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बुधवार, 12 मार्च 2014

जगदीश पंकज और उनकी चार रचनाएँ — अवनीश सिंह चौहान

जगदीश पंकज 

सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया में वरिष्ठ प्रबन्धक के पद से सेवानिवृत्त एवं स्वतंत्र लेखन कर रहे जगदीश प्रसाद जैन्ड का जन्म 10 दिसम्बर 1952 को पिलखुवा, जिला-गाज़ियाबाद (उ .प्र .) में हुआ। शिक्षा : बी .एससी। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में आपके गीत एवं कवितायें प्रकाशित हो चुके हैं। पंकज जी का मानना है- 'मैंने कई बार अपने आप से सवाल किया है कि मैं क्यों लिखता हूँ? या मैंने क्यों लिखना शुरू किया? उत्तर के लिए अतीत की ओर जाकर देखा तो पाया कि जो कुछ भी लिखा गया वह प्रतिक्रिया है अपने समय पर, जो देखा है, भोगा है उस पर। चाहे वह सौन्दर्य पर हो, देश की सीमा पर युद्ध या मुठभेड़ पर, राजनीतिक परिदृश्य और उसके स्वयं पर पड़ने वाले प्रभाव पर या जीविका क्षेत्र के दबाव-तनाव अथवा व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक जीवन के विभिन्न पक्षों द्वारा चेतना पर डाले गए प्रभाव की अभिव्यक्ति है मेरा लेखन। समष्टि के व्यष्टि पर प्रभाव और व्यष्टि से समष्टि की ओर बहने वाली अन्तर्धारा ने स्वयं को लयात्मकता के साथ प्रकट करने के लिए विवश किया। पीड़ा को भी गुनगुनाने की चाह ने गीतों की ओर उन्मुख किया।'  संपर्क : सोमसदन ,5/41 सेक्टर -2 , राजेन्द्रनगर,साहिबाबाद, गाज़ियाबाद-201005, मो . 08860446774, ई-मेल: jpjend@yahoo.co.in 

चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार
(1) कैसा मौसम है 

कैसा मौसम है 
मुट्ठी भर आंच नहीं मिलती 
मिले विकल्प मिले तो 
सीली दियासलाई से  

मन से तन तक
फ़ैल गयी 
आतंक भरी सिहरन 
संचित विश्वासों पर 
छाई है 
भय की ठिठुरन 
बर्फाती जा रही 
चेतना है प्रतिबंधों से 
धूप नवेली सकुचाती है 
मुंह दिखलाई से 

पग -पग पर
शंकित-श्रृद्धायें 
अविचल मौन खड़ीं 
बूढ़े संकल्पों की सांसें 
हैं उखड़ीं-उखड़ीं 
इन बीमार आस्थाओं को 
लेकर कहाँ चलें 
सारे पथ सूने 
विधवा की रिक्त कलाई से
 
रक्तिम क्षितिज 
हुआ है किन 
अनगिन विस्फोटों से 
हम अब तक अंजान रहे 
अपनी ही चोटों से 
किसको कौन सांत्वना दे 
सबका मन आहत है 
सब ही जूझ रहे 
अंतर में छिपी रुलाई से 

(2) किसी अवशेष से 

किसी अवशेष से 
आरम्भ करना भी जरूरी है 
सृजन के हेतु कुछ आधार, 
मिल जाए उठाने को 

भवन के ही नहीं
विश्वास के भी 
खंडहर अनगिन 
सशंकित चेतना की 
देह पर भी 
चुभ रहे हैं पिन 
निरंतरता,पुरातनता हमें 
मिलती रहे यों ही 
अनर्गल दम्भ से बच कर चलें , 
विश्वास लाने को

नहीं निर्माण में
कोई कहीं 
उल्लेख आहों का 
विवादित उत्खनन में 
गर्व है 
कल्पित कथाओं का 
कोई सन्दर्भ ना उन्माद की 
अब भेंट चढ़ जाये 
चलो हर ओर अब सौहार्द की 
फसलें उगाने को 

कभी संसाधनों के
क्रूर दोहन ने 
सताया है 
उजाडी बस्तियों को 
देश की उन्नति 
बताया है 
जिसे तुम आम कहते हो 
कभी वह ख़ास भी होगा 
इसी विश्वास से उठकर चलें 
दुनिया सजाने को 

(3) शंकित मन

शंकित मन, कम्पित श्रद्धाएं 
और समय अवसादग्रस्त है 
खड़े चिकित्सक रुग्णालय में 
नैसर्गिक उपचार कर रहे 


नीम-हकीमों ने पीढ़ी को 
कैसा आसव पिला दिया है 
हमने अपने विश्वासों के 
स्तम्भों को हिला दिया है 
अपनी नैया रामभरोसे 
डगमग-डगमग बही जा रही 
मांझी कूद किनारे जाकर 
झूठा हाहाकार कर रहे 

अपराधों के श्वेत-पत्र में 
किस-किस का लेखा-जोखा है 
अधिवक्ताओं के तर्कों में 
कितना सच, कितना धोखा है 
दुष्कर्मों पर बहस चल रही 
लज्जा का उपहास हो रहा 
पीड़ित को निर्लज्ज बताकर 
इकतरफा व्यवहार कर रहे 

अपने झूठों को संचित कर 

काल-पात्र में गाड़ रहे हैं 
और उत्खनित सन्दर्भों से 
सच्चाई को झाड़ रहे हैं 
प्रायोजित धारावाहिक सा 
मक्कारी का नाटक जारी 
सच के सब हत्यारे मिलकर 
खुद ही चीख-पुकार कर रहे 

(4) इस सभागार में

बार-बार इस सभागार में 
यह कैसा सहगान चल रहा 

चाहे अलग-अलग गायक हों 

गीत एक सुर-ताल एक है 
अपनी पीठ ठोकते तनकर 
वाद्य-यन्त्र की चाल एक है 
खड़े विदूषक ऊंघ रहे हैं 
बेताला अभियान चल रहा 

नक्कारों का शोर मचा है 
तूती की आवाज दबी है 
दर्शक ताली बजा रहे हैं 
और जोर की होड़ लगी है 
चाटुकार संवादों का ही 
दो-अर्थी संधान चल रहा 

एक झूठ को दोहरा करके 

अटल सत्य का पाठ हो रहा 
अपने घर के जगराते में 
मालिक लम्बी तान सो रहा 
अपने मुंह से चीख-चीख कर 
अपना ही गुणगान चल रहा

Three Hindi Poems of Jagdish Pankaj

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