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बुधवार, 15 अप्रैल 2015

व्यंग्य : चटकने का मौसम - साधना बलवटे

डॉ साधना बलवटे 

भोपाल के अरेरा पहाड़ी पर स्थापित बिड़ला मंदिर वर्षों से आस्था का केन्द्र रहा है। अरेरा कॉलोनी में रहने वाली चर्चित लेखिका डॉ साधना बलवटे का जन्म 13 नवम्बर 1969 को जोबट, जिला झाबुआ, म. प्र. में हुआ। आपने देवी अहिल्या विश्वविघालय, इंदौर से स्नातकोत्तर (हिंदी) एवं पी.एच.डी. की। लेखन, नृत्य, संगीत, हस्थशिल्प में रुचि रखने वाली साधना जी 12 वर्ष की उम्र से ही रचनात्मक कार्य करने लगी थीं। आपने मालवी व निमाड़ी बोली में भी लेखन किया है। पत्रिका, दैनिक भास्कर, दैनिक जागरण, नई दुनिया आदि पत्र पत्रिकाओ में आपकी रचनाओं का प्रकाशन एवं आकाशवाणी इंदौर से प्रसारण हो चुका है। सम्मान: निर्दलीय प्रकाशन का 'संचालन संभाषण श्रेष्ठता अंलकरण'। वर्तमान में आप अखिल भारतीय साहित्य परिषद् की महासचिव हैं। सम्पर्क : ई-2 / 346, अरेरा कॉलोनी, भोपाल, दूरभाष: 0755-2421384, 9993707571। ईमेल: dr.sadhanabalvate@yahoo.com। 

चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार
चटकने का मौसम

चैत की चटकती धूप में अच्छें-अच्छों के दिमाग चटक जाते हैं। फिर ऊपर से चुनावी गर्मी। इस बार तो गर्मी डबल आॅफर ले कर आई है, और आये भी क्यों नहीं। जब डर्मीकूल एक पर एक फ्री मिल सकता है तो गर्मी क्यों नहीं और फिर सत्ता भी अपनी हो तो समझ लों बम्पर प्राइज। 

अब आप ही बताईये इतने सारे ग्रीष्म कालीन आॅफर हमारे नेता कैसे झेल पाते, चटक ही गये आखिर! अरे नहीं, नहीं आप गलत न समझे उनका सिर्फ दिमाग चटका है, वे तो सत्ता के सुरापान के लिये अमर पट्टा लिखवा कर लाये हैं, इतनी जल्दी कैसे चटक सकते हैं, चटकने की भी अपनी अपनी योग्यता व सामर्थ्य होती है। जिसके पास जितना पाॅवर होता है उतनी ही अधिक गर्मी होती और जितनी अधिक गर्मी होगी वह उतने ही प्रभावशाली ढंग से चटक सकते हैं। दिमाग सटकने के किस्से तो आपने बहुत सुने होेंगे, किन्तु देश निरंतर प्रगति पर है अब सटकते नहीं चटकते हैं। हमारा नौकरशाही दिमाग सटकने से नहीं चटकने से ही संतुष्ट होता है।

सियारों के हाथ जब सत्ता लग जाती है तो वे भी सिंह हो जाते है और सिंह साहब हमेशा ग्रेट होते हैं, महान होते है, जंगल के राजा होते हैं। राजाओं को चटकने से कौन रोक सकता है। ऐसे ही मुलायम गद्दी पर बैठने वाले सिंह साहब चटक गये, गलती उनकी बिल्कुल नहीं है वो बेचारे गर्मी का बम्पर प्राइज नहीं झेल पाये। 

24 घंटे 36 घड़ी सुरक्षाकर्मियों की छाती पर मूंग दलने वाले ही ऐसी बात कह सकते हैं, जरा परकोटे के बाहर बहु बेटियों को उतारे और फिर करने दे लड़कों को ऐसी गलतियाॅं, देश मान जायेगा कि आप बड़े दरियादिल हैं। भाषण रूपी जहरीले फन पर कितने ही महिला आयोग ता ता थैया कर ले, कालिया का मर्दन कोई नहीं करता। करें भी क्या ये सब उल्टी-दस्त के मरीज हैं जो गरमी खा गये हैं। या रहीम की परपंरा के वाहक जो कहते थें ‘क्षमा बड़न को चाहिये छोटन को उत्पात’। और तो ओर चुनाव का समय है बलात्कारियों की कुटुम्ब वृद्धि को देखते हुए वो भी तो एक तगड़ा वोट बैंक होने जा रहा है। भला वोटरों को नाराज कैसे किया जा सकता है। 

पहले लोग चैक भुनाते थे आजकल बैंक ही भुनाये जाने लगे है। इसी कोशिश में एक और सज्जन चटक गये ऐसे चटके कि शहीदों की कुर्बानियाॅें की भी साम्प्रदायिक चटनी समझ चट कर गये, प्रतिक्रिया में अगले ने चटनी के साथ बोटी भी आॅफर कर दी।

भई समय बड़ा खतरनाक है या युं कहूं कि बड़ा चटकनाक है तो हिन्दी भाषा का शब्दकोष भी समृद्ध होगा और समय की सही व्याख्या भी। इस भयंकर चटकनाक समय में मियां-बीबी भी एक दूसरे को कोल्ड्रिंक और आइसक्रीम आॅफर करके ही बात करते हैं पता नहीं कौन कब चटक जाये। 

किन्तु कुछ प्रश्न मेरे आगे खड़े हैं, आखिर कब तक गर्मी के बम्पर गिफ्ट उनको ही मिलते रहेंगे? चटकने का जन्मसिद्ध अधिकार उनको ही क्यों? समय अपने प्रश्नों के उत्तर स्वयं ही दे देता है। चटकने वालो खबरदार अपनी गरमाई खोपड़ी में नवरत्न तेल डालिये वरना किसी दिन सीमाओं की खोपड़ी अपने जवान के लिये, नारी की खोपड़ी अपने सम्मान के लिये, और वोटर की खोपड़ी अपनी आन के लिये चटक गई तो सोच लो क्या होगा।

A Satire in Hindi by Dr Sadhana Balvate

8 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 16-4-2015 को चर्चा मंच पर चर्चा - 1948 में दिया जाएगा
    धन्यवाद

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  2. सुन्दर प्रस्तुति .बहुत खूब,.आपका ब्लॉग देखा मैने कुछ अपने विचारो से हमें भी अवगत करवाते रहिये.

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