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रविवार, 23 दिसंबर 2018

'आग लगी है' : जो भी लिखा है, दिल से लिखा है — अवनीश सिंह चौहान

कृति : आग लगी है (गीत-नवगीत संग्रह)
कवि : संतोष कुमार सिंह 
प्रकाशक : जवाहर पुस्तकालय, सदर बाजार, मथुरा (उ. प्र.)
प्रकाशन वर्ष : 2018, मूल्य : रु 250/-, पृष्ठ : 142
ISBN: 978-81-8111-385-6

हाथरस जनपद (उत्तर प्रदेश) के ततारपुर गांव में 8 जून 1951 को जन्मे श्रद्धेय सन्तोष कुमार सिंह जी इंडियन ऑयल कारपोरेशन लिमटेड, मथुरा में उत्पादन अभियन्ता पद से सेवानिवृति के बाद आजकल स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं। साहित्य सर्जना की कई विधाओं में सक्रिय सन्तोष जी की तमाम रचनाएँ जहाँ देश-भर की कई पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं, वहीं उनमें से कई महत्वपूर्ण रचनाओं का प्रसारण आकाशवाणी, नियो टीवी (मथुरा), जैन टीवी एवं साधना टीवी (दिल्ली) से भी हो चुका है। लगभग दो दर्जन पुस्तकों के प्रणेता और आधा दर्जन पुस्तकों का सम्पादन कर चुके सन्तोष जी की समकालीन रचनाधर्मिता को 'पंडित रामनारायण शास्त्री अखिल भारतीय कहानी पुरस्कार' (इंदौर, म.प्र.), ‘कवि श्री सम्मान' (दिल्ली), 'श्री हरिदास बजाज हास्य पुरस्कार' (मथुरा), ‘चन्द्रबरदाई सम्मान’ (गाजियाबाद), 'बाल साहित्य सम्मान' (भोपाल),  ‘साहित्य प्रतिभा सम्मान’ (संस्कार भारती, मथुरा), सोहन लाल द्विवेदी स्मृति पुरस्कार (बाल साहित्य की पुस्तक पर उ.प्र. हिन्दी संस्थान से) आदि से अलंकृत किया जा चुका है। ​यह कोई सामन्य बात तो नहीं? किन्तु, हिन्दी साहित्य पर गहराई से चिंतन करने पर स्पष्ट होता है कि हमारे समय के तमाम रचनाकार ऐसे हैं, जिन्होंने हिन्दी साहित्य को समृद्ध करने में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया है, किन्तु उनका वस्तुपरक मूल्यांकन हुआ ही नहीं और यदि संयोगवश कभी-कभार हुआ भी, तो बहुत ही कम। ऐसे ही महत्वपूर्ण रचनाकारों में एक नाम सहज, सजग, मिलनसार और सकारात्मक व्यक्तित्व के धनी सन्तोष कुमार सिंह जी का भी जोड़ा जा सकता है। 

यहाँ सन्तोष जी का नाम जोड़ना ही पर्याप्त नहीं हैं; यह विचार करना भी जरूरी है कि आखिर ऐसा 'क्यों और कैसे' हुआ? इक्कीसवीं सदी में बाजारवाद और भूमंडलीकरण ने मानवीय मूल्यों का व्याकरण ही बदल कर रख दिया, जिसके दुष्परिणाम भी बहुत ही जल्दी सामने आने लगे। आदमी और उसके क्रिया-कलाप क्रय-विक्रय, हानि-लाभ, शुभ-अशुभ की परिधि में आ गए, जिसका प्रभाव साहित्यकार के व्यक्तित्व पर तो पड़ा ही, उसकी लेखनी पर भी पड़ा। स्वार्थ के वशीभूत तमाम साहित्यकार अपने उद्देश्यों से भटकने लगे। उन पर आत्ममुग्धता और प्रदर्शनप्रियता हावी होने लगी; सोशल मीडिया का नशा भी चढ़ने लगा। लिखने-पढ़ने में बेईमानी होने लगी, जिससे उसकी सार्थकता प्रश्नों के घेरे में आ गयी। सुधी पाठक भ्रमित होने लगे। इस आसन्न संकट की घड़ी में भी सजग एवं सत्यनिष्ठ रचनाकार सन्तोष जी ने अपना धैर्य नहीं खोया; वह अपने सिद्धांतों पर डटे रहकर सतत साधनारत रहे- 

पता न मुझको
मेरे प्रभु ने
किस माटी में ढाला? 
मैंने सीखा नहीं हुनर भी
झूठ बोलने वाला। 

कला सत्य की जबसे सीखी
तबसे अपने रूठ गए
दृढ़ सम्बन्ध हमारे जिनसे
चट-चट सारे टूट गए। 

किन्तु नहीं 
कह पाया तम को
किंचित शुभ्र उजाला। (सत्य की कला)

इसीलिए, यह कहने में कैसा संकोच कि ईश्वर के प्रति कृतज्ञ, मन से आस्तिक और सत्य के हुनर को जानने-समझने वाला यह कवि मनुष्य होने के नाते दृढ़ संबंधों के टूटने से आहत तो हुआ ही है (और उसे थोड़ा-बहुत आहत होना भी चाहिए), क्योंकि यह उसका अधिकार भी है- 

रहने दो हे देव! 
अरे
यह मेरा मिटने का अधिकार!- महादेवी वर्मा।   

आहत होना, मिटना कोई अच्छा लक्षण तो नहीं है? किन्तु, मानवीय स्वभाव के चलते यह सब घटता ही है- सभी के साथ, सभी समयों में, सभी स्थानों पर; क्योंकि हम सामाजिक प्राणी हैं, समाज हमारा है और हम समाज के हैं। समाज के हित के लिए हमने ही कुछ मानक बनाये हैं और इन मानकों पर हमें ही चलना है- 'चरैवेति चरैवेति।' वरिष्ठ साहित्यकार रमाकांत जी भी कहते हैं- 

कांटों वाली राह चुनी है
यह मेरा अपना चुनाव है
ग़म को ग़म की दवा बताना
यह भी ग़म का ही प्रभाव है

कैसी राह कि कैसी मंजिल
एक धुन यही सिर्फ़ चलाचल। 

यानी कि चलते रहना है, सत्कर्म करते रहना है। किन्तु, जब कभी भी, जहाँ कहीं भी हम ठहरे, विचलित हुए, वहाँ जीवन की लय टूटी है। प्रवाह टूटा है। सम्बन्धों में प्रलय आयी है। कुछ इस प्रकार से- 

सम्बन्धों में आग लगी है
बुझा-बुझा सब हारे
अग्निशमन के
यंत्र हो गए
विफल यहाँ पर सारे। 

क्रोध और नफरत ही जीते
दिल में यहाँ मलाल। (सास और बहू)

यहाँ सास-बहू का झगड़ा तो संकेत भर है। बात कुछ इससे भी बड़ी है- क्रोध और नफरत जैसे औजार हाथ में लेकर जब आदमी रिश्तों को तराशने निकलेगा, तब यह सब तो होगा ही। ऐसे में पिता-पुत्र, माँ-बेटी, भाई-बहिन, भैया-भाभी, चाचा-चाची, दादा-दादी, सास-बहू, नेता-अभिनेता, मंत्री-संतरी, जनता-जनार्दन, मित्र-सखा, बंधु-बान्धव, प्रेमी-प्रेमिका, ग्राहक-बिक्रेता आदि के संबंधों में थोड़ा-बहुत कड़ुवाहट तो घुलेगी ही। हो सकता है कभी-कभी कुछ चींजें समय के साथ भी दरक जाएँ; तब भी भोगना तो हमें ही होगा। यह जीवन का सच है। वरिष्ठ साहित्यकार विष्णु प्रभाकर भी यही मानते हैं-  

देखता हूँ पारदर्शी शीशे में
इस इंद्रजाल को/सोचता हूँ-
सत्य सचमुच कड़वा होता है। (कड़वा सत्य)

​कहा जाय तो अब इससे भी ​​बड़ी दुखद स्थिति है। 'पोस्ट ट्रुथ' अपना आकार ले रहा है- सत्य अब सत्य जैसा नहीं लगता; झूठ झूठ जैसा नहीं रहा; कुछ अजीब-सा ट्रांसफॉर्मेशन हो गया है। कवि लिखता है- 

नफरत से ही वह करता है
अपना गठबंधन
और स्वार्थ के माथे रखता है
रोली-चन्दन। 

भ्रष्टाचार ठहाके मारे
बना बाप वह ख़ास। ( झूठ की दुर्गन्ध)। 

भ्रष्टाचार करना; स्वार्थ को रोली-चन्दन से विभूषित करना, गर्व की बात हो गयी है। कुटिलता निष्कलुषता का उपहास उड़ा रही है; शराफत उदास है। 'येन केन प्रकारेण' अपना हित सर्वोपरि हो गया; राष्ट्रहित की भावना क्षीण हो रही है। ऐसे में लाज-शर्म-मर्यादा की कौन बात करे? कवि सांसत में है; वह कुछ कहना चाहता है। कभी-कभी वह स्वभाववश कुछ कह भी देता है। परन्तु, परिणाम वही- लोग उस पर ही लांछन लगाने लगते हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि सही-सही बोलने-बतियाने का स्कोप ही न बचा हो? संस्कार क्षय हो गए हों? यथा- 

नित उदास
रहता है अपना
यह छोटा-सा मन
नित्य उजड़ते
देखा करता
खुशियों का कानन। 

पहले जैसी
बात नहीं है
सिंह दहाडों में
संस्कार बह गए
स्वार्थ की बहती बाढ़ों में

अपने दाग न देखें,
देखें मेरा
चाल-चलन। (यह छोटा-सा मन)

इसी प्रकार से कभी वरिष्ठ नवगीतकार एवं 'नये-पुराने' पत्रिका के यशस्वी सम्पादक श्रद्धेय स्व. दिनेश सिंह जी भी चिंतित दिखाई दिए- '

रथ नहीं रहे ना अश्व रहे
ना दीर्घ रहे ना ह्र्स्व रहे
मुट्ठी में तनी हुईं वल्गाओं के
छूटे वर्चस्व रहे

उनकी पीठों से छिटके हम
अपनी ही पीठें मले गये
हम छले गये!

इस संग्रह के कवि को भी इस बात का कष्ट हुआ है कि- 

चीरहरण के लिए दुशासन
सीना तान खड़े। 

हंस सभी चुप
काँव-काँव से
डरी हुई लाली
कंकरीट के जंगल में कब
मिलती हरियाली। 

रात अमावस भरे पाप से
नित-नित नये घड़े। (चीरहरण)। 

जाहिर है दु:शासन के दुस्साहस को चुनौती देने वाला कोई नहीं है? भीम की तरह गदा से उसका सिर फोड़ने वाला कोई नहीं है? हंस मौन हैं; कौओं की काँव-काँव से लाली दहशत में है। अमावस की रात है। ठगई है। धोखेबाज़ी है। अत्याचार है। अनाचार है। और तो और यह भी है- 

खिली-अधखिली कलियाँ सब ही
काँप रही हैं निशदिन
इन्द्र अहल्याओं को तकते
चीर हरें दु:शासन। 

करें भरोसा कैसे नर पर
बना आदमी ज्यादा बर्बर। 
रोज दामिनी चीख रही है
नोंच रहे हैं बाज। (नोंच रहे हैं बाज)

इन विसंगतियों के बावजूद भी वह पूरी तरह से निराश भी नहीं हैं। वह जानता और मानता भी है कि हर पतझड़ के बाद वसंत आता है। उम्मीद  से दुनिया कायम है- 

फिर वसंत आया है सजधज
मन में अति उल्लास हमारे
केसर घोल रहा है सूरज
अभिनंदन है द्वारे-द्वारे। (केसर घोल रहा है सूरज)

सूरज का केसर घोलना बहुत बड़ी बात है- सुगंध एवं सफलता का प्रतीक; जय-विजय की आशा का शंखनाद। शायद इसीलिये वरिष्ठ कवि एवं आलोचक वीरेंद्र आस्तिक जी भी कहते हैं- 

मानुष हार नहीं माने
वह जय की आशा जीता है। 

लघु जन हों या हों
भारी भरकम पद वाले
संघर्ष सभी का
जीवन को ही मथ डाले

घोर तिमिर में भी कोई
सूरज की भाषा जीता है। (रोज तमाशा)

संतोष कुमार सिंह के साथ अवनीश सिंह चौहान 
आदमी की बर्बता को डिफाइन करते, उसके पतन को रेखांकित करते और उसकी आशा-निराशा को शब्दायित करते तमाम मुद्दे इस काव्य संग्रह में उठाये गए हैं। इन सभी पर बात करना एक छोटे-से भूमिका लेख में संभव नहीं है। किन्तु, फिर भी आज की कुटिल और अवसरवादी राजनीति, सामाजिक भेदभाव, आर्थिक शोषण, मजदूर-किसान की दुर्दशा, बलात्कार, व्यभिचार, दहेज़, कर्मकाण्ड, पाखंड, कपट, घृणा-विद्वेष, पर्यावरण प्रदूषण, प्रेम, प्रकृति, अध्यात्म आदि विषयों पर अपनी चिंता (चिंतन भी) प्रकट करने वाले संवेदनशील रचनाकार सन्तोष जी अपनी सर्जना में बेलौस, बेबाक और बिंदास दिखाई पड़ते हैं। यह शुभ संकेत ही है उनकी गीत से नवगीत की यात्रा के लिए; यह यात्रा समय सापेक्ष भी होती है और व्यक्ति सापेक्ष भी। इसे वरिष्ठ साहित्यकार एवं आलोचक नचिकेता कुछ इस प्रकार से देखते हैं- "भारतीय समाज और हिन्‍दी साहित्‍य में आधुनिकीकरण की प्रक्रिया अत्‍यन्‍त ही तीव्र हो गयी थी, जिससे साहित्‍य की प्रायः सभी विधाओं की प्रभावी और वैचारिक अर्न्‍तवस्‍तुओं में गुणात्‍मक तब्‍दीलियां आयीं। परिणामतः गीत की धरती पर भी परिवर्तन की लहर आई। इसलिए आधुनिकतावादी-अस्‍तित्‍ववादी जीवन-दृष्‍टि के प्रभाव और प्रवाह में लिखे गये गीत ही नवगीत है।" इस दृष्टि से सन्तोष जी ने जो भी लिखा है, जितना भी लिखा है, दिल से लिखा है, दिलवालों के लिए लिखा है, क्योंकि उन्हें पता है कि आज के इस अराजक और मूल्यहीन समय में मनुष्य को अच्छा साहित्य ही उबार सकता है। वरिष्ठ आलोचक, आचार्य नामवर सिंह जी भी यही मानते हैं कि गीत (नवगीत भी) समाज को बदलने में क्रान्‍तिकारी भूमिका निभाते हैं। कुल मिलाकर, सन्तोष जी की यह कृति पठनीय, विचारणीय और संग्रहणीय है।
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भूमिका लेखक :
 डॉ  अवनीश सिंह चौहान  

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