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शुक्रवार, 14 जनवरी 2022

कबीरदास : श्रमजीवी-दर्शन की एक प्रस्तावना — वंदना चौबे


शोध आलेख : पूर्वाभास, वर्ष 1, अंक 1, जनवरी 2022

आँखिन की देखी से कागद की लेखी का भरम तोड़ना  

 

‘बिन ठाहर बिसवास’ 
अनल आकासाँ घर किया, मद्धि निरंतर बास
बसुधा  व्योम बिगता रहै, बिन ठाहर बिसवास 

कबीर जब यह कहते हैं तो ध्यान रखना  चाहिए कि यह ‘बिन ठाहर’ क्या है! अनल अकासा’ क्या है! इनकी व्याख्या नाथ और योगियों की परिभ्शा और मान्यताओं के अनुसार होती ही रही है बावजूद इसके यह समझना होगा कि पारंपरिक-वैचारिक मान्यताओं के बाद भी लिखने वाला अपने समय और समाज के द्वंद्व से उपजे अपने आत्मिक-व्यक्तिक संघर्ष की गुज़र को भी लिख रहा होता है।इस गुज़र से गुज़रे बिना रचनाकार के मूल उत्स तक पहुँचना कठिन है।

समाज मे ताकतवर और प्रभुत्वशाली होने के मोटे तौर पर कुछ पुख्ता सामाजिक धारणायें होती है जो असमानता आधारित होती है, जैसे- 

— ज्ञान-बल, प्रबुद्धता या बौद्धिकता का वर्चस्व।

सामंती समाज मे यह ज्ञान धर्माधारित था। धर्म ही ज्ञान और ज्ञानोत्पादन का स्रोत था।बहस-मुबाहिसों और शास्त्रार्थ आदि मे जो मूल रूप से मसले-   मुद्दे उठाए जाते थे वे धर्माधारित दार्शनिक-बौद्धिकता से जुड़े हुए होते थे।उनका व्यवहारवाद भी सीमित और विशेष समुदाय हितों, उनके ज्ञान और उनकी सोच की सीमा तक महदूद होते थे।

— जाति-बल  जो समाज और समुदाय में विश्वास के साथ स्थापित करती है।अस्तित्व और इडेंटिटी देती है।मूल अर्थ मे जाति ज्ञान से भी अधिक गहरे जड़ो मे बसी हुई थी।जाति प्रभुत्व और ताकत आज़माने और नीति-निर्देशन मे बड़ा काम किया करती थी।

— धन-बल तो हर समय-समाज की सचाई है।जाति-जुलाहा कबीर अपनी ज़मीन पर एक श्रमिक थे। बुनकर! खटान का काम! आँख लगाकर बारीक काम करने वाले इस श्रम का स्थान समाज मे गरिमापूर्ण और भरोसे वाला नहीं था। सामंती समाज मे श्रम की जो स्थिति रही उसका वृहत्तर विस्तार औपनिवेशिक और बाद बाज़ारवाद के समय में और कमतर और हीन हुआ। 

— पारंपरिक पारिवारिक पृष्ठभूमि का भी समाज मे अपना महत्व होता है।निर्धन-निर्जात परिवारों की पृष्ठभूमि भी यदि किसी मान्य परंपरा मे आती है तो समाज में उसका एक विशेष स्थान बनता है।

इनमे से किसी भी सामाजिक मापदंड के अनुरूप कबीर किसी बिन्दु, किसी स्थान पर समायोजित नहीं होते।इनमें से कोई आधार कबीर के पास नहीं है।कबीर इनमे से किसी परंपरा पर दावा तो छोड़िए किसी स्थान पर खड़े भी नहीं हो सकते तो वह कौन सा भरोसा..कौन सा विश्वास है जिसके बल पर कबीर इतना बोलते हैं?और इतना तल्ख़ इतने विश्वास के साथ बोलते हैं?वह कौन सी ठहर-ठौर है जहाँ से कबीर अपने समाज को नग्न आँखों से देखने का दावा करते हैं?

वह आधार..वह भरोसा..वह ठौर-ठाहर श्रम और संघर्ष का है।श्रम-संघर्ष की जगह से कबीर अपने समाज के जिस यथार्थ को देखते हैं वह शास्त्रार्थ-परंपरा की जगह से देखना संभव नहीं।घर, मठ और मंदिर मे बैठकर किए  जाने वाले तात्विक-चिंतन और शास्त्रार्थ से श्रम के दर्शन और उससे उपजे दुख और विराग को नहीं समझा जा सकता।श्रम और संघर्ष सबके अपने हो सकते हैं! होते ही हैं लेकिन हमें उस श्रम को समझना होगा जो नितांत दैहिक या भौतिक है! सामाजिक मान्यताओं मे बिलकुल निचले दर्ज़े का माना जाने वाला!जिस पर समाज का सामंती ढाँचा खड़ा है लेकिन इस श्रम की कोई मान्यता नहीं है न ही कोई गरिमा।ऐसी अवस्थिति और काम जिसका कोई विकल्प नहीं, एक वर्ग को जिसे करना ही है,जिसके लिए एक समूचा समुदाय अभिशप्त है।भक्तिकाल के निर्गुण संतो का समुदाय दरअसल मेहनतकश और श्रमशील समुदाय है।निश्चित रूप से तत्कालीन समय मे अनेक धाराएँ और पंथ सक्रिय थे लेकिन उन पंथो से जुड़े निर्गुणियाँ किसी न किसी श्रमजीविता से जुड़े हुए थे।हिन्दी साहित्य के मान्य इतिहासों से इतर थोड़ा उतरकर सोचें तो इन निर्गुणियाँ पंथों ने जीवन-जगत के प्रति जिस तरह की गहरी और तात्विक बातें सूत्र रूप मे कह दी हैं इतनी सहजता-सरलता और स्पष्टता वैदिक-वैष्णव-शिव या शाक्त परम्पराओं नहीं है।यथार्थ और व्यावहारिकता के साथ साथ जीवन- विराग की इतनी ऊँची बातें हमे निर्गुण संतों मे ही दिखाई देती हैं।अकारण नहीं कि यह उनके यहाँ रगड़ खाये खुरदरी ज़मीनी हक़ीक़त से उपजे बयान हैं—
सहज सहज सब ही कहें सहज न चीन्हे कोई 

हमारे समय का एक सरल-सादा कवि त्रिलोचन कहता है—
इधर सचमुच तुम्हारी याद नहीं आई 
झूठ क्या कहूँ/ पूरे दिन मशीन पर खटना
बासे पर आकर पड़ जाना 
और कमाई का हिसाब जोड़ना/ बराबर चित्त उचटना 
इस उस पर मन दौड़ाना
फिर उठकर रोटी करना 
कभी नमक से कभी साग से खाना 
आरर डाल नौकरी है/ यह बिलकुल खोटी है।
इसका कुछ ठीक नहीं आना जाना।
आए दिन की बात है वहाँ टोटा टोटा छोड़ 
और क्या था।
किस दिन क्या बेचा कीना
कमी अपार कमी का ही था अपना कोटा 
नित्य कुआँ खोदना तब कहीं पानी पीना 
धीरज धरो, आज कल करते तब आऊँगा 
जब देखूंगा अपने पर कुछ कर पाऊँगा।

यहाँ इस कविता में कोई अतिरिक्त भावुकता या अतिरेकी विवशता और दुख नहीं है, क्योंकि श्रम से उपजे विचार और भावों के पास इतना अवकाश नहीं होता कि वह आत्मग्रस्त भावुकता के सुविधाजनक दुख बना सके।

श्रम के बल पर ही कबीर के भीतर यह विश्वास पैदा होता है कि वे धन-बल,ज्ञान-बल और जातिगत सत्ता संरचना को चुनौती देते रहे।पूंजीवादी समाज ने दैहिक श्रम को निचले पायदान पर रखकर प्रभु वर्ग को अनियंत्रित लूट का एक वैधानिक रास्ता दे दिया है जिससे काम करने वाला रोज़ दिन खटता रहता है लेकिन श्रम के अनुरूप न उसे परिश्रमिक मिलता है न ही समाज मे वीएच प्रतिष्ठा और स्थान!

पारंपरिक आलोचकों ने कबीर कि कविता को मात्र समाज-सुधारक कविता कहकर उसे एक किस्म से मैनेज कर लेने कि कोशिश की है, वे उसके मर्म तक या तो गए नहीं या जान बूझकर जाना नहीं चाहते। कबीर कि कविता खुद एक बयान है। वह कहती है—
तेरा मेरा मनुवा कैसे इक होई रे
मैं कहता सुरझावन हारी, तू राख्यों अरुझाय रे

कबीर स्पष्ट कहते हैं कि वे जो शास्त्र बल पर, तथाकथित ज्ञान-बल पर, जाति-बल पर या धन-बल पर विद्वान बने हुए हैं उनका ज्ञान कितना खोखला और अधूरा है इसलिए मेरा और उनका मन एक हो ही नहीं पाता।मैं चीजों को जीवन कि जटिल प्रक्रिया से भी सरलतम करके निकालता और समझता हूँ जबकि शास्त्रज्ञ जन उस सहज-ज्ञान को बौद्धिक-विलास के लिए उलझाते जाते हैं।शास्त्रज्ञ और धनी लोग जो श्रम को निचले दर्जे का समझते हैं, दरअसल वे भरे पेट और समाज मे जातिगत आधार पर प्रतिष्ठित लोग हैं अतः उनके पास बौद्धिक विलास का समय है, बौद्धि विलास जैसे ज्ञान और शास्त्र को वे दर्शन के रंग मे लपेटकर जज्ञान का नाम देते हैं। कबीर ऐसे शास्त्र को चुनौती देते हैं— "तू कहता कागद की लेखी/ मैं कहता आंखिन की देखी।"

कबीर को अपने जीवनगत अनुभव पर भरोसा है। उन्हे मनुष्य कि साझा पीड़ा, विषाद, शोषण और दुख कि समझ है। उन्हे मनुष्य के समूहिक शक्ति और प्रतिरोध कि समझ है।वे मनुष्य की समूहिक शक्ति को बिखेरने के शास्त्रीय छद्म को ठीक से समझते हैं।

हमारे समय के कवि आलोक धन्वा कहते हैं—
‘मैं जानता हूँ कुलीनता की हिंसा’

कबीर को समायोजित करने के लिए अनेक कुलीन आलोचक और विद्वानो ने काम किया है, यहाँ तक कि उनकी साखियों की तर्ज़ पर अनेक छद्म साखियाँ रची गयी हैं जिनमे धार्मिक कर्मकांड को खूब बढ़ा चढ़ाकर लिखा ज्ञ है जिससे मूल कबीर हमसे दूर पड़ते जाएँ लेकिन यहाँ फिर इस बात की ओर ध्यान जाना चाहिए कि कबीर के श्रम संबंधी साखियों को ध्यान मे रखते हुए हमे इन छद्म साखियों को कैसे अलगाना चाहिए।

इसी तरह कबीर के गुरु संबंधी विचारों को लेकर भी छद्म पद रचकर संशय को बढ़ावा दिया गया है जिससे मूल कबीर तक हमारी पकड़ न रह सके लेकिन बनारस कि ठसक वाले कबीर की बनारसी भाषा-भाव  और तेवर कबीर को अंततः कबीर बनाती है।डॉ. धर्मवीर ‘कबीर के कुछ और आलोचक’ के अध्याय ‘हिन्दू कबीर की खोज’ में कबीर के आलोचक डॉ. राजदेव सिंह के संदर्भ में लिखते है- "डॉ. राजदेव सिंह कबीर को हिन्दू धर्म से दूर नहीं होने देते।वे लिखते हैं कि वैसे ध्यान देने की बात है कि उनके मन में तीर्थ व्रत, माला, तिलक और जप-तप के लिए कोई प्रतिकूल भाव नहीं था।तीर्थ के प्रति उनकी आस्था को समझने का अवसर हमें अभी मिलेगा। रहा व्रत, माला, तिलक और जप-तप तो इनके विषय में भी वे आस्थाशील थे। उन्होने बार-बार नाम जप तरने की बात कही। तप उनका आदरणीय है" (कबीर के कुछ और आलोचक, 62)।

कबीर दशरथ के बेटे राम में भी अपने राम की झलक देख लेते हैं।..(शासक, जमींदार, राजा) में दीन-प्रतिपालन का गुण इस राम की छवि में दिखा जाता है। (कबीर के कुछ और आलोचक, 62)

डॉ. राजदेव सिंह चिंतन के क्षेत्र में बहुत दूर दूर तक घूमे हैं लेकिन अंत में उन्होने कबीर को वेदांती बनाकर रख दिया।अब वे बुद्ध , महावीर और नानक की प्रभाव छाया से भी दूर हो गए। वे ऐसे हो गए हैं, हिन्दू धर्म के जैसे क्षत्रिय आजकल ब्राह्मणों के जगतगुरूपन में रह गए हैं। (कबीर के कुछ और आलोचक, 62)

आचार्य क्षितिमोहन सेन कहते हैं— "कबीर की आध्यात्मिक क्षुधा एवं आकांक्षा विश्वग्रासी है। वह कुछ भी छोडना नहीं चाहती इसलिए उन्होने हिन्दू, मुसलमान, सूफ़ी, वैष्णव, योगी, प्रभृत्ति सभी साधनाओं को ज़ोर से पकड़ रखा है।" 

इस तरह बड़े-बड़े विद्वानों ने किसी न किसी प्रकार से कबीर को वैष्णवी हिन्दू पंथ कि ओर देखने के तर्क रखे हैं।आलोचक देवीशंकर अवस्थी तो कबीर को सगुण मार्गी साबित कर देते हैं। 
कबीर निर्गुण की उपासना केवल कहते भर हैं; पर करते उपासना सगुण की ही हैं। सिद्धान्त में कबीर निर्गुणोपासक हैं, व्यवहार में नहीं। कहते हैं ऐसा ही आंतरिक विरोध तोल्स्तोय मे भी पाया जाता है। उनके उपदेश, नीति आदि आदर्शों और कलात्मक कृतियों के मध्य सामञ्जस्य की रेखा बैठाना किंचित कठिन है। (भक्ति का संदर्भ, 119) 

इसके बाद देवीशंकर अवस्थी सगुण कितना विस्तृत अर्थ लिए हुए है-इसकी व्याख्या करते हैं जिसमे सभी कुछ समा सकता है।लेकिन इसी विस्तार के साथ वे निर्गुण कि व्याख्या नहीं करते। बस यह कहते हैं कि कबीरर का निर्गुण नकारात्मक नहीं था। इसका मतलब क्या सगुण इतना विस्तृत था कि सब निर्गुण-सगुण उसमे समाहित हो सकता है लेकिन निर्गुण को वे अराजक किस्म का नकारात्मक मानते हैं?

डॉ. धर्मवीर कबीर को अस्मिता मूलक खांचे से बाहर देखते ही हमलावर हो जाते हैं तो सवर्ण आलोचक ‘प्रेम-रस’ के सम्मोहक लेप के माध्यम से धीरे-धीरे कब्र कि तल्खी और तीक्ष्ण तेवर को भोथरा कर अपने चिंतन मे समायोजित करने का प्रयास करते हैं।

कबीर पर स्त्री-विरोध का जो आरोप लगा हुआ है उसे नामवर सिंह कुछ दूसरी तरह से विश्लेषित करते हैं—
मुद्दे की बात यह है कि कबीर जब धर्म के ठेकेदारों को चुनौती देते हैं तो उसका एक महत्वपूर्ण आधार है स्त्री। स्त्री पक्ष से ही वे काज़ी से जिरह करते हैं और पांडे को भी फटकारते हैं। सच तो यह है कि कबीर अक्सर स्त्री की ओर से नहीं स्त्री की तरह बोलते हैं। क्या इसलिए वे जन्म से जुलाहे हैं? समाज मे जुलाहे की वही स्थिति है जो स्त्री की।चाहे इस्लाम हो, चाहे हिन्दू धर्म-दोनों ही जगह स्त्री और शूद्र कि की जगह एक सी है। स्त्री के साथ कबीर के तादात्म्य का बुनियादी कारण यही तो नहीं? (कविता की ज़मीन और ज़मीन की कविता, 53)

सोचना चाहिए क्या स्त्री दुख से कबीर की वाणी का तादात्म्य है? नामवर जी का यह कथन विचारणीय है हालांकि इस पर बहस प्रस्तावित होनी चाहिए।    
  
कबीर का अध्ययन इस खींच-तान से नहीं, ठोस द्वन्द्वात्मक मूल्यांकन से होना चाहिए।कबीर समाज सुधारक नहीं बल्कि विद्रोही कवि है। समाज-सुधार और अध्यात्मिकता  के पारंपरिक चश्मे से हम कबीर की तल्खी, कबीर के दुख और कबीर की चिंताओं की लीपापोती कर देते हैं जबकि आज के पूंजीवादी दौर मे जहां गरीब-अमीर के बीच बढ़ती खाई, सामंतवाद के नए रूप और श्रम का अमानवीय वर्गीकरण के दौर मे कबीर की तल्खी और प्रश्न पूछने का साहस हमारे लिए बहुत ज़रूरी है।

कबीर अपने मूल मे शास्त्रज्ञों के आडंबरों के समानान्तर जनमानस के अनुभव आधारित मुखर ज्ञान को सामने रखते हैं, उसे प्रस्तावित करते हैं। इसी आधार पर वे श्रमशील जनता के पक्ष मे खड़े होकर सामंती-पूंजीवादी समाज की आलोचना भी करते हैं।

संदर्भ :
1. द्विवेदी, हजारीप्रसाद, कबीर, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2019
2. चतुर्वेदी, आचार्य परशुराम, संत काव्य, किताब महल, इलाहाबाद, 1981  
3. अग्रवाल, पुरुषोत्तम, अकथ कहानी प्रेम की : कबीर की कविता और उनका समय, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2009  
4. हाली, जॉन स्ट्रेट्न, भक्ति के तीन स्वर: मीराँ, सूर, कबीर, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2019  
5. पाण्डेय, मैनेजर, भक्ति आंदोलन और सूर का काव्य, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2001 
6. गुप्त, माताप्रसाद (सं), कबीर ग्रंथावली, साहित्य भवन, इलाहाबाद, 1985 
7. भारती, डॉ. धर्मवीर, कबीर के आलोचक, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2004
8. भारती, डॉ. धर्मवीर, कबीर के कुछ और आलोचक, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2002
9. अवस्थी,  देवीशंकर, भक्ति का संदर्भ, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 1997 
10.  सिंह, नामवर, कविता की ज़मीन और ज़मीन की कविता, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2010 

लेखिका :
डॉ वंदना चौबे आर्य महिला पी.जी. कॉलेज (BHU), चेतगंज, वाराणसी में सहायक आचार्य (हिन्दी विभाग) के पद पर कार्यरत हैं। ईमेल : jnuvandana@gmail.com
डानलोड पीडीएफ

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