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शनिवार, 14 मार्च 2020

गरिमा सक्सेना और उनके नवगीत — अवनीश सिंह चौहान


सूर्य की स्वर्ण-रश्मियों के सामान साहित्याकाश में देदीप्यमान आ. सुभद्रा कुमारी चौहान जी एवं आ. महादेवी वर्मा जी की विरासत को देश, काल, स्थिति के अनुसार समृद्ध करने वाली आधुनिक गीत-कवयित्रियों की एक लम्बी सूची है—  आ. शांति सुमन जी की आभामयी उपस्थिति के साथ सर्वश्रीमती अंजना वर्मा, अनिता सिंह, अरुणा दुबे, आशा देशमुख, इंदिरा मोहन, उर्मिला ‘उर्मि’, कल्पना मनोरमा, कल्पना रामानी, कीर्ति काले, गीता पंडित, निर्मला जोशी, निशा कोठारी, प्रभा दीक्षित, प्राची सिंह, मंजु लता श्रीवास्तव, मधु चतुर्वेदी, मधु प्रधान, मधु प्रसाद, मधु शुक्ला, ममता बाजपेयी, महाश्वेता चतुर्वेदी, मानोशी चटर्जी, मालिनी गौतम, मीना शुक्ला, यशोधरा राठौर, रंजना गुप्ता, रजनी मोरवाल, रमा सिंह, रश्मि कुलश्रेष्ठ, राजकुमारी रश्मि, शशि पाधा, शशि पुरवार, शीला पाण्डे, शैल रस्तोगी, संध्या सिंह, सीमा अग्रवाल, सीमा हरिशर्मा, सुशीला जोशी आदि। इस विशिष्ट सूची में अपने साथी गीत-कवियत्रियों को प्रोत्साहित एवं प्रकाशित कर उन्हें आगे बढ़ाने में जिन प्रतिभाशाली, संवेदनशील एवं सेवाभावी मातृ-शक्तियों का अतुलनीय योगदान है उनमें आ. पूर्णिमा वर्मन जी (सहयोगी— आ. कल्पना रामानी जी), आ. आशा पांडेय 'ओझा' जी, आ. कीर्ति श्रीवास्तव जी एवं आ. भावना तिवारी जी का नाम उल्लेखनीय है। गीत-कवयित्रियों की इस महत्वपूर्ण सूची में एक और नाम जोड़ा जा सकता है— श्रीमती गरिमा सक्सेना (जन्म: 29 जनवरी 1990) का। साहित्य की कई विधाओं में सृजनशील गरिमा जी— 'यथा नाम, तथा गुणे' की कहावत को चरितार्थ करती रचनाकार हैं। वह अपनी सर्जनात्मकता को कोमल स्पर्श देकर सामान्य से सामान्य और असामान्य से असामान्य बात को बड़ी सहजता से मुखरित करने की कला में पारंगत हैं। उनकी सर्जना सारगर्भित एवं सम्प्रेषणीय है और भाषा-शैली मर्मस्पर्शी एवं समसामयिक है। शिक्षा : बी. टेक। प्रकाशित कृतियाँ— 'है छिपा सूरज कहाँ पर' (नवगीत संग्रह), 'दिखते नहीं निशान' (दोहा संग्रह)। संपादित कृतियाँ— 'दोहे के सौ रंग' (सौ रचनाकारों का सम्मिलित दोहा संग्रह)। आपकी रचनाएँ कई समवेत संकलनों— 'गुनगुनायें गीत फिर से', 'दोहा दर्शन', 'कवयित्री सम्मेलन', 'मीत के गीत', 'हिंदी ग़ज़ल के युवा चेहरे', 'हिंदी ग़ज़ल के बदलते मिज़ाज़', 'नयी सदी के नये गीत', 'दोहा मंथन', 'गुनगुनाएँ गीत फिर से-2', '101 महिला ग़ज़लकार', 'काव्य उपवन', 'कुछ ग़ज़लें कुछ गीत', 'नयी पीढ़ी के गीत', 'बूँद-बूँद में सागर' आदि में प्रकाशित हो चुकी हैं। आपको 'नवगीत साहित्य सम्मान' (नवगीतकार रामानुज त्रिपाठी स्मृति मंच) सहित कई अन्य सम्मानों से अलंकृत किया जा चुका है। सम्प्रति : स्वतंत्र लेखन, कवर डिजायनिंग, चित्रकारी। संपर्क : मकान संख्या- 212, ए-ब्लाॅक, सेंचुरी सरस अपार्टमेंट, अनंतपुरा रोड, यलहंका, बैंगलोर, कर्नाटक-560064, ईमेल— garimasaxena1990@gmail.com।

वरिष्ठ कवि आ. राम सेंगर जी द्वारा
उपलब्ध कराया गया चित्र 
1) चुक गया सूरज

चुक गया सूरज गगन का
अब उजाला कौन देगा

सामने अंधी सुरंगे
दृश्य ओझल हो गया है
रोज खुद से ही उलझकर
जीत का पथ खो गया है

शोक को मन से बताओ
अब निकाला कौन देगा

छाँव बिन साहस समय से
माँगता है अब सहारा
ढूँढती है प्यास मन की
तृप्ति पाने को इनारा

सोचता भूखा पड़ा तन
अब निवाला कौन देगा

जानते हैं यह अमावस
है घनी, विकराल, काली
पर अमावस को करेंगे
हम सभी मिलकर दिवाली

हाथ में है दीप मेरे
दीपमाला कौन देगा। 

2) सूर्य उगाना होगा

कबतक हम दीपक बालेंगे
हमको सूर्य उगाना होगा

बदल-बदल कर वैद्य थक गये
मिटी नहीं अपनी पीड़ाएँ
सहने की आदत ऐसी है
टूट गईं सारी सीमाएँ

पीड़ाओं में प्रतिरोधों का
स्नेहिल लेप लगाना होगा

किश्तों में बँट गई एकता
खुद का रस्ता रोक रहे हैं
बहकावे में आकर सच के
तन में खंजर घोंप रहे हैं

भेद-भाव को भूल हृदय का
मानव आज जगाना होगा

बातों से संतुष्ट हो रहे
लगता है अभिशापित जीवन
पल भर की झुंझलाहट को हम
मान रहे कबसे आंदोलन

मन की आँच रहे ना मन में
हमको तन सुलगाना होगा। 

3) द्वारे बंद पड़े

हुईं स्वार्थ की तय सीमायें
‘मैं- मेरा’ में अटक गया सब

भरे नेह के कई सकोरे
जाते थे द्वारे से द्वारे
इसका तीखा, उसका मीठा
मिलकर लेते थे चटकारे

दिल के द्वारे बंद पड़े हैं
साँकल कोई खटकी है कब

काम खतम कर साँझ ढले नित
देहरी पर आती थीं चिड़ियाँ
दादी, चाची, माँ, दीदी की
बातों में झरतीं फुलझड़ियाँ

वक्त निगल ले गया खुशी ये
अंतरमन उलझा लगता अब

धन से कद बढ़ गये सभी के
मन का कद घटता ही जाता
कहाँ प्यार, ममता का बंधन
अंतरमन को आज लुभाता

किस्सों में सीमित लगते हैं
दया-धरम के अब सारे ढब। 

4) चलना कठिन है

है घना अँधियार
अब चलना कठिन है

शोर सड़कों पर
नहीं देता सुनाई
थके मन को है
नहीं इक चारपाई

झूठ है सम्राट
सच कहना कठिन है

भीड़ अंधी है, बिकाऊ
भी यही है
और यह जो कह रही
वह ही सही है

नदी का विपरीत में
बहना कठिन है

एक ठकुरौती, सभी
कुछ बाँटती है
सूत जैसा वह अँधेरा
कातती है

सूर्य इनके सामने
गढ़ना कठिन है। 

5) सो रहीं हैं चेतनाएँ

समझकर भी
सो रहीं हैं चेतनाएँ

देख मानव
आज जंगल काँपते हैं
मेघ भी दो डेग
चलकर हाँफते हैं

लू सदृश चलने लगीं
माघी-हवाएँ

नदी का मुश्किल
समंदर तक पहुँचना
और सागर-ज्वार
का रह-रह उमड़ना

देखकर चुप-चाप
बैठीं हैं दिशाएँ

कंठ में है प्यास
उपवन जल रहा है
युग-युगों का जमा पर्वत
गल रहा है

पर तनिक ना स्वार्थ की
गलती शिलाएँ। 

6) खुद ही लड़ना है

क्यों आक्रोश हमारे मन का
है अवचेतन में

अब तक होती आयीं हैं बस
बड़ी-बड़ी बातें
खाली पेट टटोल रही हैं
जगी हुई रातें

सुख की छाती फटी रह गई
है हर सावन में

हम गज ऐसे, जंजीरों को
तोड़ नहीं पाते
करते नहीं प्रयत्न, हार
पर केवल पछताते

लगे हुए हम पीड़ाओं के
मात्र प्रदर्शन में

कौन लड़ा है किसकी खातिर
खुद ही लड़ना है
हमको मरुथल के सीने पर
जल-सा बहना है

कबतक केवल रत्न जड़ेंगे
हम सिंहासन में। 

7) अकाज के दिन

जठरानल के हिस्से आये
हैं अकाज के दिन

दौड़ रही प्रतिभाएँ
फाइल ले दफ्तर-दफ्तर
कितने सपनों को सलीब-सा
ढोते काँधे पर

सदियों जैसे बीत रहे हैं
जीवन के पल-छिन

लोकतंत्र भी भुना रहा है
बस आशाओं को
सुखमय, अच्छे दिन वाली ही
दंतकथाओं को

आँखों की जेबों से रिस-रिस
टपक रहे दुर्दिन

सरकारी रित्तिफ़याँ अधूरी
झूठे हैं वादे
सुविधाओं के बल पर आगे
निकल रहे प्यादे

ऊपर से शिक्षा-ऋण का
युवकों को गड़ती पिन

8) जुगनू सूर्य हुआ

लड़ते नहीं समस्याओं से
डाल चुके हथियार
कब तक बिना लड़े ही हमसब
मानेंगे यों हार

किरनों का आखेट हो रहा
जुगनू सूर्य हुआ
केवल रटना सीख गया है
मन में छिपा सुआ

ऊपर से नीचे अंदर तक
धँसा हुआ अँधियार

दूर तलक सच नहीं झलकता
ऐसे विज्ञापन
बाँच रहा है हर पीड़ित मन
अपना ही जीवन

दाना पाने मीन जाल तक
जाने को तैयार

एक बात सीखी है
फटी बिवाई दिखलाना
जितना है उतने में ही बस
मन को समझाना

चुप रह रोज देखते ढहते
साहस की दीवार।

9) जगमग हो मावस

तेल भरे सबके दीपक हों
छा जाये हर द्वार उजाला
इस दीवाली सबके घर ही
सजें दीप, खुशियों की माला

दीपक की छोटी बाती को
चायनीज झालर धमकाते
त्योहारों के अर्थ पुरानिक
नये दिखावों में खो जाते
माटी का भी मोल मिले कुछ
उसके सपने भी अँखुआते

जिसने चाक घुमा, माटी को
श्रम से है दीपों में ढाला

जगमग हो मावस कातिक की
सबकी खातिर हो दीवाली
श्री पहुँचें सबके घर-द्वारे
कहीं न बाकी हो कंगाली
गायें मंगलगीत सभी जन
खील-बताशे हो खुशहाली

चाहें छप्पन भोग नहीं हों
हो पर सबके लिए निवाला

दीवाली तो कई मन चुकीं
बाकी आना रामराज्य पर
महलों पर तो रामकृपा है
बचे अभी दीनों के हैं घर
अबकी ऐसी दीवाली हो
जो ले सबके घर का तम हर

सभी वर्ग के लिए खुशी हो
हटे सुखों से दुख का ताला। 

10) बोये नये अभाव

प्रगति पंथ दस्तक दे कहता
खोलो काल किवाड़

जहाँ कभी सौभाग्य सदृश था
मौसम का बदलाव
वहीं आज बदलावों ने हैं
बोये नये अभाव

सभी जानते मगर न रुकता
प्रकृति संग खिलवाड़

कोयल की थी तान जहाँ पर
गौरैयों का वास
पशु-खग नर सब की खातिर ही
था समुचित आवास

वहीं नीड़ को टॉवर, चिमनी
नित हैं रहे उजाड़

स्वार्थ सिद्धि की परिभाषायें
बुनने लगीं तनाव
एक घाव भरने को हमने
दिये अनेकों घाव

पाकर के परमाणु शत्तिफ़ को
सदी रही चिंघाड़। 

11) बाबूजी

दफ्तर के चक्कर काट-काट
टेंशन में रहते बाबूजी

है पता नहीं कुछ फाइल का
हो गए रिटायर, साल हुआ
जो हाथ न आये विक्रम के
पेंशन ऐसा बैताल हुआ

नित नये अड़ंगे, दुतकारें
क्या-क्या ना सहते बाबूजी

जो सदा सिखायी खुद्दारी
उससे अब मुँह मोड़ें कैसे
है बिना घूस के हल मुश्किल
लेकिन सत्पथ छोड़ें कैसे

नख से शिख तक है भ्रष्ट तंत्र
रो-रो कर कहते बाबूजी

हैं ब्लैक होल से ‘ब्लॉक’ बने
अर्जियाँ जहाँ पर सिसक रहीं
कुर्सी-कुर्सी का चक्रवात
हैं गोल-गोल बस भटक रहीं

है दुक्ख डायनामाइट-सा
पर्वत-सा ढहते बाबूजी

12) घाव हरा है

राजमार्ग पर सपने सजते
पगडंडी का घाव हरा है

झोपड़पट्टी छोड़ ख्वाब में
जिसने हैं मीनारें देखीं
चटक-मटक वाले कपड़ों सँग
जिसने मोटर कारें देखीं

वह क्या जाने पकी फसल में
कितना भू ने नेह भरा है


जिस बरगद ने छाया दी थी
जिस पनघट ने प्यास बुझायी
जिस डाली ने उसे झुलाया
जिस घर ने पहचान दिलायी

आज यही सब उसकी खातिर
केवल बचपन का कपड़ा है

माना की वह भूल गया है
नहीं उसे पर भूला आँगन
अब भी उसकी एक झलक से
तन-मन हो जाता है रौशन

बचपन की सुधियों से सज्जित
अब भी वह छोटा कमरा है

13) वृद्धाश्रम में माँ

वृद्धाश्रम में माँ बेटे की
राह देखती

है सूनी आँखों में धुँधली-सी
अभिलाषा
पुत्र व्यस्त हैं, कहकर देती
रोज दिलासा

नहीं मानती बिसराएँगे
नहीं बिसरती

नहीं सीख पाई है मतलब
खुद से रखना
जिसे जना है, उसे समझती
केवल अपना

हुई अनुपयोगी ये बातें
नहीं समझती

अँगुल-अँगुल सींचा जिसने
दूध पिलाकर
उसे कहाँ माँ कहते हैं बेटे
अब आकर

कँपते हाथों भोज्य पकाती, 
बरतन मँजती। 

14) चकित हो रहा बबूल

गाँवों के भी मन-मन अब
उग आये हैं शूल
देख चकित हो रहा बबूल

जहाँ कभी थीं
हरसिंगार की, टेसू की बातें
चंपा, बेली के सँग कटतीं
थीं प्यारी रातें

वहीं आज बातों में खिलते
हैं गूलर के फूल

जिन आँखों की जेबों में कल
सपने बसते थे
जो रिश्तों को हीरे-मोती-स्वर्ण
समझते थे

वहीं प्रेम की परिभाषा अब
फाँक रही है धूल

कई पीढ़ियाँ जहाँ साथ में
पलतीं, बढ़तीं थीं
बूढ़े बरगद की छाया में
सपने गढ़तीं थीं

वहीं पिता से बेटा कर्जा
करने लगा वसूल।

15) समाधान के गीत

हरे-भरे जीवन के पत्ते
हुये जा रहे पीत
आओ हम सब मिलकर गायें
समाधान के गीत

अँधियारे पर कलम चलाकर
सूरज नया उगायें
उम्मीदों के पंखों को
विस्तृत आकाश थमायें

चलो हाय-तौबा की, डर की
आज गिरायें भीत

बाजारों की धड़कन में हम
फिर से गाँव भरें
पूँजीवादी जड़ें काटकर
फिर समभाव भरें

बँटे हुए आँगन में बोयें
आओ फिर से प्रीत

धूप नहीं लेने देते जो
बरगद के साये
उन्हीं बरगदों की जड़ में हम
जल देते आये

युगों-युगों के इस शोषण की
आओ बदलें रीत। 

Hindi Navgeet of Garima Saxena

2 टिप्‍पणियां:

  1. गरिमा जी पिछले कुछ समय से बेहतरीन और ज़रूरी गीत रच रही हैं। इनकी रचनाओं में इनका समय मुखर होकर बोलता है। इनका चिंतन फ़लक भी बहुत विस्तृत है। इन्हें उजले साहित्यिक भविष्य की कामनाएँ।

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  2. बहुत सुंदर रचनायें लिखी हैं आपने..

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