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शनिवार, 30 जनवरी 2016

जयशंकर शुक्ल और उनके तीन नवगीत — अवनीश सिंह चौहान

डॉ जयशंकर शुक्ल

डॉ जयशंकर शुक्ल का जन्म दो जुलाई सन् उन्नीस सौ सत्तर को गाँव+पोस्ट-सैदाबाद, जिला-इलाहाबाद, उ.प्र. में हुआ। शिक्षा: एम.ए.(हिन्दी एवं प्राचीन भारतीय इतिहास), एम.एड., पी-एच.डी., नेट/जे.आर.एफ, साहित्यरत्न प्रकाशन: काव्य-कृतियाँ:- किरण (काव्य-संग्रह), क्षितिज के सपने (काव्य-संग्रह), क्रान्तिवीर आजा़द(महाकाव्य), तम भाने लगा (काव्य-संग्रह), समझौते समय से (दोहा-सतसई), आह्लादिनी (खण्ड-काव्य); गद्य-कृतियाँ :- बेबसी (कहानी-संग्रह), संदेह के दायरे(कहानी-संग्रह), भरोसे की आँच(कहानी-संग्रह), दरकती-शिलाएँ(लघुकथासंग्रह), कुछ बातें-कुछ मुलाकातें (साक्षात्कार-संग्रह), साहित्यिक-अन्तर्वार्ताएँ (साक्षात्कार- संग्रह), अधूरा-सच (उपन्यास), पराये-लोग (उपन्यास), नवगीत के नए विमर्श (आलेख-संग्रह), बौद्ध मठों के आर्थिक आयाम (शोध-ग्रंथ) एवं व्यंग्य-संग्रह (आलेख-संग्रह) इसके अतिरिक्त आपने कई पुस्तकों का संपादन किया है। विविध : दूरदर्शन से कविताओं का सरस प्रशारण, आकाशवाणी से रेडिओ वार्ताओं / रेडिओ समीक्षाओं का प्रसारण, विभिन्न संस्थाओं / गोष्ठियों मे रचनाओं की सरस प्रस्तुति, विभिन्न समितियों / संस्थाओं की सक्रिय सदस्यता व संचालन सम्पर्क-सूत्र : भवन सं.-49, पथ सं.-06, बैंक कॉलोनी, मण्डोली, दिल्ली-110093, मोब : 09968235647, 09013338337। आपके तीन गीत यहाँ प्रस्तुत हैं :

चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार
1. सृजन

चाक पर चलते हुए दो हाथ
हमसे पूछते है
अनगढ़ों के दौर मे कैसे सृजन
की बात संभव

चल रहे संबन्ध शर्तों पर
सतत अनुरागियों के
भ्रष्ट होते जा रहे आचार
अब वैरागियों के
द्वेष के साम्राज्य मे कैसे मिलन
की बात संभव

बिना ब्याहे रह रहे जोड़े नए
परिवेश मे अब
स्नेह घटता जा रहा उन्मत्त मिलते
क्लेश मे सब
मूल्य के आघात मे कैसे अमन
की बात संभव

वर्जनाएँ टूटती जाती सुखों की
चाह मे ही
कामनाएँ बढ़ रही नित अनुकरण की
राह मे ही
मान्यता के ह्रास मे कैसे नमन
की बात संभव

बढ़ रहे संबन्ध विच्छेदन निरंतर
आजकल
टूटते परिवार पर हाबी हुआ है
आत्मछल
टिड्डियों की बाढ़ मे कैसे चमन
की बात संभव।

2. मधुमास

आ रहा मधुमास लेकर
प्यार की परछाइयों को
छोड़ पतझड़ की कहीं पर
बेरुखी रुसवाइयों को

रातकी मनुहार करतीं
अधखिली कलियाँ सुमन की
नेह की आभा बिखर कर
बन गई खुशबू चमन की
चाह इस आवागमन की
पोसती तरुणाइयों को

अंजुरी मे भर खुशी को
काल का वंदन करेंगे
भाव की रोली सजाकर
अतिथि का चंदन करेंगे
कौन कब तक याद रखे
विगत की रुसवाइयों को

सीख लेकर पूर्वजों से
आज का जीवन सुधारें
गलतियों को भूल मन से
चेतना के तल बुहारें
मातमी सरगम भुला कर
साज दें शहनाइयों को। 
                
3. उजालों की दुआ

बादलों के बीच मे सूरज छिपा है
मै उजालों की दुआएँ माँगता हूँ
भाल पर आकाश के शशि भी नही है,
मै सितारों की दुआएँ माँगता हूँ

द्वार हैं सब बंद तुमको क्या बताएँ
चक्रवातों से घिरे वातायनों में
मै अकेला हूँ मगर टकरा रहा हूँ
पात जैसे टूट काँटो के वनो में
किस तरह ऊपर उठूँ यह सोचता हूँ
मै सहारों की दुआएँ माँगता हूँ

देखना मेरा गवारा है न उनको
अब बताओ मैं नजर किस ओर फेरूँ
मैं विचारों मे भटकता जा रहा हूँ
अब किसे छोड़ूँ किसे उस पार टेरूँ
डगमगाता हूँ कि ज्यों नौका भँवर में
मै किनारों की दुआएँ माँगता हूँ

मौत के तम मे उलझती जिंदगी को
नयन ठहरे देखते असहाय हो जब
पीर पैठी जब गहन अंतःकरण मे
सौख्य बरबस देखते निरुपाय हो तब
पाँव अपना ही न उठता हो अगर तो
कर्णधारों की दुआएँ माँगता हूँ।


Dr Jaishankar Sukla

7 टिप्‍पणियां:

  1. डॉ जयशंकर शुक्ल जी वर्तमान समय-सन्दर्भ के कुशल गीतकार हैं | इनके रचनाओं में समाविष्ट विषय सम्पूर्ण युगबोध को व्यंजित करते हैं | यह इन तीन गीतों में ही स्पष्ट है | बात चाहे साहित्य सृजन की हो या फिर जीवन सृजन की, इन सभी स्थानों पर शुक्ल जी जिन विसंगतियों को देखे हैं, परखे हैं, यह सत्य है कि वही इनके गीतों में उभर कर आए हैं | इनकी चिंता आज के समय में उठ रहे तमाम सवालों का जवाब मांगते आम जनमानस की चिंता है |
    शुक्ल जी सुन्दर गीत रचना के लिए विशेष धन्यवाद् |
    अनिल पाण्डेय
    हिन्दी-विभाग, पंजाब विश्वविद्यालय,
    चंडीगढ़ |

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