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गुरुवार, 4 मई 2017

राजा अवस्थी और उनके पाँच नवगीत — अवनीश सिंह चौहान

राजा अवस्थी

चर्चित कवि राजा अवस्थी का जन्म 04 अप्रैल सन् 1966 को कटनी नदी अँचल में बसे ग्राम पिलौंजी, जिला- कटनी, मध्यप्रदेश में हुआ। शिक्षा: स्नातकोत्तर (हिन्दी साहित्य)। प्रकाशित कृति: 'जिस जगह यह नाव है' (2006, नवगीत संग्रह)। समवेत संकलन: 'नवगीत नई दस्तकें, गीत वसुधा, नवगीत के नये प्रतिमान, नवगीत का लोकधर्मी सौंदर्य' आदि महत्वपूर्ण समवेत संकलनों में नवगीत संकलित। बीसवीं सदी के अंतिम दशक में कुछ कहानियाँ अलग-अलग पत्रिकाओं में प्रकाशित। इसी अंतराल में ग़ज़लें व दोहे भी प्रकाशित। प्रसारण: दूरदर्शन केन्द्र भोपाल व सभी स्थानीय टी.वी. चैनलों के साथ आकाशवाणी केन्द्र जबलपुर व शहडोल से नवगीतों का प्रसारण। सम्मान: कादम्बरी, जबलपुर द्वारा 2006 का 'निमेष सम्मान' नवगीत संग्रह 'जिस जगह यह नाव है' के लिए। सम्प्रति: मध्यप्रदेश शासन के स्कूल शिक्षा विभाग में प्रधानाध्यापक। सम्पर्क: गाटरघाट रोड, आजाद चौक, कटनी, मध्यप्रदेश, मोबा. 09617913287

गूगल सर्च इंजन से साभार
1. गढ़ता रहेगा

​​प्रगति के किस पंथ निकला
रथ शिखर चढ़ता रहेगा

कुँये का पानी
रसातल की तरफ जाने लगा
खाद ऐसा भूमि की ही
उर्वरा खाने लगा
बैल हल की जरूरत से
मुक्त यन्त्रों ने किया
बेवजह हल-फाल शिल्पी
कहाँ तक गढ़ता रहेगा

अग्रगामी शोध संतति के
फले, फूले अभी
तीव्रगामी पुष्पकों से
सूर्य तक छू ले अभी
बंधु कर स्वीकार
जड़ता छोड़, यन्त्री यन्त्र बन
अकेला इस खोह में तू
कहाँ तक लड़ता रहेगा

सृजन की, संघर्ष की
वह चेतना संकल्पशाली
कंदराओं से निकल
अट्टालिका नभ तक बना ली
बीज ने अंकुर दिए तो
पेड़ होने के लिए
सम-विषम मौसम सहेगा
उम्र भर बढ़ता रहेगा

बाल दीपक, द्वार पर रख
रोशनी से भर गली
बुझाने को हो भले ही
पवन प्यासी चुलबुली
मिटा देगा हारने की
अटकलें संभावनायें
अँधेरे से दीप अपनी
उम्र भर लड़ता रहेगा

2. दद्दा की कमजोर नज़र-सा

सपना क्यों टूटा-टूटा-सा
नभ में खुली उड़ान का

बिखरी हुई उदासी घर में
खामोशी ओढ़े दालानें
तैश भरे हैं कमशिन बच्चे
सिकुड़ी-सिकुड़ी-सी मुस्कानें
उल्टे पाँव सुनहरी किरणें
पश्चिम में कब की लौटी हैं
दद्दा की कमज़ोर नज़र-सा
रिश्ता गाँव-मकान का

बेटी को ले गया जमाई
बेटों को बहुयें ले बैठीं
पतझड़ की मारी दादी की
सारी नशें हड्डियाँ ऐंठीं
खेत बिके सब डोरे टूटे
अनुभूतियाँ अनाथ हुईं
भूल गया व्याकरण सिरे से
बिखरा घर मुस्कान का

काले अन्तर्मन के ऊपर
रँगे चेहरे उजरौटी हैं
भीतर व्यूह-चित्र साजिश के
बाहर आँखें कजरौटी हैं
बढ़ते हुए शोर के भीतर
लगातार बढ़ता सन्नाटा
फिर भी उम्मीदों की देहरी
स्वस्तिक रचे विहान का

3. गुनगुनाये पल

भोर की शीतल हवा से
नेह में डूबे प्रभा से
गुनगुनाये पल, मुस्कराये पल

आँज कर काजल नयन में
शील भरकर आचरण में
वे मिले होंगे
सँजोये कुछ माधुरी-से
इक सुगढ़-सी पाँखुरी-से
लब हिले होंगे
कामनाओं के सजीले
भावनाओं के लजीले
थरथराये पल, कँपकँपाये पल

आस्था का एक बंधन
बाँधकर दो अपरिचित मन
समर्पित होंगे
खुलेंगे फिर बंध सारे
परस्पर दो हृदय हारे
हिमगलित होंगे

;
पुरातन अनुबंध सारे
तोड़ देने को किनारे
उमड़ आए पल, घुमड़ आए पल

यंत्रणा बिखराव लेकर
स्वार्थ प्रेरित दाँव लेकर
जिन्दगी काटे;
मोह, ममता, आस्थायें
उपेक्षित आँसू बहायें
चुभ रहे काँटे;
बाद में अवसाद के
टूटते संवाद के
याद आए पल, डबडबाये पल।

4. और नदी

सदियों हर-हर बहने वाले
सूखे झरने और नदी

कथा-भागवत, झण्डे-डण्डे
पण्डे, पण्डों के मुस्टण्डे
सबकी चहल-पहल भारी है
बाँट रहे ताबीजें गण्डे
जल्दी-जल्दी चले हाँकते
गली-खोर में खदाबदी

सड़कें हुईं राजपथ लेकिन
प्रतिबंधित पग धरना जन का
खेत खो गए, पेड़ कट गए
ठण्डा रहा नीर अदहन का
पूँजी के प्रवाह पर बलि दी
धरती, जंगल, न्याय, नदी

5. अनपूरित इच्छायें
अनपूरित इच्छायें
अनचाही पीड़ायें
रचतीं अनुप्रास, रोज आस-पास

दूध-भात​,​ रोटी तो
पढ़ो चित्रकोटी तो
उपवासी कुर्सी को रबड़ी का भोग
तोंद बढ़े रोज-रोज
होटल में भोज रोज
नित्य नई मुर्गी की चाह लगा रोग
समझो! रानी समझो
बैठी हो खुश तुम जो
चाहत का व्यास, घटे आस-पास

रोज एक मकड़जाल
जेहन में डाल-डाल
सपने सतरंगी कर दिए मनीप्लांट
सुविधा का एक साँप
मन पूरा नाप-नाप
देह की पिटारी में कैद हैं अशांत
भाते या ना भाते
स्वारथरत ये नाते
खोकर एहसास, रचे आसपास

राजा, राजा ठहरे
मरते-कटते मोहरे
पीछे मत लौटो यह बंदिश बस पिद्दी पर
सब कुछ अब जाहिर है
चालों में माहिर है
बदलेगा पाला बस बना रहे गद्दी पर 

अंतस तक बेशर्मी
चस्पा मुँह पर नर्मी
कैसी यह प्यास, बढ़े आसपास।


Hindi Lrics of Raja Awasthi,Katni, M.P.

3 टिप्‍पणियां:

  1. राजा अवस्थी के नवगीत समकालीन कविताई में अपने जिन तौर-तेवरों से अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराते हैं,उनकी विशेषता छंद विधान,लय,प्रतीकों से आगे इस बात में है कि सत्ता,सियासत,व्यवस्था,बाजार,उद्योग,पूंजी,पूंजीपति,कला आदि जिस अर्थव्यवस्था के बूते कायम हैं, उसके मूलाधार गांव-कस्बे,मजूर-किसान,खेत,जंगल,पानी,अन्न आदि के साथ जिस तरह संवेदनहीनता,दमन,लूट-शोषण,भय का माहौल बनाया जा रहा है,उस पर भी जनहित,विकास की आंकड़ेबाजी और झूठ को ही सच मानने-मनवाने का खेल खेला जा रहा है- इन तमाम तल्ख सत्यों को उजागर करने का दुस्साहस है

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