केदारनाथ सिंह मेरे प्रिय कवियों में रहे। उनका नाम आते ही मुझे शुरू के दिनों में पढी गयी तीसरे सप्तक में संकलित उनकी कविता 'बादल ओ' की याद आती है -
'हम नए-नए धानों के बच्चे तुम्हें पुकार रहे हैं-
बादल ओ! बादल ओ! बादल ओ!
हम बच्चे हैं,
(चिड़ियों की परछाई पकड़ रहे हैं उड़-उड़)
हम बच्चे हैं,
हमें याद आई है जाने किन जन्मों की-
आज हो गया है जी उन्मन!
तुम कि पिता हो-
इन्द्रधनुष बरसो!
कि फूल बरसो,
कि नींद बरसो-
बादल ओ!
हम कि नदी को नहीं जानते,
हम कि दूर सागर की लहरें नहीं माँगते।
हमने सिर्फ तुम्हें जाना है,
तम्हें माँगते हैं'।
(कवितांश - बादल ओ)
इस कविता का असर अंत तक कम नहीं हुअा मेरे लिए।
केदार जी से कुल पांच सात मुलाकातें रही होंगी मेरी। और सब की सब आत्मीय, उनका स्वभाव ही गंवई-खेतीहर, पुरबियों की तरह आत्मीय रहा हमेशा।
उनसे आरंभिक दो-तीन मुलाकातें पटना में ही हुईं और अंतिम मुलाकात भी पटना की ही रही जिसमें एक कार्यक्रम में उनके साथ आलोक धन्वा भी थे।
उनसे पहली मुलाकात पटना की एक कविता गोष्ठी में हुई थी जिसमें मुझे भी कविता पढनी थी। गोष्ठी के बाद मैंने केदार जी को अपने पहले कविता संग्रह, आंरभ की कच्ची-पक्की कविताओं का संकलन जिसे पिता ने प्रकाशित कराया था, 'समुद्र के अांसू' की प्रति भेंट की थी। फिर उसके महीने भर बाद उन्हें एक पोस्टकार्ड डाला था। जिसके जवाब में उनका एक आत्मीय अंतरदेशीय मिला था। जिससे पता चला कि ( कविताएं आपकी उस दिन पटना में सुनी थीं और फिर आपने अपनी छोटी सी पुस्तक दी थी, उसमें पढ़ी भी थीं। मुझे कविताओं मे एक ताजगी दिखाई पड़ी थी, एक ठेठ देसीपन जो अपनी सहजता में अच्छा लगा था - केदारनाथ सिंह ) उनके मन में मेरे पाठ की छवि शेष रह गयी थी।
उनसे दूसरी मुलाकात भी पटना के एक कार्यक्रम में हुई। जो संभवतय आलोचक, प्राध्यापक नंद किशोर नवल का आयोजन था जो वे अपने रिश्तेदार व गीतकार रामगोपाल रूद्र की याद में करते थे। उस समय मैंने रघुवीर सहाय पर अपना आलोचनात्मक आलेख पूरा किया था और उसे मुजप्फरपुर की एक पत्रिका को प्रकाशनार्थ भेजा था जिसके संपादक केदारजी से परिचित थे और पटना आने के पहले वे मेरा लेख देख चुके थे।
वह मुलाकात भी मेरे लिए प्रेरक थी। क्योकिि उस समय कार्यक्रम के पहले एक होटल में जहां नवल जी, नामवर जी, केदार जी, केदारनाथ कलाधर, अपूर्वानंद आदि दर्जन भर लोग उपस्थित थे, केदार जी ने उत्साहवर्धक ढंग से नामवर जी से मेरे लेख की चर्चा की थी। फिर उससे संबंधित तथ्य पर संवाद भी हुआ था। अंत में जब मैं वहां से निकलने लगा तो श्री कलाधर ने, जिनसे एक दशक पूर्व के एक अप्रिय प्रसंग के चलते मेरा कोई संवाद नहीं था, मेरी पीठ ठोकते बधाई दी, उस संवाद के लिए।
तीसरी मुलाकात के समय वे जगन्नाथ मिश्र के पूर्व मुुख्यमंत्री निवास वाली सड़क में किसी सरकारी आवास में टिके थे और विनय कुमार की पत्रिका 'समकालीन कविता' के लिए उनके साक्षात्कार को जाड़े की कुहरे भरी सुबह मैं गया था।
इसके बाद 1992 में जब पटना से दिल्ली भाग आए पड़ोस के एक प्रोफेसर के लडके को लाने उनके साथ पहली बार दिल्ली गया तो काफी बसें बदलकर, ढूंढ कर जेएनयू में उनके घर जाकर मिला था। तब दूधनाथ सिंह वहीं थे। घंटे भर उनके साथ चाय आदि पीते समय बिताकर हमलोग लौटे तो साथ वाले सज्जन बहुत प्रभावित हुए कि तुम्हारी तो अच्छे लोगों से जान-पहचान है। वे अपने पेशे से जोडकर उन्हें देख रहे थे।
फिर जब बेटे की बीमारी के लिए दिल्ली आया तब से दिल्ली पूरी तरह छूटी नहीं। दिल्ली रहते भी दो बार पत्र-पत्रिका में किसी विषय पर उनका पक्ष नोट करने उनके घर जाकर मिला मैं। इसके सिवा जब भी किसी गोष्ठी में वे मिलते तो पूछते, कि आजकल कहां हो। तब दिल्ली रहकर ही उनसे लंबे अरसे तक ना मिल पाने के संकोच के साथ बतााता - कि यहीं हूं, आता हूं जल्दी। इधर पत्रिका के लिए उनसे एक बातचीत के लिए मिलने को सोच रहा था। और वे निकल लिये।
मेरे लिखे की वे नोटिस लेते थे। इसका पता मुझे तब चला जब एक बार सविता सिंह की कविताओं पर लिखे को पढकर उन्होंने सविता जी को कहा कि मुकुल ने तुम पर अच्छा लिखा है।
केदार जी की कविताओं पर मैंने भी सहज ढंग से दो तीन बार लिखा। उनकी तमाम छोटी कविताओं का आरंभ के दिनों में जादू की तरह असर होता था। वह जादू उनकी अंत तक की कवितााअें में बरकरार रहा, हालांकि उसका असर अब पहले सा नहीं होता, शायद मैं ही कुछ जड़ हो गया होउं।
वे छोटी कविताओं के कारीगर थे। हालांकि उनकी लंबी कविता बाघ का सम्मोहन भी कम नहीं रहा। पर मुझे लगता है कि बाघ के भीतर परंपरा से चले आ रहे सामंती अवशेष मौजूद हैं जबकि बाकी की छोटी कविताएं उस अवशेष को बिखेरने का अंनंद देती हैं।
- कुमार मुकुल
अनिल जनविजय जी की फेसबुक वॉल से प्राप्त केदारनाथ सिंह जी के कुछ दुर्लभ चित्र :
संचयन : अवनीश सिंह चौहान
दो मिनट का मौन - केदारनाथ सिंह
भाइयो और बहनो
यह दिन डूब रहा है
इस डूबते हुए दिन पर
दो मिनट का मौन
जाते हुए पक्षी पर
रुके हुए जल पर
झिरती हुई रात पर
दो मिनट का मौन
जो है उस पर
जो नहीं है उस पर
जो हो सकता था उस पर
दो मिनट का मौन
गिरे हुए छिलके पर
टूटी हुई घास पर
हर योजना पर
हर विकास पर
दो मिनट का मौन
इस महान शताब्दी पर
महान शताब्दी के महान इरादों पर
और महान वादों पर
दो मिनट का मौन
भाइयो और बहनो
इस महान विशेषण पर
दो मिनट का मौन
‘Do Minute Ka Maun’ by Kedarnath Singh translated from Hindi to English under the title– ‘Two-Minute Silence’ by Abnish Singh Chauhan: http://ijher.com/_blog/2019/03/14/98-Two-Minute-Silence---Kedarnath-Singh/#comments
जवाब देंहटाएं