह चौहान


नयी सदी के प्रखर एवं मुखर युवा कवि एवं सम्पादक प्रिय अनुज राहुल शिवाय जी का जन्म एक ब्राह्मण परिवार में 01 मार्च 1993 को रतनपुर, बेगूसराय, बिहार में हुआ। रचनात्मक संकल्पों के साथ जीवन जीने का अभिलाषी यह रचनाकार आज जो कुछ भी लिख-पढ़ रहा है, सम्पादित-प्रकाशित कर रहा है— वह अपने आप में श्लाघनीय है। श्लाघनीय इसलिए भी कि इस कलमकार की लेखनी भावकों को बड़ी सहजता से महसूस करा देती है कि यह संसार उतना ही नहीं है, जितनी खुली आँखों से दिखाई पड़ता है, बल्कि यह उससे भी कहीं अधिक व्यापक एवं खूबसूरत है— बस इसे देखने के लिए दृष्टि चाहिए। यह दृष्टि राहुल जी के पास तो है ही और यदि उनके पाठक-वृन्द चाहें तो वे भी,  उनके अनुभवों से गुजरते हुए, अपनी दृष्टि को बढ़ाकर इस संसार को और अधिक गहराई से जान-समझ सकते हैं। मिलनसार, मेहनती और मस्त राहुल जी और उनके चाहने वालों को भला और क्या चाहिए— "दीवाने हैं दीवानों को न घर चाहिए,/ न घर चाहिए/ मुहब्बत भरी इक नज़र चाहिए/ नज़र चाहिए" (गुलशन बावरा, फिल्म- जंजीर)। शिक्षा : बी.टेक (कम्प्यूटर साइंस) एवं एम.ए. (हिन्दी)। प्रकाशन : 'तप रहे हैं शब्द' (नवगीत संग्रह, 2014), 'भर-भर हाथ सरंग', 'संवेदना', 'ऋतु रास', 'अंगिका दोहा शतक', 'माटी हिन्दुस्तान की', 'स्वाति बूँद', 'मेवाड़ केसरी', 'बच्चों का बसंत', 'गुनगुनाएं गीत फिर से' आदि हिंदी और अंगिका भाषा में 9 मौलिक और 8 संपादित कृतियाँ। बिहार हिंदी साहित्य सम्मलेन द्वारा 'शताब्दी सम्मान' सहित आधा दर्जन से अधिक सम्मानों से अलंकृत राहुल जी वर्तमान में कविता कोश के उपनिदेशक हैं। संपर्क : सरस्वती निवास, चट्टी रोड, रतनपुर, बेगूसराय, बिहार-851101, ई-मेल : rahulshivay@gmail.com, मो. 8240297052/ 8295409649

वरिष्ठ कवि राम सेंगर जी
के सहयोग से प्राप्त चित्र  
(1) विज्ञापन कहता है

होगा विकसित देश 
सिर्फ विज्ञापन कहता है

राम भरोसे भोजन, कपड़ा 
शिक्षा औ' आवास
अर्थ-शास्त्र भी औसत धन को 
कहने लगा विकास 
सम्मानित समुदाय 
जेठ को सावन कहता है

जब-जब बात उठी है
बस्ती कब होगी मोडर्न
तब-तब मुद्दा बनकर आया
पिछड़ा और सवर्ण 
क्या हालता है,
मुद्रा-दर का मंदन कहता है 

जिसने सपने कम दिखलाए 
हुआ वही कमजोर 
तकनीकों ने संध्या को भी 
सिद्ध किया है भोर
सब हल होगा, 
बार-बार आश्वासन कहता है। 

(2) कैसे हो सुनवाई 

आँगन में दलदल फैली है
दीवारों पर काई
घर ही घर का दोषी हो जब
कैसे हो सुनवाई 

पूरे घर में हरा-भरा है
बस तुलसी का पत्ता
चार रोटियाँ का पाया है
घर ने जीवन-भत्ता
आह-रुदन में बदल गई है
तुलसी की चौपाई 

झुकी कमर ले पड़ी हुई है
उधड़ी खाट पुरानी
हँसी ठहाके उत्सव लगते
बीती एक कहानी
शहर गई खुशियों की आखिर
कौन करे भरपाई 

जो कल छत थे, नई मंजिलों
को वे ढ़ाल रहे हैं
नए-नए सपनों को आँखों में वे
पाल रहे हैं
और नीव दब रही बोझ से
झेल रही तन्हाई। 

(3) ठिठुर रहा गण 

ठिठुर रहा गण 
और ध्वजा बन फहर रहा गणतंत्र 

दशक-दर-दशक केवल लहरे 
उम्मीदों की थाती 
मुश्किल कहना ताली पीटें
या हम पीटें छाती 
देख न पाते 
कैसे जन सँग कुहर रहा गणतंत्र 

खुशहाली झलके परेड में
उत्सव बहुत जरूरी 
मगर राजपथ से खेतों की
अब भी उतनी दूरी 
कैसे मानूँ 
अच्छा सबकुछ, सँवर रहा गणतंत्र 

कुचले सपनों के स्वर मद्धम 
धर्मों के जयकारे
एक दिवस की राष्ट्र-भावना 
सौ दिन द्रोही नारे 
रेशा-रेशा 
धीरे-धीरे उघर रहा गणतंत्र। 

(4) सिर्फ बाँचने लगे समस्या 

सिर्फ बाँचने लगे समस्या 
छोड़ समस्याओं के कारण

धर्म-पंथ विस्तार चाह है 
पर अधर्म पथ चुना गया है
कितना ही षडयंत्र देश में 
जालों जैसा बुना गया है 
मानवता का अर्थ कहाँ है
धर्म हृदय में हुआ न धारण

छल ही छल है, हल की चिन्ता 
पर संघर्षों से कतराते
सुई चुभाए बिन सिल जाए 
मन में बैठे ख्वाब सजाते
भीष्म, द्रोण, कृप चुप बैठे हैं 
टूट गया क्या मन का दर्पण

रंक बनेंगें महारंक अब 
राजा जी महराज हो गए
भूल गए हम स्वर अंतर का 
हम गीतों के साज हो गए
श्रम की सूखी रोटी मुश्किल 
मगर मशीनों में आकर्षण। 

(5) मौन भी अपराध है 

सिसकता संघर्ष, उसकी 
विवशताएँ!  
जान लो तुम 
मौन भी अपराध है 

सुबह होते ही जगे तुम 
काम पर निकले फटाफट
पढ़ रहे अखबार हर दिन 
पर समझ पाए न आहट 
सत्य से पीछा छुड़ाती 
व्यस्तताएँ! 
जान लो तुम 
मौन भी अपराध है 

आँख पर गॉगल चढ़ाये
धूप को छाया समझते
तुम लगा हेडफोन अक्सर 
चीख मन की नहीं सुनते 
स्वयं से ही मुँह चुराती 
चेतनाएँ! 
जान लो तुम 
मौन भी अपराध है 

सत्य पाँवों के तले है
झूठ पहने ताज़ झूमे
प्रेम भी अपराध है अब 
वासना आजाद घूमे 
सो रही बदलाव की हर 
कल्पनाएँ! 
जान लो तुम 
मौन भी अपराध है 

मौन होकर जब सहा है 
बल बढ़ा है शोषकों का 
कर रहे हो स्वयं पोषण 
यातना के पोषकों का 
हार को स्वीकार करती 
यातनाएँ! 
जान लो तुम 
मौन भी अपराध है। 

(6) हम अपनों के मारे

हम अपनों के मारे 
करते सिर्फ प्रतीक्षा

भूखे का है धर्म मिले खाने को रोटी 
उसे कहाँ अल्ला-इश्वर से लेना देना 
कहाँ खून का मोल समझ पाएँगे वो जो,
पानी जैसा रहे मानते बहा पसीना 
भेद-भाव का कचरा 
ढोती नित्य अशिक्षा

पाँच वर्ष की बेटी की माँ पूछ रही है 
लूटी अस्मत का कारण क्या था पहनावा 
जाने कितनी माएँ ये सब बता चुकी हैं
नहीं छलावे से ज्यादा खादी का दावा
झूठी-सी लगती है अब 
प्रत्येक समीक्षा

चमक-दमक से इतना प्यार हुआ है हमको 
दौड़ रहे हम बने फतिंगे जलती लौ पर
काट रहे हम जीवन-जड़ का हर संसाधन
पूंजीवाद के दल-दल में अपना शव ढोकर 
अगले ही दिन भूले पिछले 
दिन की दीक्षा 

(7) होगा तब बदलाव

होगा तब बदलाव 
अगर 
हम तुम बदलेंगे

पूछ रहे हैं कौन रख गया 
पथ पर पत्थर 
सिर्फ कोसते आगे बढ़ते
ठोकर खाकर 
ऐसे ही 
बतार्वों से क्या
हल निकलेंगे 

मान मनाही दिन को 
दिन हम बोल न पाते 
लाठी जिनकी उनकी ही हम 
भैंस बताते 
ऐसी 
कायरता से 
स्वहित क्या कर लेंगे 

सिर्फ रुदाली का गायन 
हमको करना है 
कल की चिंता है, शब्दों में 
बस कहना है 
अभी नहीं 
सँभले तो 
आखिर कब सँभलेंगे। 

(8) रोज जो मरता रहा है

रोटियाँ फिर मिल न पायीं
हैं कृषक हड़ताल पर

देह बनकर
राजपथ पर हैं खड़े
देश का आधार ही
आधार की खातिर लड़े
चुप खड़ी सत्ता 
मगर इस हाल पर

रेत-सम सूखे 
नयन हैं रो रहे 
चीखते
प्रतिरोध पीड़ा ढो रहे
ढोल पीटा जा रहा है
खाल पर

क्या डरेगा, 
रोज जो मरता रहा है
घाव से भी
स्नेह जो करता रहा है
चोट देगा एक दिन वह
ढाल पर

(9) ढलते रहे पिता

दुख की रातें कैसे आतीं
मेरे जीवन में
जब सूरज बन मुझमें रोज
निकलते रहे पिता 

माना वे दिखते कठोर हैं
पर मन से हैं कोमल
पीड़ाओं ने दस्तक दी जब,
रहे हिमालय का बल
बनने को गंगाजल, खुद ही
गलते रहे पिता

मैं मिट्टी था, जिसे उन्होंने 
इक मूरत में ढाला 
उनके पग के छालों से ही
मिली जीत की माला
मुझे ढालने को जीवनभर
ढलते रहे पिता

रहे बांटते सबको हरदम
मगर नहीं वे रीते
मेरे सुख की चिंता में ही
देखा उनको जीते
रुके नहीं जीवन के पथ पर
चलते रहे पिता।

Rahul Shivay ke Navgeet

2 टिप्‍पणियां:

  1. सभी गीत एक से बढ़कर एक ... इतनी कम वय में भैयाजी की सक्रियता और सृजन वास्तव में प्रेरणा देता है । बधाई ।

    जवाब देंहटाएं
  2. बेहतरीन व्यक्ति एवं उत्कृष्ट कवि

    जवाब देंहटाएं

आपकी प्रतिक्रियाएँ हमारा संबल: