पूर्वाभास (www.poorvabhas.in) पर आपका हार्दिक स्वागत है। 11 अक्टूबर 2010 को वरद चतुर्थी/ ललित पंचमी की पावन तिथि पर साहित्य, कला एवं संस्कृति की पत्रिका— पूर्वाभास की यात्रा इंटरनेट पर प्रारम्भ हुई थी। 2012 में पूर्वाभास को मिशीगन-अमेरिका स्थित 'द थिंक क्लब' द्वारा 'बुक ऑफ़ द यीअर अवार्ड' प्रदान किया गया। इस हेतु सुधी पाठकों और साथी रचनाकारों का ह्रदय से आभार।

सोमवार, 26 अप्रैल 2021

साक्षात्कार : संतुलन अपने आप बन जाता है — पूर्णिमा वर्मन


पीलीभीत (उत्तर प्रदेश, भारत) के मनोरम प्राकृतिक वातावरण में जन्मी (जन्म तिथि 27 जून 1955) और पली-बढीं पूर्णिमा वर्मन का प्रकृति, पर्यावरण, अध्यात्म एवं ललित कलाओं के प्रति बचपन से ही विशेष आकर्षण रहा है। समय के साथ यह आकर्षण अभिरुचि में बदल गया और अभिरुचि सृजन और संस्कार में रूपांतरित हो गयी— दूसरे शब्दों में कहा जाय कि पीलीभीत से मिर्ज़ापुर और मिर्जापुर से इलाहाबाद आगमन पर यहाँ की माटी ने उनके भीतर साहित्य और संस्कृति के अनूठे रँग भर दिए। इन्हीं रँगों में रँगी संस्कृत साहित्य में स्नातकोत्तर एवं पत्रकारिता व वेब डिज़ायनिंग में डिप्लोमा धारक पूर्णिमा जी इलाहाबाद से लखनऊ और फिर लखनऊ से शारजाह (यूएई, 1995) की लम्बी यात्रा पर निकल पड़ीं। शारजाह पहुँचकर खाली समय में जलरंग, रंगमंच, संगीत और स्वाध्याय से अपने आपको पूरी तरह से जोड़ कर अपनी रचनात्मक ऊर्जा को विस्तार देने लगीं। 

यहाँ पूर्णिमा वर्मन को पत्रकारिता से विशेष लगाव होने से साहित्यिक पत्रकारिता में अपना भविष्य दिखाई देने लगा। शायद इसीलिये उन्होंने 'अभिव्यक्ति' और 'अनुभूति' नामक दो वेब पत्रिकाओं की परिकल्पना की और इंटरनेट पर हिंदी भाषा एवं साहित्य के प्रचार-प्रसार में योगदान देने का मन बना लिया। इस हेतु उन्होंने 1996 में दीपावली के आसपास 'जियोसिटी' पर एक छोटा-सा अनियमित प्रयास भी शुरू कर दिया, जो समय (विशेष रूप से 15 अगस्त 2000 से अब तक) के साथ विस्तार पाकर प्रतिष्ठित जाल-पत्रिकाओं के रूप में अब हमारे सामने है। 

'अनुभूति' एवं 'अभिव्यक्ति' को विस्तार देने के उद्देश्य से पूर्णिमा वर्मन ने 2011 में एक और योजना बनाई। यह योजना— 'अभिव्यक्ति विश्वम' संस्थान के रूप में ओमेक्स सिटी, लखनऊ में करीने से विगत कई वर्षों से कला, साहित्य एवं संस्कृति के क्षेत्र में योगदान दे रही है। यानी कि वर्तमान में 'अभिव्यक्ति विश्वम' के परिसर में जहाँ छोटे बच्चों को संस्कारित करने के उद्देश्य से एक स्कूल चलाया जा रहा है, वहीं कला, साहित्य, संस्कृति एवं दर्शन को केंद्र में रखकर महत्वपूर्ण आयोजन (विशेष रूप से नवगीत महोत्सव) एवं सम्मान समारोह (नवांकुर पुरस्कार आदि) किये जा रहे हैं। आने वाले समय में इसमें एक इनडोर थियेटर, एक आउटडोर थियेटर, पुस्तकालय, रेकार्डिंग रूम, चाय गुमटी, रेस्त्रां, आर्ट स्टूडियो, आर्ट गैलरी, नृत्य स्टूडियो और कुछ अतिथि कक्षों की सुविधाएँ उपलब्ध कराने का भी प्रावधान किया गया है। 

लेखन, संपादन, ग्राफ़िक डिज़ायनिंग और जाल प्रकाशन के अनेक रास्तों से गुज़रते हुए साहित्यिक पत्रिकाओं के संपादन और कला-कर्म में व्यस्त पूर्णिमा वर्मन एक चर्चित व्यक्तित्व हैं। 'वक्त के साथ' (कविता संग्रह, 2003) एवं 'चोंच में आकाश' (नवगीत संग्रह, 2014) आदि उनकी प्रकाशित कृतियाँ हैं। उन्होंने वतन से दूर' (कहानी संग्रह, 2011) एवं 'नवगीत 2013' (चर्चित साहित्यकार डॉ जगदीश व्योम के सहयोग से नवगीत की पाठशाला से चुनी हुई रचनाओं का संग्रह, 2013) पुस्तकों का संपादन किया है। इतना ही नहीं, उनकी कई रचनाओं— फुलकारी (पंजाबी में), मेरा पता (डैनिश में), चायखाना (रूसी में) आदि का बेहतरीन अनुवाद हो चुका है। कई वर्षों से वह इंटरनेट पर 'संग्रह और संकलन', 'चोंच में आकाश', 'नवगीत की पाठशाला', 'शुक्रवार चौपाल' आदि ब्लॉग्स भी संचालित कर रही हैं। 

वेब पर हिंदी को लोकप्रिय बनाने के अपने प्रयत्नों के लिए उनको भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद, साहित्य अकादमी तथा अक्षरम के संयुक्त अलंकरण— 'अक्षरम प्रवासी मीडिया सम्मान' (2006) रायपुर-छत्तीसगढ़ की संस्था सृजनगाथा द्वारा 'हिंदी गौरव सम्मान' (2008), दिल्ली से साहित्यशिल्पी द्वारा 'जयजयवंती सम्मान' (2008) तथा केन्द्रीय हिन्दी संस्थान के 'पद्मभूषण डॉ मोटूरि सत्यनारायण पुरस्कार' (2008) से विभूषित किया जा चुका है। वर्तमान में ओमैक्स सिटी, लखनऊ में निवास कर रहीं हिंदी विकिपीडिया के प्रबंधकों में से एक पूर्णिमा वर्मन हिंदी के अंतर्राष्ट्रीय विकास के कार्यों से जुड़ी हुईं है। — अवनीश सिंह चौहान

पूर्णिमा वर्मन से अवनीश सिंह चौहान की बातचीत


अवनीश सिंह चौहान— आपने 'अभिव्यक्ति' और 'अनुभूति' के माध्यम से इंटरनेट पर हिंदी भाषा एवं साहित्य के प्रचार-प्रसार में बड़ा योगदान दिया है। इन जाल-पत्रिकाओं के प्रकाशन की योजना कब, कहाँ और कैसे बनी?  

पूर्णिमा वर्मन— 1995 में शारजाह आने के बाद मेरा काफी समय इंटरनेट पर बीतने लगा। तब अहसास हुआ कि हमारी भाषा में दूसरी विदेशी भाषाओं की अपेक्षा काफी कम साहित्य (लगभग नहीं के बराबर) वेब पर है। 1996 में दीपावली के आसपास जियोसिटी पर एक छोटा-सा अनियमित प्रयत्न शुरू किया था जिसे देख-पढ़ कर देश-विदेश से अनेक मित्र चैट पर साथ जुड़े। बातों ही बातों में इसके नियमित स्वरूप पर काम शुरू हुआ। धीरे-धीरे इसने आकार लेना शुरू किया और वर्ष 2000 में 15 अगस्त को इसे एक नियमित स्वरूप मिला, जो थोड़े-बहुत परिवर्तन के साथ आज भी जारी है।

अवनीश सिंह चौहान— यानी कि शारजाह में आपने इस कार्य की योजना बनाई और धीरे-धीरे इस मुकाम पर पहुँचीं। एक प्रवासी संपादक के रूप में आपको संपादन कार्य में किन-किन कठिनाइयों से गुजरना पड़ा?

पूर्णिमा वर्मन— कठिनाई तो कोई नहीं थी। वेब पर बहुत से लोग हिंदी-प्रेमी मिले, समय के साथ सब जुड़ते चले गए। इनमें से अनेक प्रवासी भारतीय साहित्यकार, प्रोफेसर या विद्वान थे, कुछ छात्र भी थे, जो आज सफल साहित्यकार हैं, सब एक दूसरे से मिलते गए और एक दूसरे की मदद करते हुए हम यहाँ तक पहुँचे। प्रारंभ में तकनीकी सहयोग कैनडा से अश्विन गांधी का था, जो ओकनगन यूनिवर्सिटी में कंप्यूटर साइंस के प्रोफेसर थे, हमारे फांट को डायनेमिक बनाने का काम प्रबुद्ध कालिया ने किया था, जो रवीन्द्र कालिया और ममता कालिया के बेटे हैं। टाइपिंग का काम 99 प्रतिशत दीपिका जोशी करती थीं, क्योंकि तब यूनिकोड न होने के कारण बहुत से फांट थे और लगभग सारी सामग्री को टाइप करना पड़ता था। किन्तु, सहयोग से सब काम हो जाता था।

अवनीश सिंह चौहान— 10-12 वर्ष पहले भारत में आज की तरह सहज रूप में इंटरनेट उपलब्ध नहीं था; इंटरनेट पर इतनी अधिक साहित्यिक सामग्री उपलब्ध नहीं थी; सोशल मीडिया में इतने अधिक लोग भी एक दूसरे जुड़े हुए नहीं थे। ऐसे में निश्चित ही संपादन कार्य के लिए पत्र-पत्रिकाओं एवं पुस्तकों की बड़ी आवश्यकता रहती होगी। इस आवश्यकता की पूर्ति शारजाह में कैसे हुई?

पूर्णिमा वर्मन— काफी प्रयत्न किये जाते थे। मैं जब भारत जाती थी तब बहुत सी किताबें सूटकेस में भरकर लाती थी। बहुत से लोग थे, जो भारत के विभिन्न शहरों से सामग्री जुटाते थे, जिसमें लेख, चित्र, ग्राफिक— सभी कुछ होता था। भारत से किसी विशिष्ट सामग्री को मँगाना होता था तो प्रयागराज से ब्रजेश कुमार शुक्ल स्कैन कर के ईमेल करते थे। देश-विदेश में बसे प्रवासी रचनाकार बहुत अच्छा सहयोग करते थे। हमारे याहू समूहों में भी कविताओं की निरंतर कार्यशालाएँ चलतीं और वहाँ से भी रचनाएँ आती थीं, जैसे कि आजकल फेसबुक से आती हैं।

अवनीश सिंह चौहान— आपने बताया कि ऑनलाइन पत्रकारिता के प्रारंभिक दौर में सामग्री की आपूर्ति के लिए जद्दोजहद करनी पड़ती थी। आज सोशल मीडिया के विस्तार से तमाम रचनाकार ऑनलाइन और ऑफलाइन पत्र-पत्रिकाओं से आसानी से जुड़ रहे हैं। क्या अब साहित्यिक सामग्री आवश्यकता से अधिक उपलब्ध तो नहीं हो रही है? यदि हाँ, तो उचित सामग्री के चयन और प्रकाशन की प्रक्रिया क्या है? यदि नहीं, तो क्या कारण हैं?

पूर्णिमा वर्मन— हम भारतीयों के पास सभी चीजें आवश्यकता से अधिक हैं। जनसंख्या से लेकर मौसम तक। लेकिन जो हमें चाहिये वह मिल जाय, आलोचना में समय बरबाद न किया जाय, यही महत्वपूर्ण है। सबके अपने-अपने उचित (और अनुचित भी) हैं। मीडिया के पास अपनी स्वतंत्रता है— जो एक व्यक्ति को उचित लगता है, वही दूसरे को अनुचित। इसलिए मैं जो प्रकाशित करती हूँ, वही उचित है, ऐसा दावा मैं नहीं करूँगी। लोगों की अलग-अलग जरूरतें होती हैं, उन्हें अपनी पसंद की चीज चाहिये। ज्यादा होने का लाभ यह होता है कि सबको अपनी पसंद का चुनाव करने की सुविधा रहती है। इसमें कोई बुराई नहीं है।

अवनीश सिंह चौहान— आप नियमित रूप से ब्लॉग भी चलाती रहीं हैं। आपका ब्लॉगिंग का अनुभव कैसा रहा हैं? क्या आप अन्य ब्लॉगर्स के बारे कुछ कहना चाहेंगी?

पूर्णिमा वर्मन— ब्लागिंग अब इतनी नियमित नहीं है। विशेष रूप से इसलिये कि भारत में जो सांस्कृति संस्थान बनाया है उसमें बहुत सारा समय देना होता है। अनुभव तो हर चीज का अच्छा ही होता है। हम कुछ सीखते हैं और कुछ और सीखने की इच्छा रखते हैं। इसलिए इस सन्दर्भ में कहने को खास कुछ नहीं है, जब ब्लागिंग नयी-नयी शुरू हुई थी तब 'अभिव्यक्ति' में हमारा तकनीकी कॉलम रवि रतलामी लिखते थे और उन्होंने हमारे हजारों पाठकों को ब्लागर बनने के गुर बताए।
 
अवनीश सिंह चौहान— आपकी सर्वाधिक रुचि किसमें है— रचनात्मक लेखन में या वेब संपादन में या दोनों में? यदि दोनों में है तो आप पारिवारिक जिम्मेदारियों के बीच अपने आपको कैसे 'बैलेंस्ड' करती हैं?

पूर्णिमा वर्मन— मेरी रुचि केवल सार्थक जीवन जीने में है। फिर चाहे वह रचनात्मक लेखन हो या संपादन या कला-कर्म या रंगमंच या घर में रोटी पकाना। सब में समान आनंद आता है। किसी काम का दबाव न हो, बस। संतुलन अपने आप बन जाता है।
 
अवनीश सिंह चौहान— मैंने 'अभिव्यक्ति विश्वम' के नवगीत महोत्सव में कई बार देखा और महसूस किया कि आपका लगाव आपकी माता जी से अधिक था। आप उन्हें सोशल मीडिया में भी अक्सर 'मिस' करती हैं?

पूर्णिमा वर्मन— माता-पिता जीवन की अमूल्य निधि हैं। 2015 में माँ नहीं रहीं। उनकी कमी तो महसूस होती है। 
 
अवनीश सिंह चौहान— 'अभिव्यक्ति विश्वम' की योजना कब और कैसे बनी और इसका वर्तमान स्वरुप क्या है?

पूर्णिमा वर्मन— अभिव्यक्ति विश्वम की योजना 2011 में बनी थी। आज इसमें छोटे बच्चों का एक स्कूल चल रहा है। नियमित साहित्यिक आयोजन होते हैं। पर यह एक बड़ी परियोजना है। इसके कुछ भाग अभी भी निर्माणाधीन हैं। इसके पूरा होने पर इसमें एक इनडोर थियेटर, एक आउटडोर थियेटर, पुस्तकालय, रेकार्डिंग रूम, चाय गुमटी, रेस्त्रां, आर्ट स्टूडियो, आर्ट गैलरी, नृत्य स्टूडियो और कुछ अतिथि कक्षों की सुविधाएँ होंगी। यहाँ भारतीय साहित्य, संस्कृति, कला और दर्शन से सम्बंधित अनेक आयोजन किये जा सकेंगे। आपने देखा है कि इनमें से काफी काम शुरू हो गए हैं— सब कुछ छोटा-छोटा पर सुसंगठित।

अवनीश सिंह चौहान— जैसा कि आपने बताया— 'अभिव्यक्ति विश्वम' में साहित्य, कला और संगीत— तीनों विधाओं में 'सराहनीय' कार्य किये जा रहे हैं। आपमें इन तीन विधाओं का संस्कार कहाँ से आया? 'अभिव्यक्ति विश्वम' के माध्यम से इन विधाओं में क्या कुछ किये जाने की आवश्यकता है?

पूर्णिमा वर्मन— इन सब चीजों के संस्कार तो सभी भारतीयों में होते हैं। सिर्फ उनके लिये समय निकालने की बात है। 'अभिव्यक्ति विश्वम' के माध्यम से इन सभी में शिक्षा और प्रस्तुति के कार्यक्रम नियमित रूप से हो सकें, ऐसा प्रयत्न है।

अवनीश सिंह चौहान— आपने कई शहरों में प्रवास किया है और कई देशों की यात्राएँ की हैं। आपकी रचनाधर्मिता पर इसका क्या प्रभाव पड़ा?

पूर्णिमा वर्मन— इन प्रवासों के दौरान विशेष रूप से मैंने यही सीखा कि अपनी भाषा और संस्कृति से प्रेम, उससे गर्व और उसके लिये निरंतर काम करना बहुत जरूरी है, जिसकी ओर हम भारतीय बहुत ही कम ध्यान देते हैं।

अवनीश सिंह चौहान— आपने गीत-नवगीत, कविता, बालसाहित्य, निबंध, हास्यव्यंग्य, कहानी आदि विधाओं में सृजन किया है। कई विधाओं में सर्जना करने के पीछे आपका क्या उद्देश्य रहा और प्रकाशित कृतियों के आलोक में उस उद्देश्य को आप कैसे पूरा कर रही हैं?  

पूर्णिमा वर्मन— कई विधाओं में सर्जना करने का कोई विशेष उद्देश्य नहीं है। लिखने के सिवा भी मैं बहुत से काम करती हूँ, जो भी मुझे अच्छे लगें। जब जो लिखने का मन किया, वही किया है। अगर हम बिना उद्देश्य की परवाह किये भी निरंतर किसी नेक काम में लगे रहें तो उससे कोई महत्वपूर्ण उद्देश्य अचानक पूरा हुआ दिखता है। समझ लीजिये कि खाना पक रहा है वह अगर बहुत सुंदर या स्वादिष्ट न भी बना तो कुछ भूखे लोगों को जरूर तृप्त कर उनको स्वस्थ बना सकता है।

अवनीश सिंह चौहान— आप इन दिनों नवगीत आंदोलन से गहराई से जुडी हुई हैं? आपकी दृष्टि में आज गीत और नवगीत की स्थिति क्या है और इस स्थिति को क्या और अधिक अच्छा बनाये जाने की आवश्यकता है?

पूर्णिमा वर्मन— गीत या नवगीत को मैं हिंदी के विकास का एक महत्वपूर्ण साधन मानती हूँ। इसी उद्देश्य से मैंने इसे गायन, नृत्य, फिल्म और मंचन से जोड़ा है। शायद निरंतर इस पर काम करने से इसकी लोकप्रियता में कुछ बढ़ोत्तरी हुई है।

अवनीश सिंह चौहान— वेब पर गीत-नवगीत की वर्तमान स्थिति क्या है और इसमें किन-किन पत्रिकाओं के योगदान को सहर्ष रेखांकित किया जा सकता है?

पूर्णिमा वर्मन— अपनी पत्रिकाएं बनाने के अतिरिक्त फिलहाल चार-पाँच सालों से वेब पर इतनी सक्रिय नहीं हूँ, इसलिये इसका मुनासिब उत्तर देना संभव नहीं होगा। फिर भी वेब पर 'कविताकोश', 'हिंदी समय', 'साहित्य कुञ्ज', 'रचनाकार', 'पूर्वाभास' आदि पत्रिकाओं का कार्य सराहनीय है। साथ ही अपनी पत्रिका 'अनुभूति' में भी हमने शुरू से ही गीत या नवगीत को मुखपृष्ठ पर महत्वपूर्ण स्थान देने का प्रयत्न किया है।

अवनीश सिंह चौहान— नवगीत लेखन और साहित्यिक पत्रकारिता— दोनों में नारीवाद, नारी अस्मिता, नारी विमर्श एवं नारी सशक्तिकरण को आप किस प्रकार से देखती हैं? आपकी दृष्टि में समकालीन युग में किन-किन महिला रचनाकारों और सम्पादकों का अवदान सराहनीय है और क्यों?
 
पूर्णिमा वर्मन— मैं किसी भी लेखन को किसी वाद से जोड़कर नहीं देख पाती हूँ। हर काम में महिला एवं पुरुष को अलग कर के देखना भी ठीक नहीं है। सभी अपनी-अपनी योग्यता के अनुसार अच्छा काम कर रहे हैं। 

अवनीश सिंह चौहान— हिंदी भाषा एवं साहित्य के पाठकों के लिए आपका सन्देश?

पूर्णिमा वर्मन— लगे रहो मुन्ना भाई!

Interview: Purnima Verman in Conversation with Abnish Singh Chauhan

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