पूर्वाभास (www.poorvabhas.in) पर आपका हार्दिक स्वागत है। 11 अक्टूबर 2010 को वरद चतुर्थी/ ललित पंचमी की पावन तिथि पर साहित्य, कला एवं संस्कृति की पत्रिका— पूर्वाभास की यात्रा इंटरनेट पर प्रारम्भ हुई थी। 2012 में पूर्वाभास को मिशीगन-अमेरिका स्थित 'द थिंक क्लब' द्वारा 'बुक ऑफ़ द यीअर अवार्ड' प्रदान किया गया। इस हेतु सुधी पाठकों और साथी रचनाकारों का ह्रदय से आभार।

शनिवार, 21 अगस्त 2021

साक्षात्कार : समय की छलनी बड़ी निर्मम है — रामसनेहीलाल शर्मा 'यायावर'


डॉ रामसनेही लाल शर्मा 'यायावर' का जन्म 5 जुलाई 1949 को जनपद फिरोज़ाबाद (उत्तर प्रदेश, भारत) के ग्राम तिलोकपुर में हुआ। इन्होंने डॉ भीमराव अंबेडकर विश्वविद्यालय, आगरा (उ.प्र.) से एम.ए., पीएच.डी., तथा डी.लिट. (हिंदी) की उपाधियाँ प्राप्त कीं। एस.आर.के. (पी.जी.) कॉलेज, फिरोज़ाबाद के स्नातकोत्तर हिंदी विभाग में सह आचार्य के पद से सेवामुक्त व एमेरिटस फैलो (यूजीसी) रह चुके डॉ यायावर के अब तक सात गीत-नवगीत संग्रह— 'मन पलाशवन और दहकती संध्या' (1987), 'गलियारे गंध के' (1998), 'मेले में यायावर' (2007), 'अंधा हुआ समय का दर्पन' (2009), 'चीखती टिटहरी : हाँफता अलाव' (2011), 'झील अनबुझी प्यास की' (2016), 'मन पत्थर के' (2021) सहित दो मुक्तक संग्रह, नौ दोहा संग्रह, दो सजल संग्रह, तीन विविध विधाओं के काव्य-संग्रह, दो ब्रजभाषा गीत संग्रह, ग्यारह शोध-ग्रन्थ एवं शोधपरक आलेख संग्रह एवं एक 'नवगीत कोश' (2020) प्रकाशित हो चुका है। इनके नवगीत 'शब्दपदी: अनुभूति एवं अभिव्यक्ति' (सं.— निर्मल शुक्ल, 2006), 'शब्दायन : दृष्टिकोण एवं प्रतिनिधि' (सं.- निर्मल शुक्ल, 2012), 'गीत वसुधा' (सं.— नचिकेता, 2013), 'नयी सदी के नवगीत - खण्ड दो’ (सं.— डॉ ओमप्रकाश सिंह, 2016), 'सहयात्री समय के' (सं.— डॉ रणजीत पटेल, 2016), 'समकालीन गीतकोश' (सं.— नचिकेता, 2017) आदि में संकलित हो चुके हैं। इन्हें उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान से 'साहित्य भूषण' (2018) सहित चार दर्जन से अधिक सम्मान/पुरस्कार प्रदान किये जा चुके हैं। संपर्क : 86, तिलक नगर, बाईपास रोड, फिरोजाबाद- 283203 (उ.प्र.), मो. 09412316779, ईमेल: dryayavar@gmail.com

रामसनेहीलाल शर्मा 'यायावर' से अवनीश सिंह चौहान की बातचीत


अवनीश सिंह चौहान— कृपया अपने जन्म, माता-पिता, घर-परिवार आदि के बारे में बताएँ, जिससे ज्ञात हो सके कि किस प्रकार से घर-गाँव-समाज की सांस्कृतिक विरासत एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तांतरित हुई?

रामसनेहीलाल शर्मा 'यायावर'— अवनीश 'जी', मेरा जन्म फिरोजाबाद जनपद के ग्राम तिलोकपुर में पौष कृष्ण द्वादशी सम्वत् 2005 तदनुसार 27 दिसम्बर 1948, सोमवार को हुआ था। विद्यालय में, जैसा कि हमारी पीढ़ी के लगभग सभी सहयात्रियों के साथ हुआ है, मेरी जन्मतिथि 5 जुलाई 1949 लिखी गयी। मेरे पिताश्री पूज्य पं. गयाप्रसाद शर्मा स्वतन्त्रतासेनानी, लोकगायक और लोककवि थे। आजादी के संघर्ष में तीन बार जेल गये। 14 साल घर से बाहर रहकर आजादी के लिए जनचेतना जगाते रहे। माँ सुगृहणी थीं। पिताजी के पास एक छोटा पुस्तकालय था। गाँव का जीवन तब सामान्य था। लोग सम्पन्न नहीं थे, परन्तु पारस्परिक प्रेम और सौहार्द बहुत था। पर्व-त्यौहार सब मिल-जुलकर मनाते थे, एक-दूसरे के सुख-दुख में सहभागी बनते थे। पिताजी और ताऊजी सदा जिस जमींदार का विरोध करते थे, उसी ने पिताजी की कुर्की आने पर परिवार के बैलों की जोड़ी को कुर्क नहीं होने दिया और उसकी माँ की मृत्यु पर पूरे गाँव को मनाकर पिताजी ही ले गये और उसके घर में आग लगने पर पूरा गाँव आग बुझाने में जुट गया। इस आत्मीयता, मूल्य और अपनत्व के खो जाने की पीड़ा मेरे अनेक गीतों में उभरी है— "कच्चे आँगन, पक्के रिश्ते/ जाने कहाँ गये" आदि। तब लोग सच्चे, भोले और उत्सवप्रिय थे।

अवनीश सिंह चौहान— अध्ययन, अध्यापन एवं शोध में सतत क्रियाशील रहते हुए आपमें रचनात्मक चेतना का प्रादुर्भाव एवं कालांतर में उसका विस्तार किस प्रकार हुआ?

रामसनेहीलाल शर्मा 'यायावर'— लोकचेतना और राष्ट्रभक्ति तो बचपन से ही रक्त में घुल गयी थी, परन्तु मेरी रचना-यात्रा बड़ी वक्र रही। कक्षा 7 में पहली कविता लिखी, फिर 1962 के चीनी आक्रमण के समय गाँव की भजन-मण्डली के लिए देशभक्ति के भजन व लोकगीत लिखने लगा। फिर कक्षा 11 में आकर कमिश्नरी स्तर की छात्रों की कहानी प्रतियोगिता के लिए एक ऐतिहासिक कहानी— 'रक्त की पुकार' लिखी, वह द्वितीय आ गयी। अगली वर्ष इसी के लिए 'गद्दार' कहानी लिखी और उसने प्रथम स्थान पाया। दोनों कहानियाँ कॉलेज की पत्रिका में छपीं। फिर कई ऐतिहासिक कहानियाँ— 'वीरवर दुर्गादास राठौर', 'विवेकानन्द', 'अमर सिंह राठौर' आदि के जीवन पर लिखी गयीं, परन्तु ये सब अब बिलुप्त हैं। 1970 में जब एम.ए. (हिन्दी) में प्रवेश लिया तो श्रेष्ठ काव्य पढ़ते-पढ़ते भीतर का सोया कवि जाग गया। गीत और कवित्त-सवैया साथ-साथ लिखे जाने लगे। 1972 में एम.ए. पूरी होते ही अपने ही काॅलेज (एस.आर.के. पी.जी. कॉलेज, फीरोजाबाद) में प्राध्यापक हो गया। जिन गुरुजनों के चरणों में बैठकर शिक्षा पायी थी, उन्हीं के साथ, उन्हीं के संरक्षण में पढ़ाने का सौभाग्य मिला। वे समर्पित शिक्षक थे, तो उनके आदेश पर बिना तैयारी के कक्षा में जाना नहीं था। अतः प्रतिदिन दो घण्टे कक्षा में पढ़ाने की तैयारी, अनिवार्य थी। 2 घण्टे में पी-एच.डी. के शोध के लिए स्वाध्याय जरूरी था और लगभग 2 घण्टे सृजन का लेखन जरूरी था। अतः प्रतिदिन 3 बजे प्रातः उठकर 6 बजे तक और शाम 6 बजे से रात्रि 9 बजे तक का समय अपनी स्वाध्याय मेज पर बैठना प्रारम्भ किया। यह प्रतिदिन की निर्धारित दिनचर्या रही। सेवामुक्त होकर बस इतना अन्तर आया है कि पहले 3-3 घण्टे के लिए 2 बार बैठते थे अब 2-2 घण्टे को 3 बार या कभी-कभी इससे अधिक भी बैठना हो जाता है। 

मुझे लगता है कि इस निरन्तरता ने मुझसे अधिक काम करा लिया। इसीलिए 2001 में 'समकालीन गीतिकाव्य : संवेदना और शिल्प' विषय पर शोधग्रन्थ लिखकर डी-लिट् की उपाधि प्राप्त की एवं निरन्तर दोहा, कुण्डलियाँ, जनक, मुक्तक, सजल, व्यंग्य, शोधग्रन्थ आदि सभी में सृजन होता रहा, परन्तु मूलतः मेरी प्रकृति गीतकार की है। अतः अन्य विधाओं की रचनाओं में भी गीत के तत्व आ जाते हैं, जैसे— "आली! वृन्दावन चलें, जहाँ बसें रसराज।/ पीछे-पीछे आ गया बौराया ऋतुराज।।" इस दोहे की संवेदना और भाषा दोनों गीत की हैं।

अवनीश सिंह चौहान— आपकी पहली कृति — 'मन पलाशवान और दहकती संध्या' (1987) में गीत  नवगीत को स्थान मिला है। जैसा कि आपने बताया कि पहली बार आपकी रचना कहानी विधा में प्रकाशित हुई थी। पहली बार आपका नवगीत कब और कहाँ प्रकाशित हुआ था?

रामसनेहीलाल शर्मा 'यायावर'— पहली रचना तो कहानी छपी, इण्टर कालेज की पत्रिका में, फिर महाविद्यालय की पत्रिका में कुछ निबन्ध छपे। 1976 में मेरी कहानी— 'विषकन्या' को अखिल भारतीय कहानी प्रतियोगिता में प्रथम स्थान मिला। यह कहानी उक्त प्रतियोगिता की आयोजक संस्था हरियाणा भाषा विभाग की पत्रिका— 'जन साहित्य' में छपी थी। बाद में गीत छपने लगे। जहाँ तक मेरे प्रथम नवगीत के प्रकाशन का प्रश्न है तो मुझे ठीक से याद नहीं कि मेरा नवगीत पहली बार कब और कहाँ प्रकाशित हुआ था। किन्तु इतना अवश्य कह सकता हूँ कि जब मेरी गीत-नवगीत की पहली पुस्तक प्रकाशित हुई थी, उसी दौरान मेरे नवगीत पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगे थे। साथ ही अन्य विधाओं की रचनाएँ भी पत्र-पत्रिकाओं में छपने लगीं। परिवार की जिम्मेदारियाँ इतनी थीं कि उनके चलते कभी पुस्तक भी छपेगी, यह सोचा ही नहीं था; सो रचनाएँ पत्र-पत्रिकाओं को धुँआधार भेजीं और निरन्तर छपी भीं। 'मन-पलाशवन और दहकती सन्ध्या' तो मेरे शिष्य ने जोर देकर अपनी प्रेस से प्रकाशित कर दी थी। 

अवनीश सिंह चौहान— प्रथम रचना से लेकर प्रथम कृति के प्रकाशन की यात्रा से प्रश्न उठता है कि क्या कारण रहा आपके नवगीतों को 'नवगीत अर्द्धशती' (1986) में शामिल नहीं किया जा सका?

रामसनेहीलाल शर्मा 'यायावर'— मैं तो लोकगीत और गीत से परिचित था, दोनों ही लिख रहा था। फिर 1976 में इमर्जेंसी लगने पर अभिव्यक्ति की छटपटाहट के कारण हम नगर के युवाओं ने एक संस्था बनायी— 'मनीषा'। मनीषा की गोष्ठियाँ प्रतिमाह होती थीं। हर गोष्ठी में नयी रचना सुनाना अनिवार्य था। इसमें गुरुदत्त अग्रवाल जैसे ऊँचे दर्जे के मँजे हुए नवगीतकार भी हमारे साथ थे। उनके सानिध्य में और स्वाध्याय से नवगीत को समझा, उसकी प्रकृति को जाना। तो मैंने नवगीत लेखन 1976 के बाद शुरू किया। छोटे शहर में रहता था, पत्रिकाओं में यदा-कदा छपता था, तो भला डाॅ शम्भुनाथ सिंह जी की नजर मुझ पर कैसे पड़ती? वस्तुतः 1995 से जब डी-लिट् के शोध के लिए नवगीतकारों के साथ मिलना जुलना, उनकी रचनाएँ पढ़ना प्रारम्भ किया, फिर 2009 में 'समकालीन गीतिकाव्य : संवेदना और शिल्प' प्रकाशित हुई, तब लोगों का ध्यान गया कि हाँ भाई, इधर चूड़ियों के शहर में भी कोई है जो नवगीत के लिए कुछ कर रहा है। तो भैया ‘अर्द्धशती‘ में कैसे आता? वे मुझसे या मेरे लेखन से परिचित ही नहीं रहे होंगे।

अवनीश सिंह चौहान— आपने अब तक सात नवगीत संग्रह, दो मुक्तक संग्रह, नौ दोहा संग्रह, दो सजल संग्रह, तीन विविध विधाओं के काव्य-संग्रह, ग्यारह शोध-ग्रन्थ, एक शोधपरक आलेख संग्रह आदि साहित्य जगत को प्रदान किये हैं। विविध विधाओं में सर्जना कर साहित्यक गतिविधियों को विस्तार देने के पीछे आपका उद्देश्य क्या रहा?

रामसनेहीलाल शर्मा 'यायावर'— आप तो कवि हैं, जानते ही होंगे कि गीत हृदय का द्रव है। जब तक किसी गहन अनुभूति की आँच हृदय को पिघला नहीं देगी, गीत-नवगीत लिखा ही नहीं जाएगा। सो गीत-नवगीत तो इसी मधुमती भूमिका में जन्मे। माँ की कृपा है कि दोहा और कुण्डलिया मुझसे सध गए हैं, तो कुछ दोहे जीवनानुभूतियों से भी जन्मे हैं। दोहों में वन्दनाओं की श्रंखला मेरे एक स्वर्गीय मित्र के कारण प्रारम्भ हुई। उन्होंने एक भक्ति का दोहा प्रतिदिन मुझे भेजना प्रारम्भ किया। बदले में मैं भी एक दोहा भेजने लगा, परिणामस्वरूप राम, कृष्ण, शिव की वन्दना की सतसइयाँ बन गयीं। ‘श्रीमद्भागवत‘ व ‘अष्टावक्र महागीता' का दोहानुवाद किया। जनक और हाइकु बस इसलिए लिखे कि चलो नये छन्द हैं हम भी हाथ आजमा लें। 'सजल' गजल के विकल्प में हिन्दी की अपनी विधा है, सो उसमें भी सृजन किया। तो भाई काव्य-सृजन में तो कोई विशेष उद्देश्य नहीं रहा। जो माँ ने कलम पकड़कर लिखवा लिया, सो लिख गया। हाँ, गद्य सब सोद्देश्य रहा। शोधपरक आलेख किसी संगोष्ठी या किसी पत्रिका की माँग पर लिखे गये, बाद में एक या दो विषय के आलेख एकत्र कर संकलन बन गया। 'पी-एच.डी.' प्राध्यापकीय सेवा की विवशता में की थी। वह बहुत विस्तृत थी। ढाई पुस्तकों में छपी। 'डी.लिट्' शत-प्रतिशत समीक्षा के क्षेत्र में नवगीत की उपेक्षा देखकर की। इसी उपेक्षा की पीड़ा ने 'नवगीत कोश' को जन्म दिया और अब 'कोश' के द्वितीय खण्ड और नवगीत-समीक्षा की अन्य चार पुस्तकों पर साथ-साथ काम चल रहा है। मेरी इच्छा है कि जाने से पहले नवगीत पर इतना काम कर जाऊँ कि वह साहित्य के इतिहास में काम आ जाय और नवगीत की चिन्ता में घुलकर दुबलाये महान चिन्तकों (?) की आत्मा को शांति मिल जाय।

अवनीश सिंह चौहान— आपने 'रसराज यहाँ, रसकेलि यहाँ, रसरासि है राधिका वाम यहाँ' आदि को केंद्र में रखकर गीत और सवैया छंद रचे हैं, जिनसे ब्रजभाषा में ब्रज की महिमा का अद्भुत गुणगान हुआ है। यह सब कैसे बन पड़ता है? 

रामसनेहीलाल शर्मा 'यायावर'— आप तो सौभाग्यशाली हैं कि आप वृन्दावनवासी हैं। हम वृन्दावन के बाहर थे, तो हमने किशोरी जी से दयनीय होकर कहा 'माँ! हमारा क्या होगा?' उन्होंने आशीर्वाद दिया— '‘वत्स! चिन्ता मत कर हम वृन्दावन तेरे भीतर वसा देते हैं।' सो, भाई, वही भीतर का वृन्दावन, वही कालिन्दी, वही नटखट कान्हा, वही वंशीवट, वही रास, वही निधिवन, वही मधुवन जब भीतर जागते हैं, तब कुछ लिख जाता है। कौन, क्या लिखता है? कौन, किससे क्या लिखवाता है? हमें क्या पता। ब्रज तो रक्त के कणों में बसा है, सो जब-तब कन्हैया की वाँसुरी भीतर-भीतर बजने लगती है, उसका स्वर कागज पर उतरने लगता है।

अवनीश सिंह चौहान— 'नवगीत कोश' का प्रारूप किस प्रकार से निर्धारित किया गया? इस कोश के प्रकाशन पर पाठकों-विद्वानों से किस प्रकार की प्रतिक्रियाएँ मिल रही हैं?

रामसनेहीलाल शर्मा 'यायावर'— 'नवगीत कोश' तैयार करने का विचार 2013 के मार्च में अनायास मन में आया। उस पर निरन्तर चिन्तन चलता रहा। पर मन में प्रारूप स्थिर नहीं हो रहा था। तभी 2014 के किसी महीने में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की विज्ञप्ति समाचार पत्र में निकली। मेरे पुत्र डाॅ. के.के. भारद्वाज ने मुझसे कहा, 'पापा! आप एमेरिट्स फैलोशिप के लिए एप्लाई करो।' मैंने कहा, भैया! यू.जी.सी आदि संस्थाओं की मान्यता है कि मेधा का चरम केवल विश्वविद्यालयों में मिलता है। सम्बद्ध महाविद्यालयों में तो सब मूर्ख भरे पड़े हैं। फिर दूसरा वर्ग यू.जी.सी. के कार्यालय की गणेश परिक्रमा करने वालों का भी तो होगा। इन दो वर्गों के सम्मुख मुझे कौन पूछेगा? परन्तु उसको भ्रम है कि उसका पिता बड़ा विद्वान है, साहित्यकार भी बड़ा है। (सम्भवतः सभी पुत्रों को ऐसा ही लगता होगा) अस्तु, उसने कहा, 'आप प्रारूप बना दो 'ऑनलाइन' भेजना है, वह मैं भेज दूँगा।' वहीं बैठे-बैठे मैंने 2 घण्टे में तमाम काट-छाँट के साथ प्रारूप बना दिया। उन्हीं रफ कागजों से उसने लैपटाॅप से प्रस्ताव यू.जी.सी. भेज दिया। कागज मैंने कूड़ेदान में फेंक दिए। मैं शत-प्रतिशत यह मानकर चल रहा था कि वकौल मेरे पुत्र मैंने साहित्य में कितना ही बड़ा तीर क्यों न मारा हो, मैं पूरे देश में हिन्दी का एकमात्र प्रतिनिधि नहीं हो सकता था, परन्तु लगभग 4 महीने बाद मुझे समाजशास्त्र विभाग के मेरे साथी प्रवक्ता ने बंधाई देते हुए सूचना दी कि 'नवगीत कोश' की परियोजना स्वीकृत हो गयी है। 2015 से 2017 तक के लिए प्रस्ताव स्वीकृत हुआ था। फिर मैं जुटा, दिन-रात लगकर, लगभग 3 वर्ष में यह तैयार हो पाया। 

'नवगीत कोश' (प्रारूप— 1. प्रस्तावना (वृहद सम्पादकीय), 2. प्रकाशित नवगीत संग्रह परिचय एवं समवेत संकलन, 3. नवगीतकार परिचय, 4. समीक्षा ग्रन्थ, अप्रकाशित शोध ग्रन्थ एवं पत्र-पत्रिकाएँ, 5. नवगीतकारों से साक्षात्कार) पर सम्पूर्ण भारत से विद्वानों, नवगीतकारों और पाठकों की अत्यन्त उत्साहजनक प्रतिक्रियाएँ मिल रही हैं। आपने भी जब मुखपृष्ठ के फोटो के साथ टिप्पणी लगाकर इसे वेब पत्रिका 'पूर्वाभास' में और 'फेसबुक' पर पोस्ट किया था, तो प्रतिक्रियाएँ सकारात्मक ही थीं। कुछ कमियाँ रह गयी हैं, उनके परिमार्जन के निमित्त दूसरे खण्ड पर मैंने कार्य प्रारम्भ कर दिया है। प्रकाशक से चर्चा करूँगा, यदि सम्भव हुआ तो इसी खण्ड में, शुद्धिपत्र लगवाने का प्रयास करूँगा।

अवनीश सिंह चौहान— नवगीत शब्द की व्युत्पत्ति कब और कैसे हुई? नवगीत को परिभाषित करने पर इससे कौन-कौन से तत्व उभरते हैं?

रामसनेहीलाल शर्मा 'यायावर'— गीत में नवता की आवश्यकता तो छायावाद काल में ही अनुभव की जाने लगी थी, पर नवगीत का नामकरण राजेन्द्र प्रसाद सिंह द्वारा सम्पादित 'गीतांगिनी' में ही हुआ। मेरी दृष्टि में नवगीत के निम्न तत्व उभरते हैं— स्वप्न और कल्पना के स्थान पर यथार्थ का चित्रण, सामाजिक और मानवीय संवेदना, भोगी हुई अनुभूतियों का अनुभव, वैज्ञानिक जीवन-दृष्टि, बोध की दिनोंदिन नवीनता, सहज किन्तु अर्थगर्भी भाषा, उक्ति वैचित्र्यमयी कहन, नूतन प्रतीकों और बिम्बों से सम्पन्न शिल्प, लयात्मकता के साथ छन्द का अनुपालन आदि।

अवनीश सिंह चौहान— नवगीत के स्वरुप की चर्चा करते हुए इसकी अभिरचना में प्रयुक्त इकाइयों के बारे में संक्षेप में बताएँ?

रामसनेहीलाल शर्मा 'यायावर'— नवगीत गीत का नवाचार है, अतः सबसे पहले उसे गीत होना चाहिए। संरचना की दृष्टि से गीत की तरह अभिरचनात्मक इकाइयाँ— ध्रुवपद या मुखड़ा, अन्तरा, हर अन्तरा के अन्त में समापिका पंक्ति। ध्रुवपद— 1, 2, 3, 4 या पाँच इकाइयों तक का हो सकता है। देखें 
(क) आये फिर लहरों में तिरने के दिन — एक पंक्ति
(ख) आते हैं बारूदमुखी दो पाये हड़काना
    लना रे वृन्दावन मेरी वंशी तो लाना — दो पंक्ति
(ग) आँगन में तुलसी का बिरवा
    खड़ी हुई है शान्त अर्चना
    मुक्ति केशिनी, उज्ज्वल वसना — तीन पंक्ति
(घ) धरती, अम्बर, फूल, पाँखुरी
    आँसू, पीड़ा, दर्द, बाँसुरी
    मौलसिरी, ऋतुगन्धा, केसर
    सबके भीतर एक गीत है। — चार पंक्ति

अन्तरा भी एक, दो, तीन तक हो सकते हैं। इससे अधिक अन्तरा होना, नवगीत का स्वरूप और स्वर बिगाड़ देता है, यों तो लोगों ने 5 अन्तरा तक के नवगीत लिखे हैं। हर अन्तरा के अन्त में समापन-पंक्ति का अन्त्यानुप्रास ध्रुवपद से मिलाना होता है।

अवनीश सिंह चौहान— आपने नवगीत का उद्भव काल 1950 से माना है। आपने छायावाद एवं प्रगतिवाद में नवगीत की आहटें सुनाई देने की भी बात कही है? कृपया इन तथ्यों पर प्रकाश डालें?

रामसनेहीलाल शर्मा 'यायावर'— छायावाद की अतिशय भावुकता, अतीन्द्रिय सौन्दर्य और अलौकिक प्रेम खुद छायावादी कवियों को अप्रासंगिक लगने लगे थे। इसीलिए 'नवगति, नवलय, तालछन्द नव' की चर्चा निराला ने और पंन्त ने 'मानव तुम सब से सुन्दरतम' की बात की, प्रसाद ने उपन्यासों में और माहदेवी ने निबन्धों और रेखाचित्रों में यथार्थ का चित्रण किया। निराला और पन्त दोनों 35 के बाद के गीतों में जनचेतना से जुड़ गये। छायावादोत्तर काल में पनपे— 1. प्रगतिवाद, 2. माँसलवाद, 3. हालावाद और 4. प्रयोगवाद को देखें, तो उस काल के गीतों के दो ही आधार दिखते हैं— 1. अर्थ और 2. काम। यानि गीतकार संवेदना के स्तर पर यथार्थ की ठोस भूमि पर खड़े दिखते हैं। शिल्प के क्षेत्र में भी मुखड़ा व अन्तरा की अभिरचना से विहीन तुकान्त रहित गीत, नवीन प्रतीकों के गीत और लयविहीन गीतों का भी सृजन हुआ। आशय यह है कि छायावादोत्तर काल के गीतकार गीत को बदल रहे थे। कथ्य में तो यथार्थ का आधार उन्होंने खोज लिया था। शिल्प का मार्ग निर्धारित नहीं हो रहा था। नये-नये प्रयोग किए जा रहे थे। आपको याद होगा कि प्रारम्भिक गीतकार और नई कविता के गीतकार छन्द को अनावश्यक बताकर नवगीत को केवल लयाधारित  विधा बता रहे थे। बाद में सबको समझ में आया कि इससे नई कविता और नवगीत में अन्तर करना कठिन हो जायेगा और गीत के क्षेत्र में अराजकता व्याप्त हो जायेगी, इसलिए नवगीत ने गीत का वही पुराना पैटर्न स्वीकार कर लिया।

अवनीश सिंह चौहान— आपने 'नवगीत कोश' पुस्तक में नवगीत के इतिहास को पाँच खण्डों में बाँटा है— बीज-वपन काल (1936-1954), अंकुरण काल (1955-1965), पल्ल्वन काल (1966-1980), पुष्पन काल (1981-2000) एवं सुफलन काल (इक्कीसवीं सदी)। इस खण्ड-विभाजन का आधार क्या है?

रामसनेहीलाल शर्मा 'यायावर'— देखिये, कोई मूल्य टूटता या बिखरता नहीं, पुराने मूल्य से ही नया मूल्य विकसित होता है। इसी तरह पुरानी परम्परा ही नवीन होकर नयेपन का आभास देती है। विधाओं में परिवर्तन भी शनैः शनैः होते हैं। नवगीत के सारे काल-विभाजन, परम्परा और उसके दाय को नकार रहे थे। मुझे लगा कि छायावाद और छायावादोत्तर काल के गीत में तो नवगीत के तमाम तत्व बिखरे पड़े हैं। हम उसकी उपेक्षा क्यों कर रहे है? 1958 में तो नवगीत का नामकरण हुआ था, जैसे— ग्रामीण पृष्ठभूमि के उपन्यास— 'मैंला आँचल' को फाणीश्वर नाथ 'रेणु' ने पहली बार आँचलिक उपन्यास कहा, परन्तु उससे 28 वर्ष पहले आचार्य शिवपूजन सहाय— 'देहाती दुनिया' लिख चुके थे, तो पहला आँचलिक उपन्यास तो 'देहाती दुनिया' हुआ। हाँ, तब तक उसका नामकरण नहीं हुआ था। मैंने उस 1958 के पूर्ववर्ती काल को 'बीज वपन काल' नाम दे दिया, फिर 1956 से 1964 के काल को अंकुरण काल इसलिये माना कि इस कालखण्ड में इस नवगीत के नामकरण के साथ तमाम नये नवगीत संग्रह प्रकाश में आये। इसी कालखण्ड में राजेन्द्र प्रसाद सिंह, वीरेन्द्र मिश्र, रवीन्द्र भ्रमर, ठाकुर प्रसाद सिंह, रमेश रंजक, तारादत्त 'निर्विरोध', केदारनाथ अग्रवाल आदि के नवगीत नया तेवर लेकर सामने आने लगे थे। अतः मैंने इस 10 वर्ष के काल को 'अंकुरण काल' काल माना है। 1966 से 1980 का काल 'पल्लवन काल' इसलिए है कि इसी कालखण्ड में नवगीत का प्रथम समवेत संग्रह— 'पाँच जोड़ बाँसुरी' और धुर दक्षिण मद्रास से 'सातवें दशक के उभरते नवगीतकार' प्रकाशित हुआ। अनेक एकल संकलन भी छपे और पत्रिकाओं में नवगीत पर विचारप्रधान आलेख भी छपे और नवगीत का अछोर विस्तार हुआ, कुलमिलाकर लगभग 20 एकल नवगीत संग्रह प्रकाश में आये। 1981 से 2000 के काल को मैं पुष्पन काल इसलिए मानता हूँ कि— 1. इसी काल में डॉ शम्भुनाथ सिंह ने 'नवगीत दशक 1, 2, 3' और 'नवगीत अर्द्धशती' का सम्पादन और प्रकाशन करके बिखरे नवगीत आन्दोलन को व्यवस्थित और समायोजित कर दिया। 2. देवेन्द्र शर्मा 'इन्द्र' ने 'यात्रा में साथ-साथ', मधुकर गौड ने 'गीत और गीत' (5 भाग) और 'इक्कीस हस्ताक्षर', भारतेन्दु मिश्र ने 'नवगीत एकादश' और वीरेन्द्र आस्तिक ने 'धार पर हम' जैसे धारदार समवेत संकलनों का सम्पादन कर नवगीत को स्थापित व सुदृढ़ कर दिया। 3. पत्रिका संपादन के क्षेत्र में तिलोई (रायबरेली) से दिनेश सिंह ने 'नये-पुराने' के छः गीत अंक निकाल कर इतिहास रच दिया। 4. समीक्षा के क्षेत्र में डॉ सुरेश गौतम व डॉ वीणा गौतम, डॉ रामसिंह 'अत्रि', डॉ राजेन्द्र गौतम तथा डॉ परमलाल गुप्त की नवगीत समीक्षा की पुस्तकें आयीं। 5. विश्वविद्यालयों में नवगीत पर अनेक शोध हुए और लगभग 50 एकल नवगीत संग्रह प्रकाश में आ गये। नवगीतों में कई प्रबन्धकाव्य भी लिखे गये।

इक्कीसवीं सदी में नवगीत का सर्वोत्तम विकास देखने को मिला, इसलिए मैंने उसे सुफलन काल कहा क्योंकि— 1. इस काल में भारतीय ज्ञानपीठ ने नईम के दो, अनूप अशेष, बुद्धिनाथ मिश्र, सुधांशु उपाध्याय और यश मालवीय का एक-एक नवगीत संग्रह प्रकाशित किया। 2. साहित्य अकादमी ने डॉ ओमप्रकाश सिंह के सम्पादन में नवगीत का वृहद समवेत संकलन प्रकाशित करने का निर्णय लिया। 3. विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने मेरी ‘नवगीत कोश‘ परियोजना को स्वीकृति दी और यह 640 पृष्ठ की कृति प्रकाशित हुई। 4. 2011 से लगातार पूर्णिमा वर्मन द्वारा लखनऊ में 'नवगीत महोत्सव' (संयोजक : अवनीश सिंह चौहान एवं डॉ जगदीश व्योम) का भव्य आयोजन किया जा रहा है। 5. केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय ने, प्रज्ञा हिन्दी सेवार्थ संस्थान ट्रस्ट, फीरोजाबाद के साथ मिलकर केन्द्रीय हिन्दी संस्थान, आगरा के अटल बिहारी बाजपेयी अन्तर्राष्ट्रीय सभागार में 'हिन्दी गीत परम्परा में नवगीत' विषय पर द्विदिवसीय संगोष्ठी आयोजित की, जिसमें देशभर के विद्वानों ने भाग लिया। 6. 20 स्तरीय समवेत संग्रह, 150 एकल संग्रह, 50 से अधिक समीक्षा कृतियों और अनेक पत्रिकाओं के नवगीत विशेषांक 2020 तक प्रकाशित हो चुके हैं और तमाम शोधार्थी विश्वविद्यालयों में नवगीत या नवगीतकारों पर शोधकार्य कर रहे हैं। 7. वेब पर 'गीत-पहल', 'पूर्वाभास', 'अनुभूति', 'कविता कोश', 'हिंदी समय' आदि ने नवगीत का व्यापक प्रचार-प्रसार किया। 

और भैया अवनीश अभी तो सदी का मात्र 1/5 भाग पूरा हुआ है। आगे-आगे देखिए होता है क्या।

अवनीश सिंह चौहान— नवगीत के शिल्प-विधान के मुख्य घटक कौन-कौन से हैं? कृपया विस्तार से बताएँ। 

रामसनेहीलाल शर्मा 'यायावर'— नवगीत के शिल्प में मेरी दृष्टि में— 1. भाषा, 2. छन्द, 3. अलंकार, 4. प्रतीक और 5. बिम्ब, इन पाँचों घटकों पर अलग-अलग विचार होना चाहिए।

(क) नवगीत की भाषा, सहज, सरल किन्तु अर्थगर्भी होनी चाहिए। उसमें वक्रोक्ति और विरोधमूलक अलंकारों का प्रयोग आवश्यक है। उसमें प्रयुक्त शब्दों को शब्दकोश की अर्थ-सीमा से आगे का अर्थ देना चाहिए उदाहरण लें— “सूनी सुबह, गले मिलती है/ यहाँ उदास दुपहरी से/ शाम यहाँ रिश्ता जोड़े है/ एक उदासी गहरी से” — यायावर। कभी-कभी सरल शब्दावली से भी अर्थ-गौरव पैदा किया जा सकता है। देखें— "तिनका भी न रहे धरती पर/ ऐसे मौसम हैं।/ धन्यभाग्य हम हैं" — महेश अनघ। आप देख सकते हैं— दोनों उद्धरणों की भाषा सहज, सरल है, किन्तु दोनों में शब्द अर्थ की दृष्टि से गहरे हैं। उनके शब्दों के अर्थ शब्दकोश में दिए अर्थ से नितान्त भिन्न हैं।

(ख) छन्द का प्रयोग नवगीत के लिए अनिवार्य है। हाँ, इस क्षेत्र में नये प्रयोग किये जा रहे हैं, नवगीतकारों ने किये भी हैं। मैंने नवगीत की छन्द-योजना पर कई आलेख लिखे हैं। 

(ग) मैं मानता हूँ कि नवगीत में वक्रोक्ति और यदा-कदा श्लेष को छोड़कर अन्य शब्दालंकारों के प्रयोग से बचा जाना चाहिए। अर्थालंकारों में विरोधमूलक असंगति, विभावना, विशेषोक्ति विषम तथा अंग्रेजी से आये अलंकार मानवीकरण, विरोधाभास, विशेषण विपर्यय ध्वन्यर्थ व्यंजना का प्रयोग, अर्थशक्ति बढ़ाता है, सादृश्यमूलक अलंकारों में प्रतीप, व्यतिरेक तथा अन्योक्ति ठीक है, शेष के प्रयोग से यथासम्भव बचना चाहिए। सायास कोई अलंकार न लाना ही उचित है। दो उद्धरण देखें— "आचरण/ कुछ और है/ है कथ्य में कुछ और" — दिवाकर वर्मा; "निःस्वर है/ हर शब्द गीत का/  है बेवस दुखियार" — दिवाकर वर्मा। अत्यन्त साधारण भाषा की इन पंक्तियों में पहली में भेदनातिशयोक्ति और दूसरी में मानवीकरण तथा विरोधाभास अलंकारों का प्रयोग है।

(घ) मेरी दृष्टि में नवगीत को प्रतीक परिचित जगत से उठाने चाहिए। नवगीतकारों ने नदी, धूप, सड़क, खुरपी, सुबह, शाम जैसे परिचित शब्दों को प्रतीक बनाया है। प्रतीकों में मिथकीय प्रतीकों का क्षेत्र बहुत विस्तृत है, उसे लिया जा सकता है, परन्तु मिथकीय पात्र या घटना, नितांत अपरिचित न हो, जैसे— यदि कोई नवगीतकार उपनिषदीय पात्र सत्यकाम जावाल को प्रतीक बनाये, तो पाठक को अर्थ तक पहुँचने में कठिनाई होगी, परन्तु अर्जुन या एकलब्य का प्रतीक चिरपरिचित है। 

(ड.) बिम्ब अमूर्त को मूर्त करने की प्रक्रिया है। इसमें भी अपरिचित-असंगत और उलझे हुए बिम्ब यथासम्भव न लिए जाँय, यह आवश्यक है। अधिक विस्तार से बात बहुत लम्बी हो जायेगी। मेरी पुस्तकों में बिम्ब विधान पर विस्तृत चर्चा है।

अवनीश सिंह चौहान— इक्कीसवीं सदी के नवगीत में भारतीय जीवन मूल्य और सांस्कृतिक चेतना किस प्रकार से अन्तर्निहित है? 

रामसनेहीलाल शर्मा 'यायावर'— इक्कीसवीं सदी के नवगीत अस्तित्ववाद और मार्क्सवाद की सैद्धान्तिक बाध्यता की गुंजल्क से बाहर निकलकर नितान्त सहज होकर सांस्कृतिक मूल्यों की ओर मुड़ा है। बीसवीं सदी के अन्तिम दशक में यह प्रक्रिया प्रारम्भ हो गयी थी। 

(क) छायावाद के बाद हम गीत से अचानक परिवार को बिलुप्त पाते हैं। नवगीत में भी 1990-95 तक यही स्थिति रही। अब सम्मिलित परिवार और पति, पत्नी, माता, पिता, भाई, बेटी, बेटा आदि को लेकर अधिकांश नवगीतकार गीत लिख रहे हैं। परिवार हमारी संस्कृति की धुरी है। हमने और आपने भी माँ और पिता पर नवगीत लिखे हैं।

(ख) नवगीत को पारम्परिक गीत से पृथक करने के लिए कहा गया कि जीवन के विसंगत, खुरदुरे और जटिल यर्थाथ की अभिव्यक्ति नवगीत का अनिवार्य तत्व है, परन्तु इक्कीसवीं सदी में नवगीतकार अनुभव करने लगे कि केवल जीवनगत की विसंगतियाँ यथार्थ का सम्पूर्ण चित्रण नहीं है। अतः अब प्रकृति, प्रणय और सकारात्मक यथार्थ के चित्रण भी नवगीत में मिलने लगे हैं। यहाँ इन्द्र जी की बात स्मरण आ रही है— 'जो लिखा जाय वह यथार्थ हो और उसका सम्बन्ध सामाजिक और मानवीय हित से हो', यह ध्यान भी रखा जा रहा है। 

(ग) भारतीय संस्कृति का स्वर प्रेरणास्पद है। कवि से अपेक्षा की जाती है कि वह बहुसंख्य समाज को सुसंस्कृत, सभ्य और मूल्यनिष्ठ बनाये। मेरे एक गीत का मुखड़ा है— 'उठो पार्थ गाण्डीव उठाओ/ सर सन्धान करो।' इसी तरह आपका एक गीत है— 'बनकर ध्वज हम/ इस धरती के/ अंबर में फहराएँ।/ मेघा बनकर/ जीवन जल दें/ सागर-सा लहराएँ।' यह प्रेरणात्मकता भी हमारी संस्कृति का स्वर है।

अवनीश सिंह चौहान— संवेदना के स्तर पर नवगीत और नई कविता में मूलभूत अंतर क्या है? किस विधा से वैचारिक गांभीर्य और नव्यता का सर्वत्र संचार अधिक हो रहा है?

रामसनेहीलाल शर्मा 'यायावर'— मूलभूत अन्तर यह है कि नई कविता में संवेदना नहीं कथ्य अधिक होता है। कुछ गिने-चुने नये कवियों, यथा— धर्मवीर भारती, गिरिजाकुमार माथुर, केदारनाथ सिंह आदि, को छोड़कर अधिकांश जीवन की जटिलता और विसंगतियों को कथ्य बनाते हैं। उसी यथार्थ को नवगीतकार अपनी संवेदना का अंग बनाकर प्रस्तुत करता है। मेरी दृष्टि में अब नई कविता तो जीवन के साथ कदम मिलाकर चल ही नहीं पा रही है। यह कार्य इस समय केवल नवगीत कर रहा है। उसमें नित नूतनता भी है और समकालीन जीवन की हर संवेदना को अनुभूति के स्तर पर ग्रहण कर अभिव्यक्त करने का सामर्थ्य भी।

अवनीश सिंह चौहान— पाठ के स्तर पर जन-मानस नवगीत और नई कविता को किस प्रकार से स्वीकार करता है?

रामसनेहीलाल शर्मा 'यायावर'— प्रयोगवाद को 'कुछ नया है', ऐसा मानकर प्रबुद्ध पाठकों ने पढ़ा, परन्तु गद्य की रूक्षता, वैचारिकता के आधिक्य और बिम्बों की जटिलता ने नई कविता को सामान्य पाठक से दूर कर दिया। जो पाठक नई कविता-काल में पत्रिका का कविता-पृष्ठ बिना पढ़े, उलटकर पत्रिका पढ़ने लगे थे, वे अब रूचिपूर्वक नवगीत पढ़ने लगे हैं। नवगीत ने सामान्य पाठकों तक भी पहुँच बनायी है। कुछ मधुर स्वर के धनी नवगीतकारों ने भी नवगीत की पठनीयता बढ़ाने में भरपूर योगदान किया है।

अवनीश सिंह चौहान— आभासी दुनिया में नवगीत का विस्तार आपको किस प्रकार से दिखाई पड़ रहा है?

रामसनेहीलाल शर्मा 'यायावर'— आभासी दुनिया में नवगीत का बहुत विस्तार हुआ है। जिन समूहों ओर पटलों की मुझे जानकारी है, वे हैं— 'गीत-नवगीत' (डॉ अवनीश सिंह चौहान, अगस्त 04, 2011), 'नवगीत की पाठशाला' (पूर्णिमा वर्मन, दिसंबर 23, 2012), 'गीत-नवगीत सलिला' (आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल', जनवरी 01, 2014), 'नवगीत विमर्श' (पूर्णिमा वर्मन व डॉ जगदीश 'व्योम', जून 03, 2015),  'संवेदनात्मक आलोक' (रामकिशोर दाहिया, जनवरी 14, 2016), 'नवगीत वार्ता' (रामकिशोर दाहिया, जनवरी 30, 2016), 'वागर्थ (मनोज जैन 'मधुर', अक्टूबर 11, 2016), 'नवगीत लोक' (ओम 'नीरव', नवम्बर 30, 2019), 'कला भारती इंटरनेशनल' (बाबा संजीव आकांक्षी, जुलाई 15 2020), 'गीत गोपाल' (अरुण तिवारी, जुलाई 25, 2021) — ये सभी फेसबुक समूह हैं। 'नवगीत-धारा' यूटयूब पर है। इसके अतिरिक्त वाट्सएप्प पर कुछ ऐसे समूह भी हैं जो सप्ताह में एक दिन या दो दिन नवगीत दिवस रखते हैं। स्वतन्त्र रूप से भी अनेक नवगीतकार नवगीत व नवगीत सम्बन्धी विचार पोस्ट कर रहे हैं। सबके नाम बताना सम्भव नहीं, इसने नवगीत की पठनीयता और नवगीत सम्बन्धी समझ बढ़ायी है। आप जानते ही हैं, इसीलिये तो मैंने ‘आभासी दुनिया में नवगीत’ पुस्तक का सम्पादन करने का निर्णय लिया है।

अवनीश सिंह चौहान— नवगीत के रचनाकारों एवं भावकों की संख्या लगातार बढ़ रही है। क्या यह नवगीत के उज्जवल भविष्य की ओर संकेत है?

रामसनेहीलाल शर्मा 'यायावर'— रचनाकारों और भावकों की संख्या का बढ़ना निश्चित रूप से नवगीत के उज्जवल भविष्य का सूचक है। एक युवा ऊर्जावान और प्रतिभाशाली पीढ़ी नवगीत की ध्वजा थाम चुकी है, तो भाविष्य गरिमामय होगा ही। हाँ, कोई विधा जब अधिक लोकप्रिय होती है तो उसमें भारी परिमाण में सृजन होता है। इसमें कुछ श्रेष्ठ होता है और कुछ निकृष्ट भी। परन्तु, समय की छलनी बड़ी निर्मम है। वह श्रेष्ठ को रखती है, निकृष्ट को उठाकर इतिहास के कूड़ेदान में फेंक देती है।

Interview: Ramsanehilal Sharma 'Yayavar' in Conversation with Abnish Singh Chauhan

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