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सोमवार, 10 अगस्त 2020

मयंक श्रीवास्तव और उनके दस गीत — अवनीश सिंह चौहान

मयंक श्रीवास्तव

हिन्दी की प्रतिष्ठित साप्ताहिक पत्रिका— 'धर्मयुग' और इसके यशस्वी सम्पादक आ. धर्मवीर भारती से साहित्य जगत भलीभाँति परिचित है। कहते हैं कि इस पत्रिका में रचनाओं के प्रकाशित होते ही उन दिनों देश-भर में साहित्यिक चर्चाएँ प्रारंभ हो जाया करती थीं। ऐसी ही एक रचना, जिसकी पृष्ठभूमि में भारत-चीन युद्ध (1962) और भारत-पाकिस्तान युद्ध (1965) से उपजी भूख, गरीबी, लाचारी, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार और इनसे पीड़ित करोड़ों भारतीयों की मार्मिक व्यथा-कथा है, 'धर्मयुग' में 13 सितम्बर 1980 को प्रकाशित हुई— "अपनी तो इस मँहगाई में डूब गयी है लुटिया बाबू/ लेकिन कैसे बने तुम्हारे ऊँचे ठाठ मुगलिया बाबू" और देश-भर में इस ग़ज़ल के रचनाकार आ. श्री मयंक श्रीवास्तव की चर्चाएँ होने लगीं। 

ग़ज़ल लिखते-लिखते मयंक जी कब गीत लिखने लगे, यह उतना जरूरी नहीं जितना यह कि अब तक उनके छः गीत संग्रह— 'सूरज दीप धरे' (1975), 'सहमा हुआ घर' (1983), 'इस शहर में आजकल' (1997), 'उँगलियाँ उठती रहें' (2007), 'ठहरा हुआ समय' (2015) और 'समय के पृष्ठ पर' (2019) और एक गीतिका संग्रह— 'रामवती' (2011) प्रकाशित हो चुके हैं। कारण यह है कि उनकी ग़ज़लों में गीत का ही 'परिविस्तार' दिखाई पड़ता है। कहने को तो यह भी कहा जा सकता है कि उनके गीतों में नवगीत का 'परिविस्तार' दिखाई पड़ता है। कुछ भी हो, यह रचनाकार स्वयं ग़ज़ल-गीत-नवगीत आदि के भेद में कभी नहीं पड़ा— जो मन-भाया सो पढ़ लिया, जो मन आया सो लिख लिया। जो भी पढ़ा उससे वह अनुभव-समृद्ध हुए और जो भी लिखा उससे आंचलिकता एवं नगरीयता जैसी विशेषताओं के समन्वय से उदभूत युगीन चेतना उनकी रचनाओं में व्यंजित होती चली गयी। यानी की भावक जिस रूप में उनकी रचनाओं को देखना चाहे, देख ले और अपनी सुविधानुसार उनसे अर्थ ग्रहण कर ले— "जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी" (कवि-कुल कमल बाबा तुलसीदास)। 

उ.प्र. के आगरा जिले की तहसील फिरोजाबाद (अब जिला) के छोटे से गाँव 'ऊंदनी' में 11 अप्रेल 1942 को जन्मे जाने-माने गीतकवि आ. श्री मयंक श्रीवास्तव 1960 से माध्यमिक शिक्षा मंडल, म.प्र., भोपाल में विभिन्न पदों पर कार्य करते हुए दिसंबर 1999 में सहायक सचिव के पद से सेवानिवृत्त हुए। सेवानिवृत्ति के बाद उन्होंने छंदबद्ध कविता को प्रकाशित-प्रशंसित करने के उद्देश्य से भोपाल के साप्ताहिक पत्र 'प्रेसमेन' (2007 से 2009 तक) में समीर श्रीवास्तव के साथ बतौर साहित्य संपादक कार्य किया। उनके कुशल संपादकत्व में इस पत्र ने छंदबद्ध कविता पर केंद्रित कई संग्रहणीय विशेषांक निकाले, जिससे देश में छंदबद्ध कविता का माहौल बनने लगा। 'प्रेसमेन' की तुलना 'धर्मयुग' से होने लगी। जो साहित्यकार 'धर्मयुग' में छप चुके थे, उनको इस पत्र में छपना उतना ही सुखद और गौरवशाली लगने लगा और जो लोग 'धर्मयुग' में छपने से रह गये थे, उन्हें भी इसमें छपकर वैसा ही सुख और संतोष हुआ। ऐसा इसलिए भी हुआ क़ि मयंक जी ने संपादन-कार्य में सदैव अपनी साहित्यिक समझ और समायोजन शक्ति का संतुलित और सार्थक उपयोग किया। वह बड़ी साफगोई से कहते भी हैं— "साहित्य सृजन एवं संपादन मनुष्य और समाज को ध्यान में रखकर किया जाना चाहिए, किसी कुत्सित और मानवताविरोधी विचारधारा को केंद्र में रखकर नहीं।"

वरिष्ठ गीतकार के रूप में महामहिम राज्यपाल (म.प्र.) द्वारा सार्वजनिक रूप से सम्मानित आ. श्री मयंक श्रीवास्तव के रचनाकर्म पर अब तक भोपाल की दो पत्रिकाओं— 'संकल्प रथ' (2015, सं. राम अधीर) एवं 'राग भोपाली' (2016, सं. शैलेंद्र शैली) द्वारा विशेषांक प्रकाशित किये जा चुके हैं। उनकी रचनाधर्मिता पर अन्य पत्रिकाओं— 'अक्षरा', 'गीत गागर', 'मध्य प्रदेश सन्देश', 'पहले-पहल' आदि ने भी कई महत्वपूर्ण आलेख प्रकाशित किये हैं। अपने स्थापना-वर्ष से ही 'साहित्य समीर' पत्रिका (सं. कीर्ति श्रीवास्तव) भी अपने ढ़ंग से उनको अक्सर 'स्पेस' देती रहती है। भोपाल ही नहीं, देश के तमाम साहित्यकार, यथा— देवेंद्र शर्मा 'इंद्र', विद्यानंदन राजीव, दिनेश सिंह (अब सभी कीर्तिशेष), यतीन्द्र नाथ राही, गुलाब सिंह, मधुसूदन साहा, वीरेंद्र आस्तिक, प्रेम शंकर रघुवंशी, सुरेश गौतम, शिव अर्चन, महेश अग्रवाल आदि उनका जिक्र अपने लेखों, संस्मरणों आदि में बड़े स्नेह और सात्विकता के साथ करते रहे, यह भी विदित ही है। कहने का आशय यह कि सहज, सौम्य और शालीन स्वभाव के मयंक जी एक बेहतरीन रचनाकार के रूप में उतने ही प्रतिष्ठित हैं, जितने कि एक कुशल संपादक के रूप में। 

1. कथन में आए होंगे हम

अपनेपन की किरण 
कहीं देखी होगी 
इसके बाद नयन में आए होंगे हम। 

आसमान छूने वालों के चरणों को 
धोया होगा कभी मान के पानी से 
या फिर किसी जोश के उकसाने पर भी 
नहीं किया होगा छल कभी जवानी से 

कहीं देख ली होगी 
अपनी अगुआई 
इसके बाद सदन में आए होंगे हम। 

हमने अपने चाल-चलन की शुचिता को 
शायद खंडित होने नहीं दिया होगा 
असफल होने पर भी कभी सफलता से 
खुद को मंडित होने नहीं दिया होगा 

चलते-फिरते हमको 
परख लिया होगा 
इसके बाद चलन में आए होंगे हम। 

भाग लिया होगा हमने बढ़-चढ़कर के 
जीवन-राग सुनाने वाली टोली में 
जान-बूझकर नहीं कभी बैठे होंगे 
हम दागिल सुख-सुविधाओं की डोली में 

सृजन हमारा 
कुछ तो बोल रहा होगा 
इसके बाद कथन में आए होंगे हम। 

2. आँखों में मायूस हुई

इसीलिए बढ़ गए भाव 
आजाद दलालों के
सिक्के बहुत कीमती हैं 
नकली टकसालों के

समय देखकर आचरणों ने
रंग बदल डाला
हर काला सफेद लगता है
हर सफेद काला

नहीं किसी कुंजी में हल 
मिल रहे सवालों के

आँखों में मायूस हुई
बैठी खुद्दारी है
लोकतंत्र के बिगड़े हुए
चलन पर भारी है 

दीवारों ने छीन लिए 
सुख घर के आलों के

रकम, सियासत, कुर्सी की
दीवार अटूटी है
जब चाहा तब न्याय तंत्र
की अस्मत लूटी है

चरण-चिह्न पुज रहे
राजपथ पर नक्कालों के। 

3. आग लगती जा रही है

आग लगती जा रही है
अन्न-पानी में
और जलसे हो रहे हैं
राजधानी में

रैलियाँ पाबंदियों को
जन्म देती हैं
यातनाएँ आदमी को
बाँध लेती हैं

हो रहे रोड़े बड़े
पैदा रवानी में

खेत में लाशें पड़ी हैं
बन्द है थाना
भव्य भवनों ने नहीं
यह दर्द पहचाना

क्यों बुढ़ापा याद आता
है जवानी में

लोग जो भी इस
ज़माने में बड़े होंगे
हाँ हुजूरी की नुमाइश
में खड़े होंगे

सुख दिखाया जा रहा
केवल कहानी में।

4. मौन है नदी

मुद्दत से मौन है नदी
कब आएगी उफान पर

कसमों के सब्ज बाग की
सारी रंगत निकल गई
कल तक मीठी जुबान थी
तीखेपन में बदल गई

गिरगिटिया रूप देख कर
शंका होती निदान पर

घर पर तैनात पहरुए
घर में ही कर रहे गबन
परजा के भाव पुंज का
चुपके से कर दिया दमन

बैठेगी कल कलावती
संकटबेधी विमान पर

अंतर्मन के मिठास की
सोनजुही खिल नहीं सकी
हम जिसको ढूँढ़ने चले
वह दुनिया मिल नहीं सकी

सपनों की सोनचिरैया
कब जाएगी उड़ान पर। 

5. किंतु राजा कह रहा है

अर्थभेदी शब्द अपने
पास बारंबार आए
किंतु राजा कह रहा है
हम सृजन के गीत गाएँ

हलचलों के साथ में
उन्मादियों के काफिले
संत साधू बेझिझक
उन्मादियों से जा मिले

हार थककर दूर होती
जा रहीं संभावनाएँ

व्यंजना के द्वार पर
बैठे हुए हैं मनचले
बदनियति के स्वामियों
के हो रहे चर्चे भले

कब तलक उपलब्धियों का
आवरण नकली चढ़ाएँ

भावना को शिल्प ने
अपना अभी माना नहीं
वक्त ने अब तक हमारा
दर्द पहचाना नहीं

नासमझ बच्चे नहीं हैं
नाव कागज की चलाएँ।

6. यही डर है

एक अरसे बाद
फिर सहमा हुआ घर है
आदमी गूँगा न बन जाये
यही डर है

याद फिर भूली हुई
आयी कहानी है
एक आदमखोर
मौसम पर जवानी है

हाथ जिसका आदमी के
खून से तर है

सोच पर प्रतिबंध का
पहरा कड़ा होगा
अब बड़े नाख़ून वाला
ही बड़ा होगा

वक्त ने फिर से किया
व्यवहार बर्बर है

पूजना होगा
सभाओं में लुटेरों को
मानना होगा हमें
सूरज अँधेरों को

प्राणहंता आ गया
तूफान सर पर है

कोंपलें तालीम लेकर
जब बड़ी होंगीं
पीढ़ियाँ की पीढ़ियाँ
ठंडी पड़ी होंगी

वर्णमाला का दुखी
हर एक अक्षर है। 

7. बस्ती प्यासों की

अभी-अभी तो मुझे
मिली थी बस्ती प्यासों की
बता रही थी पीर
मुझे जख्मी अहसासों की

लगा कि जैसे अभी
टाल से उठकर आई है
सुंदर सपनों की
महफिल से लुटकर आई है

चेहरा सुना रहा था
मौलिक कथा खटासों की

हाल-चाल पूछा तो वह
कुछ डगमगा गई थी
अधरों पर पल भर को
सूखी हँसी आ गई थी

होती रही शिकार
सियासत के बदमाशों की

इतनी दागी गई
समय की गर्म सलाखों से
सूखा हुआ समंदर
झाँक रहा था आँखों से

नहीं खास बनकर रह पाई
अपने खासों की

सूखी पोखर की माटी-सी
काया लिए हुए
अरसा बीत गया है
इस हालत में जिए हुए

नहीं कर सकी दूर दर्द को
दवा दिलासों की।

8. ऊब गया है मन

हाथों में हर समय
नुकीला पत्थर लगता है
हमें आदमी की छाया से
भी डर लगता है।

ऊब गया है मन
अलगावों की पीड़ा सहते
कुटिल इरादों को
मुट्ठी में बंद किए रहते

जीवन जंगल के भीतर का
तलघर लगता है।

संबंधों का मोलभाव है
खींचातानी है
पहले वाला कहाँ रहा
आँखों में पानी है

रिश्तों वाला सेतु पुराना
जर्जर लगता है

लोग लगे हैं सोने
चाकू रख कर सिरहाने
कविता लिखने वाला
दुनियादारी क्या जाने

हैं ऐसे हालात कि जीना
दूभर लगता है।

9.  जीना मुश्किल

खुली हवा में भी अब जीना
मुश्किल लगता है
हमको हर पल षड्यंत्रों में
शामिल लगता है

जीवन अनुबंधित है
गुब्बारों के धागों से
निकल नहीं पाए अब तक
नारों के आगे से

दाना चुगता हुआ कबूतर
जाहिल लगता है।

आडंबर का मुकुट
पहनकर बने कोई राजा
जिसका खाते हैं
उसका ही बजा रहे बाजा

उल्टा दाँव सिखाता जो भी
काबिल लगता है

शुचिता की अब बात
रह गई केवल कहने की
मर्यादा ने कसम तोड़ दी
हद में रहने की

भटकी हुई हया को सब कुछ
हासिल लगता है।

10. नदी जवानी में

इसकी चर्चा नहीं
तुम्हारी नयी कहानी में
यहाँ हजारों बार लुटी है
नदी जवानी में

चिड़िया बता रही है अपना
दुख रोते-रोते
करते हैं उत्पात शहर के
पढ़े हुए तोते

पगडंडी खो गई सड़क की
आना कानी में

चिमनी के बेरहम धुंए का
इतना अंकुश है
जंगल बनते हुए गाँव से
मौसम भी ख़ुश है

कोयल लगी हुई है
गिद्धों की मेहमानी में

जब अपने ऊपर मडराती
चील दिखाई दी
बूढ़ी इमली की अपराजित
चीख सुनाई दी

लोकधुनें कह रहीं नहीं सुख
रहा किसानी में।

Ten Hindi Lyrics of Mayank Srivastav. His bio-note by Abnish Singh Chauhan

1 टिप्पणी:

  1. आदरणीय मयंक श्रीवास्तव जी, के उत्कृष्ट गीतों के साथ उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व को प्रस्तुत करने के लिए प्रिय अवनीश जी आत्मीय साधुवाद स्वीकारें।
    वरिष्ठ साहित्यकारों की रचनाओं की प्रस्तुति करके आप आज के रचनाकारों के मार्गदर्शन हेतु श्लाघनीय कार्य कर रहे हैं। इस महत्वपूर्ण कार्य की निरन्तरता बनाये रखिये। हार्दिक शुभकामनाएं...����
    - समीर श्रीवास्तव, पुणे

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