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शनिवार, 12 मार्च 2016

अशोक बाबू माहौर की पाँच कविताएँ

अशोक बाबू माहौर

संघर्षशील युवा कवि अशोक बाबू माहौर का जन्म 10 जनवरी 1985 को जिला मुरैना (म. प्र.) के कदमन का पुरा गांव में हुआ। प्रकाशन : रचनाकार, स्वर्गविभा, हिन्दीकुंज, अनहद कृति, पुरवाई, साहित्य शिल्पी, साहित्य कुंज आदि हिंदी की साहित्यक पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। सम्मान : ई-पत्रिका अनहद कृति की तरफ से 'विशेष मान्यता सम्मान 2014-15 से अलंकृत। संपर्क : ग्राम-कदमन का पुरा, तहसील-अम्बाह, जिला-मुरैना (मध्य प्रदेश)- 476111, मो. 09584414669, ईमेल-ashokbabu.mahour@gmail.com।

चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार
1. भागते लोग
 

सड़क पर
खड़े लोग
भागते लोग

कुछ सिमटे, सकुचाए
जमाएं हाथ
ठोढ़ी पर,
वृक्ष की टहनी
तंग हथेली
पत्ते बौखलाए
इधर मटमैले नन्हें
झाड़ पतले
झुकाए सिर

आह! भरते
तिनके निठल्ले
कुख्यात होते
कांटे बबूल के,
जलाकर अलाप
आले में
बैठी,
मारती मस्का खिड़की
रंग बदलती
सुबह सुनहरे।

2. ओस


आज भी
घना कोहरा
समेटे साथ अपने
बूँदें ओस की

लहूलुहान,
पत्ते भींगे
पीपल,नीम के
असंख्य पेड़ों की डालियाँ
घास नीली
सकुचाई-सी
ठिठुरती
जैसे रख दी हो
सिल्लियाँ बर्फ की
ढेरों

ओस लहूलुहान
बैठी
कोहरे की
देहलीज पर
प्रताणना, झल्लाहट साधे
घूरती
परोसती सह्रदय
व्यर्थ ही
भोर टटोलकर
रवि किरणें फैलाकर
उड़ा लेता
गम और खुशियाँ।

3. एक मानव


सड़क पर
चीख,चिल्लाहट
भीड़ लोगों की
उमड़ती,
आसपास ढेरों बसें
वाहन अनगिनत
जाम,महाजाम

मैनें-
उधर देखा
एक मानव लौहपुरुष
बाँधे धैर्य
पग लम्बे बढ़ा रहा
समेटे बाँहों में
लथपथ खून से
मासूम प्राणी
जैसे -
उसने कर लिया प्रण
मसीहा बनकर
सेवा जीवों की

अधर पर
गम समेटे
बूढी औरत
बहा रही आँसू
धधकती,
खामोश भीड़
शांत तमाशा देखती
लौहपुरुष एक मानव
बूढी औरत को
तसल्ली बंधाकर
बचा लेता
बच्चे को,
निर्दोष प्राणी
वक्त रहते
इलाज कराकर।

4. चिरागों की रोशनी


खामोश
चिरागों की रोशनी
खड़ी
देहलीज पर,
बयार हौले हौले
सहलाने लगी
परदे
खिड़कियों के

आँगन में
पौधा नाजुक
गुलाब का
गमले में
उगी घास नुकीली
व्यर्थ ही टकराती
धुंधली आँधी

आसपास ढेरों
चुप्पियाँ साधे
खड़ी
रूह-सी दूब
प्रण निश्चय कर
परिंदों की आवाज
सन्नाहट
शोर मचाती
मानो सुबह उठकर
कोई पुजारी
गीत प्रभु के गाता।

5. बगावत 

पर फैलाये
बैठी
चिड़िया
धूल में,
सैकती पर
मासूम भोली भाली
शायद शीतलहर ने
झकझोर कर इसे
डरा दिया हो

इधर धूप
तेवर दिखाती,
शांत
छुप जाती
बादलों की
उमड़-घुमड़ में
खामोशी पहनाकर
गले में

किन्तु चिड़िया
चढ़कर
मिटटी के टुकड़े पर,
सूर्य से
बगावत करने की
सोच उठी
यानी आवाज की झुर्रियां 

घिसने लगी।

Ashok Babu Mahaur

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