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गुरुवार, 21 जून 2012

ब्रजभूषण सिंह गौतम 'अनुराग' और उनके दो नवगीत — अवनीश सिंह चौहान

ब्रजभूषण सिंह गौतम 'अनुराग'

मुरादाबाद में जब भी गीत-नवगीत की बात की जाती है तो तीन बड़े नाम चर्चा में आते हैं- श्री शचीन्द्र भटनागर, श्री ब्रजभूषण सिंह गौतम 'अनुराग'  एवं श्री माहेश्वर तिवारी।  वरिष्ठ साहित्यकार ब्रजभूषण सिंह गौतम 'अनुराग'  जी का साहित्यिक कर्म साहित्य समाज में अपनी विशिष्ट पहचान बनाये हुए है।  'अनुराग' जी का जन्म  ३० जुलाई, १९३३  को  बदायूँ (उ.प्र.) में हुआ। शिक्षा:  एम.ए. (हिन्दी, इतिहास, राजनीतिशास्त्र, अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र), एल.एल.बी.। आपने कई विधाओं में साहित्य सृजन किया है, यथा-  कविता, गीत, ग़ज़ल, दोहे, कहानी, आलेख आदि। आपकी प्रकाशित कृतियाँ-  आँसू, हिन्दुत्व विनाश की ओर, दर्पन मेरे गाँव का (लोक महाकाव्य), चाँदनी (महाकाव्य), धूप आती ही नहीं (ग़ज़ल संग्रह) सोनजुही की गंध, आंगन में सोनपरी (गीत संग्रह) आदि। आपके नवगीत और ग़ज़लों की कई पांडुलिपियाँ प्रकाशन के इंतज़ार में हैं। स्वर्णपदक मैन ऑफ लैटर्स, मैत्रीमान, साहित्यालंकार, साहित्य मनीषी, गीत रत्न, काव्य श्री आदि सम्मानों से अब तक आपको  विभूषित  किया जा चुका है। वर्तमान में आप स्वतंत्र लेखन करते हुई गीत-नवगीत, कविता, समीक्षा आदि से सम्बंधित साहित्यक गतिविधियों में सक्रिय हैं। सम्पर्क:  बी 23, एम0एम0आई0जी0, रामगंगा विहार फेस-1, सोनकपुर स्टेडियम के पास, मुरादाबाद (उ. प्र)। मो.:  ०९८३७४६८८९०। 

चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार
1. सिर्फ छलावा है 

कदम-कदम खानापूरी
चहुँ ओर दिखावा है 
सभी ओर मरुथल 
पानी तो 
सिर्फ छलावा है 

पत्ते नुचे 
टहनियां टूटीं 
कोंपल बची नहीं 
चैती कजरी के 
स्वर मीठे 
मिलते नहीं कहीं 

कलियों की 
मुस्कानों को 
दहशत ने बाँधा है 

बँसवारी की 
घनी छाँव में 
आँखें रोती हैं 
मिलते नहीं 
गुलाबों की 
पाँखों पर मोती हैं 

नए भोर में 
लम्हा -लम्हा 
झरता लावा है 

पंख तितिलियों के 
चिड़ियों के 
और पतंगों के 
गली-गली 
उढ़ते  हैं चिथड़े
मानव अंगों के 

फूलों की लाशें 
ढो-ढो कर 
दुखता काँधा है 

गर्म हवाओं ने 
जब-जब भी
झुलसाये सावन 
बाग़-खेत
खलियान पोखरे 
रेत हुए आँगन 

हमने 
औरों का दुख अपने 
सुख से साधा है 

२. अपराधों के जंगल 

पेट-पीठ मिल 
एक हो रहे 
बीता जीवन सारा 
भूखे थे
पहले ही से 
अब मंहगाई ने मारा 

अपराधों के जंगल हैं 
हैं तस्कर चोर-लुटेरे 
हैं बबूल मुस्कानों के 
घर-खेती-क्यारी घेरे 

उड़द, मूंग, अरहर की खेती 
सूखी 
गया सहारा 

चकिया मौन, अंगीठी गीली 
चूल्हा ठंडा-ठंडा 
सूखी रोटी के लाले हैं 
कैसा माखन-अंडा 

इच्छाएं मैले कपड़े-सी 
मन है 
हारा-हारा

कलुआ के घर में  बीमारी 
चेहरे सभी उदासे 
भूखे मरते पास न कौड़ी 
लायें दवा कहाँ से 

दीनों की 
जिन्दगी को मिली  
कंगाली की कारा 

Two Hindi Poems of Brijbhushan Singh Gautam 'Anurag'

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