पूर्वाभास (www.poorvabhas.in) पर आपका हार्दिक स्वागत है। 11 अक्टूबर 2010 को वरद चतुर्थी/ ललित पंचमी की पावन तिथि पर साहित्य, कला एवं संस्कृति की पत्रिका— पूर्वाभास की यात्रा इंटरनेट पर प्रारम्भ हुई थी। 2012 में पूर्वाभास को मिशीगन-अमेरिका स्थित 'द थिंक क्लब' द्वारा 'बुक ऑफ़ द यीअर अवार्ड' प्रदान किया गया। इस हेतु सुधी पाठकों और साथी रचनाकारों का ह्रदय से आभार।

मंगलवार, 3 नवंबर 2015

रवीन्द्रनाथ और महावीर प्रसाद द्विवेदी - भारत यायावर


भारत यायावर

कठोर परिश्रम कर अपने आपको जीवंत बनाये रखने की कला में निपुण एवं वैश्विक ख्याति के श्रेष्ठ रचनाकार भारत यायावर का जन्म आधुनिक झारखंड के हजारीबाग जिले में 29 नवम्बर 1954 को हुआ। 1974 में आपकी पहली रचना प्रकाशित हुई थी, तब से अब तक देश-विदेश की छोटी-बड़ी तमाम पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित।'झेलते हुए' और 'मैं हूँ यहाँ हूँ' (कविता संग्रह), नामवर होने का अर्थ (जीवनी), अमर कथाशिल्पी रेणु, दस्तावेज, नामवर का आलोचना-कर्म (आलोचना) इनकी चर्चित पुस्तकें हैं। इन्होंने हिन्दी के महान लेखक आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी एवं फणीश्वरनाथ रेणु की खोई हुई और दुर्लभ रचनाओं पर लगभग पच्चीस पुस्तकों का संपादन किया है। 'रेणु रचनावली', 'कवि केदारनाथ सिंह', 'आलोचना के रचना-पुरुष: नामवर सिंह' आदि का सम्पादन। रूसी भाषा में इनकी कविताएँ अनूदित। नागार्जुन पुरस्कार (1988), बेनीपुरी पुरस्कार (1993), राधाकृष्ण पुरस्कार (1996), पुश्किन पुरस्कार- मास्को (1997), आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी सम्मान- रायबरेली (2009) से अलंकृत। सम्प्रति: विनोबा भावे विश्वविद्यालय, हजारीबाग के स्नातकोत्तर हिन्दी विभाग में अध्यापन। संपर्क: यशवंत नगर, मार्खम कालेज के निकट, हजारीबाग, झारखण्ड, भारत। यहाँ आपका एक आलेख प्रस्तुत है :


रवीन्द्रनाथ टैगोर
वीन्द्रनाथ का जन्म 1861 ई॰ में हुआ था और महावीर प्रसाद द्विवेदी का 1864 ई॰ में। यह संयोग है कि दोनों वैशाख महीने में अवतरित हुए थे। आचार्य द्विवेदी टैगोर से तीन वर्ष छोटे थे और उनकी मृत्यु 1938 ई॰ में टैगोर के देहावसान के तीन वर्ष पूर्व ही हो गई थी। रवीन्द्रनाथ और आचार्य द्विवेदी दोनों युग पुरुष थे, दोनों ने अपने लेखन के द्वारा युगान्तर प्रस्तुत किया था। भारत के ये दोनों युग-नायक तपस्वी थे। उन्होंने साहित्य को पूज्य भाव से आराधना की तरह लिया था। इन्होंने अपने समय में उभरने वाली प्रतिभाओं का स्वागत किया था और उनके पनपने तथा विकसित करने के लिए अपने स्नेह से सींचा था।

रवीन्द्रनाथ ने अपनी अद्वितीय रचनात्मक प्रतिभा से बंगला साहित्य की लगभग हर विधा को विकसित कर एक प्रतिमान प्रस्तुत किया था। उनकी कविताएँ भावी पीढ़ी के लिए कितनी मानक थी, इसका पता इसी से चलता है कि उन्हें ‘कवि-गुरु’ की उपाधि मिली। कविता में उन्होंने अनेक प्रयोग किए हैं। शैली और शिल्प की इतनी विविधता किसी दूसरे कवि में दिखाई नहीं देती। उन्होंने कविता के अलावा गद्य की अनेक विधाओं में भी विपुल साहित्य की रचना की है। उपन्यास, कहानी, प्रबन्ध, नाटक, शोध, समालोचना, संपादन, अनुवाद, बाल-साहित्य - जिस विधा में भी उन्होंने लेखन किया है, उसका एक कीर्तिमान बना दिया। 
 
महावीर प्रसाद द्विवेदी
 

रवीन्द्रनाथ और आचार्य द्विवेदी के बीच की एक कड़ी हैं - चिन्तामणि घोष। चिन्तामणि घोष लेखक नहीं थे, किन्तु साहित्य के पारखी थे और उत्तर भारत के सबसे बड़े प्रकाशन संस्थान ‘इंडियन प्रेस’ के स्वामी थे। उन्होंने हिन्दी और बंगभाषा की अनेक कृतियों को प्रकाशित किया था। 1900 ई॰ में उन्होंने हिन्दी की ऐतिहासिक महत्त्व की पत्रिका ‘सरस्वती’ का प्रकाशन शुरू किया और 1901 ई॰ में बंगला मासिक ‘प्रवासी’ का। ये दोनों पत्रिकाएँ बाद में दोनों भाषाओं के साहित्य की नियामक बनीं। टैगोर की कहानियाँ और कविताएँ ‘प्रवासी’ में नियमित रूप से छपीं और सबसे पहले ‘सरस्वती’ में उनकी कहानियों के अनुवाद छपें, जिसके द्वारा हिन्दी प्रदेश में टैगोर से लोग परिचित हुए। टैगोर की सर्वाधिक प्रसिद्धि उनके कवि-रूप की है, किन्तु वे अपनी कहानियों के द्वारा ही हिन्दी में सबसे पहले पहचाने गए। मार्च, 1902 ई॰ की ‘सरस्वती’ में आचार्य द्विवेदी द्वारा टैगोर के कहानी-संग्रह ‘गल्प-गुच्छ’ की एक कहानी का रूपान्तर ‘विद्यावल्लभ की विद्वता’ नाम से पहली बार छपा। मार्च, 1903 की ‘सरस्वती’ में ‘पंडित और पंडितानी’ का अनुवाद प्रकाशित हुआ। आचार्य द्विवेदी ने चार-पाँच अन्य कहानियों के अनुवाद भी विभिन्न छद्म नामों से ‘सरस्वती’ में प्रकाशित किए तथा बंगमहिला एवं इण्डियन प्रेस के मैनेजर गिरिजाकुमार घोष से टैगोर की अनेक कहानियों के अनुवाद करवाकर छापे। गिरिजा कुमार घोष तब पार्वतीनन्दन नाम से हिन्दी में लेखन-कार्य करते थे। इण्डियन प्रेस, इलाहाबाद से जब ‘षोडशी’ नामक कहानी-संग्रह छपा, तब उसकी एक कहानी ‘बनावटी नाम’ का स्वयं अनुवाद किया एवं शेष कहानियों के अनुवाद विश्वम्भरनाथ शर्मा कौशिक से करवाये।

आचार्य द्विवेदी बंगला भाषा के जानकार तो थे ही उसकी साहित्यिक विरासत से भी गहराई से परिचित थे। वे रवीन्द्रनाथ की प्रकाशित कृतियाँ पढ़ते रहते थे। 1912 ई॰ में जब उन्होंने ‘सरस्वती’ में टैगोर पर लेख लिखा, उसके पहले वे रामकृष्ण परमहंस, विवेकानन्द, माइकेल मधुसूदन दत्त, ब्रह्मबान्धव उपाध्याय, नवीनचन्द्र सेन, शिशिर कुमार घोष और जगदीशचन्द्र बसु पर विस्तार से लेख लिखकर हिन्दी जगत को इनके विषय में अवगत करा चुके थे। आचार्य द्विवेदी ने ही मैथिली शरण गुप्त से माइकेल के महाकाव्य ‘मेघनादबध’ का हिन्दी अनुवाद करने को कहा था। बंकिमचन्द्र की कथा-कृतियाँ भारतेन्दु के समय में ही हिन्दी में अनूदित हो चुकी थीं। स्वयं भारतेन्दु ने ही उनके एक उपन्यास का अनुवाद किया था। इस तरह आप देखें कि आचार्य द्विवेदी, जिनके नाम से बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भिक दो दशकों को हिन्दी साहित्य के इतिहास में द्विवेदी-युग’ कहा जाता है, ने किस तरह बंगला में आये नवजागरण एवं साहित्यिक हलचल से हिन्दी समाज को अंतरंग रूप से परिचित कराया था। उन्होंने अपने लेखन और ‘सरस्वती’ के द्वारा बंगला की साहित्यिक विरासत को हिन्दी प्रदेश में इतने जोरदार तरीके से प्रस्तुत किया था कि उस समय के अधिकांश साहित्यकारों ने बंगला भाषा सीखी थी और उससे प्रेरित हुए थे। बंगला के साहित्यकारों में तब रवीन्द्रनाथ की ख्याति फैल रही थी और 1913 ई॰ में जब उन्हें नोबेल पुरस्कार मिला, तब पूरे भारतवर्ष का मस्तक ऊँचा हो गया और धीरे-धीरे वे विश्वकवि के रूप में समाहत हो गए।

मार्च, 1912 ई॰ की ‘सरस्वती’ में आचार्य द्विवेदी ने ‘कविवर रवीन्द्र नाथ ठाकुर’ शीर्षक लेख लिखा और उनकी तस्वीर भी प्रकाशित की। यह हिन्दी में रवि बाबू पर लिखा पहला व्यक्तिचित्र था। इसके पहले वे अवनीन्द्रनाथ ठाकुर के कई चित्र प्रकाशित कर चुके थे और उनकी चित्रकला पर बहुत कुछ लिख चुके थे। रवि बाबू की अनेक कहानियों के अनुवाद ‘सरस्वती’ में प्रकाशित कर चुके थे, पर उनपर उन्होंने पहला लेख 1912 ई॰ लिखा। इस लेख की शुरुआत वे इन शब्दों से करते हैं - “कविवर रवीन्द्रनाथ ठाकुर बंगला के प्रसिद्ध पुरुषों में से हैं। वह बंग-साहित्य के दैदीप्यमान रत्न हैं। बंगला में ऐसा कोई घर न होगा, जिसमें उनके काव्य और निबन्ध, उनके उपन्यास और नाटक, उनकी आख्यायिकाएँ और गान न पढ़े जाते हों। उन्होंने अपनी लेखनी के बल से शिक्षित बंगालियों के विचारों में बहुत बड़ा परिवर्तन कर डाला है। इसलिए वे इस समय बंगभाषा के अद्वितीय लेखक समझे जाते हैं।"

आगे उन्होंने रवि बाबू का संक्षिप्त जीवन-वृत्त प्रस्तुत करके उनकी प्रतिभा की विशेषताओं को उजागर किया है - वे नाटकों में अभिनय करते हैं। संगीत-विद्या के ज्ञाता हैं। वे मधुर स्वर में गाते हैं। अपने बनाए हुए गीतों को उन्होंने नए-नए सुरों में बांधा है। वे अच्छे वक्ता हैं। वे स्वदेश-भक्त हैं। मातृभूमि के पक्के आराधक हैं। उनकी देश-भक्ति में संकीर्णता और विदेश तथा विदेशियों के प्रति द्वेष नाम को भी नहीं। उनकी राजनीति चरित्र-निर्माण पर जोर देती है। उन्होंने सिर्फ भारतभूमि का ही भ्रमण नहीं किया है, यूरोप, अमेरिका और जापान भी घूम आये हैं। उनका बोलपुर में स्थापित ‘शांतिनिकेतन’ आगे चलकर ‘विश्वभारती’ का रूप ग्रहण करने वाला है। अंग्रेजी में पूरी दक्षता रखते हुए भी अपनी मातृभाषा के वे प्रबल पक्षधर हैं। इस लेख के अंत में वे लिखते हैं -

“रवीन्द्र बाबू एक महान-पुरुष हैं। सरस्वती ही की आराधना करके वह महान हुए हैं। गत जनवरी (1912) में बंगाल ने जो सम्मान रबीन्द्र बाबू का किया और हाथीदाँत के पत्र पर खचित अभिनन्दन पत्र, रजत-अध्र्यपात्र, सोने का एक कमल और एक माला आदि चीजें जो उन्हें भेंट कीं, वह सम्मान और वह भेंट यथार्थ में रवीन्द्र बाबू को नहीं, किन्तु देवी सरस्वती की है। धन्य है वह देश और वह जाति, जो अपने साहित्य-सेवियों का आदर करके भगवती सरस्वती की उपासना करे, और धन्य है वह महापुरुष, जो सरस्वती-मन्दिर का पुजारी होने के कारण अपने देश और जाति वालों से सम्मानित हो।"

सरस्वती के पुजारी रवीन्द्रनाथ ने बंगला भाषा और साहित्य को जो मान-सम्मान और विश्वस्तरीय प्रतिष्ठा दिलाई, वह भारतवासियों के पराधीनता के बोध से उबरने और राष्ट्रीय स्वाभिमान, भयशून्य चित्त और सिर उठाने का भाव जागृत कर रहा था। जून, 1913 की ‘सरस्वती’ में आचार्य द्विवेदी ने सम्पादकीय टिप्पणी लिखी - ‘कविवर रवीन्द्रनाथजी का योरप और अमेरिका में आदर’। इसमें वे लिखते हैं - “इस गिरी दशा में भी भारत में अनेक विद्वत्-रत्न विद्यमान हैं। परन्तु यहाँ उनकी विद्वता का प्रकाश नहीं पड़ता। कारण यह है कि सुशिक्षित लोग ही विद्वानों की विद्वता और योग्यता को जान सकते हैं और लोग नहीं, और सुशिक्षितों की यहाँ कमी है। रही गवर्नमेंट, सो वह विदेशी है। वह क्यों हमारे विद्वानों का यथेष्ट आदर नहीं करती - वह क्यों राय और बसु जैसे विद्वानों को उनकी योग्यता के अनुरूप उच्च पद नहीं देती - इस विषय में कुछ लिखने का अधिकार ‘सरस्वती’ को नहीं। इस दशा में हमारे देश के विद्वान जब योरप और अमेरिका पहुँचते हैं तब उनकी प्रतिभा वहाँ चमके बिना नहीं रहती, क्योंकि वहाँ उसके अवरोधक कारणों का प्रायः अभाव है। वहाँ सुशिक्षितों और विद्वानों की भी कमी नहीं। इसी से बंगाल के कविश्रेष्ठ रवीन्द्रनाथ ठाकुर की प्रतिभा और विद्वता देखकर इंगलैंड के कवि, विद्वान, दार्शनिक, सम्पादक, यहाँ तक कि राजमंत्री भी, मुग्ध हो गये। महीनों उन लोगों ने रवीन्द्रनाथ का गुणगान किया। उन्होंने उन्हें संसार के वर्तमान कवियों का शिरोभूषण ठहराया। अब रवीन्द्र बाबू अमेरिका पहुँचे हैं। वहाँ भी वे अपने अलौकिक गुणों से विद्वानों को मोहित कर रहे हैं। उस दिन वहाँ एक धार्मिक कांग्रेस हुई। देश-देश के विद्वान उसमें उपस्थित थे। उनकी ‘स्पीचें’ हुई। उन्होंने लेख भी पढ़े। रवीन्द्र बाबू भी इसमें आमंत्रित किये गये थे। उन्होंने उसमें जो निबन्ध पढ़ा उसे सुनकर नई और पुरानी दुनिया के विद्वान् स्तम्भित हो गये। रवीन्द्र ही का निबन्ध सबसे अच्छा समझा गया। उन्हीं के विचार सर्वश्रेष्ठ स्वीकार किये गये। सभा में जर्मनी के जेना नामक विश्वविद्यालय के एक अध्यापक उपस्थित थे। वे तो रवीन्द्र बाबू की विद्वता देखकर इतने हर्षोन्मत्त हो उठे कि उन्होंने बड़े ही आदर से उन्हें जर्मनी चलने का निमंत्रण दिया। योरोप और अमेरिका जाने के पहले रवीन्द्रनाथ को भारत के शासनकारियों में से किसी ने भी न पहचाना। पर उनके अलौकिक कवित्व आदि की जब इंगलैंड और अमेरिका में धूम मचने लगी और उस धूम का नाद यहाँ भी निरन्तर सुनाई देने लगा तब कहीं हवा का रूख यहाँ भी बदला। फल यह हुआ कि हमारे उदारचेता वाइसराय लार्ड हारडिंग ने देहली के पादरी ऐंड्रूज साहब को शिमले बुलाया। वहाँ पादरी साहब ने रवीन्द्र बाबू की जीवन-चर्चा, कवित्त और विद्वत्व आदि पर व्याख्यान दिया और लाट साहब तथा अनेक उच्च पदस्थ अधिकारी श्रोता हुए। लाट साहब ने व्याख्यान सुनकर कहा - रवि बाबू एशिया के कवि-शिरोमणि हैं।

"दिसम्बर, 1913 की ‘सरस्वती’ में नोबेल पुरस्कार मिलने पर आचार्य द्विवेदी ने फिर सम्पादकीय टिप्पणी लिखी - ‘कविवर रवीन्द्रनाथ ठाकुर को एक लाख बीस हजार का इनाम’। इसमें उन्होंने लिखा - “लार्ड हार्डिंग ने उन्हें एशिया का सर्वश्रेष्ठ कवि कहकर उनका आदर किया। पर अब मालूम हुआ कि योरप के विद्वानों और कवियों ने उन्हें इस साल एशिया ही का नहीं, किन्तु समस्त संसार का सबसे बड़ा कवि और साहित्य-शास्त्री समझा है। रवीन्द्र बाबू की गीतांजलि नामक पुस्तक के अनुवाद तथा दो एक और छोटे-मोटे लेखों को ही देख कर उन्होंने कवियों में रवि बाबू की सर्वश्रेष्ठता स्वीकार कर ली है। यदि कहीं ये लोग रवीन्द्र की दस-पाँच बंगला पुस्तकों को पढ़ लेते अथवा उनका अनुवाद ही देख लेते तो वे शायद इस भारतीय कवि को वृहस्पति का अवतार या सरस्वती का पुत्र ही मानने को विवश होते।“ आगे उन्होंने अल्फ्रेड नोबेल एवं उनके द्वारा स्थापित नोबेल पुरस्कार एवं उसे प्रदान करने की प्रक्रिया बताने के बाद लिखा है - “यह भारत के लिए, विशेष करके बंगदेश और बंगभाषा के लिए, बड़े गौरव की बात है। भारत और भारतवासियों को कुदृष्टि से देखने वाले रुडियार्ड किपलिंग को छोड़कर किसी और अंगरेज कवि को भी यह इनाम आज तक नहीं मिला। इटली, फ्रांस और जर्मनी आदि अन्य देशों ही के साहित्यसेवियों को यह मिला है। इधर कलकत्ते के विश्वविद्यालय ने भी रवि बाबू को - डाक्टर आॅफ लिटरेचर नामक पदवी से पुरस्कृत करने का निश्चय किया है। इन्हीं लोकोत्तर कवि और अद्वितीय साहित्यसेवी रवीन्द्रनाथ के देश-बन्धु कनाडा में धंसने नहीं पाते और पशुवत तुच्छ समझे जाकर नटाल और ट्रांसवाल के जेलों में ठूँसे और हंटरों से पीटे जा रहे हैं।"

भारतीय जनता देश में और विदेश में लगातार प्रताड़ित हो रही थी, इसकी गहरी पीड़ा आचार्य द्विवेदी को थी, जो उनके देशप्रेम की गहरी भावना को दर्शाता है और रवीन्द्रनाथ की ख्याति जब विश्वस्तरीय हो उठती है तो वे आत्म-गौरव का अनुभव करते हैं। 

रवीन्द्रनाथ को जर्मनी से न्यौता मिला। इसपर फिर उन्होंने एक सम्पादकीय टिप्पणी ‘सरस्वती’ के मई, 1914 अंक में लिखी - “बंगला के विख्यात कवि और लेखक डाक्टर रवीन्द्रनाथ ठाकुर इंगलैंड और अमेरिका हो आये। उन्हें वहाँ से लौटे अभी एक वर्ष भी नहीं हुआ। वहाँ आपका जो आदर-सत्कार हुआ उसका उल्लेख सरस्वती में किया जा चुका है। आपको नोबुल प्राइज़ नामक बहुत बड़ा पुरस्कार भी मिल गया। आपको गवर्नमेंट ने डाक्टर आॅफ लिटरेचर भी बना दिया। यह सब भारत के लिए - विशेष कर के बंगदेश के लिए - बड़े गौरव की बात है। इसी से शायद बंगला के समाचार-पत्रों और सामयिक पुस्तकों ने रवि बाबू की इंगलैंड और अमेरिका की यात्रा को ‘दिग्विजय’ माना है। अब सुनते हैं कविवर को जर्मनी से निमंत्रण आया है। वहाँ यदि आप जायेंगे तो अपनी कविता का भाषान्तर-पाठ करेंगे और लेक्चर भी देंगे। ‘दिग्विजय’ तो आप कर चुके। अतएव आपकी यह भावी जर्मनी-यात्रा विजय-बाहुल्य मात्र में गिनी जायेगी। “जून, 1924 की ‘सरस्वती’ में उन्होंने ‘नोबेल प्राइज’ शीर्षक एक लेख लिखा। इसमें वे बताते हैं कि “योरप के कुछ मतान्ध मनुष्य समझते हैं कि परमेश्वर ने एशिया के निवासियों पर आधिपत्य करने ही के लिए उनकी सृष्टि की है। उनकी यह धारणा मतवाले के प्रलाप के सिवा कुछ नहीं। जिस एशिया ने बुद्ध, राम, कृष्ण, ईसा और कन्फ्यूसियस इत्यादि महात्माओं को, चन्द्रगुप्त, अशोक, विक्रमादित्य और हर्षवर्द्धन आदि नरेशों को, भीम, अर्जुन, द्रोण, कर्ण आदि वीरों को, और व्यास, वाल्मीकि, कालिदास आदि कवियों को जन्म दिया, उसी एशिया को ईश्वर ने दूसरों की गुलामी करने का ठेका नहीं दे रक्खा। समय की अनुकूलता और प्रतिकूलता ही सब कराती है। जो लोग आजकल सेवक हैं, वही किसी समय स्वामी थे, और जो स्वामी हैं, वही किसी समय एशिया वालों के सेवक थे।"

इसी क्रम में आगे वे लिखते हैं - “कविता-कौशल, ग्रंथ-लेखन-चातुर्य और विज्ञान-विशारदत्व तो जाति, धर्म और देश आदि की सीमा के बन्धन की बिलकुल अपेक्षा नहीं करते। इसके प्रमाण सर जगदीश चन्द्र बसु और कविवर रवीन्द्रनाथ ठाकुर हैं। यदि वैसे किसी बन्धन की अपेक्षा होती तो भारत के सदृश परावलम्बी देश में उनका जन्म ही न होता, और यदि होता भी तो उनकी योग्यता का डंका अभिमानी योरप के देशों में कभी न बजता।“ इस लेख में उन्होंने एक वाक्य यह भी लिखा - “आश्चर्य है, सर जगदीशचन्द्र बसु, अब तक, इस पुरस्कार की प्राप्ति के अधिकारी नहीं समझे गये।"

आचार्य द्विवेदी को बहुत आशा थी कि जगदीशचन्द्र बसु एवं महात्मा गाँधी को भी नोबेल प्राइज अवश्य ही मिलेगा, कारण वे रवीन्द्रनाथ की तरह ही बड़े व्यक्तित्व थे और भारतवासियों को पराधीनता के भाव से मुक्त कर स्वदेशाभिमान का मंत्र फूँक रहे थे। टैगोर, बसु, गाँधी और आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी भारत भूमि में नवजागरण का शंखनाद करने वाले युगपुरुष थे, कीर्तिस्तम्भ थे, जिनके प्रकाश में देश ने जातीय गौरव प्राप्त किया था और नई दिशा की ओर कदम बढ़ाया था।

Ravindranath Tagore and Mahavir Prasad Dwivedi

1 टिप्पणी:

  1. गुरुदेव टैगोर और आचार्य द्विवेदी पर बेहद उत्कृष्ट और तथ्यपरक आलेख के लिए भारत यायावर जी को हार्दिक बधाई एवं आपका धन्यवाद.

    जवाब देंहटाएं

आपकी प्रतिक्रियाएँ हमारा संबल: