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शुक्रवार, 16 फ़रवरी 2024

पुस्तक चर्चा : सभ्यता के अपकर्ष का प्रतिवाद : द्रौपदी — डॉ अभिजीत सिंह

समीक्षित पुस्तक : द्रौपदी
रचनाकार : मृत्युंजय कुमार सिंह
प्रकाशन : वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली 
वर्ष : 2022, पृष्ठ : 86, मूल्य : रु 195/-

प्रख्यात रूसी चिंतक मिख़ाइल बाख्तिन का मानना था कि हम महाकाव्यों के पास नतमस्तक होकर ही जा सकते हैं, ना की आलोचनात्मक होकर । कई मायनों में यह कथन ठीक भी है, लेकिन जब बात 'महाभारत' जैसे महाकाव्य की हो तो इस अप्रोच का वहां बदल जाना स्वाभाविक है । भारतीय साहित्य का एक ऐसा महाकाव्य जिसके एक एक पात्र और प्रसंग पर न जाने कितने आख्यानों और काव्यों की रचना हुई है । कहना न होगा कि इन आख्यानों और काव्यों का प्रसार सिर्फ भारतीय भाषाओं तक ना होकर विश्व साहित्य समुदाय तक हुआ । इसी परंपरा में एक नया अध्याय जोड़ने का काम करते हैं कोलकाता के ख्यातिलब्ध कवि और उपन्यासकार मृत्युंजय कुमार सिंह । वर्ष 2022 में मृत्युंजय जी का एक खंडकाव्य प्रकाशित होता है - 'द्रौपदी' । 'द्रौपदी' को पढ़ने से पहले जरूरी होता है उसकी भूमिका को ध्यान से पढ़ना । अमूमन हम पाते हैं कि लेखक (कवि या कहानीकार) अपने पुस्तकों की भूमिका परिचयात्मक ही रखते हैं । बहुत कम ही ऐसा देखने को मिलता है कि भूमिका में पुस्तक को न सिर्फ पढ़ने को प्रेरित किया गया हो बल्कि उसके विविध मार्गी आयाम और संभावनाओं की ओर भी संकेत किए जाते हैं । इस पुस्तक से पहले इसकी भूमिका आकर्षित करती है, अज्ञेय के उपन्यास 'शेखर : एक जीवनी' या पंत के 'पल्लव' की भूमिकाओं की याद हो आती है । साफ साफ पता चलता है कि यह खंडकाव्य 'प्रबल मनोवेगों के स्वच्छंद प्रवाह' से आगे की यात्रा तय करता है । अभी कुछ महीने पहले ही एक साहित्यिक पत्रिका को दिए अपने साक्षात्कार में मृत्युंजय जी ने महाभारत की विविध कथाओं की प्रासंगिकता पर टिप्पणी की थी । उनका मानना था कि मिथकीय कथाओं में व्याख्या की अनंत संभावनाएं होती हैं ‌। इसलिए उनके पात्रों, परिस्थितियों, घटनाओं आदि की प्रासंगिकता पर संदेह नहीं किया जा सकता ‌। ऐसे में जब वह द्रौपदी जैसे बहुआयामी चरित्र का चयन अपने खंडकाव्य के लिए करते हैं तो इसमें संदेह नहीं कि वे उसकी कालातीत व्याख्या की संभावनाओं को साथ लेकर चलते हैं।

'द्रौपदी' जैसे खंड काव्य में सिर्फ नारी चेतना की प्रतिध्वनि सुनाई पड़ती है - ऐसा सोचना इस खंड काव्य की बहुआयामी संभावनाओं को सीमित करके देखने जैसा होगा ।  किंतु नारी चेतना का इस पुस्तक में प्रधान्य है, इसे अस्वीकार भी नहीं किया जा सकता । यदि हम इस काव्य में प्रथम दृष्टया नारी चेतना पर भी दृष्टिपात करें तो स्पष्ट तौर पर देख सकेंगे की कवि अपनी 'द्रौपदी' को एकल नारी चरित्र के रूप में न देखकर संपूर्ण नारी जाति के प्रतिनिधि के रूप में देखता है । कवि जब यह कह रहा होता है कि -  अपकर्ष का प्रतिवाद वह / नारी के हित की शिरोमणि ।' - तो 'अपकर्ष का प्रतिवाद' कह कर ही कवि स्पष्ट कर देना चाहता है कि इस खंडकाव्य की 'द्रौपदी' उन असंख्य अपमानित क्षणों का प्रतिवाद बन कर आई है, जो हजारों वर्षों से नारी इतिहास का काला सच रहा है।

अपने आसपास के परिवेश में मिसफिट होना और अपनी विरल चाल ढाल से लोगों को तथाकथित तौर पर असहज करना तो हमेशा से उन व्यक्तित्वों का मूल चरित्र रहा है, जिन्हें हम बाद में युग परिवर्तन का कारक मानते आए हैं । कुछ कुछ वैसी ही नियति द्रौपदी की भी रही -  'राजा के अंतः पुर के / सब लोग थोड़े खिन्न थे / श्यामवर्णी दुहिता के / गुण सारे थोड़े भिन्न थे ।' जिस श्यामवर्णी दुहिता के भिन्न गुणों से अंत:पुर के वासी खिन्न थे, वह क्या एकबारगी सिद्धार्थ का स्मरण नहीं कराती ? सिद्धार्थ के ढंग से भी तो समूचा राज परिवेश चिंतित था । 

इस खंडकाव्य में कवि की एक खासियत रही है कि कथा क्रम में वह एक ऐसा रिक्त स्थान छोड़ देता है, जहां से एक अन्य कथा के उद्घोष की संभावना बनती है । कवि की एक पंक्ति है कि -  'वह कृष्ण जो था कृष्णा का / क्या वह मात्र सखा था ?/ या फिर प्रेम पहेली बन कर / पहली बार जगा था ।' - यह पंक्तियां कथा क्रम में वही रिक्त स्थान हैं । अब यह आलोचक पर निर्भर करता है कि वह कथाक्रम से विरत हो इस ओर नई राह ढूंढने निकलता है या फिर वह इसे कवि की संभावनाओं के हिस्से छोड़कर कथाक्रम के विकास की दिशा में बढ़ता है । कविताई में इस तरह की परिपक्वता दुर्लभ होती है। 

मिथकों की एक खासियत होती है कि इनकी उपयोगिता सर्वकालिक और बहुआयामी होती है । यानी आप ऐसे समझिए कि रामायण और महाभारत - यह दो ग्रंथ ऐसे हैं जिन पर न जाने कितनी पुस्तकें लिखी गई हैं और इन कथाओं के आधार पर अथवा इन से प्रेरित होकर न जाने कितनी रचनाएं अस्तित्व में आई ‌- सिर्फ हिंदी में ही नहीं कई भाषाओं में । जाहिर है सभी रचनाएं एक दूसरे की अनुकृति तो होंगी नहीं । हर रचनाकार ने इन कथाओं के विविध पात्रों और प्रसंगों आदि को उठाया और उसे अपने नज़रिए से एक नए रूप और अर्थ में पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया । इसी बात को अज्ञेय के शब्दों में समझें तो मिथकीय कथाओं पर रचित रचनाओं की बहुधर्मिता और स्पष्ट रूप में हमारे सामने आ सकेगी । अज्ञेय अपने एक निबंध 'साहित्य में मिथक' में लिखते हैं कि - 'मिथक एक आदिम शक्ति का स्रोत है । कभी वह धर्म और मत- संप्रदाय के काम आता है और धर्म में आस्था न रहने पर भी संस्कृति के, समाज के और व्यक्ति के काम आ सकता है ।' यानी जब मृत्युंजय कुमार सिंह की 'द्रौपदी' के संबंध में बात करें तो महाभारत के किसी भी प्रकरण या पात्र से संबद्ध कथा को धर्म से ज्यादा संस्कृति और समाज के संदर्भ में देखने समझने की आवश्यकता है और कहना न होगा कि कवि की चेतना में महाकाव्य का धर्म पक्ष उतना नहीं रहा है जितना की संस्कृति पक्ष । यही कारण है कि 'द्रौपदी' खंडकाव्य सिर्फ 'द्रौपदी' या एक नारी की, उसकी व्यथा की बात नहीं करता । बल्कि उसके ब्याज से यह खंडकाव्य व्यक्ति सत्ता के मनोविज्ञान पर और उसके सोचने के विशिष्ट फॉर्मेट पर भी बात करता है । द्रौपदी को पांचों भाइयों में गलतफहमी के कारण बांट देने की कथा से इतर उसके पीछे के मनोविज्ञान की ओर इशारा करती इन पंक्तियों का तर्क किसी गलतफहमी के तर्क से ज्यादा प्रामाणिक लगता है  - 'उसकी सास को यह भय था / पुत्रों में फूट ना पड़ जाए / उसके रूप के आकर्षण से / कतिपय द्वेष न बढ़ जाए।'

हम पहले भी बातें कर आए हैं कि मिथकों में स्टीरियोटाइप व्याख्या से इतर एक स्वच्छंद व्याख्या की संभावनाएं होती हैं । यह व्याख्याएं मिथकीय पात्रों एवं परिस्थितियों की गहरी समझ से ही उपजती हैं, अन्यथा भारत जैसे धार्मिक तौर पर संवेदनशील परिवेश में मिथकों की अतार्किक व्याख्याएं लोक द्वेष का कारण सिद्ध हो सकती हैं - यह निस्संदेह है । ऐसे में द्रौपदी के चीर हरण के प्रसंग में द्रोणाचार्य (जो पांडवों और कौरवों के गुरु भी थे) का मौन एक अलग ही मनोदशा की ओर इंगित करता है - 'द्रोण की गुरुता में भी था / अहंकार एक भारी सा / द्रुपद के हाथों अपमानित / प्रतिशोध ही संचारी था ।' वैसे गुरु दक्षिणा के तौर पर द्रोण ने द्रुपद को बंदी बनाकर अपने अपमान का प्रतिशोध ले तो लिया था, किंतु इसमें दो राय नहीं कि व्याख्या की संभावनाओं से ओतप्रोत यह घटनाएं मानव चरित्र या मनोविज्ञान जो भी कहें - उसके विविध रंगी विश्लेषण को प्रेरित तो करती ही हैं।

'द्रौपदी' खंड काव्य का कथ्य विषय और विमर्श दोनों ही मामलों में बहुआयामी है । यह कथ्य उस समाज की वास्तविकता पर बहस करने को प्रेरित करता है, जिस समाज में बड़े से बड़ा महायोद्धा और राजा अपनी माता के नाम से जाना जाता हो । देवकीनंदन, गंगा पुत्र, कौन्तेय, गांधारी नंदन और राधेय किन महापुरुषों के संबोधन थे बताने की आवश्यकता नहीं । फिर ऐसे समाज में जब कवि नारी का यह चित्र रखता है कि - 'सत्यवती हो, कुंती हो या / अंधी बेबस गांधारी / सब पुरुषों की संपत्ति है / इनमें कोई नहीं नारी ।' - तो एक तरफ संपूर्ण नारी जाति की पीड़ा तो व्यक्त होती ही है । किंतु उसी सिलसिले में जब यह पंक्तियां जुड़ती हैं कि जो पांडव अपनी माता के नाम से कौन्तेय भी कहलाते थे - 'उन्हीं पांडवों ने पत्नी को / दांव लगाने से पहले / लेश मात्र भी नहीं सोचा यह / घाव लगाने से पहले ।' तो पितृसत्ता कि वह परतें अनावृत होती हैं, जिसकी प्राथमिकताओं में स्त्री कभी रही ही नहीं और यहीं से स्त्री सत्ता के अस्तित्व को लेकर विमर्श के नए द्वार खुलते दिखाई देते हैं ।  आगे चलकर भी यदि इस पितृसत्तात्मक समाज में नारी की स्थिति का अवलोकन किया जाए तो उस परिप्रेक्ष्य में भी यह खंडकाव्य 'द्रौपदी' के ब्याज से ऐसे प्रश्नों को उठाता है, जिन्हें राजनीति और कूटनीति जैसे शब्दों तले दबा दिया गया और मानव समाज ने कभी उन प्रश्नों पर चर्चा की कोई आवश्यकता ही नहीं समझी, मानो जो हुआ उसका कभी कोई दूसरा पक्ष हो ही नहीं सकता ‌। राजनीतिक संधियों और राज्य विस्तार के नाम पर प्रत्येक राजकुमारों के एकाधिक विवाह हुए और कहना न होगा कि इन वैवाहिक संबंधों की नींव पर एक तरफ का साम्राज्य विस्तार हो रहा था, तो दूसरी तरफ कहीं ना कहीं एक नारी के अधिकारों का बंटवारा भी हो रहा था । यानी इसे यूं समझिए कि एक समाज जो पुरुष के एकाधिक विवाह को कूटनीति का मूलम्मा चढ़ाकर जस्टिफाई करता है, तो वही एक स्त्री के एकाधिक पुरुषों से संबंध को न सिर्फ कुत्सित नजरों से देखता है, बल्कि उसे वैश्या भी कहता है । इस खंडकाव्य में द्रौपदी जब यह कहती है कि - 'मुझे ब्याहता रख संग में / सब ने रास रचाया / और उनके सम्मान में मैंने / सब कुछ गले लगाया ।' तो वह पितृसत्तात्मक समाज में पुरुषों को मिलने वाली लिबर्टी पर कटाक्ष कर रही होती है । यहां कवि भारतीय समाज के उस खोखले पक्ष को लोकेट कर पाने में सफल होता है, जहां लिबर्टी नारी के लिए व्यभिचार का पर्याय बन जाती है और पुरुष के लिए सहज संबंध । दरअसल 'द्रौपदी' यहां एक ऐसी सभ्यता के प्रतिरोध में खड़ी होती है, जहां नारी मात्र उपभोग की वस्तु है । वह एक पुरुष के पौरुष को तुष्ट करने का माध्यम है, वह तमाम राजनीतिक संधियों में आधार तैयार करने का साधन भर है । इसीलिए कवि यह कहने से चुकता नहीं की - 'होड़ लगी थी लोगों में जब / राज पाट के लिप्सा की / प्रजा की छाती को दल कर / नारी भोग अभीप्सा की।'

'द्रौपदी' खंडकाव्य में कवि की काव्य दृष्टि सिर्फ द्रौपदी (एक नारी) तक या उसके संघर्षों तक ही सीमित नहीं रह गई है, यह काव्य दृष्टि उस हाशिए के समाज की बात भी करती है जो हमेशा से केंद्र की कृपा दृष्टि से वंचित रहा है । वह केंद्र के स्वार्थों के निमित्त उपयोग तो लाया जाता रहा है, किंतु अंततः वह अपने सभी प्राप्यों  एवं अधिकारों से वंचित ही रहा । इस संदर्भ में कुछ पंक्तियां ध्यातव्य हैं- 
1. एक निषादिन और उसके / पुत्र पांच को बलि चढ़ा / लक्षागृह की अग्नि से जब / भागे पांडव जान बचा।
2.  याद करो कटे थे कितने / एकलव्यों के दक्ष अंगूठे।
3. रहकर निपट अकेले जिसने / जना घटोत्कच बड़ा किया / बिना द्रोण जैसे गुरु के ही / योद्धा ऐसा खड़ा किया।
4. षड्यंत्र को भी तुम लोगों ने / धर्म का जामा पहनाकर / वध किया है जाने कितनों का / नीति के नाम पर बहला कर।

यह सभी पंक्तियां उन अलग-अलग प्रसंगों की ओर संकेत करती हैं, जहां कभी पांडवों की श्रेष्ठता को कायम रखने के लिए, तो कभी उनके परिवार के रक्षार्थ - अलग-अलग लोगों की आहुति ली गई । जहां पांडवों ने कभी कृष्ण, कभी द्रोण, तो कभी विदुर की सहायता से छल पूर्वक, बलपूर्वक और कूटनीति पूर्वक विजय प्राप्त की या पांडवों की हेतु सिद्धि के लिए कईयों को त्याग और बलिदान देना पड़ा । जाहिर है मैथिलीशरण गुप्त की कैकेई की तरह ही इस खंडकाव्य का उद्गाता भी महाभारत के उपेक्षित एवं तिरस्कृत पात्रों के साथ भी न्याय करने एवं उन्हें संवेदनशील दृष्टि से देखने का आग्रही है । इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह पंक्तियां हैं - 'जनजाति की उस हिडिंबा में / कितनी कुलीनता भारी थी / कुरु वंश की नारी के समक्ष / कितनी समर्थ वह नारी थी ।' जहां हिडिंबा के लिए लोक प्रचलित शब्द 'राक्षसी' के स्थान पर कवि 'जनजाति' शब्द का प्रयोग करता है, जो इस प्रसंग को मिथकीयता से ऐतिहासिकता की ओर मोड़ देता है । आलेख के आरंभ में ही इस खंडकाव्य की महती भूमिका (पुरोवाक्) की चर्चा की गई थी । इसी पुरोवाक् में रचनाकार व्यक्त करते हैं कि - 'किसी भी लिखित साहित्य या इतिहास की सांस्कृतिक महत्ता उसकी लौकिकता से जुड़ी होती है ।' जाहिर है कवि ने इस सत्य को चेतना के सबसे गहरे स्तर तक आत्मसात किया और वहीं से 'द्रौपदी' के 'लौकिक सत्य' का प्रस्फुटन होता है और वह 'पारलौकिक तत्वों का प्रतीक चिन्ह' न बनकर पितृसत्तात्मक समाज में 'नारी उत्पीड़न का प्रतिबिंब' बन कर सामने आती है, जो स्पष्ट रूप में उसे कहीं ज्यादा सामाजिक सार्थकता प्रदान करता है और कहना न होगा कि यह सार्थकता ही इस खंडकाव्य और इस चरित्र को सर्वकालिक सत्य के रूप में स्थापित करता है।


समीक्षक : 
'काशी बसै जुलाहा एक', 'ताकि तुम सुन सको' जैसी महत्वपूर्ण पुस्तकों के लेखक डॉ अभिजीत सिंह हिंदी विभाग, हिंदी विश्वविद्यालय, हावड़ा, पश्चिम बंगाल में सहायक आचार्य के पद पर कार्यरत हैं।

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