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शनिवार, 17 अक्तूबर 2015

लफंगे की डायरी : रोशनी ढोने वाले अंधेरे - दिनेश पालीवाल

दिनेश पालीवाल

३१ जनवरी १९४५ को जनपद इटावा (उ.प्र.) के ग्राम सरसई नावर में जन्मे दिनेश पालीवाल जी सेवानिवृत्ति के बाद इटावा में स्वतंत्र लेखन कार्य कर रहे हैं। आप गहन मानवीय संवेदना के सुप्रिसिद्ध कथाकार हैं । आपकी ५०० से अधिक कहानियां, १५० से अधिक बालकथाएं, उपन्यास, सामाजिक व्यंग, आलेख आदि  प्रितिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे हैं। दुश्मन, दूसरा आदमी , पराए शहर में, भीतर का सच, ढलते सूरज का अँधेरा , अखंडित इन्द्रधनुष, गूंगे हाशिए, तोताचश्म, बिजूखा, कुछ बेमतलब लोग, बूढ़े वृक्ष का दर्द, यह भी सच है, दुनिया की सबसे खूबसूरत लड़की, रुका हुआ फैसला, एक अच्छी सी लड़की (सभी कहानी संग्रह) और जो हो रहा है, पत्थर प्रश्नों के बीच, सबसे खतरनाक आदमी, वे हम और वह, कमीना, हीरोइन की खोज, उसके साथ सफ़र, एक ख़त एक कहानी, बिखरा हुआ घोंसला (सभी उपन्यास) अभी तक आपकी प्रकाशित कृतियाँ हैं। आपको कई सम्मानों से अलंकृत किया जा चुका है। संपर्क: राधाकृष्ण भवन, चौगुर्जी, इटावा (उ.प्र.) संपर्कभाष: ०९४११२३८५५५। यहाँ पर आपकी एक रचना प्रस्तुत की जा रही है-


चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार
लफंगे ने मुझे जो डायरी उस दिन सिनेमा हाॅल के रैस्तरां में दी थी उसका यह पहला पृष्ठ है जो पाठकों के लिए यहां प्रस्तुत हैः

कस्बों में भी बारातें अब शहरी ठाठ-वाट से निकलती हैं। बैंड-बाजा। जेनरेटर, रोशनियों के तिगड्डे सिरों पर लादे बच्चे, प्रौढ़ और बूढे। सजेधजे, रोशनियों से झिलमिलाते रथ पर शेरवानी, साफा, कलगीदार मौर पहने अकड़ कर बैठा दूल्हा--एक दिन का राजा! बद में तो उसे जिंदगी भर इस एक दिन की बादशाहत का खामयाजा भुगतना ही पड़ेगा। नोन-तेल-लकड़ी की फिकर में दिन-रात काल्हू के बैल की तरह चक्कर पर चक्कर काटने ही पड़ेंगे! बराती शराब पिए झूम रहे होते हैं। महिलाएं-लड़कियां रोशनियों के घेरे में इठलाती-नाचती-मटकती हैं और अपने आप को माधुरी दीक्षित और ऐश्वर्याराय मानती होती हैं। बच्चे बैंडबाजे की धुन पर नाच रहे होते हैं। नोट उड़ाए जाते हैं जिन्हें बीनने वाले फटेहाल बच्चे अपने आप को डांट-फटकार-ललकार और मारपीट-दुतकार से बेफिकर-बेपरवाह नाचते-कूदते लोगों-महिलाओं-बच्चों के बीच घुस कर नोटों पर झपट रहे होते हैं। बारात जनवासे में पहुंचते ही खाने पर टूट पड़ती है। बैंड-बाजे थक कर निढाल हो, चुप हो जाते हैं। शोर थम जाता है। रोशनियां ढोने वाले पसीने से लथपथ, थकान से बेहाल सिर पर लदी रोशनियों को बगल में रखे जमीन पर बैठ जाते हैं। काफी रात गुजर गई है।

--क्या नाम है आपका? उससे पूछा है। बूढ़ा होता आदमी। खसखसी बेतरतीव दाढ़ी। सिर के अधिकांश बाल उड़े हुए, खिचड़ी। कंधे पर रखे गमछे से अपने वेहरे और गर्दन पर चुचिया रहे पसीने को पोंछता है। किसी तरह मिचमिची आंखें ऊपर उठाता हैै--अब्दुल...लोग अब्दुल्ला कहते हैं। एकाएक ही अरसा पुराना गाना स्मरण हो आता है--बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना!

--अब्दुल भाई, बारात-घिरात सब खा-पी रहे हैं। तुम लोगों को यहां खाना नहीं खिलाया जाता? सवाल पर वह फीकी हंसी हंसने लगा। लगा जैसे रो देगा अभी--हम गरीबों को आजकल कौन खैरात में खाना खिलाता है साब? अलबत्ता हमारा खून पीने के लिए लोग जरूर तैयार रहते हैं। काम करा लेंगे, मेहनत-मजदूरी कम से कम देना चाहेंगे। जैसे हम बूढ़ों के पेट ही नहीं होता। हमें भूख ही नहीं लगती। हमारे बच्चे ही नहीं होते। बूढ़े को किससे शिकायत थी? जमाने से? व्यवस्था से? समाज से? लोगों से? ठेकेदार से या इस बरात-घिरात के इंतजामियां लोगों से? वह बोला--बहुत तेज भूख लगी है साब। ठेकेदार दिहाड़ी दे दे तो घर चला जाऊं। बिटियों ने जो थोड़ा-बहुत पकाया हो, उसे पेट में डालूं और पैर पसार कर सो जाऊं। कल फिर सुबह काम की तलाश में तड़के निकलना पड़ेगा।

--लड़का नहीं है कोई जो इस उमर में तुम्हें घर बैठे खिलाता-पिलाता? तुम्हें यों मारे-मारे रोशनियां ढोते न फिरना पड़ता? कितनी अजीब बात है, नशे में झूमने वालों और हीरोइनों की तरह नाचने वालियों के तुम रोशनियों से ज्गमगा रहे थे और खुद इस भूख के अंधेरे में डूब बैठे हो! वह फीकी हंसी हंसता हुआ किसी तरह बोला--मुकद्दर है साब अपना-अपना! म्ुकद्दर में यही ठोकरें बदी थीं। एक लड़का था। पुलिस ने लूट और राहजनी के झूठे केस में फंसा कर चार साल को नाप दिया। पैसा है नहीं जो केस लड़ पाता। सजा काट रहा है। दा तीन लड़कियां हैं साब। बड़ी की शादी खेत बेच कर कर दी थी पर ससुरालियों ने दहेज की और मांग की जो मैं पूरी नहीं कर पाया। हरामियों ने लड़की जला कर मार डाली। हम रो कर रह गए साब। मेरी घर वाली उस हादसे में ऐसी टूटी कि बिस्तर से उठी ही नहीं। चल बसी। बहुत लाड़ली थी वह बिटिया हम लोगों की। लड़का नहीं चाहता था कि हम सारा खेत-टपरिया बेच कर उसकी शादी करें पर हमने की। यह सोच कर कि लड़का अच्छा है। नौकरी से लगा हुआ है। लड़की सुखी रहेगी। पर मुकद्दर को कहाँ ले जाएं साब? खेत-टपरिया भी हाथ से गई और लड़की भी जला कर मार दी कंबख्तों ने! दामाद ने दूसरे ही महीने दूसरी शादी कर ली साब। हम कुछ नहीं कर पाए। गरीब आदमी इस देश में ताकतवर और पैसे वालों का कभी कुछ नहीं कर पाता साब।

--रात के बारह बज रहे हैं। दिहाड़ी कितनी तय हुई है ठेकेदार से? उससे पूछा। वह बोला--सौ रुपए साब। मिल जाएं तो घर जाएं। अभी तीन कोस चलना पड़ेगा इस अंधेरी रात में साब। नहर के किनारे-किनारे जाना पड़ेगा। कहीं बदमाश रास्ते में मिल गए तो रुपए तो छीन ही लेंगे, हाथ-पांव तोड़ दिए तो कल को बिटियों को कैसे खिलाऊंगा? बहुत बुरा बखत है साब। लड़कियां घर पर अकेली हैं। लफंगे हर जगह, हर गांव-गली हैं अब। कौन कब घर में घुस आए और लड़कियों को बेइज्जत कर डाले, इसका ठिकाना नहीं है साब। औरत जिंदा थी तो फिकर कम थी साब। अब तो आधा दिमाग घर पर रहता है और आधा काम पर।

--लड़कियां पढ़ रही हैं क्या? सवाल किया तो वह बोला--कहां साब? पढ़ना-लिखना हम गरीबों के नसीब में कहां साब? छोटी गांव वालों के ढोर-डंगर चराती है हार में। बड़ी बिटिया घर के काम सलेटती है। वही खाना-वाना पका लेती है। जो पका लेती है कच्चा-पक्का, वही पेट में डाल कर हम तीनों पानी पी लेते हैं साब! क्यों साब, हपने मुल्क में हम गरीबों का राज कब आएगा? ऐसा राज जहां सुकून से दो जून की रोटी हमें मिल जाएगी। लड़कियां इज्जत से घरों में रह सकेंगी। बेटियां ससुराल में जलाई नहीं जाएंगी। बेटे बेकसूर पुलिस के चंगुल में नहीं फंसेगे और हम बूढों को दो वक्त की रोटी कमा कर खिलाएंगे साब?

रोशनी ढोने वाले अंधेरे में डूबे अब्दुल के इन सवालों के जवाब हमारे पास नहीं थे। हममें से किसी के पास नहीं थे और जिनके पास इन सवालों के जवाब हैं वे अपनी तिजोरियां भरने में लगे हैं। उन्हें इन दीवाने अब्दुल्लाओं की कहां परवाह!

Dinesh Plaiwal, Etawah, U.P.

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