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गुरुवार, 8 जनवरी 2015

लघुकथा : अंतर - विजेन्‍द्र प्रताप‍ सिंह

डॉ. विजेन्‍द्र प्रताप‍ सिंह


टूटा फूटा जर्जर घर, दुर्बल परंतु जुझारू प्रकृति वाला गृहस्‍वामी, अपर्याप्‍त साड़ी में किसी तरह अपने शरीर को ढंके हुए हडिडयों का ढांचा सी दिखाई देने वाली गृहस्‍वामिनी और आठ बच्‍चे । किसी तरह जीने की चाह में जिंदगी को घसीटते हुए। गृहस्‍वामी का जुझारूपन एवं गृहस्‍वामिनी का सहयोग रंग लाया । हालातों से जुझते हुए दोनों के द्वारा बच्‍चों को पालते, पोशते यथाशक्ति पढ़ाते-लिखाते समय गुजरता गया और हालात में परिवर्तन हुआ परंतु बहुत शनै: शनै:। इतनी धीमी गति के बावजूद दोनों कब बुढ़ापे की दुनिया में पहुंच गए पता न चला और न कभी दोनों के इस संबंध में सोचने का अवसर त‍क प्राप्‍त हुआ। जिस तरह भी हो, बच्‍चे कुछ पढ़े लिखे, कुछ को नौकरी मिली तो कुछ ने छोटा-मोटा व्‍यवसाय कर अपने आप को व्‍यवस्थित एवं स्‍थापित करने में सफलता प्राप्‍त की । सबने अपनी-अपनी शक्ति के अनुसार अपने आशियाने बनाए और अपनी-अपनी दुनिया में रम गए।

गृहस्‍वामी एवं गृहस्‍वामिनी को प्रारंभ से ही उनकी जिंदगी, बचपन में दादी मॉं द्वारा सुनाई गई ने चिड़ा और चिडि़या की कहानी जैसी ही लगती जिंदगी, परंतु दोनों अक्‍सर यह भी सोचा करते थे कि वे दोनों पक्षी नहीं इंसान हैं और इंसान की योनि को सर्वश्रेष्‍ठ माना गया है जो हाल अक्‍सर चिड़ा और चिडि़या का होता है उनका नहीं होगा। जिस समाज में वे जीते थे उसकी कुछ अपेक्षाएं थी उनसे और उसी के अनुरूप उनकी भी कुछ अपेक्षाएं थीं अपने परिंदों से। यूं कहें कि उन्‍हें अपनी परवरिश और मेहनत पर कुछ ज्‍यादा ही भरोसा था तो गलत न होगा। उनकी सोच और विश्‍वास उस दिन पूरी तरह से टूटे जब सबसे छोटा बच्‍चे ने भी एक दिन दोनों के पैर छूते हुए अच्‍छी जिंदगी जीने का आशीर्वाद लिया और चला गया।
- डॉ.विजेन्‍द्र प्रताप‍ सिंह
सहायक प्रोफसर(हिंदी)
राजकीय स्‍नातकोत्‍तर महाविद्यालय
जलेसर,एटा, उत्‍तर प्रदेश, पिन-२०७३०२

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