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बुधवार, 19 जनवरी 2011

समीक्षा : कपिल कुमार कृत ‘कहें कपिल कविराय' — अवनीश सिंह चौहान


गूगल से साभार
‘‘बात और विचार (यदि वह है तो) और कहने का ढंग-सब एक ही है। उसी में सब ‘निज-निज मति अनुसार‘ कोई नया बिंब, कोई नयी उदासी, कोई नया लघुमानवत्‍व, कोई अजूबी गरीबी, कोई नया संत्रास, कोई नयी अस्‍मिता और कुंठा का खेल रच रहे हैं। लेकिन अगर कवि का नाम हटा दिया जाय तो वह उनमें से किसी की भी काव्‍य सम्‍पत्ति या विपत्‍ति हो सकती है"- हिन्‍दी कविता के ‘अदभुत रीतिकाल‘ पर प्रख्‍यात रचनाकार श्री दूधनाथ सिंह की उपर्युक्‍त टिप्‍पणी सोचने पर विवश करती है। उनकी ये पंक्‍तियां कई कवियों पर ‘सूट‘ भी करती हैं। लेकिन जब मैं कपिल कुमार की कुण्‍डलियों से होकर गुजरता हूं तो मुझे कई बार महसूस होता है कि यदि इन कुण्‍डलियों से इस कवि का नाम हटा दिया जाए, तब भी उनके पाठक उनकी रचनाओं को पहचान लेंगे। इस दृष्टि से कपिल कुमार भी एक कैलाश गौतम जी की तरह ही ‘जमात से बाहर का कवि‘ (दूधनाथ सिंह) लगते हैं। 

सच है कि कुण्‍डली छंद में बहुत ही कम रचनाकार अपनी अनुभूतियां व्‍यक्‍त कर रहे हैं। कपिल कुमार इस बात को जानते हुए भी कुण्‍डली छंद को गढ़ ही नहीं रहे हैं, शायद उसे जी भी रहे हैं....स्‍याही के रूप में सामने आये या स्‍वर के रूप में यह छंद ही अक्‍सर आकार लेता है उनके सृजन में, चिंतन में, संप्रेषण में।

छप्‍पय की तरह छह चरणों का यह छंद दोहा और रोला को मिलाने से बनता है, सो यतियां दोहे और रोले वाली ही होंगी-स्‍वाभाविक है। दोहा और रोला के सम्‍मिलन से उपजे कुण्‍डली छंद का सृजन गिरिधर कविराय से लेकर कपिल कुमार तक जिस ‘स्‍पीड‘ से चलकर पहुंचा है, वह चिंतनीय है। दोहा और रोला की युगलबंदी टूटी, समय बदला और दोहा अपनी पृथक चाल से चलने लगा। लोकप्रिय भी हुआ। कुण्‍डलियां वह गति नहीं पकड़ सकीं और पीछे रह गयीं या बिसरा दी गयीं तभी यह कवि इस ओर संकेत करता हुआ अपनी रचनाओं को प्रस्‍तुत करता है-
दोहा हो या कुण्‍डली छंद-मात्रा एक
हर दोहे की पंक्‍तियां पैदा करें विवेक
पैदा करें विवेक, कुण्‍डली के दो रोला
‘काका‘ का हथियार बना गिरिधर का डोला
कहें ‘कपिल‘ कविराय-कुण्‍डली ने मन मोहा
प्रचलित लेकिन हुआ जमाने भर में दोहा।
यानि कि प्रचलन में है दोहा और कपिल जी लिख रहे हैं कुण्‍डलियां। लेकिन बखूबी। कविराय गिरिधर जी से उन्‍हें अच्‍छी सीख मिली है-‘‘लिखना हो यदि कुण्‍डली गिरिधर से लो सीख" और दिया है उन्‍होंने अपनी संवेदना एवं शब्दों से इस शिल्प को नया आयाम। काका की लोकभाषा के स्‍थान पर खड़ी बोली का प्रयोग कर जन-मन की समस्‍याओं चिंताओं और आशाओं का संजीव चित्रण उनकी रचनाओं में ऐसे होता है कि मानो किसी चित्रकार ने किसी आकृति में रंग भर दिये हों, ऐसा रंग जो हमारे चित्‍त को बांधे रखता है और चित्‍त भंग होने पर मानस पटल पर अपनी अमिट छाप छोड़ जाता है। इस कवि की सराहना इसलिए भी होनी चाहिए कि इसने कुण्‍डली छंद को जगाया है, उसको चर्चा में लाया है और जोड़ रहा है हमें कविता के इस रूप से, अपने आपसे, समाज एवं राष्ट्र से, अपने ढंग से और अपनी शर्तों पर-
जोड़ो अपने देश की सभी दिशाएं आज
कौन पराया है यहां सारा एक समाज
सारा एक समाज, खिलाओ इडली-डोसा
लस्‍सी-ऊसल-पाव-पराठा और समोसा
कहें ‘कपिल‘ कविराय-भेद के धागे तोड़ो
भाषाओं के साथ प्रांत के रिश्ते जोड़ो।
‘भेद के धागे तोड़ने‘ और ‘रिश्ते जोड़ने‘ की बात इसलिए भी महत्‍वपूर्ण हो जाती है कि आज का आदमी जितना ‘अप टु डेट‘ है, उतना ही कभी-कभी वह पाषाणयुग में खड़ा हुआ अपनी अलग छवि के साथ दिखाई पड़ता है। और कभी-कभी तो उसकी समझ पर भी तरस आने लगता है जब वह असली-नकली का भेद नहीं कर पाता-
गुनिया ही करता रहे हीरे की पहचान
हीरा लेकिन क्‍या करे जब हो बंद दुकान
जब हो बंद दुकान, नहीं खुलता हो ताला
जिस पर बारंबार लगा मकड़ी का जाला
कहें ‘कपिल‘ कविराय नहीं पहचाने दुनिया
हीरा देखे मगर बताए नकली गुनिया।
यह जो पहचान का मुद्‌दा है, आदमी के साथ शुरू से जुड़ा रहा है और निकट भविष्य में भी इसमें कोई विशेष परिवर्तन आ जायेगा-ऐसा कहना मुश्किल है। लेकिन कपिल जी की इन महत्‍वपूर्ण रचनाओं को पढ़ने के बाद विवेक जरूर जागने लगता है हमारे मन में और अच्‍छे-बुरे की पहचान करने में कुछ सहूलियत भी होने लगती है, हौसला भी बढ़ता है-‘‘हारे मन तो हार है जीते मन तो जीत‘‘। और इस मन के जीतने के लिए उनके संकेतों को समझना भी जरूरी है। यथा-
मैली अब हर चीज है बुरा देश का हाल
सुर से सुर मिलता नहीं ताल हुई बेताल
ताल हुई बेताल, चाल भी सबकी बदली
नकली असली लगे, लग रहा असली नकली।
कहें ‘कपिल‘ कविराय-दलों की दलदल फैली
हर कुर्सी पर दाग यहां हर चादर मैली।
यह मैलापन इस कवि को इतना आहत करता है कि उसका अर्न्‍तमन आशंकित है किसी होनी-अनहोनी के प्रति-‘‘करती विचलित जब कभी अंदर की आवाज/हो जाता है उस घड़ी होनी का अंदाज/होनी का अंदाज, परीक्षा मन की लेता/कभी अर्श पर कभी फर्श पर पहुंचा देता"। लेकिन इस स्‍थिति में भी कवि की आस्‍था डिगती नहीं, वह उसी भाव-समर्पण के साथ अपने उत्‍तरदायित्‍व का निर्वहन करने के लिए कृत-संकल्‍प रहता है यह सोचकर कि-‘‘सीमा है हर चीज की, नफरत हो या प्‍यार,/कभी हार कर जीत है कभी जीत कर हार"।

कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि कुछ विशेष व्‍यक्‍तियों पर लिखीं कुण्‍डलियों को छोड़कर देखें तो कवि कपिल कुमार ने जीवन की तमाम तहों को सावधानी से उधेड़ कर तथा समोकर अपनी रचनाओं को जो स्‍वरूप प्रदान किया है वह अनुपम है। उनकी यह प्रस्‍तुति समय के पृष्ठों पर अपनी अलग पहचान बनाती है और देती हैं हिन्‍दी भाषी समाज को अदभुत संदेश-
जोड़ो दिल के तार से सबके दिल का तार
प्‍यारे-प्‍यारे प्‍यार से महके सब संसार।
महके सब संसार घरों में हो उजियारा
सातों सुर हों एक गीत गाए ध्रुव-तारा
कहें ‘कपिल‘ कविराय नारियल मीठा तोड़ो
दसों दिशाएं आज चांद-सूरज से जोड़ो।
(समीक्षित कृति: 'कहें कपिल कविराय' (कुण्डलिया संग्रह), कवि : कपिल कुमार, प्रकाशक : रचना साहित्‍य प्रकाशन, 413-जी, वसंतवाड़ी, कालबादेवी रोड, मुंबई-400002 (फोनः 022-22033526), प्रकाशन वर्ष-2009, पृष्ठ-90, मूल्‍य-रु.111/-)

Kahen Kapil Kaviray by Kapil Kumar

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