चर्चित रचनाकार आशा पाण्डे (ओझा) का जन्म 25 अक्टूबर 1970 को ओसियां, जिलाः जोधपुर (राजस्थान) में हुआ। शिक्षाः एम.ए. एलएल. बी, हिन्दी साहित्य में आलोचना (शोधरत)। व्यवसायः वकालात। प्रकाशन: दो बूंद समुद्र के नाम (कविता संग्रह) एवं एक कोशिश रोशनी की ओर (कविता संग्रह)। शीघ्र प्रकाश्यः जर्रे-जर्रे में वो है (कविता संग्रह), वक्त की शाख पर (कविता संग्रह), एक हाइकु संग्रह। साथ ही देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कविता, गजल, व्यंग्य, आलेख, समीक्षाएं प्रकाशित। पुरस्कारः कवि तेज पुरस्कार (2007), राजकुमार रतनावती (2007) आदि। ई-मेल: asha09.pandey@gmail.com. आपका एक महत्वपूर्ण आलेख यहाँ प्रस्तुत है:-
Art by Vishal Bhuwania |
किसी भी भाषा समाज व संस्कृति का ज्ञान उसके साहित्य से होता है। साहित्य व साहित्यकार भाषा, संस्कृति व समाज को आगे बढाते हैं। राष्ट्रभाषा के गौरव को समृद्ध करते है, पहचान दिलाते है हालांकि राष्ट्रभाषा को राष्ट्रभाषा घोषित किये जाने के पीछे उस भाषा का साहित्य नही बल्कि यह देखा जाता है कि उस भाषा को कितने विशाल स्तर पर जनमानस द्वारा बोला, लिखा व समझा जा रहा है परन्तु उस भाषा को विकसित व लोकप्रिय बनाने में साहित्य की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। विस्तृत अर्थ में अगर हिन्दी का अर्थ देखे तो इस भाषा की पांचो उपभाषाएं अर्थात सहायक भाषाओं को भी सम्मिलित माना जाता है व इन सह भाषाओं के अन्तर्गत आने वाली 17 बोलियों को भी। इस प्रकार देखा जाये तो हिन्दी के विकास में इन सहायक भाषाओं का व बोलियों का भी भरपूर योगदान है। ठीक इसी प्रकार साहित्यकारों का भी हिन्दी भाषा को विकसित व समृद्ध बनाने में विशेष योगदान है। साहित्यकारों ने राष्ट्रभाषा में विपुल साहित्य रचकर आमलोगों की बगैर हिन्दी भाषी लोगों की रुचि को इसमें बढाया व इसे रोचक व रसयुक्त बना दिया। हिन्दी में रचे गये उपन्यास, कहानी संग्रह, कविता संग्रह, छंद, दोहा, सोरठा, छप्पय, आलेख, शोध पत्र, निबन्ध यहां तक विदेशी भाषाओं के समग्र साहित्य के अनुवाद ने भी राष्ट्रभाषा को जीवन्त बनाया व इसकी जमीन व आसमान को विस्तार दिया। अमीर खुसरो, रासो काव्य, कबीर, सूर, तुलसी से आधुनिक कविता के प्रारम्भ तक आते-आते हिन्दी भाषा एक व्यापक रूप धारण कर लेती है। हालांकि हिन्दी का यह रूप अनेकाअनेक उतार चढाव के बावजूद तैयार होता है परन्तु आजादी की लडाई से लेकर आज तक साहित्यकारों व पत्र पत्रिकाओं ने हिन्दी के विकास में निरन्तर अपना योगदान दिया है।
स्वतंत्रता के साथ-साथ हिन्दी के विकास के योगदान में उदंत मार्तडं, वंगदूत, सुधारक समाचार, सुधा दर्पण पत्र पत्रिकाओं के संपादक व लेखकों की हिन्दी को भारतव्यापी जनमन की भाषा बनाने में सक्रिय भूमिका रही। भारतेन्दु, महावीर प्रसाद द्विवेदी तथा इसके युगीन साहित्यकारों की जो विशिष्ट भूमिका रही वो वंदनीय हैं। पीढी-दर-पीढी साहित्यकार हिन्दी भाषा के विकास एवं उत्थान में अपना योगदान देते आ रहे हैं। न केवल भारत में रहने वाले साहित्यकार बल्कि दुनियाभर में बसे प्रवासी साहित्यकार भी अपनी मातृभाषा के प्रति अपना उत्तरदायित्व बखूबी निभा रहे हैं जन्मभूमि से परे भी अपनी जननी व अपनी भाषा के प्रति उदार है, उन्होंने अपनी भाषा अपनी संस्कृति अपने संस्कारो को छोडा नही बल्कि इन जडों को आज भी उसी लगाव व आत्मीयता से सींच रहे हैं। इनमें दूतावास के अधिकारियों, विदेशों में विश्वविद्यालयों में हिन्दी विभाग या अन्य विभागों के कार्यरत प्राध्यापक, व्याख्याता तो शामिल है ही इसके अतिरिक्त भी वहां रहने वाले अन्य प्रवासी भारतीयों का भी योगदान कम नही जो हिन्दी साहित्य को एक नई दशा व दिशा प्रदान कर रहे हैं। ऐसे हजारों साहित्यकार हैं जो हिन्दी साहित्य की हर विधा में साहित्य रच रहे है।
देश से इतर विदेशों में हिन्दी साहित्य के विकास में लगे इन साहित्यकारो की संख्या में उत्तरोतर वृद्धि हो रही हैं। जहां एक ओर भारत में रह रही नई युवा पीढी अंग्रेजों के मोह में अंधी होकर अपनी मातृभाषा को ही गंवार कहती व ख़राब दृष्टि से देखती है अंग्रेज बन जाने की होड़ में यह पीढी न अपने संस्कारो का महत्व जान पाती है न अपनी भाषा की महानता को, जोकि विश्व में सबसे अधिक लोगों द्वारा बोली जाने वाली चंद भाषाओं में से है। दूसरी तरफ दूर देशों में बसे प्रवासी अपनी मातृभाषा के प्रति आसक्त व अनुरक्त रहते है, वहां के दूतावास के अधिकारी प्राध्यापकों व साहित्कारों के अतिरिक्त आम प्रवासी भी हिन्दी भाषा की हर गोष्ठी, पाठ, कवि सम्मेलन, सामूहिक मिलन समारोह में अपनी शत-प्रतिशत भागीदारी निभाते हैं। वहां के साहित्यकार वहां केवल साहित्य सृजन करके ही अपनी भाषा के प्रति अपने काव्यों की इतिश्री नही कर लेते बल्कि वे अनेकाअनेक पत्र-पत्रिकाओं का संपादन भी कर रहे है, उन्होंने हिन्दी भाषा के उत्थान व विकास के लिये कई संस्थायें व संघ भी बनाये है, आयेदिन संगोष्ठी व सम्मेलन कर रहे है। अंतर्जाल के इस युग में अनेका अनेक ई- पत्रिकाओं का भी संचालन कर रहै है। एफ एम रेडियो स्टेशन की स्थापनायें कर रहे है। उद्घोषक अपनी सेवायें निशुल्क तक देते है। अपनी गाडी का ईधन जला कर अभी हाल ही में आस्ट्रेलिया में रह रही मंजू सिंह (ढाका) ने दूरभाष पर हुए वार्तालाप में बताया कि वो हफ्ते में तीन-चार बार एफ एम स्टेशन पर अपनी सेवायें मुफ्त देती हैं। जो प्रवासी राजस्थानी वरूण पुरोहित द्वारा चलाया जा रहा है व उसके लिये 30 किमी आना व तीस जाना यानी 60 किमी गाडी चलाकर जाने का वह पेट्रोल भी स्वयं की जेब का वहन करती हैं। हिन्दी के प्रति अपने मोह व उत्तरदायित्व को निभाने वाले ऐसे भी प्रवासी भारतीय बहुत हैं। विदेशों में रहने वाले साहित्यकार जो वहां लम्बे अर्से से बसे हुए हैं व हिन्दी के प्रति इमानदारी व शिद्दत से अपना उत्तरदायित्व निभा रहे हैं उससे उनका महत्व और अधिक बढ जाता हैं वनिस्पत भारत में रह रहे साहित्यकारों के, क्योकिं जो भाषा उनके बोलचाल-व्यवहार-कार्य की दिनचर्या नही रह जाती उसके प्रति स्नेह के चलते वे लोग उस भाषा के लिये अलग से समय निकाल कर रचनाकर्म कर रहे है यह केवल बडी बात ही नही है अपितु एक उदाहरण बनता है स्वदेश में रह कर अपनी भाषा को उपेक्षित दृष्टि से देखने वाले लोगो के प्रति। क्योंकि जब एक साहित्यकार रचना करता है तो उसकी रचनाओं में देशकाल की समस्त परिस्थितियों का विकास मिलता है। जो भारतीय भाषा में अन्य देशों के भोगोलिक, राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक परिस्थितियों का हास या विकास रचा जाता है तो इन देशों के प्रबुद्ध लोगों का ध्यान इन रचनाओं की और बरबस खिंचा चला आता है। जिसमें उस देश की समृद्धि या विनाश रचा गया है उनकी रुचि फिर इस भाषा की ओर पनपती हैं। जिस किसी भी भाषा का साहित्य समृद्ध है उस भाषा को सीखने-जानने वालों की संख्या में बरबस वृद्धि होती है, अंग्रेजी, रसियन, फ्रेंच या जापानी साहित्य का जब हिन्दी में अनुवाद होता है तब भी उन भाषाओं के विद्धानों की निगाहें इस भाषा की तरफ उठती है। प्रवासियों के लिये उस देश की भाषा के साहित्य का हिन्दी में अनुवाद करना सहज व सरल कार्य है, क्योंकि हिन्दी भाषी होते हुए हिन्दी पर तो पकड होती ही है बरसोंबरस विदेश में रहते हुए उन विदेशी भाषाओं पर भी अपनी गहरी पकड बना लेते हैं। और उस देश के साहित्य व साहित्यिक रचनाओं का हिन्दी में अनुवाद करते हैं। इस प्रकार हिन्दी का अंतर्राष्ट्रीय विकास होता है।
बीसवीं सदी के पश्चात् भारत छोडकर विदेशों में बसने वाले भारतीयों की संख्या में तेजी से वृद्वि हुई, जहां कुछ लोग पहले से लेखन कार्यो में लगे हुए थे तो कुछ लोग वहां जाने के पश्चात जन्मभूमि से व अपनों से दूर होने का अहसास जगने से भी इस सृजनात्मक कार्य में समय व्यतीत करनेभर के उद्देष्य से जुडे, जो आगे चलकर रगों में जड़ें जमाता गया। धीरे-धीरे उनकी लेखनी परिष्कृत व परिमांर्जित होती गई। कई स्वान्तःसुखाय में लिखते हुए मजबूत लेखन के चलते पत्र-पत्रिकाओं में छपने लगे, तो कई आगे बढकर निजी पुस्तकें भी छपवा चुके हैं। ये लोग हिन्दी को लोकप्रिय बनाने में जाने-अनजाने महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। इसके चलते उनकी नई पीढी भी जो विदेशों में पैदा हुई वो भी अपनी मातृभाषा को अधिक करीब से जान पा रही है व अपनी भाषा की जड़ों से जुडी है। अपनी अग्रज पीढीयों से मिल रहे संस्कारो का खुद की रगों में समावेश कर वे हिन्दी से नफरत नही करते बल्कि उसमें अपनत्व ढूढ़ते रहते है, मिठास पाते है।
स्वतंत्रता के साथ-साथ हिन्दी के विकास के योगदान में उदंत मार्तडं, वंगदूत, सुधारक समाचार, सुधा दर्पण पत्र पत्रिकाओं के संपादक व लेखकों की हिन्दी को भारतव्यापी जनमन की भाषा बनाने में सक्रिय भूमिका रही। भारतेन्दु, महावीर प्रसाद द्विवेदी तथा इसके युगीन साहित्यकारों की जो विशिष्ट भूमिका रही वो वंदनीय हैं। पीढी-दर-पीढी साहित्यकार हिन्दी भाषा के विकास एवं उत्थान में अपना योगदान देते आ रहे हैं। न केवल भारत में रहने वाले साहित्यकार बल्कि दुनियाभर में बसे प्रवासी साहित्यकार भी अपनी मातृभाषा के प्रति अपना उत्तरदायित्व बखूबी निभा रहे हैं जन्मभूमि से परे भी अपनी जननी व अपनी भाषा के प्रति उदार है, उन्होंने अपनी भाषा अपनी संस्कृति अपने संस्कारो को छोडा नही बल्कि इन जडों को आज भी उसी लगाव व आत्मीयता से सींच रहे हैं। इनमें दूतावास के अधिकारियों, विदेशों में विश्वविद्यालयों में हिन्दी विभाग या अन्य विभागों के कार्यरत प्राध्यापक, व्याख्याता तो शामिल है ही इसके अतिरिक्त भी वहां रहने वाले अन्य प्रवासी भारतीयों का भी योगदान कम नही जो हिन्दी साहित्य को एक नई दशा व दिशा प्रदान कर रहे हैं। ऐसे हजारों साहित्यकार हैं जो हिन्दी साहित्य की हर विधा में साहित्य रच रहे है।
देश से इतर विदेशों में हिन्दी साहित्य के विकास में लगे इन साहित्यकारो की संख्या में उत्तरोतर वृद्धि हो रही हैं। जहां एक ओर भारत में रह रही नई युवा पीढी अंग्रेजों के मोह में अंधी होकर अपनी मातृभाषा को ही गंवार कहती व ख़राब दृष्टि से देखती है अंग्रेज बन जाने की होड़ में यह पीढी न अपने संस्कारो का महत्व जान पाती है न अपनी भाषा की महानता को, जोकि विश्व में सबसे अधिक लोगों द्वारा बोली जाने वाली चंद भाषाओं में से है। दूसरी तरफ दूर देशों में बसे प्रवासी अपनी मातृभाषा के प्रति आसक्त व अनुरक्त रहते है, वहां के दूतावास के अधिकारी प्राध्यापकों व साहित्कारों के अतिरिक्त आम प्रवासी भी हिन्दी भाषा की हर गोष्ठी, पाठ, कवि सम्मेलन, सामूहिक मिलन समारोह में अपनी शत-प्रतिशत भागीदारी निभाते हैं। वहां के साहित्यकार वहां केवल साहित्य सृजन करके ही अपनी भाषा के प्रति अपने काव्यों की इतिश्री नही कर लेते बल्कि वे अनेकाअनेक पत्र-पत्रिकाओं का संपादन भी कर रहे है, उन्होंने हिन्दी भाषा के उत्थान व विकास के लिये कई संस्थायें व संघ भी बनाये है, आयेदिन संगोष्ठी व सम्मेलन कर रहे है। अंतर्जाल के इस युग में अनेका अनेक ई- पत्रिकाओं का भी संचालन कर रहै है। एफ एम रेडियो स्टेशन की स्थापनायें कर रहे है। उद्घोषक अपनी सेवायें निशुल्क तक देते है। अपनी गाडी का ईधन जला कर अभी हाल ही में आस्ट्रेलिया में रह रही मंजू सिंह (ढाका) ने दूरभाष पर हुए वार्तालाप में बताया कि वो हफ्ते में तीन-चार बार एफ एम स्टेशन पर अपनी सेवायें मुफ्त देती हैं। जो प्रवासी राजस्थानी वरूण पुरोहित द्वारा चलाया जा रहा है व उसके लिये 30 किमी आना व तीस जाना यानी 60 किमी गाडी चलाकर जाने का वह पेट्रोल भी स्वयं की जेब का वहन करती हैं। हिन्दी के प्रति अपने मोह व उत्तरदायित्व को निभाने वाले ऐसे भी प्रवासी भारतीय बहुत हैं। विदेशों में रहने वाले साहित्यकार जो वहां लम्बे अर्से से बसे हुए हैं व हिन्दी के प्रति इमानदारी व शिद्दत से अपना उत्तरदायित्व निभा रहे हैं उससे उनका महत्व और अधिक बढ जाता हैं वनिस्पत भारत में रह रहे साहित्यकारों के, क्योकिं जो भाषा उनके बोलचाल-व्यवहार-कार्य की दिनचर्या नही रह जाती उसके प्रति स्नेह के चलते वे लोग उस भाषा के लिये अलग से समय निकाल कर रचनाकर्म कर रहे है यह केवल बडी बात ही नही है अपितु एक उदाहरण बनता है स्वदेश में रह कर अपनी भाषा को उपेक्षित दृष्टि से देखने वाले लोगो के प्रति। क्योंकि जब एक साहित्यकार रचना करता है तो उसकी रचनाओं में देशकाल की समस्त परिस्थितियों का विकास मिलता है। जो भारतीय भाषा में अन्य देशों के भोगोलिक, राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक परिस्थितियों का हास या विकास रचा जाता है तो इन देशों के प्रबुद्ध लोगों का ध्यान इन रचनाओं की और बरबस खिंचा चला आता है। जिसमें उस देश की समृद्धि या विनाश रचा गया है उनकी रुचि फिर इस भाषा की ओर पनपती हैं। जिस किसी भी भाषा का साहित्य समृद्ध है उस भाषा को सीखने-जानने वालों की संख्या में बरबस वृद्धि होती है, अंग्रेजी, रसियन, फ्रेंच या जापानी साहित्य का जब हिन्दी में अनुवाद होता है तब भी उन भाषाओं के विद्धानों की निगाहें इस भाषा की तरफ उठती है। प्रवासियों के लिये उस देश की भाषा के साहित्य का हिन्दी में अनुवाद करना सहज व सरल कार्य है, क्योंकि हिन्दी भाषी होते हुए हिन्दी पर तो पकड होती ही है बरसोंबरस विदेश में रहते हुए उन विदेशी भाषाओं पर भी अपनी गहरी पकड बना लेते हैं। और उस देश के साहित्य व साहित्यिक रचनाओं का हिन्दी में अनुवाद करते हैं। इस प्रकार हिन्दी का अंतर्राष्ट्रीय विकास होता है।
बीसवीं सदी के पश्चात् भारत छोडकर विदेशों में बसने वाले भारतीयों की संख्या में तेजी से वृद्वि हुई, जहां कुछ लोग पहले से लेखन कार्यो में लगे हुए थे तो कुछ लोग वहां जाने के पश्चात जन्मभूमि से व अपनों से दूर होने का अहसास जगने से भी इस सृजनात्मक कार्य में समय व्यतीत करनेभर के उद्देष्य से जुडे, जो आगे चलकर रगों में जड़ें जमाता गया। धीरे-धीरे उनकी लेखनी परिष्कृत व परिमांर्जित होती गई। कई स्वान्तःसुखाय में लिखते हुए मजबूत लेखन के चलते पत्र-पत्रिकाओं में छपने लगे, तो कई आगे बढकर निजी पुस्तकें भी छपवा चुके हैं। ये लोग हिन्दी को लोकप्रिय बनाने में जाने-अनजाने महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। इसके चलते उनकी नई पीढी भी जो विदेशों में पैदा हुई वो भी अपनी मातृभाषा को अधिक करीब से जान पा रही है व अपनी भाषा की जड़ों से जुडी है। अपनी अग्रज पीढीयों से मिल रहे संस्कारो का खुद की रगों में समावेश कर वे हिन्दी से नफरत नही करते बल्कि उसमें अपनत्व ढूढ़ते रहते है, मिठास पाते है।
उषा प्रियंवदा जी व सोमवीरा जी जैसे प्रवासियों का हिन्दी साहित्य को अतुलनीय योगदान मिला है। प्रवासी भारतीयों द्वारा हिन्दी में विपुल साहित्य उपलब्ध है और निरन्तर तैयार हो रहा है। विश्व के एक सौ से भी अधिक विश्वविद्यालयों में हिन्दी अध्ययन-अध्यापन की व्यवस्था है। प्रवासी भारतीय बच्चे भी विषय चयन में हिन्दी लेने से कतराते नहीं, बल्कि गर्व व सम्मान महसूसते हुए इसमें दाखिला लेते हैं।
इधर प्रवासियों द्वारा प्रकाशित व संचालित की जा रही दैनिक, साप्ताहिक, मासिक, त्रैमासिक, अर्द्ध वार्षिक, वार्षिक साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं में भी उत्तरोत्तर वृद्धि हुई है।
हिन्दी में साहित्य आलेखों के साथ-साथ तकनीकी व वैज्ञानिक लेखों का भी प्रवासियो द्वारा लिखा जाना व छापा जाना हिन्दी भाषा को कुछ और सोपान ऊपर चढाना है।
बीसवीं सदी के अन्त तक लगभग 150 प्रवासी भारतीय विभिन्न विधाओं में साहित्य रचना कर रहे थे और 21वीं सदी के प्रारम्भ होने तक इनमें से 50 से अधिक साहित्यकार भारत में अपनी पुस्तकें भी प्रकाशित करवा चुके थे। जब से वेब पत्र-पत्रिकाओं का, ब्लाग्स का चलन हुआ तब से ऐसे साहित्यकारों को खुला मंच मिल गया व विश्वव्यापी पाठकों तक पंहुचने का सीधा, सुगम सस्ता रास्ता भी मिल गया।
ब्रिटेन, लन्दन, अमेरिका, यू.एस.ए., कनाडा सहित खाडी देशों में से भी कई प्रवासी साहित्यकार तेजी से उभर कर सामने आये, जो साहित्य की हर विघा में उत्कृष्ट रचनायें दे रहे हैं। हिन्दी भारत में ही नही बल्कि पूरे विश्व में एक विशाल जनमानस की भाषा हैं। प्रवासी भारतीयों का हिन्दी साहित्य इसलिये भी चौंकाता है कि जहां उन पर हिन्दी भाषा लेखन व बोलचाल को लेकर कोई दबाव नहीं, पाबन्दी नहीं फिर भी इस भाषा को सहेजने- संवारने में दिया जा रहा उनका यह योगदान अनुकरणीय हैं। ये लोग तन-मन-धन से निज भाषा के प्रति समर्पित हैं। यह भी उल्लेखनीय है कि जिस प्रकार से भारत में हिन्दी पत्रकारिता का विभिन्न चरणो में विकास हुआ, ठीक उसी प्रकार विदेशों में भी प्रवासी भारतीयों द्वारा उसके विकास की दिशा में महत्त्वपूर्ण कार्य हुआ है. अधिकांशतः प्रवासी अपने संस्कार व भाषा से भावनात्मक रूप से जुड़े हुए हैं। इन्होंने समय-समय पर हिन्दी पत्रकारिता के उन्नयन के लिये अनेक पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन प्रारम्भ किया और उसमें उत्तरोत्तर वृद्धि हुई।
न्यूजीलेंड से भारत दर्शन, कनाडा से सरस्वती पत्र, हेल्म- यू.के. से हिन्दी नेस्ट, क्षितिज, सयुक्त अरब अमीरात से अभिव्यक्ति, अनुभूति, अमेरीका से अन्यथा, हिन्दी परिचय पत्रिका, पलायन, यू.एस.ए. से त्रैमासिक पत्रिका कर्मभूमि, हिन्दी जगत, हिन्दी बाल जगत, एवं विज्ञान प्रकाश, विश्व हिन्दी न्यास समिति द्वारा प्रकाशित पत्रिकाएँ है ई-विश्वा, अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी समिति-सेलम की त्रैमासिक हिन्दी पत्रिका- प्रवासी टुडे, अक्षरम नामक अंतर्राष्ट्रीय साहित्यक-सांस्कृतिक संस्था की पत्रिका पुरवाई आदि कई पत्र-पत्रिकाएं वर्षों से प्रकाशित हो रही हैं। इन पत्र-पत्रिकाओं में कविता, नाटक, कहानी, समाचार, भेंटवार्ता, ग़ज़ल, संस्मरण, मुक्तक, निबन्ध, व्यंग्य रिर्पोताज आदि सभी विधाओं का संकलन होता है।
भारत में चल रहे सभी टी.वी. चैनलों का प्रसारण भी भारतीय प्रवासियों की मांग पर विदेशों में भी किया जाता है जिससे हिन्दी भाषा का एक नया स्वरूप विकसित हो रहा है। हिन्दी के व्यापक प्रचार-प्रसार ने विदेशों पर अपना प्रभाव छोडा है, रामायण धारावाहिक का प्रभाव जापान देश पर ऐसा हुआ कि जापान ने रामायण धारावाहिक को अपने यहां दिखाने के लिये पूरी स्क्रिप्ट जापानी कोश के साथ प्रकाशित करवाई। इस तरह प्रवासियों की मांग पर हिन्दी का वर्चस्व बढा।
पिछले एक दशक में युनाईटेड किंगडम में हिन्दी साहित्य के सृजन का एक तरह से विस्फोट हुआ। साहित्य की सभी विधाओं में साहित्य रचना इंग्लेंड में हुई है। इसी काल में यहां लंदन में विश्व हिन्दी सम्मेलन यूरोपीय हिन्दी सम्मेलनों का भी आयोजन हुआ। एक लम्बे अरसे से यू.के. में हिन्दी की बहुत सारी संस्थाए रचनात्मक कार्यो में लगी हुई हैं। यू.के. हिन्दी समिति, कथा (यू.के.), बर्मिंघम में गीतांजली, बहुभाषीय समुदाय एवं कृति (यू.के.) और मानचेस्टर में हिन्दी भाषा समिति, यार्क में भारतीय भाषा संगम एवं नाटिंघम में गीतांजली- ये संस्थाएं देशभर में हिन्दी रचनाधर्मिता एवं विकास संबंधित निम्नांकित कार्य भी करती हैं:-
1. हिन्दी की परीक्षाएँ आयोजित करना।
2. पत्रिकाएँ प्रकाशित करना।
3. अंतर्राष्ट्रीय एवं राष्ट्रीय सम्मेलनों का आयोजन करना ।
4. अन्तराष्ट्रीय एवं राष्ट्रीय कवि सम्मेलन देश के भिन्न-भिन्न शहरों में करवाना।
5. कहानी कार्यशाला, कथा गोष्ठियां एवं काव्य गोष्ठियां भी निरन्तर चलती रहती हैं।
यहां के कही साहित्यकारों को भारतभर में अनेकाअनेक पुरूस्कारों से सम्मानित भी किया जा चुका हैं। ब्रिटेन के उच्चायोग की भूमिका भी हिन्दी के प्रचार-प्रसार में सराहनीय रही हैं। ब्रिटेन के प्रवासी साहित्यकार तेजेन्द्र शर्मा, गौतम सचदेव, ज्रकिया जुबेरी, तितिक्षा शाह, अचला शर्मा, तोशी अमृता, दिव्या माथुर, प्रतिभा डावर, प्राण शर्मा, भारतेन्दु विमल, महावीर शर्मा, डा महेन्द्र वर्मा, उषा राजे सक्सेना, उषा वर्मा, कादम्बरी मेहरा, कीर्ति चैधरी, डा कृष्ण कुमार, कैलाश बुधवर, गोविन्द शर्मा, डा पदमेश गुप्त, मोहन राणा, रमेश पटेल सहित कई अन्य नाम हैं जो हिन्दी भाषा के साहित्य रचनाकारों में अग्रणी हैं।
उसी तरह अमेरिका के प्रवासी रचानाकारों द्वारा भी हिन्दी साहित्य को एक नया स्वरूप प्रदान किया जा रहा है। उषा प्रियवंदा, सोमा वीरा, सुनीता जैन के नाम प्रवासी साहित्य जगत में ही नहीं बल्कि अखिल हिन्दी साहित्य में भी एक विशिष्ट पहचान रखते हैं। इन्होने अपनी उत्कृष्ट लेखनी से अमेरीकी प्रवासी हिन्दी साहित्य की अवधारण शुरू की। इन्दूकान्त शुक्ल, उमेश अग्निहोत्री, अनिल प्रभा कुमार, कमलादत्त, वेद प्रकाश बटुक, मधु माहेश्वरी, मिश्रीलाल जैन, सुधा ओम ढींगरा, अशोक कुमार सिन्हा, आर्यभूषण, डा वेदप्रकाश सिंह (अरूण), सुषमा बेदी, डा भूदेव शर्मा, रेणु राज वंशी गुप्ता, विशाका ठाकुर, स्वदेश राणा, उषादेवी कोलटुकर सहित कम से कम 100 से अधिक रचनाकारों ने पाठक एवं लेखक दोनों समुदायों का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट किया।
वहीं कनाडा के प्रवासी हिन्दी लेखक भी कहीं कम नहीं है। प्रोफेसर अश्वनि गांधी, सुमन कुमार घई, सुरेश कुमार गोयल, डा शैलजा सक्सेना- इनका भी हिन्दी साहित्य को अविस्मरणीय योगदान है। खाडी देशों के प्रवासी साहित्यकार अशोक कुमार श्रीवास्तव, उमेश शर्मा, विधाभूषण धर, कृष्ण बिहारी, दीपक जोशी, रामकृष्ण द्विवेदी आदी साहित्यकार हिन्दी साहित्य को अपना योगदान दे रहे हैं। इन देशों के अलावा भी कई प्रवासी साहित्यकार हिन्दी के प्रचार-प्रसार व हिन्दी साहित्य सृजन में लगे हुए हैं। कई दैनिक, साप्ताहिक, मासिक, वार्षिक पत्र-पत्रिकाओं को निकालने के साथ ही वेब-पत्रिकाओं का भी संचालन कर रहे हैं। हिन्दी चेतना (सुश्री सुधा ओम ढींगरा जी), रचानाकोश (अनिल जनविजय जी), गर्भनाल (संस्थापक-सम्पादक: आत्माराम शर्मा एवं सम्पादक श्रीमती सुषमा शर्मा), अनुभूति एवं अभिव्यक्ति (सुश्री पूर्णिमा बर्मन), ई-कविता समूह (श्री अनुप भार्गव जी) विश्व हिन्दी संस्थान- कनाडा (श्री शरण घई), सुश्री कुसुम ठाकुर के ब्लॉग्स, अनीता कपूर, प्रेमलता शर्मा, अनीता शर्मा जैसे कई और भी साहित्यकार विदेशों में बैठे हुए हिन्दी साहित्य की सेवा में प्रण-प्राण से जुटे हुए हैं और ये सभी साधुवाद के पात्र हैं, जो जमीन से दूर रहकर भी जमीन और मातृ भाषा के प्रति अपने कर्तव्यों का निर्वहन कर रहे हैं।
Asha Pande Ojha
बहुत बहुत धन्यवाद आशा जी सुन्दर जानकारी प्रदान की आप ने
जवाब देंहटाएंACHCHHE LEKH KE LIYE ASHA JI KO BADHAAEE AUR SHUBH KAMNA .
जवाब देंहटाएंप्रवासी भारतीय साहित्यकारों पर आशा जी का आलेख पढ़ा। इसमें दर्शायी तकनीकि त्रुटि को दुरुस्त करने का निवेदन है।
जवाब देंहटाएंआलेख में - गर्मनाल (पेपऱवेब) (श्री दीपक मशाल जी का सहयोग)- उल्लेख किया गया है, जो कि त्रुटिपूर्ण है। श्री दीपक मशाल गर्भनाल के सम्मानित लेखक रहे हैं। गर्भनाल ई पत्रिका विगत 7 वर्षों से दुनियाभर में बसे लगभग 50 हजार प्रवासी भारतीयों को उनके ईमेल पतों पर भिजवायी जाती है। इस पत्रिका के शुरूआती 18 अंकों के संस्थापक-सम्पादक आत्माराम शर्मा रहे हैं एवं वर्तमान में सम्पादक श्रीमती सुषमा शर्मा हैं।
उम्मीद है आलेख की त्रुटि को दुरुस्त करेंगे।
आदरणीय आत्माराम जी सर अनजाने में हुई इस भूल को सुधार लिया गया है
हटाएंसादर
हिन्दी सेवा को नजर अंदाज नहीं किया जा सकता
जवाब देंहटाएंजब भी प्रवासी साहित्य की बात आयेगी तब नार्वे से की जा रहे हिन्दी सेवा को नजर अंदाज नहीं किया जा सकता।
नार्वे में हिन्दी लेखन और हिन्दी पत्रिका 'परिचय' और अन्य लेखकों और मेरे स्वयं के लेखों,, कविताओं और कहानियों के प्रकाशन करते हुए योगदान की चर्चा की थी जिनमें धर्मयुग के संपादक धर्मवीर भारती, कादम्बिनी के तत्कालीन संपादक राजेन्द्र अवस्थी और नवनीत के तत्कालीन संपादक डॉ गिरिजाशंकर त्रिवेदी ने अपनी पत्रिकाओं में जिक्र किया था.
डॉ महेश दिवाकर ने अभिनन्दन ग्रंथों में चर्चा की है और उनके नेतृत्व में नेपाल में 9 जून 2013 को संपन्न हुये अन्तराष्ट्रीय सम्मलेन में भी काफी कुछ यूरोप, कनाडा और अमेरिका में रचे जा रहे हिन्दी साहित्य की चर्चा भी हुई थी. इसके अतिरिक्त मेरे (सुरेशचन्द्र शुक्ल 'शरद आलोक') और यु के के तेजेन्द्र शर्मा पर अलग से लेख भी पढ़े गये थे. उपरोक्त लेख की विदुषी लेखिका उस सम्मलेन में उपस्थित थीं, जो किसी भी दृश्य को कैद करने से नहीं चूकतीं उनका लेख कैसे वर्णन करें से चूक गया. सूचना के लिए बताना चाहता हूँ कि नार्वे से प्रकाशित पहली हिन्दी पत्रिका 'परिचय' में 1980 से 1985 तक संपादन करने का मौका मिला और मैं यूरोप में हिन्दी की प्रगति का कुछ हद तक गवाह हूँ. सन 1988 से 'स्पाइल-दर्पण' का सम्पादन कर रहा हूँ जिसमें विदेश में रहकर हिन्दी साहित्य का सृजन करने वालों की अनगिनत रचनायें छपती रहीं हैं. 'स्पाइल-दर्पण' पत्रिका इस वर्ष अपने 25 वर्ष पूरे कर रही है. धन्यवाद।
सुरेशचन्द्र शुक्ल 'शरद आलोक', ओस्लो, नार्वे speil.net@gmail.com
http://sureshshukla.blogspot.no
नार्वे में हिन्दी की गोष्ठियाँ
जवाब देंहटाएंहिन्दी प्रवासियों की संपर्क भाषा है. नार्वे (विदेश) में जब भी कभी कोई भारतीय प्रवासी आपस में मलते हैं तो वे हिन्दी में ही बातचीत करना पसंद करते हैं चाहे ये प्रवासी विभिन्न देशों से क्यों न हों.
ओस्लो, नार्वे में भारतीय-नार्वेजीय सूचना एवं सांस्कृतिक फोरम की तरफ से हर महीने एक से दो गोष्ठियां होती हैं.
गुरूवार 18 जुलाई 2013 को नेल्सन मंडेला के जन्म दिन पर गोष्ठी संपन्न हुई जिसमें दक्षिण अफ्रीका में मंडेला के योगदान और उसकी वर्तमान स्थिति पर चर्चा की गयी थी. जुलाई में दूसरी लेखक गोष्ठी बुधवार 31 जुलाई को मुंशी प्रेमचंद के जन्मदिन पर हुई थी. कल गुरूवार 15 अगस्त 2013 को भारत के स्वतंत्रता दिवस पर सांस्कृतिक महोत्सव हो रहा है जिसमें सौ से अधिक लोगों के शामिल होने की आशा है. इस कार्यक्रम में नार्वे और भारत के लेखक अपनी रचनाएं भी पढेंगे।
सुरेशचन्द्र शुक्ल 'शरद आलोक', ओस्लो, नार्वे speil.net@gmail.com
http://sureshshukla.blogspot.no
अध्यक्ष, भारतीय-नार्वेजीय सूचना एवं सांस्कृतिक फोरम
सम्पादक, स्पाइल-दर्पण
Post box 31, Veitvet
0518 - Oslo
Norway
आदरणीय सुरेश चन्द्र जी सर यह लेख पहले लिखा हुआ है व यह लेख डॉ महेशचंद्र दिवाकर जी भाईसाहब की पुस्तक हिंदी का वैश्विक परिदृश्यमें भी प्रकाशित है क्योंकि इस आलेख को लिखने तक वैश्विक परिदृश्य में बहुत कम पृष्ठ बाख गए थे तो महेश जी भाईसाहब के अनुरोध पर मैंने इस आलेख को लघु किया .. और आपके द्वारा हिंदी के विकास में किये गए कार्य व आपके अवदान को भुलाया नहीं जा सकता .. अगला आलेख इसी विषय पर पूर्ण विस्तार में तकरीबन 15 पेज तक आएगा उस में आपके डॉ प्राण शर्मा व अन्य सभी प्रवासी साहित्यकारों के बारे में उनकी रचना प्रक्रिया व हिंदी को अवदान पर बहुत कुछ जानकारी साझा करुँगी तब आपका मेल मेरे पास नहीं था, तो मैं आपसें पूर्ण जानकारी नहीं मांगा पाई, लेकिन इस त्रुटी को अगली बार सुधर लिया जायेगा इस लघु आलेख में कई महत्वपूर्ण नाम छूटे हैं जिन्होंने हिंदी के विकास में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया आशा है आप अन्यथा न लेते हुवे मेरे अगले आलेख हेतु सम्पूर्ण जानकारी सहित मुझे अपनी रचना धर्मिता की जानकारी देंगे
हटाएंसादर
कृपया मेरी टिप्पणी में ई-मेल का पता सही कर लीजिये। धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंspeil.nett@gmail.com
सुरेशचन्द्र शुक्ल 'शरद आलोक', ओस्लो, नार्वे
http://sureshshukla.blogspot.no
नमस्कार
जवाब देंहटाएंमैं डॉक्टर हर्ष कुमार तिवारी , जबलपुर (म प्र भारत) देश के पहले साहित्यिक चैनल डायनामिक संवाद टी वी (यूट्यूब) मैं आपका स्वागत करता हूँ। आप सभी साहित्य साधकों से निवेदन है की अपनी कविताओं का वीडियो बनाकर चैनल में प्रसारण हेतु भेजें।व्हाट्सप्प नंबर - 8871985980 एवं ईमेल आई डी dynamicsamvad@gmail.com