पूर्वाभास (www.poorvabhas.in) पर आपका हार्दिक स्वागत है। 11 अक्टूबर 2010 को वरद चतुर्थी/ ललित पंचमी की पावन तिथि पर साहित्य, कला एवं संस्कृति की पत्रिका— पूर्वाभास की यात्रा इंटरनेट पर प्रारम्भ हुई थी। 2012 में पूर्वाभास को मिशीगन-अमेरिका स्थित 'द थिंक क्लब' द्वारा 'बुक ऑफ़ द यीअर अवार्ड' प्रदान किया गया। इस हेतु सुधी पाठकों और साथी रचनाकारों का ह्रदय से आभार।

बुधवार, 11 मार्च 2015

कहानी: गंगाजी के घाट पर - विजय सिंह मीणा

विजय सिंह मीणा

चर्चित कथाकार विजय सिंह मीणा का जन्म 01 जुलाई 1965 को ग्राम- जटवाड़ा, तहसील- महवा, जिला-दौसा, राजस्थान में हुआ। शिक्षा: एम. ए. (हिंदी साहित्य), राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर। आप केन्द्रीय अनुवाद ब्यूरो, नई दिल्ली एवं केंद्रीय हिंदी निदेशालय, नई दिल्ली में अपनी सेवायें दे चुके हैं और वर्त्तमान में उप-निदेशक (राजभाषा) के पद पर विधि कार्य विभाग, विधि एवं न्याय मंत्रालय, शास्त्री भवन, नई दिल्ली में कार्यरत। आपके विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं मे कहानी, कविता व लेख प्रकाशित तथा विभिन्न साहित्यिक व सम-सामयिक विषयों पर आकाशवाणी एवम दूरदर्शन से वार्तायें प्रसारित हो चुकी हैं। प्रकाशन : सिसकियां (कहानी संग्रह)। सम्‍मान: संस्कार सारथी सम्मान 2013। संपर्क: ई-30-एफ, जी- 8 एरिया, वाटिका अपार्टमेट, एम आई जी फ्लेट, मायापुरी , नई दिल्ली 110078। ई-मेल: vijaysinghmeenabcas@gmail.com

चित्र गूगल से साभार 
सुखजी और चिरन्जी दोनों पडौसी थे । दोनों किसान थे । पडौसी होने के नाते दोनों में हल्की‑फुल्की दोस्ती भी थी । चिरन्जी की पत्नी सुगनी गदरायह बदन की सुंदर महिला थी । उम्र यही कोई पेंतीस के आस‑पास । मोटी‑मोटी कजरारी  आंखें , भरे हुए गालों से उसकी उम्र पच्चीस की ही लगती थी । सुखजी की उम्र चालीस की थी और मन ही मन वो सुगनी के सपने देखा करता था । थोड़े दिन की ताक झांक के बाद सुगनी का भी खिंचाव सुखजी की तरफ बढ़ने लगा ।
एक दिन सुखजी ने देखा कि चिरन्जी कहीं गया हुआ है । घर में अकेली सुगनी थी । सुखजी उसके घर पहुच गया । सुगनी दोपहर का खाना बना रही थी । सुखजी को देखकर सुगनी ने मुस्कराते हुए कहा- ''कैसे रास्ता भूल गये इधर का ?''
''चिरन्जी से कोई काम था ।''
सुगनी ने सुखजी से बैठने का आग्रह करते हुए कहा-'' ऐसी क्या बात है ? मुझे भी तो बताओ।''
''कल मैं जयपुर तीज का मेंला देखने जा रहा हूं । तुम दोनों भी चलो तो अच्छा रहेगा।''
मेंहदी रची उंगलियों में फंसा नाचता बेलन एकदम से थम गया । झुका सिर उठा और झटककर बालों की लट सरकाई, फिर सीधे देखकर कहा-'' मैं भी उनसे कई दिन से कह रही हूं।  मेरी भी इच्छा है जयपुर देखने की ।'' सुखजी की आंखों के सामने सुगनी का सलोना - सुहाना मुखड़ा , मेंहदी लगे हाथ और अधखुला वक्ष भाग उसे ओर उन्मत्त बना रहा था । सुगनी का बेलन तनिक थमा और इसी थमाव के साथ चकले पर रोटी फेरने के लिये उगलिया सकुचते हुए चली। हाथों और उंगलियों की यह गति मानो सुगनी के मन की गति का प्रतिबिम्ब हो ।सुगनी ने पानी का लोटा सुखजी के हाथ में पकड़ाया । लोटा पकड़ते हुए सुगनी का स्पर्श सुखजी के तन बदन में आग लगा गया । सुखजी ने उसका हाथ पकड़ कर धीरे से दबा दिया । सुगनी के होंठो पर मुस्कान दोड़ गई । नर और नारी के एकांत से जो भूचाल आता है सुखजी भी उससे अछूता नहीं था ।सुखजी ने उसका हाथ पकड़ लिया । थोड़ा काल्पनिक परन्तु कमनीय प्रतिरोध सुगनी ने किया लेकिन सुखजी की आंखों में वासना का झकोरा अब आंधी का रुप ले चुका था । सुगनी अमरबेल की तरह सुखजी के बदन से लिपट गई । काम के आवेग ने कुछ ही क्षणों में दोनों के बीच की शरीर रुपी दीवार को एक झटके से तोड़ दिया । काम का ज्वार शान्त होते ही सुगनी मुस्कराई। चेहरे पर नटखट्पन झलका, फिर लाज भरी आंखें नीचे झुकाकर धीमें स्वर में कहा-''मैंने अपना सौंदर्य तुम्हें सौंप दिया है । कभी धोखा तो नहीं दोगे।'' कहते कहते सुगनी ने अपना लाजभरा मुख सुखजी की छाती में छिपा लिया ।
''नहीं सुगनी कभी नहीं।''सुखजी ने कशकर सुगनी को अपनी बांहों में भीच लिया ।
अगले दिन सुखजी ने चिरन्जी को तीज का मेंला देखने के लिये राजी कर लिया । सुगनी ने जब चिरन्जी से अनुरोध किया तो वह मान गया । जयपुर में वे तीनों दिनभर दर्शनीय स्थलो को देखते रहे ।सुखजी और सुगनी दोनों कनखियों से एक दूसरे को देखते । जहां भी घूमने जाते सुखजी कुछ ना कुछ लेकर जबर्दस्ती उन दोनों को खिला पिला रहा था । एक जगह सुगनी ने चिरन्जी से कहा-'' देखो वो घाघरा कितना अच्छा है , चलो खरीद लो ।''
'' अरे छोड़ो अभी मैं ज्य़ादा पैसे लेकर नहीं आया , फिर कभी ले लेंगे ।'' चिरन्जी ने कहा ।
उनकी बात सुनकर सुखजी ने कहा - '' पैसे नहीं लाया तो क्या हुआ । मैं किस लिये हूं। चलो सुगनी ले लो उसे ।'' कहते हुए सुखजी ने घाघरा खरीदकर सुगनी को दे दिया । सुगनी प्रफुल्लित हो गई । स्त्री को जब कोई प्रेम से कुछ खरीदकर देता है तब वह बहुत प्रसन्न होती है । वह वस्तु की कीमत के कारण नहीं, अपितु उसके पीछे छिपे प्रेमी ह्रदय , सोहार्द के कारण अत्यन्त प्रिय हो जाती है ।
दिन भर घूमने के बाद वे लोग शाम को वापस गांव आ गये । सुखजी और चिरन्जी में उस दिन के बाद दोस्ती गहरी हो गई । चिरन्जी इन सब बातों से अनभिज्ञ था कि दोनों के बीच क्या चल रहा है । अब तो सुगनी और सुखजी का प्रणय मिलन अबाध गति से कभी खेत में , कभी खलिहान में और कभी घर में चलने लगा । इश्क और मुश्क ज्य़ादा दिन छुपाये नहीं छुपते । गांव के लोगों में भी खुसर‑पुसर होने लगी । इन बातों की भनक धीरे‑ धीरे चिरन्जी के कानों तक भी पहुंची लेकिन उसे विश्वास नहीं हुआ । इससे चिरन्जी के ज़ेहन में अविश्वास की एक छोटी सी रेखा जरूर खिंच गई ।
सुखजी और चिरन्जी के घर के बीच एक छोटी सी दीवार थी । अक्सर सुखजी उस दीवार के पास खड़ा होकर सुगनी से बात करता था । सुगनी उस दीवार पर कपड़े सुखाने और उतारने के बहाने से वहां खड़ी होकर सुखजी का दीदार कर लिया करती थी । चिरन्जी भी अब सतर्क रहने लगा । उसने कई बार सुगनी का पीछा भी किया मगर कभी उन्हें रंगे हाथों नहीं पकड़ सका ।
दिवाली का दिन था । सुबह से ही सुगनी दूध का मावा बनाकर मिठाई बनाने में लगी हुई थी । शाम को लक्ष्मी पूजन के बाद चिरन्जी गांव में घूमने चला गया । पीछे से सुगनी मिठाई देने के लिये दीवार के पास आकर खड़ी हो गई । आहट मिलते ही सुखजी दिवार के पास आकर बातचीत करने लगा । सुगनी ने अपने हाथ की बनी मिठाई सुखजी को खिलाई । दोनों काफ़ी देर तक बातचीत करते रहे । उधर सुगनी के घर में लक्ष्मी पूजन का जो दीपक जल रहा था उसकी लौ से पास में रखे घी के कटोरे ने आग पकड़ ली ।आग ज्य़ादा भभक गई । उससे पूजन का सारा सामान और उसके आगे रखे कुछ रुपये भी जलकर राख हो गये। थोड़ी देर बाद चिरन्जी वापस आया तो उसने देखा कि आग लगी हुई है और सुगनी भी वहां नहीं है । बाहर आकर देखा तो सुगनी दीवार के पास खड़ी है । दीवार के दूसरी तरफ उसने सुखजी को जाते हुए देख लिया था । चिरन्जी का शक अब यकीन में तब्दील हो रहा था । उसने सुगनी का हाथ पकड़ा और घसीटता हुआ घर के आगे ले आया ।
'' बता गंड़कडी क्या कर रही थी तू इतनी देर से दीवार के पास ?''
'' मैं तो कपड़े उतार रही थी ।'' सुगनी ने सहमते हुए कहा ।
''कपड़े उतारने की फुरसत तुझे रात में ही मिलती है । यूं क्यूं नहीं कहती अपने ख़सम से मिल रही थी ।'' कहते कहते चिरन्जी ने कई लातें सुगनी को जमा दी । चिरन्जी उसे घसीटते हुए अंदर घर में ले गया । सुगनी की चोटी पकड़कर उसने घर में जले हुए पूजा के सामान में उसका मुंह रगड़ दिया । सुगनी रोने लगी । ''तुम को ज्य़ादा बहम है तो मुझे कोठी में बंद कर दे । क्यों मेरी जान के पीछे पड़ा है । मैं ऐसी नहीं हूं ।'' सुगनी कहते कहते दहाड़ मारकर रोने लगी ।
''मालजादी धीरे धीरे कौन सुनेगा जोर से रो । तेरा यार तो कम से कम सुन ले । यही तो चाहती है तू । तेरे बहुत आग बरस रही है, अभी ठंडी कर देता हूं तेरी जुवानी को ।'' औरत के साथ मारपीट करने से भय खतम हो जाता है और एक स्थिति ऐसी आती है कि वो सामना करने पर उतारु हो जाती है । यही हाल सुगनी का था । चिरन्जी कई बार हाथ उठा चुका था। आख़िरकार सुगनी सामने पड़ ही गई ।
'' गैबी रोडू , घर के भीतर क्यूं कलेश करे, हिम्मत है तो सब गांव के सामने बता दे । मैं तो सांची हूं, कोई मेरी जूती की भी तो होड़ कर ले । ख़ुद गोबर खातो डोले ,सबकू अपणो जिस्यो ही समझे ।''कहते‑कहते सुगनी खड़ी हो गई । चिरन्जी भी गुस्से से फटा जा रहा था । वो बिना रुके गाली बके जा रहा था । इस शोर शराबे को सुन पडौस से सुखजी भी वहां बीच बचाव करने आ गया ।
'' अरे चिरन्जी , त्यौहार के दिन यह क्या तमाशा कर रखा है ।'' सुनकर चिरन्जी का गुस्सा और भड़क गया । सुखजी से तो सीधे उसने कुछ कहा नहीं ओर सुगनी पर वो गुस्सा उतारने लगा । सुखजी दोनों के बीच खड़ा होकर बीच बचाव करने लगा । चिरन्जी गुस्से की पराकाष्ठा पर था । उसने आव देखा न ताव और सुखजी के हाथ को काट खाया । सुखजी दर्द से तिलमिला उठा ।
'' तू अपना भला चाहता है तो फौरन यहां से भाग जा नहीं तो यह तो मरेगी ही साथ तू भी मेरे हाथ से मारा जायेगा ।'' चिरनजी ने धक्का देते हुए सुखजी को घर से बाहर निकाल दिया। सुखजी देहरी पर खड़ा होकर कहने लगा - '' कोई बात भी तो होगी , क्यों इस बेचारी को मारने पर उतारू हो रहा है। फालतु त्यौहार सामें नाटक कर रखा है ।'' सुखजी ने हाथ पर अंगोछा लपेटते हुए कहा ।
सुखजी को वहां देखकर और सुगनी की तरफदारी करते देख चिरन्जी के कलेजे पर मानो गाज गिर गई  ।बंधे पानी में जैसे पत्थर गिरने से लहरें उठती हैं वैसे ही चिरन्जी के कलेजे में गुस्से की आग धधकने लगी । थोड़ी देर तक तो उसे अपने मष्तिस्क की सनसनाहट और ह्रदय की धड़कनो के आगे और कुछ सुनाई नहीं दिया। फिर मन घबड़ाने लगा, सुगनी की लुभावनी काया अब उसे दम घुटा देने वाली लगने  लगी ।  चिरन्जी का गुस्सा बढ़ता जा रहा था और वो सुखजी को ललकारने लगा -'' तू होता कौन है हमारे बीच आने वाला । यहां क्या तेरी डोकरी नाच रही है जो तू तमासा देखने आया है ।'' इतना कहकर चिरनजी लपक कर सुगनी को पीटने फिर दौड़ा । सुगनी भागकर सुखजी के पीछे आ खड़ी हुई।
''हरामज़ादी इसके आगे‑पीछे क्या होती है, भाग जा इसको लेकर ।''
'' ख़बरदार जो ऐसी बेहुदा बात की तो । बेशर्म कहीं का ।'' कहकर सुखजी अपने घर की ओर चला गया ।
शक का कीड़ा जब एक बार दिमाग में घर कर लेता है तो वह सहज ही नहीं निकलता। चिरन्जी अब हमेंशा सुगनी को शंकित निगाह से देखता । उसकी हर गतिविधि में उसे कुछ गलत ही नज़र आता । कई बार तो वह हाथ में लाठी लेकर अकेले में ही उसे ज़मीन पर मारता । ऐसा लगता था जैसे उसे किसी को जड़ से मिटाना है । गुस्से में उसकी आंखें लाल हो जातीं  और बिना किसी का नाम लिये गाली बकता रहता था ।उसके माथे पर सिमटी लालिमा से यह अंदाज सहज ही लग जाता था कि वह किसी महत्वपूर्ण मुद्दे पर बेहद नाराज़ है और उसका बस चला तो वह किसी भी क्षण अनहोनी को अंजाम दे सकता है । एक दिन तो उसने अपने और सुखजी के घर के बीच बनी दीवार में जोर‑जोर से लाठी मारी । बीच बीच में बड़बड़ाता - '' जिस दिन हत्थे चढ़ गया तो साड़े का लींड़ निकाल दूंगा ।'' सुगनी उसके इस रुप को देखकर सहम जाती । जब वह उसे चुप करवाने की कोशिश करती तो वह जोर‑जोर से घर के आगे कूदता और लाठी को अज़ीब तरीके से हवा में घुमाता । कभी कुट्टी  मशीन के पास रखे घास के गट्ठर में मारता । सुगनी अनसुना कर घर के अंदर चली जाती । इससे चिढ़कर चिरन्जी घर में जाकर सुगनी को पीटने लगता ।
'' मालजादी , अब तो तेरे घी के दिये जल रहे हैं ।'' कहते‑कहते एक दो लात घूंसे भी जमा देता । परेशान हो सुगनी उससे कहती -'' मुझे तो लगता है कोई उपली पराई का चक्कर है । मैं कितने दिनों से कह रही हूं की भौमिया बाबा की सवामणी को करदे लेकिन मेरी कोई सुने तब न ।''
'' मेरे कोई उपली पराई हवा नहीं है । मेरे तो घर की हवा पीछे लगी  है । सवामणी तो मैं जरूर करुंगा लेकिन दोनों में से किसी एक को निपटाकर ।''
'' दोनों कौन?''सुगनी ने सहमकर पूछा ।
'' तू और तेरा वो ख़सम । हरामजादी ऐसे पूछती है जैसे बहुत बड़ी सती सावत्री हो ।''
''मैं अब भी कह रही हूं तू अपने दिल से गलतफ़हमी निकाल दे । तू कह जिसकी सौगन खा जाऊ।'' सुगनी ने समझाते हुए कहा ।
''तो खा जा फिर सुखजी की कशम । उससे प्यारा तो तेरा इस दुनियां में और कोई नहीं  ।'' चिरन्जी ने लगभग उछलते हुए कहा ।
''तूने ऐसा क्या देख लिया मेरा । जिस दिन कुछ देख ले काट कर फेंक देना । मैं ऐसी वैसी नहीं हूं ।मैं किसी पर थूकती भी नहीं । तू ऐसे ही मुझे परेशान करता रहा तो किसी दिन कुआ -झेरा तक लूंगी फिर खूब खुश रहना ।'' कहते कहते सुगनी ने लूगड़ी के पल्लू से मुंह ढक लिया और रोने लगी । सुगनी की बातों का चिरन्जी पर असर होने लगा और वह भी फफक‑फफक कर रोने लगा - '' अरी मेरी मैंया री अब मैं कितका कुआ में पडू । गांव वाले तरह तरह की बातें करते हैं । मेरा तो पुरुषत्व भी शक के घेरे में आ गया ।'' सुनकर सुगनी भी भावुक सी होकर उसके बालों को सहलाने लगी । साथ ही उसे समझा भी रही थी - '' गांव वाले तो हमसे जलते हैं । तू इन ऊलूल‑जुलुल बातों पर ध्यान मत दे ।'' सुगनी की अपनत्व भरी बातों ने चिरन्जी का गुस्सा शांत कर दिया । इसके बाद सुगनी सतर्क रहने लगी । उसने सुखजी से मिलना‑जुलना भी लगभग बंद कर दिया ।
इधर सुखजी को काफ़ी दिनों से सुगनी दिखाई नहीं दी । वह बेचैन हो गया । समझ गया कि चिरन्जी को हमारे बारे में श़क हो गया है । वह  सतर्क रहने लगा । वह सुगनी से मिलने के  मौके की तलाश में था । वह कभी दीवार के पास आकर खांसता तो कभी छत पर जाकर श्रृंगारिक लोकगीत गुनगुनाने लगता । उसके सारे प्रयास निष्फल रहे । सुगनी ने एक बार भी घर से बाहर निकलकर उधर नहीं देखा ।
अगहन का महीना । कटकटाती ठंड़ और रह रह कर चलने वाली शीतलहर ने वातावरण को भयावह बना दिया था । लोग  शाम होते ही ढोरों को भीतर बांधने लग जाते थे । चिरन्जी ने अपने ढोर घर के पिछवाड़े बनी पाटौड़ में बांध , ब्यालू की और हुक्का पीने हरसी की बैठक में चला गया । यहां पर दस पांच लोगों का झुंड़ हमेंशा हुक्का गुड़गुड़ाता रहता है ।यह गांव के बीच में है । गांव में मनोरंजन के साधनों के अभाव में लोग यहीं देर रात तक गप‑शप करते रहते हैं । सुखजी पहले से ही वहां अघाणे पर बैठा था । चिरन्जी को आया देखकर वह वहां से धीरे से खिसक लिया । इस बात का किसी को भी आभास नहीं हुआ । सुखजी जैसे चिरन्जी के घर के आगे से जा रहा था तो उसने देखा की सुगनी ढोरों की पाटौड़ की ओर जा रही थी ।सुबह की बची कुछ बासी रोटी सुगनी  भैंसो को ड़ालने जा रही थी । सुखजी मौके को गवाना नहीं चाहता था । वह दबे पांव पाटौड़ में दाख़िल हो गया । गुफ्फ अंधेरा था । उसे आया देखकर पास ही बधी भैंस की पडिया ने चमककर जोर से लात मारी । लात ज़मीन पर पड़े छोटे से पत्थर के टुकड़े में लगी । टुकड़ा उछल कर तेजी से सुखजी के माथे में जाकर लगा । वह दर्द से बिलबिला उठा- ''अरि मैंया मर गया री ।'' सुखजी ने दर्द से कराहते हुए कहा । सुनकर सुगनी चौंकी - '' कौन है?''
'' मैं हूं सुखजी , हल्ला मत करै ।
'' यहां क्यों आये हो ।'' सुगनी ने फुसफुसाते हुए कहा ।
'' तुमसे मिले बहुत दिन हो गये । अब तुम्हारे बिना रहा नहीं जाता ।'' कहते हुए सुखजी सुगनी की ओर अंधेरे में टटोलता हुआ बढा ।
'' मैं मज़बूर हूं , चिरन्जी को हमारे ऊपर शक हो गया है । बहुत ध्यान रखता है ।अब तुम जाओ वो आता ही होगा ।'' सुगनी ने बांहों में छटपटाते हुए कहा ।
'' चिंता मत कर वो अघाणे पर हुक्का पी रहा है । एक घंटे से पहले नहीं आयेगा ।
चारों ओर भैंसो के पेशाब और गोबर की सडांध थी । बीच बीच में पेशाब करते हुए भैंस अपनी पूंछ फटकारती जिससे पेशाब के छींटों से सुखजी सराबोर हो रहा था । मगर उसे इसकी कोई चिंता नहीं थी । बहुत दिनों के बाद आज उसे सुगनी मिली है । उसे बाहरी दुनिया से क्या लेना देना ।सुगनी की मद भरी लचकती इठलाती काया ज्यों ज्यों सुखजी की ओर बढी त्यों त्यों सुखजी का मनोवेग बढ़ने लगा ।उसे ऐसा लग रहा था मानो सुगनी उनकी सांस के फर्श पर पैर रखती हुई चली आ रही थी। वो बेतहासा सुगनी को चूमें जा रहा था ।
उधर अघाणे पर हरसी ने चिलम उल्टी करते हुए कहा - '' सुखजी तेरी तमाखू रख इस बार , सुना है तू कहीं से देखी तमाखू ले के आया है ।''
इधर उधर देखते हुए पास ही बैठे सोन्या ने कहा कि -'' सुखजी तो कब का घर चला गया । जब चिरन्जी आया था वो तो तभी उठकर चला गया था । लो मेरी तमाखू रखो इसमें।'' सुनकर चिरन्जी के कान खड़े हो गये । अनहोनी की बिजली उसके दिमाग में कोधने लगी । उसके दिमाग में रह रहकर कुछ अनिष्ठ की आशंका होने लगी । थोड़ी देर तो चिरन्जी ने अनमने मन से हुक्के में कश लगायह लेकिन उसके दिमाग में उठल पुठल मच रही थी । उसने उठते हुए कहा -'' तुम लोग हुक्का पीयो , मुझे लगता है शायद ढोर बांधते वक्त़ में पडिया खुली छोड़ आया हूं ।'' कहकर चिरन्जी तेज कदमों से घर की ओर चल दिया । घर के आगे पहुंचकर उसने सुगनी को कोठे में देखा लेकिन बिस्तर खार्ली था ।उसने एक दो आवाज़ भी लगाई । वो आवाज़ सुखजी और सुगनी ने भी सुनी । भैंसों की पाटौड़ के पिछवाड़े में एक खिड़की थी । सुखजी निकलने की फ़िराक में उधर भागा । गलती से उसका पैर भूरी भैंस की गरदन से जा टकराया । भैंस ने जोर से सिर घुमाया तो सुखजी की धोती उसके सींगो में अटक कर खुल गई । धोती को छोड़कर सुखजी पिछवाड़े से फरार हो गया । चिरन्जी आवाज़ लगाते लगाते पाटौड़ की तर्फ आ गया । सुगनी ने बाहर निकलकर कहा -'' क्यों पुकार रहे हो ,सुबह की कुछ बासी रोटी भैंसों को ड़ालने आयी थी ।'' चिरन्जी ने चारो ओर देखा । कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था । वो दोनों वापस घर में आ गये । सुगनी तो सो गई परन्तु उस रात चिरनजी को नींद नहीं आई ।
ब्रहवेला आ गई ।आकाश चिडियों की चहचहाहट से गूंज उठा और सुखजी सुबह मुंह अंधेरे ही रजाई छोड़ भैंसों को सानी करने उठ बैठा ।वहां जाकर देखा तो भूरी भैंस के सींगो में एक धोती अटकी पड़ी है ।चिरन्जी ने उसे निकाला और उलट पलट कर देखने लगा ।मेरी तो यह है नहीं फिर किसकी है यह धोती? सामने खिड़की पर उसकी नज़र पड़ी तो देखा की खिड़की में लगाई घास की टटिया भी टूटी हुई नीचे पड़ी है । उसने देखा की भैंसों के गोबर में भी जूतियो के निसान है । उसका शक धीरे धीरे सुखजी की ओर जाने लगा । उसका दिमाग सांय सांय करने लगा । बेचेनी से वो घर के आगे इधर से उधर घूमने लगा ।उसने निश्चय किया कि इस बात की गहराई से पड़ताल की जाये ।अभी सुगनी से भी इस बारे में कोई बात ना करना ही उचित है । एक बार तो उसके जी में आया कि अभी जाकर सुखजी के हाथ पैर तोड़ दे लेकिन बात फैलने के ड़र से वो चुप हो गया ।उसने धोती उठाई और सीधे हरसी की बैठक पर जा पहुंचा । हरसी सुबह सुबह अघाणा जलाने की तैयारी कर ही रहा था ।
''रास्ते में किसी की धोती गिर गई है, तुम इसे अपने यहां रख लो जिस किसी की हो बता देना ले जायेगा ।'' चिरन्जी ने धोती खाट पर रख दी और जंगल की ओर चला गया । उसने सोचा की हरसी यह धोती सबको दिखायेगा ।वहां यदि पहचान कर किसी ने ले ली तो फिर मैं उसकी खबर लूगा ।
अघाणे पर जो भी हुक्का पीने आता हरसी सभी से पूछ रहा था मगर सभी ने उसे पहचानने से इंकार कर दिया । सुखजी से भी उसने पूछा तो कहने लगा -'' मेरे पास तो कभी ऐसी धोती रही नहीं लेकिन मैंने इसी तरह की धोती बगल वाले गांव के सुरजन के पास जरूर देखी थी ।'' सुखजी बात को उलझाकर दूसरी ओर मोड़ना चाह रहा था ताकि उस पर शक ना जाये । सभी के मना करने पर हरसी ने शाम को धोती चिरन्जी को वापस लोटा दी । उसे देखकर चिरन्जी को गुस्सा आ रहा था ।
इस दिन के बाद जब भी चिरजी के घर के आगे से सुखजी गुजरता तो चिरन्जी उस धोती को लाठी में टांगकर कहता -''थोड़े ही दिन की बात है , जल्दी ही इसे एक ढेड़ का क्फन बना दूंगा । साड़े की वो गत करूंगा कि घरवाले भी पहचानने से इंकार कर देगे ।'' सुखजी सुनता और हसकर आगे बढ़ जाता । वो उससे उलझना नहीं चाहता था । सुखजी का कोई प्रतिरोध ना मिलने पर चिरन्जी का गुस्सा सातवें आसमान पर पहुंच जाता था । बुरी बुरी गाली बकने लगता । धोती को ज़मीन पर ड़लकर उसमें लाठी से वार करता तो कभी उसमें जूते मारता । बिना किसी का नाम लिये हजारो असहनीय गालिया और उसकी सात पुस्तो तक को नहीं छोड़ता था ।
चैत में चलने वाली बहार भी कैसी जादूगरनी है ।एक बार अपने गर्म गर्म सांस छुला दिए कि बूढे बुढे से पेडों पर भी जवानी फूट पड़ी । अपने नरम नरम पत्तो को हिला हिलाकर कशमसाने लगे ।पत्तो के रंग में रंग मिलाकर खेलने वाले तोते उनमें बैठते फिर पांत बनाकर टांय टांय कर उड़ जाते ।इस मौसम में ही सारा गांव अपने पितरों को गंगा स्नान के लिये गया था । दो तीन बसो में भरकर औरतें , मर्द और बच्चे रवाना हुए । रास्ते में एक ढाबे पर चाय पानी के लिये बसे रुकी । चिरन्जी ने उतरकर थोड़े अन्गूर खरीदे और बस में बैठी सुगनी को दिए । सुगनी ने एक दो अन्गूर खाकर कहा कि मुझे तो यह खट्टे लग रहे है तुम्हीं खा लो । उसने वो सीट पर रख दिए ।चिरन्जी लघु शंका के लिये बस से नीचे उतर गया । बस के बगल में ही मोटे मोटे ताजी बेर बिक रहे थे । सुखजी ने बेर खरीदे और उनमें से आधे सबकी नज़र बचाकर खिड़की में होकर सुगनी को दे दिए । बचे बेरो को बस के बाहर खड़ा होकर ख़ुद खाने लगा । चिरन्जी जब वापस आया तो देखा कि सुगनी बड़े चाव से बेर खा रही है । उसकी नज़र बेर खा रहे सुखजी पर भी पड़ी ।उसे समझते देर ना लगी । वो गुस्से से आगबबुला हो गया । फुसफुसाते हुए वो सुगनी को ड़ाटने लगा - ''कुतिया ,तुझे मेरे तो अन्गूर भी खट्टे लगते हैं और अपने यार के बेर भी तुझे कलाकन्द से मीठे लग रहे हैं । तू वापस गांव चल फिर तुझे चखाता हूं इसका मजा ।'' थोड़ी देर बाद ही बस वहां से रवाना हो गई ।
दूर दूर तक फैली गंगा की धारा सूर्य के प्रकाश में चकाचौंध कर देती थी ।स्नान करने वालों के झुंड़ के झुंड़ गंगा में डुबकी लगा रहे थे । सुखजी भी स्नान की तैयारी कर ही रहा था कि अचानक चिरन्जी ने उसके कंधे पर हाथ रखा और कहने लगा - '' अपनी तो पुरानी यारी है , क्यों ना दोनों साथ साथ ही स्नान करें । मुझे अब तुमसे कोई शिकायत नहीं है ।'' सुनकर सुखजी हतप्रभ हो गया । उसे समझ नहीं आ रहा था कि अचानक इसका ह्रदय परिवर्तन कैसे हो गया । चिरन्जी ने उसका हाथ पकड़ा और भीड़ से दूर जाकर गंगा की धार में प्रविष्ट हो गये ।बीच गंगा की धार में पहुंचकर चिरन्जी कहने लगा -'' देख सुखजी अब हम पावन गंगा में खड़े है । यहां खड़े होकर भी यदि कोई झूठ बोलता है तो उसे भुगतना पड़ता है ।'' सुनकर सुखजी ने कहा - '' लेकिन मुझे क्यों बता रहा है तु यह सब ।'' सुखजी ने डुबकी लगाते हुए कहा ।
'' अब तू मुझे सच सच बता दे कि सुगनी से तेरे सम्बन्ध हैं या नहीं ।वो धोती तेरी थी या नहीं ।'' एक ही सांस में चिरन्जी ने अपने दिल का सारा गुबार ऊंड़ेल दिया ।
''तेरा दिमाग तो खराब नहीं हो गया चिरन्जी? कैसी बेहूदी बात कर रहा है ।'' कहकर सुखजी इधर उधर देखने लगा । उसका चेहरा उतर गया था । वो वहां से निकल कर बाहर आने की फ़िराक में था परन्तू चिरन्जी ने कशकर उसका हाथ पकड़ लिया ।
'' आज फैसला यहीं होकर रहेगा । अब तू हां या ना में ज़वाब दे नहीं तो दोनों में से केवल एक ही ज़िंदा बाहर निकलेगा ।'' चिरन्जी का चेहरा तमतमाया हुआ था । उसे देखकर एक बार तो सुखजी के होश उड़ गये लेकिन अपनी हतासा को वो बाहर नहीं आने देना चाह रहा था सो उसने तुरंत कहा - ''तू हीरा में काई लगाना चाहता है । मेरा क्या लेना देना सुगनी से, वो तो कभी तेरी वजह से मैं बोल लिया करता था । '' उसने मना तो कर दिया लेकिन चिरन्जी के दिल का मैंल अभी भी नहीं धुला था ।विगत दिनों में जो उसने पीड़ा झेली है वो उसे अभी भूला नहीं है । उसने फिर एक बार कहा - '' ढेड़ अब भी समय है तेरे पास क्यों गंगा में खड़ा होकर झूठ बोल रहा है ?
   ''मैंने एक बार कह दिया की मैं इस तरह का आदमी नहीं हू। '' कहकर सुखजी बाहर आने लगा परन्तु चिरन्जी ने उसे मजबूती से दबोच लिया। साले आज तू ज़िंदा बच ही नहीं सकता । कहते कहते चिरंजी ने सुखजी की गरदन पर दबाव बढा दिया । दूसरे ही क्षण सुखजी इस दबाव को सहन नहीं कर पाया और बेहोश हो गया । इसी बीच सुगनी भी वहाँ आ गई और बीच बचाव करने लगी । चिरंजी की पकड़ ढीली हो गई और सुखजी उसके हाथ से छूटकर गंगा की धार में बहने लगा । चिरन्जी ने बहते हुए सुखजी को देखा और अगली ही क्षण ना जाने क्या सोचकर उसने तेजी से बहते हुए सुखजी को पकड़ लिया । उसे दोनों हाथो से बाहर निकालने लगा । सुगनी ने भी बाहर निकालने में सहायता की । बाहर निकालकर सुखजी को गंगा की रेत पर लिटा दिया । यह देखकर गांव के स्त्री पुरुषो का सारा झुंड़ सुखजी के इर्द गिर्द जमा हो गया । सुखजी मूर्छ्हित अवस्था में बड़बड़ाने लगा – ‘’ मैं उसी दीवार के पास ही मिलूंगा । वहीं इंतजार करुंगा । मैं तेरे रतनारे नेत्रो को देखे बिना नहीं जी सकता ।‘’ सुखजी के पास खड़ी सुगनी ने अपने घूंघ्ट को थोड़ा उठाया और सुखजी के चेहरे को अपलक देखने लगी । अनायाष ही उसके रतनारे नेत्रो से मोतियो की बूंदे अविरल झरने लगी । अश्रुओ की दो बूंदे सुखजी के ललाट पर जा गिरी और सुखजी की तंद्रा टूट गई ।आँख खुलते ही उसने चारो और देखा ।अंत में उसकी द्रष्टी पीत वर्ण की लूगड़ी से अर्ध ढके सुगनी के रक्ताभ होंठो पर जा टिकी । उन्हें वो अपलक निहारे जा रहा था । भीड़ से दूर एकांत में चिरंजी शून्य आसमान को ताक रहा था ।

A Hindi Story of Vijay Singh Meena

2 टिप्‍पणियां:

आपकी प्रतिक्रियाएँ हमारा संबल: