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शुक्रवार, 1 जनवरी 2016

रमाशंकर यादव ‘विद्रोही’ और उनकी पाँच कविताएँ — अवनीश सिंह चौहान

रमाशंकर यादव 'विद्रोही'

जेएनयू के पूर्व-छात्र, स्वतंत्रचेता, जनकवि रमाशंकर यादव ‘विद्रोही’ जी का जन्म 3 दिसंबर 1957 को उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर जिले के अइरी फिरोजपुर गांव में हुआ। उनकी आरंभिक शिक्षा गाँव में ही हुई। शहर (सुल्तानपुर) आये। स्नातक की परीक्षा उत्तीर्ण की। कमला नेहरू इंस्टीट्यूट में वकालत में प्रवेश लिया। पढ़ाई बीच में छोड़ (1980 में) दिल्ली आये और जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय में स्नातकोत्तर में प्रवेश लिया। 1983 में छात्र-आंदोलनों में भाग लेने के कारण उन्हें जेएनयू से निकाल दिया गया। यहाँ भी पढ़ाई छूटी, परन्तु उन्होंने जेएनयू परिसर कभी नहीं छोड़ा। कालांतर में विद्रोही जी अपनी जिंदादिली एवं बेबाक शैली के लिए जेएनयू के छात्रों में बेहद लोकप्रिय हुए। उन्होंने जेएनयू छात्र आंदोलनों में बढ़-चढ़कर भाग लिया और जन-चेतना के तमाम कार्यक्रमों में अपनी ओजस्वी रचनाओं का विधिवत पाठ भी किया। इसी क्रम में देशव्यापी छात्र-आंदोलन ‘आक्युपाई यूजीसी’ में अपनी अंतिम भूमिका का बखूबी निर्वहन करते हुए इस लाड़ले कवि ने 8 दिसंबर 2015 की सुबह अंतिम सांस ली। आज विद्रोही जी भले ही हमारे बीच नहीं हैं, किन्तु उनका उज्जवल व्यक्तित्व एवं कृतित्व हमें सदैव प्रेरणा प्रदान करता रहेगा। नव वर्ष पर विद्रोही जी की पाँच कविताएँ प्रस्तुत कर रहा हूँ; इनमें से कुछ कविताएँ उनके प्रथम कविता संग्रह 'नई खेती' (2011) से ली गयी हैं। 

चित्र गूगल से साभार 
1. जन-गण-मन 

मैं भी मरूंगा
और भारत के भाग्य विधाता भी मरेंगे
लेकिन मैं चाहता हूं
कि पहले जन-गण-मन अधिनायक मरें
फिर भारत भाग्य विधाता मरें
फिर साधू के काका मरें
यानी सारे बड़े-बड़े लोग पहले मर लें
फिर मैं मरूं- आराम से
उधर चल कर वसंत ऋतु में
जब दानों में दूध और आमों में बौर आ जाता है
या फिर तब जब महुवा चूने लगता है
या फिर तब जब वनबेला फूलती है
नदी किनारे मेरी चिता दहक कर महके
और मित्र सब करें दिल्लगी
कि ये विद्रोही भी क्या तगड़ा कवि था
कि सारे बड़े-बड़े लोगों को मारकर तब मरा। 

2. दुनिया मेरी भैंस

मैं अहीर हूँ
और ये दुनिया मेरी भैंस है 
मैं उसे दुह रहा हूँ
और कुछ लोग कुदा रहे हैं 
ये कउन (कौन) लोग हैं जो कुदा रहे हैं ?
आपको पता है.
क्यों कुदा रहे हैं?
ये भी पता है.
लेकिन एक बात का पता 
न हमको है न आपको न उनको 
कि इस कुदाने का क्या परिणाम होगा 
हाँ ...इतना तो मालूम है 
कि नुकसान तो हर हाल में 
खैर 
हमारा ही होगा 
क्योंकि भैंस हमारी है
दुनिया हमारी है!

3. कविता और लाठी

तुम मुझसे
हाले-दिल न पूछो ऐ दोस्त!
तुम मुझसे सीधे-सीधे तबियत की बात कहो।
और तबियत तो इस समय ये कह रही है कि
मौत के मुंह में लाठी ढकेल दूं,
या चींटी के मुह में आंटा गेर दूं
और आप- आपका मुंह,
क्या चाहता है आली जनाब!
जाहिर है कि आप भूखे नहीं हैं,
आपको लाठी ही चाहिए,
तो क्या
आप मेरी कविता को सोंटा समझते है?
मेरी कविता वस्तुतः
लाठी ही है,
इसे लो और भांजो!
मगर ठहरो!
ये वो लाठी नहीं है जो
हर तरफ भंज जाती है,
ये सिर्फ उस तरफ भंजती है
जिधर मैं इसे प्रेरित करता हूं।
मसलन तुम इसे बड़ों के खिलाफ भांजोगे,
भंज जाएगी
छोटों के खिलाफ भांजोगे,
न,
नहीं भंजेगी
तुम इसे भगवान के खिलाफ भांजोगे,
भंज जाएगी
लेकिन तुम इसे इंसान के खिलाफ भांजोगे,
न,
नहीं भंजेगी
कविता और लाठी में यही अंतर है।

4. नई खेती

मैं किसान हूँ
आसमान में धान बो रहा हूँ
कुछ लोग कह रहे हैं
कि पगले! आसमान में धान नहीं जमा करता
मैं कहता हूँ पगले!
अगर ज़मीन पर भगवान जम सकता है
तो आसमान में धान भी जम सकता है
और अब तो दोनों में से कोई एक होकर रहेगा
या तो ज़मीन से भगवान उखड़ेगा
या आसमान में धान जमेगा।

5. मैं जिंदा हूँ और गा रहा हूँ 

मरने को चे ग्वेरा भी मर गए
और चंद्रशेखर भी
लेकिन वास्तव में कोई नहीं मरा है
सब जिंदा हैं
जब मैं जिंदा हूँ
इस अकाल में
मुझे क्या कम मारा गया है
इस कलिकाल में
अनेकों बार मुझे मारा गया है
अनेकों बार घोषित किया गया है
राष्ट्रीय अखबारों में, पत्रिकाओं में
कथाओं में, कहानियों में
कि विद्रोही मर गया
तो क्या मैं सचमुच मर गया!
नहीं मैं जिंदा हूँ
और गा रहा हूं……

Ramashankar Yadav 'Vidrohi'

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