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गुरुवार, 26 अगस्त 2021

साक्षात्कार : कवि केवल सोशल मीडिया के भरोसे नहीं — शान्ति सुमन


शान्ति सुमन का जन्म अनंत चतुर्दशी के दिन 15 सितंबर, 1942 को कोसी अंचल के एक गाँव कासिमपुर, जनपद सहरसा, बिहार में हुआ। महंत दर्शनदास महिला महाविद्यालय, मुजफ्फरपुर, बिहार की पूर्व अध्यक्ष (हिंदी विभाग) शान्ति जी की प्रमुख कृतियाँ हैं—  गीत-नवगीत संग्रह : 'ओ प्रतीक्षित' (1970, 2010), 'परछाईं टूटती' (1978, 2010), 'सुलगते पसीने' (1979), 'पसीने के रिश्ते' (1980), 'मौसम हुआ कबीर' (1985, 1999), 'तप रहे कँचनार' (1997), 'भीतर-भीतर आग' (2002), 'पंख-पंख आसमान' (2004), 'एक सूर्य रोटी पर' (2006), 'धूप रंगे दिन' (2007), 'नाग केसर हवा' (2011), 'लय हरापन की' (2015), 'लाल टहनी पर अड़हुल' (2016), 'सान्निध्या' (2020); मैथिली गीत संग्रह : 'मेघ इंद्रनील' (1991); कविता-संग्रह : 'समय चेतावनी नहीं देता' (1994), 'सूखती नहीं वह नदी' (2009); उपन्यास : 'जल झुका हिरन' (1976); अनुवाद : 'कामायनी' (मैथिली में, 2013) आदि। इनके नवगीत 'नवगीत सप्तदशक' (सं.— राजेन्द्र प्रसाद सिंह, 1988), 'नये-पुराने' : 'गीत अंक- 5 (सं.— दिनेश सिंह, 1999), 'नवगीत : नई दस्तकें' (सं.— निर्मल शुक्ल, 2012), 'शब्दायन : दृष्टिकोण एवं प्रतिनिधि' (सं.— निर्मल शुक्ल, 2012), 'गीत वसुधा' (सं.— नचिकेता, 2013), 'नयी सदी के नवगीत - खण्ड एक’(सं.— डॉ ओमप्रकाश सिंह, 2016), 'सहयात्री समय के' (सं.— डॉ रणजीत पटेल, 2016), 'समकालीन गीतकोश' (सं.— नचिकेता, 2017), 'गीत प्रसंग' (सं.— सौरभ पाण्डेय, 2017), 'नवगीत वाङ्मय' (सं.— अवनीश सिंह चौहान, 2021) आदि में संकलित हो चुके हैं। इनके साहित्यिक अवदान को रेखांकित करते हुए दिनेश्वर प्रसाद सिंह 'दिनेश' ने 'शान्ति सुमन की गीत-रचना और दृष्टि' (2009) और  डॉ चेतना वर्मा ने 'शान्ति सुमन की गीत-रचना : सौंदर्य और शिल्प' (2012) का सम्पादन किया है। इन्हें उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान, लखनऊ से 'सौहार्द सम्मान' (2006), मिथिला सांस्कृतिक परिषद्, जमशेदपुर, (झारखंड) से ‘मिथिला विभूति सम्मान’ (2015) सहित लगभग एक दर्जन सम्मानों/ पुरस्कारों से अलंकृत किया जा चुका है

शान्ति सुमन से अवनीश सिंह चौहान की बातचीत

अवनीश सिंह चौहान— आप हिन्दी संसार की प्रतिष्ठित कवयित्री हैं। अपनी रचना-प्रक्रिया को केंद्र में रखकर अपने प्रारम्भिक जीवन के बारे में बताएँ? 

शान्ति सुमन— प्रिय अवनीश जी, आपने साक्षात्कार के प्रारंभ में ही मुझको इतने प्रिय विशेषण से भर दिया कि मैं अपने सौभाग्य पर प्रसन्न हुई। अपनी रचना-प्रक्रिया पर कुछ कहने से पहले अपने बारे में एक-दो बातें कहना चाहती हूँ। मेरा मूल नाम शान्तिलता है। शांति मेरी फुआ का दिया हुआ नाम है। उनकी ससुराल में इस नाम की एक लड़की पढ़-लिखकर मैट्रिक पास हुई थी। फुआ ने इस विश्वास से मेरा नाम शान्ति रख दिया था कि मैं भी पढ़-लिखकर बड़ी बनूँगी। सुमन परिवार का दिया हुआ नाम है। मैंने दोनों नामों को अपने लिए रख लिया। पर यह सच है कि शांति सुमन नाम से मैंने कभी कोई नौकरी नहीं की? शान्तिलता में मेरी माँ के नाम के साथ लगा हुआ शब्द 'लता' है। उनका नाम जीवनलता देवी था। मेरी शिक्षा इसी नाम से हुई। इसी नाम से मैं व्याख्याता, रीडर और प्रोफेसर बनी तथा इसी नाम से 2004 में हिन्दी विभागाध्यक्ष के पद से सेवामुक्त हुई।

यहाँ आपकी यह जिज्ञासा हो सकती है कि मैं रचनात्मक कैसे हुई? जीवन की शुरूआत से लेकर किशोरावस्था तक मैंने जैसा जीवन जिया, जैसा देखा, सुना और समझा उसी से मुझको रचना की प्रेरणा मिली। मैट्रिक पास करने तक जैसी मेरी रचनाएँ रहीं उनको स्वतःस्फूर्त्त कहें भी तो '60 के पहले ही मेरी स्वतःस्फूर्त्तता समाप्त हो गयी थी और सामाजिक सरोकार के संवेदनशील अनुभव मुझमें जगह बनाने लगे थे। जो लोग मुझको या मेरे जैसे रचनाकार को नहीं जानते हैं, वे मेरी या उन सबकी रचनाओं को और रचनाओं के माध्यम से मुझको और उन सबको जानने लगते हैं कि उन रचनाओं में हमारी साँसों के दस्तावेज लिखे होते हैं, उन साँसों के दस्तावेज, जिनको हमने समकाल की सामाजिक परिस्थितियों में जिया और हम जीवित रहे। इसलिये रचनाएँ हमारे जीवित होने के सबूत होती हैं। हम रचनाएँ इसलिये लिखते हैं कि अपने जिन्दा होने का सबूत दे सकें। समाज भी कैसे जीता है, उसके जीने में कितना 'जीवन' है, इसको भी रचनाएँ ही कहती हैं। जीवन को कहने के लिए रचना से अधिक कोई और माध्यम प्रामाणिक नहीं होता। आप यह समझिये कि कहीं लिखा हुआ पढ़ा था कि गुप्त काल में घरों में ताले नहीं लगाये जाते थे। उन दिनों चोरियाँ नहीं होती थीं। सबको करने के लिए काम थे और कोई अभाव नहीं था। किन्तु, मध्य युग में, विशेषकर मुगलकाल पर 'विनयपत्रिका' में तुलसीदास ने लिखा है कि उन दिनों वणिक को काम नहीं मिलता था, न सबको 'चाकरी'  मिलती थी, यहाँ तक कि भिखारी को भीख नहीं मिलती थी। तुलसीदास ने किसी के दबाव में यह सब नहीं लिखा, क्योंकि उन्होंने तो स्पष्ट कह दिया था कि 'तुलसी अब का होंहिहें नर के मनसबदार'। रचनाकार की यही अस्मिता, उसका यही स्वाभिमान उसकी पहचान है, जो उसको समाज में अलग और ऊपर उठाती  है।

अवनीश सिंह चौहान— उम्र के इस पड़ाव पर आप नवगीत को किस प्रकार से देखती हैं? आपके भीतर काव्यात्मक अनुभूतियाँ किस प्रकार से अपना आकार लेती हैं?

शान्ति सुमन—  सच कहूँ तो नवगीत को मैं अपने से अलग नहीं मानती। ये शब्द, भाव, विन्यास कैसे और कहाँ से आते हैं, यह तो केवल वही बता सकते हैं जो कुछ लिखने के लिये विवश करते हैं और इसमें संदेह नहीं कि जब वे आते हैं तो उसे बैठने के लिए जगह, तोड़ने के लिये तिनके और करने के लिये कुछ बातें मिल ही जाती हैं। यह रचनाकार का अपना एकांत है। उसकी अपनी इकाई है। सब कुछ व्यक्तिगत, पर सामाजिक होता हुआ। जिस तरह पानी का कोई स्वरूप नहीं होता, वह जिसमें रखा जाता है, उसका स्वरूप ले लेता है, मेरी समझ से यही स्थिति अनुभूतियों का क्षणों के साथ है। यह व्यक्ति से समाज की ओर उन्मुख होनेवाली प्रक्रिया है। अर्थात् व्यक्तिपरक होकर भी सामाजिक। यह बात भी ठीक है कि आज की जिन्दगी बहुत कुछ गीतात्मक न होकर गद्यात्मक होती चली जा रही है। कुँवर नारायण के शब्दों में— 'वह चेहरा जो मेरे लिये चाँद हो सकता था, भीड़ हो गया है।' लेकिन भीड़ से भी तो अलग होना ही पड़ता है। लाखों के शोर में कहीं कोई महीन स्वर होता है जो सब पर तैरता रहता है, वरना आदमी ऊबकर वहाँ से भाग खड़ा होता। सभी लोग नींद की गोलियाँ खाकर सोते रहते। घरेलू परेशानियों के बीच मेरे लिए गीत एक बचाव का पक्ष भी रहा है, डूबते को तिनके का सहारा।

अब जहाँ तक नवगीत का सवाल है— मैं अपनी ओर से कुछ भी दावा नहीं करती। परन्तु, कुछ लोग सहज रूप से कही गई बातों को भी दावा मानकर अर्थान्तर कर देते हैं। हाँ, समय की नब्ज को मैंने समझने की भरसक कोशिश की है। यों जिस समय भी जो कुछ लिखा जाता है, वह उस समय के लिये देश, काल, परिस्थिति को देखते हुए नया होता है। अपने पिछले से अलग करने के लिये उसे एक नाम दे दिया जाता है, जैसे— छायावाद, प्रयोगवाद। आज का यह नव भी कुछ इसी प्रकार का है। आज का नवगीतकार पेबंद पर पेबन्द लगाने में विश्वास नहीं करता, बल्कि वह यथास्थिति को खोलना चाहता है, देखना-समझना चाहता है और उसे अभिव्यक्त करना चाहता है। और अभिव्यक्त करता भी है, अपने ढंग से।  

अवनीश सिंह चौहान— आपने जब अपनी साहित्यिक यात्रा प्रारम्भ की थी, तब हिंदी नवगीत में स्त्री-उत्पीड़न, स्त्री-पीड़ा, स्त्री-संघर्ष और स्त्री के बुनियादी अधिकारों को किस प्रकार से रेखांकित किया जा रहा था? और वर्तमान में इसका, विशेषकर काव्य-मंचों पर, क्या स्वरुप है?

शान्ति सुमन—  आप अत्यंत समर्थ प्राश्निक हैं। स्त्री-उत्पीड़न, स्त्री-पीड़ा, स्त्री-संघर्ष और स्त्री के बुनियादी अधिकार— इन चार बिंदुओं के फलक इतने बड़े हैं कि एक साथ इनको व्याख्यायित करना आसान नहीं लगता। फिर भी प्रश्न है तो उत्तर भी होंगे। मैंने जब अपने साहित्य की यात्रा प्रारंभ की थी तब तत्कालीन सामाजिक-सांस्कृतिक व्यवस्था में स्त्रियों के लिए अधिक 'स्पेस' नहीं था। पुरुष-नियामक सत्ता ने स्त्रियों के लिए कर्तव्य तो निर्धारित कर दिए थे, पर उनके अधिकार इतने सीमित थे कि घर की देहरी के बाहर उनके लिए संभावनाओं के द्वार अधिकांशतः बहुत ही कम थे। स्वतंत्रता के पहले स्वाधीन होने की खुशबू स्त्रियों में भी आई थी। पूरे भारत में उंगलियों पर गिनी जाने वाली स्त्रियाँ ही सड़कों तक आ पाई थीं। सामाजिक-सांस्कृतिक गतिविधियों की तरह हिंदी नवगीत में भी स्त्रियों की भागीदारी अत्यंत उदास करने वाली थी। कुछ स्त्री गीतकारों ने अपनी पहल से हिंदी नवगीत में अपना प्रवेश दर्ज किया था। उन दिनों उन्हें पुरुष नवगीतकारों से प्रोत्साहन नहीं मिलता था। सामाजिक रूढ़ियों के कारण उनकी रचनात्मक गतिविधियाँ तेज नहीं हो पाती थीं। 

स्त्री-पीड़ा के प्रसंग में तो यही सच है कि तब मर्यादाओं के नाम पर स्त्री को घर की सीमा में निबद्ध कर दिया गया था। कुछ प्रतिभाशाली स्त्रियाँ जो कुछ लिखती थीं, पुरुषों के रचनात्मक चरित्र को सहन नहीं होता था। घरेलू हिंसा भी बहुत थी। फिर भी जिस तरह साहस कर स्त्रियाँ घर से निकलकर आजादी की लड़ाई में शामिल हुई थी, उसी तरह कुछ स्त्रियों ने कलम पकड़ना भी सीख लिया था। स्त्री के बुनियादी अधिकारों की बात करना क्रांति की बात मानी जाती थी। इन सबके ऊपर स्त्री-संघर्ष की धीमी आग जलने लगी थी। अपने अधिकारों, स्वत्व और स्वाभिमान की रक्षा के लिए स्त्रियाँ आगे आने लगीं। हिंदी नवगीत को इन विसंगतियों का सामना करना पड़ रहा था। शायद इसीलिये पत्रिकाओं और मंचों पर स्त्रियों की जगह नगण्य थी। कविता के मंचों पर पुरुष रचनाकारों का वर्चस्व था। मुझको याद है कि जब मुझे किसी कवि सम्मेलन का आमंत्रण आता था तब मेरे पूछने पर आयोजक महोदय बताते कि 8-10 कवि आ रहे हैं और आप भी। मैं समझ जाती कि समाज में स्त्री-पुरुष का भेदभाव यहाँ भी है। 

हिंदी नवगीत का वर्तमान स्वरूप अत्यंत सुसंगत, सुसंस्कृत और संतुलित है। अब कवयित्रियाँ भी मंच और आयोजन की प्रक्रिया और उसकी रूपरेखा को जान गई हैं। अब वे स्वतंत्र रूप से मंच पर जातीं हैं और काव्य-पाठ करती हैं। अब उस प्रकार का सामाजिक भेदभाव या असमानता मंच पर नहीं है।

अवनीश सिंह चौहान— आप 1963 में 'सर्जना' पत्रिका के संपादन से जुड़ीं और उसके दो-तीन वर्ष बाद कवि सम्मेलनों एवं साहित्यिक-सांस्कृतिक मंचों पर अपनी गीत-प्रस्तुति से चर्चा में आयीं? उन दिनों देश में साहित्यिक माहौल कैसा था और आपको किन रचनाकारों का स्नेह-सान्निध्य प्राप्त हुआ?

शान्ति सुमन—  'सर्जना' पत्रिका के संपादन से जुड़ने के पूर्व से ही में साहित्यिक-सांस्कृतिक मंच पर जाने लगी थी। पहले इसका स्वरूप स्थानीय मंच हुआ और बाद में धीरे-धीरे मैं बाहर के आयोजनों में जाने लगी। जून 1967 से ही मैं बिहार के बाहर के कई मंचों पर जाने लगी थी। मंच पर जाने से संपर्क बनता था, परिधि बड़ी होती थी। एक बात और थी कि सस्वर गीत-पाठ करने वाली गीतकार कम थीं। इसलिए आयोजक सस्वर गीत-पाठ को अधिक महत्व देते थे। बाद में तो ऐसी गीतकारों के मानदेय भी अधिक होने लगे थे। उन दिनों मंच और मंच के बाहर अनुशासन बहुत था। वरिष्ठ-कनिष्ठ का विचार भी था। बड़े रचनाकारों का सम्मान बहुत था। सम्मान मेरा भी बहुत था, क्योंकि मैं किसी के माध्यम से नहीं थी। अपना निर्णय स्वयं लेती थी। छोटे शहर से होने के कारण मेरी सांस्कृतिक समझ में ग्राम्य-निष्ठा और आत्मीयता भी थी। रचनाकारों के प्रति उन दिनों सम्मान का भाव बहुत था। वैसे भी लोग उनको अपने से ऊपर का वर्ग मानते थे। शब्दों के प्रति उनका बहुत आदर था। कवि सम्मेलनों के आयोजकों के प्रति भी लोगों के मन में सम्मान का भाव होता था। उनको लोग सांस्कृतिक रूप से समृद्ध व्यक्ति मानते थे। कवि सम्मेलन से समाज में सौहार्द की भावना भी आती थी। कई स्थानों के लोग आकर गीत-कविता सुनते थे। मंच उन दिनों एक किताब बन जाता था। पसंद की कई पंक्तियों को लोग बहुत समय तक याद रखते थे।

मुझको किसी विशेष रचनाकार का स्नेह-सानिध्य प्राप्त नहीं था। हाँ, कुछ लोगों से धीरे-धीरे परिचय जरूर बनता गया। सबसे पहले उमाकांत मालवीय जी से मैं परिचित हुई, क्योंकि बिहार के बाहर उत्तर प्रदेश के कवि-मंचों पर ही पहले अधिक गई। उमाकांत जी बिहार के कई मंचों पर भी बहुत लोकप्रिय थे। मुजफ्फरपुर के अतिरिक्त सीतामढ़ी, मोतिहारी, बेतिया और उनसे थोड़ा अलग बोकारो, झरिया, हजारीबाग और उधर रांची आदि में तो उनका बहुत आना था। उमाकांत जी मुझको बहुत आत्मीय लगे। मैं उनका बहुत आदर करती थी। इतना कि कभी-कभी मैं उनसे पूछ लेती कि अमुक स्थान से आमंत्रण आया है, जाऊँ कि नहीं? नवगीतकारों के कुछ चुने हुए नाम उन दिनों मंच पर थे ही, जैसे— राजेंद्र प्रसाद सिंह, माहेश्वर, भगवान स्वरूप सरस, अमरनाथ श्रीवास्तव, कैलाश गौतम, किशन सरोज, बुद्धिनाथ मिश्र आदि। मंचों पर ही उन सभी से भेंट होती थी।

अवनीश सिंह चौहान— सुना है कि एक बार लखनऊ में काव्य-पाठ के दौरान 'स्त्री की दशा और दिशा' पर महादेवी वर्मा द्वारा की गयी टिप्पणी पर आपने मंच से ही उन्हें जवाब दे दिया था। आखिर उन्होंने ऐसा क्या कह दिया था, जोकि एक युवा कवियित्री को सहन नहीं हुआ?

शान्ति सुमन— आपने ठीक ही सुना है कि एक बार लखनऊ के कार्यक्रम में महीयसी महादेवी वर्मा के साथ मेरा विवाद हो गया था। वह काव्य-पाठ का कार्यक्रम नहीं था। कदाचित आपातकाल के पहले लखनऊ में आयोजित 'अखिल भारतीय लेखिका सम्मेलन' के तीन दिवसीय कार्यक्रम के अंतिम दिन लखनऊ दूरदर्शन वालों ने एक परिचर्चा-विमर्श का कार्यक्रम रखा था, जिसमें स्त्री विमर्श के अंतर्गत पाँच लेखिकाओं को अपने विचार देने थे। उक्त कार्यक्रम में स्त्री विमर्श का जो विषय था, मुझको आज भी पता नहीं है कि उस विषय को किसने दिया था। बीज-वक्तव्य महादेवी जी को देना था। महादेवी जी के बाईं ओर— डॉ कमला रत्नम और डॉ रमा सिंह और दाईं ओर— शशिप्रभा शास्त्री और मैं थी। कार्यक्रम में पक्ष-विपक्ष में कुछ नहीं रखना था, सिर्फ अपने विचार देने थे। सभागार खचाखच भरा हुआ था। महादेवी जी ने लगभग 45 मिनट तक अपना भाषण दिया। भाषण के मूल में महादेवी जी ने कहा कि आजकल के अराजक-अमानवीय वातावरण के मूल में मातृशक्ति का ह्रास है। मैंने उनका यह वाक्य पेन से अपनी हथेली पर लिख लिया कि मैं कहीं भूल ना जाऊँ, उनका कहा हुआ उनका कहा हुआ ही होना चाहिए।  

महादेवी जी का बीज-वक्तव्य समाप्त होते ही डॉ कमला रत्नम अपनी जगह पर खड़ी हुईं। फिर डॉ रमा सिंह ने विचार रखे। अंत में मेरा नाम आया। महादेवी जी ने एक बार गर्दन घुमा कर मुझको देखा। मैं उनके लिए अपरिचित थी। वे जितनी मेरे लिए परिचित थीं, उतनी ही उनके लिए मैं अपरिचित। वैसे तीन चार बार उनसे पहले कभी मिल चुकी थी। कहने का आशय यह कि वहाँ पर मैं उम्र और अनुभव में सबसे कम थी। उस समय मेरा अंतर्मन काँप रहा था। फिर भी मैंने पूरी ताकत बटोरकर सभा में कह ही दिया कि आपने जो बीज-वक्तव्य दिया, वह स्त्रियों के प्रति अन्याय है, मैं उससे कतई सहमत नहीं हूँ, क्योंकि भारत की भूमि अपनी अटूट मातृशक्ति के लिए युगों-युगों से जानी जाती रही है और आगे भी जानी जाती रहेगी।  

अवनीश सिंह चौहान— बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में आप एक महत्वपूर्ण कवि के रूप में हिंदी नवगीत के क्षितिज पर उभर चुकी थीं। उस समय आप बिहार में रमेश रंजक, सत्यनारायण आदि के साथ नई कविता के बरक्स नवगीत की जय-यात्रा में भी शामिल थीं। तथापि क्या कारण रहा कि 'नवगीत दशक' में आपकी उपस्थिति को दर्ज नहीं किया जा सका?

शान्ति सुमन— यह सही है कि बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में नवगीत के क्षितिज पर मेरी भी उपस्थिति दर्ज हो रही थी। शायद इसीलिये सत्यनारायण ने  एक बार कहा था कि मुझे यह कहने में कोई हिचक नहीं कि शांति सुमन की यात्रा ने गीत के धरातल पर अपना होना प्रमाणित किया है। इसी प्रकार से डॉ रेवती रमण, डॉ सुरेश गौतम, वीरेंद्र आस्तिक आदि विद्वानों ने भी मेरे बारे में बहुत कुछ कहा है। किन्तु, यह भी सच है कि डॉ शंभूनाथ सिंह ने 'नवगीत दशक' में मेरी उपस्थिति को दर्ज नहीं किया तो अवश्य ही इसके मूल में कोई बात रही होगी। मुझे याद आ रहा है कि उन दिनों मैं बनारस के एक कवि सम्मेलन में गई हुई थी। गीत पाठ के बाद मंच से नीचे आने पर उमाकांत मालवीय के समक्ष डॉ साहब 'नवगीत दशक' की योजना बता रहे थे। बातचीत हुई। बाद में पता चला कि रमेश रंजक और मेरे नाम को 'नवगीत दशक' में शामिल नहीं किया गया। उन्होंने अपने एक वक्तव्य में कहीं कहा था कि शांति सुमन जनवादी गीत लिखने लगी हैं इसलिए उन्हें उक्त संकलन में शामिल नहीं किया गया। पहाड़ जब नदियों का रास्ता रोकता है तब नदी और भी आवेश से अपना रास्ता बनाती है। 

अवनीश सिंह चौहान— एक मैथिली गीत संग्रह, दो कविता संग्रह और एक उपन्यास सहित अब तक आपके एक दर्जन से अधिक नवगीत संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। इधर आपकी रचनाधर्मिता पर दो पुस्तकें और कुछ शोध-ग्रन्थ भी प्रकाश में आ चुके हैं। मुजफ्फरपुर से जमशेदपुर तक की जीवन-यात्रा में क्या आपको कभी ऐसा भी महसूस हुआ कि आपके द्वारा या आप पर 'यह नहीं लिखा जाना चाहिए था' और 'यह लिखा जाना चाहिए था'? 

शान्ति सुमन— आपको सच में पता है कि मैंने क्या काम किया है और मुझ पर क्या काम हुआ है। लेकिन इतना काफी नहीं है। मुझे अभी और सृजन करना है। मुजफ्फरपुर से जमशेदपुर की जीवन-यात्रा में बहुत अंतर रहा। मुजफ्फरपुर सांस्कृतिक रूप से जितना समृद्ध था, है, उसकी तुलना में यहाँ कुछ भी नहीं। जब मैं यहाँ आई थी तब कविता का तो कोई आकर्षक वातावरण ही नहीं था। जयनंदन, सी. भास्कर राव आदि जैसे राष्ट्रीय स्तर के कथा-शिल्पियों का वर्चस्व था। कविताएँ लिखी जा रही थीं, कभी-कभी गोष्ठियों में सुनाई भी जाती थीं, पर उसका कोई समवेत प्रभाव नहीं था। यहाँ रहती हुई मैंने इस दिशा में थोड़ा-बहुत कार्य करने का प्रयास किया। धीरे-धीरे सजगता आई। गोष्ठियों, सम्मेलनों, मंचों से मैंने कविता के लिए बहुत कुछ कहा। धीरे-धीरे इस शहर की सांस्कृतिक ऊर्जा जगी और उनके लेखन का स्वाभिमान जागा। अब यहाँ गीतकार कवियों की बड़ी संख्या है। पुस्तके खूब छपती हैं। मंच सक्रिय हो उठे हैं। 

मेरे द्वारा जो भी लिखा गया है, वह मेरे रचनात्मक वैभव का हिस्सा है। मुझको कभी नहीं लगा कि अमुक रचना मेरे द्वारा नहीं लिखी जानी चाहिए। मेरे रचनाकर्म पर जो कुछ भी लिखा गया है, उसमें 85% सार्थक है, 15% को मैंने कभी अपने करियर में गिना ही नहीं। यह संभव नहीं है कि सभी लेखक मेरे मित्र हों। सामान्य मनुष्य के ईर्ष्या-द्वेष और प्रतिस्पर्धा के बीज उनमें भी छुपे होते हैं। मेरे पास समीक्षा, भूमिका, फ्लैप के मैटर लिखने के लिए जितनी पांडुलिपियाँ आती रही हैं, मैं अपने समय को ध्यान में रखकर, अपनी रचनात्मकता व्यस्तता को बचाकर, आधी से कुछ कम पुस्तकों पर कुछ भी नहीं लिख पायी। ऐसे में वे सभी लोग भी तो मेरे आलोचक हो ही गये होंगे।

अवनीश सिंह चौहान— सांस्कृतिक राजधानी के रूप में प्रतिष्ठित मुजफ्फरपुर (बिहार) और लौहनगरी के रूप में विख्यात जमशेदपुर (झारखण्ड) की साहित्यिक जमीन में मूलभूत अंतर क्या है? लौहनगरी में आपकी गीत-नवगीत-साधना किस प्रकार से चल रही है?

शान्ति सुमन— सांस्कृतिक राजधानी के रूप में प्रतिष्ठित मुजफ्फरपुर (बिहार) और लौहनगरी के रूप में विख्यात जमशेदपुर (झारखण्ड) की साहित्यिक जमीन में मूलभूत अंतर बहुत है। मुजफ्फरपुर खड़ीबोली हिंदी के प्रवर्तक अयोध्या प्रसाद खत्री का शहर है। वहाँ देवकीनंदन खत्री भी हुए। बिहार का पहला 'नारायण प्रेस' मुजफ्फरपुर में ही लगा था। प्रारंभ में इसी प्रेस से पत्र-पत्रिकाएँ प्रकाशित होती थीं। प्रतिस्पर्धा में कई दैनिक, पाक्षिक, मासिक पत्र-पत्रिकाएँ छपती थीं। वहाँ के युवा बाहर पढ़ने जाते थे; नौकरी करने भी जाते थे; वहाँ से शिक्षा और साहित्य की अनेक सूचनाएँ लाते थे। पुराने समय से ही वहाँ कई प्रसिद्ध स्कूल-कॉलेज थे। शायद इसीलिये उत्तर बिहार से लगभग सभी युवक पहले मुजफ्फरपुर ही आते थे। साहित्य का भी वहाँ ऐसा बीज-वपन हो गया था कि वहाँ साहित्यिक संस्थाओं की संख्या बहुत बढ़ गयी थी। बहुत एलीट ही नहीं, अखबार बेचने वाले सामान्य व्यक्ति भी इन संस्थाओं में कविता सुनने-सुनाने आ जाया करते थे। कुल मिलाकर, साहित्य और संस्कृति का वहाँ बहुत स्वस्थ-विकसित वातावरण रहा है। 

जमशेदपुर लौह अयस्क के लिए जितना समृद्ध औद्योगिक नगर रहा, उतना उसका साहित्यिक विकास नहीं हुआ। आदिवासी बहुल क्षेत्र होने के साथ ही अजीविका की चिंता से घिरे लोग यहाँ बहुत आते हैं। कितनी ही प्रतिभाएँ लोहा पीटते, कोयले को बैंगन में भरते और भट्टियों का ताप सहते समाप्त हो जातीं।  यह शहर आर्थिक रूप से जितना समृद्ध, वर्षों पहले साहित्य के क्षेत्र में उतना ही पीछे। धीरे-धीरे बाहर के लोगों के आगमन से यहाँ के लोगों की अंतश्चेतना का भी विकास हुआ। यहाँ सब कुछ है, पर यहाँ कोई ढ़ंग का कॉलेज, कलानिकेतन नहीं है। हाँ, आदिवासी लोकसंस्कृति की बड़ी धूम है। यहाँ की भाषा, कला, संगीत, रचनाओं की जमीन अलग है। जमशेदपुर तो पहले बिहार में ही था, अब भी झारखण्ड बन जाने पर बिहार की प्रतिभाओं से ही प्लांट से लेकर शहर की अन्य संस्थाएँ चलती हैं। किन्तु, जमशेदपुर में मेरी नवगीत-साधना पहले की तरह नहीं चल रही है।

अवनीश सिंह चौहान— सोशल मीडिया के इस युग में नवगीत की वाचिक एवं लिखित परंपरा का स्वरुप क्या है? इससे नये-पुराने कवियों पर किस प्रकार का प्रभाव पड़ रहा है?

शान्ति सुमन— सोशल मीडिया ने तो स्वयं नवगीत का सहयोग किया है। आज सोशल मीडिया में भले ही लोग अपना नाम बहुत कमा लें, लिखित परम्परा से जुड़े बिना बरकत नहीं है। एक बात और कि वाचिक परंपरा कभी भी लिखित परंपरा से ऊपर नहीं मानी गयी है। लिखित साहित्य ही प्रामाणिक साहित्य है। पुस्तकें  बहुत छपती हैं। नये-पुराने कवि तात्कालिक लाभ के लिए भले ही सोशल मीडिया का सहयोग ले लें, परन्तु प्रामाणिकता एवं स्थायित्व के लिए उनको लिखित परंपरा से भी जुड़ना पड़ेगा। इधर पुस्तक प्रकाशन भी अब उद्योग का रूप ले चुका है, इसलिए कोई कवि अब केवल सोशल मीडिया के भरोसे नहीं रहता।

अवनीश सिंह चौहान— यद्यपि इक्कीसवीं सदी में नवगीत के क्षेत्र में कई महिला रचनाकारों ने पदार्पण किया है, फिर भी इनकी संख्या उतनी नहीं है जितनी नई कविता, कहानी आदि में दिखाई पड़ती है। किन्तु एक उम्मीद तो जगी ही है?

शान्ति सुमन— अवनीश जी, आप स्वयं एक समर्थ, सार्थक रचनाकार हैं। आपको ठीक ही लगा कि 21वीं सदी में नवगीत के क्षेत्र में आने वाली रचनाकारों की संख्या नई कविता, कहानी के रचनाकारों से कम है। जहाँ तक उम्मीद की बात है तो यह तो प्रारंभ से ही जगी है। गीत का चलन वैदिक काल से है ही। पिछली सदी में भी गीत खूब लिखा गया। नवगीत भी लिखा गया। इधर कुछ दशकों से कुछ लोग नई कविता भी लिखने लगे। लय और छंद का अनुशासन सब साध नहीं सकते। इन कवितावादियों ने लय और छंद के विरुद्ध पाठकों को भयभीत किया। वे जानते नहीं थे शायद, इसीलिये ऐसा हुआ होगा। जब कोई गीतकार गीत लिखता है तो उसे शब्द के लिए सोचना नहीं पड़ता। गीत लिखते समय उसकी कलम की नोक पर शब्दों के साथ लय-छंद भी उतरते चले जाते हैं। उनको अलग से गिनना नहीं पड़ता। बड़े-बड़े गीतकारों का भी यही अनुभव है। 

अधिकांश स्त्री-कवियों ने पहले गीत ही लिखना चाहा, नहीं लिख सकीं तो कविता-कहानी में चली गईं। वैसे भी स्त्री-रचनाकारों को गीत उनकी अपनी विधा लगती है। स्त्रियोचित कोमलता के कारण गीत ही उनको प्रिय लगते हैं। नवगीत से जब जनवादी गीत का विकास हुआ तो स्त्री-गीतकारों ने उसको भी अपने श्रम-संघर्ष और जन-सरोकारों से जोड़ दिया।

अवनीश सिंह चौहान— क्या यह कहना उचित है कि भले ही हिंदी में कुछ भी लिख दिया जाय, साहित्यकार को कुछ खास मिलने वाला नहीं है— न पैसा और न ही कोई पद? क्या नवगीत की भी यही सीमा है?

शान्ति सुमन— प्रिय भाईजी, आप गीत कविता के क्षेत्र में इतने दिनों से काम कर रहे हैं, आपको खूब पता है कि वस्तुस्थिति क्या है? लक्ष्मी और सरस्वती का संघर्ष पुराना है। विधा को विद्वानों ने केवल धन अर्जित करने का माध्यम नहीं माना। कविता या गीत लिखना कोई अजीविका नहीं है। शास्त्रों में तो विद्यादान को उत्तम दान कहा गया है। आधुनिक काल का समय या समकाल की बात करें तो यह कहना सर्वदा समीचीन नहीं है कि भले ही हिंदी में कुछ भी लिख दिया जाए, साहित्यकार को कुछ खास मिलने वाला नहीं है। इस कथन में हिंदी भाषा और हिंदी गीत-कविता दोनों को कम करके आंका गया है। हिंदी ने तो समकाल में ऐसे-ऐसे काम किए हैं कि वह ज्योतिपिंड की तरह सारे संसार में फैल गई है। साहित्य कोई आलू, बैंगन या शृंगार-सामग्री नहीं है कि उसका कोई बाजार हो। पहले तो साहित्य स्वान्तः सुखाय है। स्वान्तः सुखाय से बड़ा कोई दूसरा सुख नहीं होता। फिर साहित्य जनसरोकार का माध्यम भी है। जीवन-संघर्ष, सामाजिक-संघर्ष को साहित्य ही आगे बढ़ाता है। उसमें समस्त समाज की रुचि होती है। एक बुलेटिन बिकता है तो बहुत पैसे आते हैं। किताबें छपती हैं तो देश-विदेशों में उसका बाजार होता है। उससे बहुत पैसे आते हैं। मीडिया में साहित्य पर काम करने वाले लोग भी बहुत कमाते हैं। नाटकों के मंचन और कविमंचों पर भी साहित्य केवल नाम-यश नहीं देता। उससे भी आय होती है। साहित्यकार की महत्वाकांक्षा में टाटा-बिरला बनने का स्वप्न नहीं होता। फिर सार्थक साहित्य लिखने से भूषण-सम्मान, विविध उपाधियों के साथ धन की प्राप्ति भी होती है। 

नवगीत की ऐसी कोई सीमा नहीं है। अपने देश में 75% लोग सुखपूर्वक जीने से, समाज और देश के काम आने से अधिक संग्रह नहीं करना चाहते। वे जानते हैं, तब भी नहीं करते। नवगीत ने तो अपनी नवता का जब उदयाचल गढ़ा था तो लोग आकृष्ट होकर उसको खरीदते-पढ़ते थे। वैसे भी नवगीत को अंतश्चेतना और मनीषा का उर्वर परिसर चाहिए। समझदार लोगों में इसकी बहुत प्रतिष्ठा है, मूल्य है। मैंने अपने समय में किसी नवगीतकार को धन के लिए उदास होते नहीं देखा। इतना भी काफी है। साथ ही सोशल मीडिया में साहित्य पर जो प्रोत्साहित करने वाली टिप्पणियाँ आती हैं, उनसे भी रचनाकार को खिलते-खुलते देखा है। इसलिए पैसा और पद ही की बात ही क्या करनी। पैसा तो आना-जाना है, प्रतिष्ठा कही नहीं जाती। स्थाई मूल्य देती है। मैं तुलसी, कबीर, मीरा की बात करूँ तो उनके समय में भी साहित्य को बाजार नहीं मिला था, किन्तु वे आज भी हमारे बीच हैं, हमारे लिए हैं, हमारे लिए सकारात्मक हैं, मूल्यवान हैं। हाँ, यदि राजनीतिक-सामाजिक व्यवस्था सुनिश्चित हो, कालाबाजारी नहीं हो, जमाखोरी और किसी का हिस्सा हड़पने का अनैतिक कार्य नहीं हो, समाज में सामंजस्य हो, तो नवगीतकार को पैसा और पद (नाम-यश भी) दोनों मिलेंगे।

अवनीश सिंह चौहान— क्या आप पाठकों के लिए कोई सन्देश देना चाहेंगी? यदि 'हाँ' तो क्यों, और यदि 'न' तो क्यों नहीं?

शान्ति सुमन— पाठक यदि समझदार हैं, सुपठित है, साहित्य के लिए उनमें गहरी रुचि और लगाव है, तो संदेश कैसा! पाठकों का एक बड़ा वर्ग हमारी चेतना को उद्वेलित भी करता है। कई बार पाठकों ने साहित्य के उस मर्म को तलाशा है जिसका पता स्वयं साहित्यकार को नहीं होता। पाठक कई बार उद्दीपन का काम भी करते हैं। हमें उस सूत्र तक पहुँचा देते हैं जहाँ उस साहित्य, उस कृति को हम पूरा समझ पाते हैं। पाठक का ही संवर्धित रूप समीक्षक और आलोचक होता है। जो तिलिस्मी और रोमांचक उपन्यासों के पाठक हैं, मैं उनकी बात नहीं करती। साहित्य के पाठकों की सभ्यता और संस्कृति में विश्वास कीजिए। हम भी दूसरे के लिखे साहित्य के पाठक ही होते हैं। क्या हमें भी किसी संदेश की जरूरत है? पाठकों से इतना ही कहूँगी कि सशक्त, सार्थक, समीचीन, सामयिक और सामाजिक संघर्षों का प्रतिबिंब वाला साहित्य ही पढ़ें। साहित्य आज मनोरंजन का विषय नहीं है, उसमें हम अपने दैनंदिन और शाश्वत मूल्यों का स्पंदन पढ़ते हैं। साहित्य हमें रचता है, सँवारता है। कभी-कभी हमारी पुनर्रचना भी करता है। जो हमारे जीवन, समाज और समय का आईना हो, वैसा साहित्य हम अवश्य पढ़ें। 


'वंदे ब्रज वसुंधरा' सूक्ति को आत्मसात कर जीवन जीने वाले वृंदावनवासी साहित्यकार डॉ अवनीश सिंह चौहान बरेली इंटरनेशनल यूनिवर्सिटी, बरेली के मानविकी एवं पत्रकारिता महाविद्यालय में प्रोफेसर और प्राचार्य के पद पर कार्यरत हैं।

Interview: Shanti Suman in Conversation with Abnish Singh Chauhan

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