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शनिवार, 16 अक्तूबर 2010

टर्मिनेशन - अवनीश सिंह चौहान


अवनीश सिंह चौहान 

 

४ जून १९७९ को इटावा (उ.प्र.) के एक छोटे से गाँव चंदपुरा में जन्मे अवनीश सिंह चौहान के आलेख, समीक्षाएँ, साक्षात्कार, कहानियाँ, कविताएँ एवं नवगीत देश-विदेश की अनेकों पत्र-पत्रिकाओं में निरंतर प्रकाशित। साप्ताहिक पत्र ‘प्रेस मेन’, भोपाल, म०प्र० के ‘युवा गीतकार अंक’ (३० मई, २००९) तथा ‘मुरादाबाद जनपद के प्रतिनिधि रचनाकार’ (२०१०) में आपके गीत संकलित। एक दर्जन हिंदी एवं अँग्रेजी पुस्तकों का लेखन, सह लेखन एवं संपादन। अंग्रेजी नाटककार विलियम शेक्सपियर द्वारा विरचित दुखान्त नाटक ‘किंग लियर’ का हिन्दी अनुवाद प्रकाशित। आयरलेंड की कवयित्री मेरी शाइन द्वारा सम्पादित अंग्रेजी कविता संग्रह 'ए स्ट्रिंग ऑफ वर्ड्स' में आपकी रचनाएँ संकलित। आपका एक नवगीत संग्रह, एक कहानी संग्रह तथा एक गीत, कविता और कहानी से संदर्भित समीक्षकीय आलेखों का संग्रह प्रकाशनाधीन। प्रख्यात गीतकार, आलोचक, संपादक श्री दिनेश सिंहजी (रायबरेली, उ०प्र०) की चर्चित एवं स्थापित कविता-पत्रिका ‘नये-पुराने’ (अनियतकालिक) के कार्यकारी संपादक पद पर अवैतनिक कार्यरत। वेब पत्रिका ‘गीत-पहल’ के समन्वयक एवं सम्पादक तथा वेब पत्रिका 'ख़बर इण्डिया' के साहित्यिक संपादक। आपके साहित्यिक अवदान के परिप्रेक्ष्य में आपको 'ब्रजेश शुक्ल स्मृति साहित्य साधक सम्मान' (वर्ष २००९ ), 'हिंदी साहित्य मर्मज्ञ सम्मान' (वर्ष २०१०) तथा 'प्रथम पुरुष सम्मान' (२०१०) से अलंकृत किया जा चुका है।

टर्मिनेशन
''सलाम, डाकसाब...!''

''सलाम!... सलाम करो डॉक्टर मुहम्मद दानिश को, जिन्होंने न केवल मुझे सहारा दिया, बल्कि घर-घर जाकर जाने कितने लोगों का इलाज किया उन पर एक भी पैसा चार्ज किये बिना... सलाम करो समाज-सेवी निरंजन सिंह को जो मुझे प्रत्येक माह मनीआर्डर भेजते हैं, सलाम करो गाँधीवादी नेता विदित मोहन को, जिन्होंने भूदान आन्दोलन में अपनी सारी जमीन दान में दे दी और स्वयं सांसद होते हुए भी साइकिल से चलते हैं तथा जीविका चलाने के लिए कपड़े बुनते हैं। मैंने ऐसा क्या किया जो मुझे सलाम ठोंकते हो.''

जब कभी भी कोई राह चलते डॉ पराग को सलाम करता, तब वह उग्र स्वर में यही शब्द दुहराते, और उनकी मुखमुद्रा ऐसे बदलने लगती जैसे किसी ने उनको पिन्श कर दिया हो. सहज- सरल स्वभाव के डॉ पराग कईं वर्षों से गुमसुम रहते हैं. न ज्यादा बोलना, न किसी के पास उठना-बैठना. चलते-चलते कभी किसी ने बात कर ली, तो कर ली, नहीं तो वह अपनी उधेड बुन में ही लगे रहते. हाँ, यदि छात्रों ने रोक लिया और कुछ पूछ दिया, तो उन्हें कहीं पर भी बैठकर पढ़ाने लगते. तब वह नहीं देखते खेत की मेंड  पर बैठे हैं, सडक किनारे घास पर याकि किसी टीले पर. और कितना समय बीत गया, पढ़ाते-पढ़ाते उन्हें इसका भी ध्यान नहीं रहता. सुबह नास्ता किया और निकल पड़े पास के कस्बे को, जहाँ पर छात्र उनका बेशब्री से इंतजार कर रहे होते हैं. स्कूल-टाइम जब तक नहीं हो जाता, स्कूल के पास वाले चरागाह में बैठकर वह छात्रों को पढ़ाते. छुट्‌टी होने पर पुनः छात्रों को पढ़ाते. तब कहीं जाकर लौटते डाक्टर बाबू के घर. पैदल ही. कई बर्ष बीत गये. गाँव-कस्बे के लोग उन्हें मास्टर चाचा कह कर पुकारने लगे थे. कम ही लोग उनका नाम जानते होंगे. वहीं गाँव के कुछ सिरफिरे, शरारती बच्चे उन्हें चिढाने, गुस्सा दिलाने से भी बाज नहीं आते.  कभी-कभी तो मास्टर चाचा उन्हें अपने बेंत से डराकर दौड़ाते भी.

''बड़ा भारी भाषण दे रहो हो, डाकसाब'', काशिफ ने चिढाना चाहा.

''जाओ, अपना काम करो, बच्चे!''

''मुझे क्या काम करना? मेरी काम करने की उम्र थोडई है! काम तो आपको करना चाहिए था.... अरे! मैं तो भूल ही गया.. आपने काम किया होता, तो नौकरी ही क्यों छूटती?''

''कब तक यह राग अलापोगे, काशिफ? कैसे गयी मेरी नौकरी! कई बार तुमने मुहल्ला-पड़ोस के लड़कों को साथ लेकर मेरा मजाक बनाया. इसी बात को लेकर. मैंने कभी कुछ कहा नहीं. कहता भी क्या और किससे कहता? लेकिन आज बता देना चाहता हूँ वह सब जो मेरी जिन्दगी का एक हिस्सा है, अहम हिस्सा'', यह कहकर डॉ पराग ने गहरी सांस ली.

और फिर वह अपने आतीत के पन्ने धीरे-धीरे खोलते चले गये- ''मैं जब तक विश्वविद्यालय में रहा, मैंने अपना समय ईमानदारी से अध्यापन करने, पुस्तकें लिखने तथा शोध करने- कराने में खपा दिया. कभी समय बचा भी तो फराज  खान की सामाजिक संस्था 'सॅसाइटि फॉर रिनाउन्स्ड पीपुल' के लिए काम किया. एक दिन मेरी बहस..., बहस नहीं चर्चा विभाग की महिला प्राध्यापिका मिस सरोज से हो गई. कारण बना ओ हेनरी की एक चर्चित कहानी का शीर्षक. शीर्षक में प्रयुक्त शब्द का सही उच्चारण क्या हो. मिस सरोज उसका उच्चारण कुछ और  कर रही थीं. जबकि मैं कुछ और. तभी मैंने मैडम से जानना चाहा कि क्या उन्होंने कहानी पढी है. उनका जवाब नकारात्मक था. तब मैंने पूछ लिया कि क्या उन्होंने फॅनेटिक्स पढी है और क्या वे उस शब्द को फॅनेटिकलि लिख सकती हैं. उन्होंने 'यस' कहा. मैंने पेपर बढ़ाया और कहा कि लिख दीजिए, तो बोल पडीं- 'पहले पढी थी, अब भूल गयी हूँ.'  इस पर वहाँ उपस्थित अन्य प्राध्यापक हँस पड़े.  मैंने कहा कोई बात नहीं. मैं कक्ष से बाहर चला आया.

लंच समाप्त होने पर वीसी ऑफिस से चपरासी मुझे बुलाने आया. मैं ऑफिस पहुँचा. मैडम सरोज पहले से ही वहाँ बैठी हुईं थीं. वीसी सर मिस सरोज की कुर्सी के पीछे खड़े थे. सान्त्वना देने की मुद्रा में. किन्तु मुझे देखते ही रौब से अपनी कुर्सी पर जा बैठे. कुर्सी धीरे-धीरे घूमने लगी. मैंने अनुमति माँगी- 'मेय आई सिट हेअर, सर?' 'सिट डाह्णह्णउन, डॉक्टर पराग.'  इससे पहले कि मैं कुर्सी पर कम्फर्टेबल हो पाता, सर मुझ पर बरस पड़े. 'आपने मैडम की इन्सल्ट की?' मेरी बात सुनने से पहले ही उन्होंने मुझ पर यह आरोप भी लगा दिया कि मेरा रवैया गैर-जिम्मेदाराना एवं अमर्यादित है. मैडम ने मौका देखा, एक और वार कर दिया कि मैंने एक बार उनका दुपट्‌टा खींचकर अश्लील हरकत की थी.  मैं सकते में आ गया, मैंने सफाई देनी चाही. वीसी सर आग बबूला हो गये. मेरे खिलाफ जाँच समिति बैठाने का आदेश दे दिया. समिति के सदस्य वे ही लोग बने, जो मैडम के हिमायती थे या उनके आस-पास मँडराते रहते थे. समिति ने अपनी रिपोर्ट सौंप दी और मुझे पहले सस्पेंड कर दिया गया फिर टर्मिनेट.''

''आप तो महिलाओं से बात भी नहीं करते. आप छात्रों को निःशुल्क अंग्रेजी पढ़ाने कस्बे जाते हो. दस किमी पैदल जाना और आना. मोटरगाड़ी, घोड़ागाड़ी पर भी नहीं बैठते, महज इसलिए कि उसमें महिलाएं भी यात्रा करती हैं। फिर भी....?'' यह कहकर काशिफ डाकसाब का चेहरा देख रहा था और उनमें दो सजल आँखे जो शून्य में निहार रहीं थीं.

''जब मैं प्राध्यापक था तब भी मैं महिलाओं से काफी दूरी बनाकर रखता था. बट नाउ आई हेट देम,'' डॉ पराग का चेहरा तमतमा गया.

''तब भी दुपट्‌टा खींच दिये,'' काशिफ ने चुटकी लेनी चाही.
वह झल्ला पड़े- ''मैंने नहीं खींचा... तब भी मैंने यही कहा था, अब भी यही कह रहा हूँ. परीक्षा कक्ष से निकल रहे थे हम दोनों. साथ-साथ ड्‌यूटी थी हमारी. मैडम आगे थी, मैं पीछे. उनका दुपट्‌टा गेट में उलझा और सरककर नीचे गिर गया. मैडम को लगा कि मैंने खींच दिया! उस समय उन्हें मैंने कनविन्स भी कर दिया था. पर बाद में उनके दिमाग में जाने क्या आया और ....''

''और आप टर्मिनेट कर दिये गये.''

डॉ पराग मौन हो गये.

काशिफ फिर बोल पड़ा- ''नौकरी तो तब भी कर सकते थे!''

''कर सकता था, परन्तु मेरा मानसिक सन्तुलन बिगड़ गया था. मेरी पत्नी को मेरे सस्पेंशन की बात पता चली, तो वह अन्दर ही अन्दर कुढने लगी. उन्ही दिनों सड़क दुर्घटना में मेरा इकलौता बेटा सदा-सदा के लिए हमसे छिन गया... हम हाथ पटक कर रह गये. पत्नी यह सब बर्दास्त न कर सकी, वह भी चल बसीं. यह वज्रपात था मेरे लिए... मैं टूट गया. एक दिन तुम्हारे अब्बा, मेरा प्रिय छात्र, मेरे घर आये और मुझे अपने साथ यहाँ ले आये. बाद में मैंने अपना मकान तथा जमीन फराज  खान की संस्था को दान कर दी. नाउ दे रन शेल्टर होम फॉर रिनाउन्स्ड पीपुल ऑफ अवर सॅसाइटि,'' डॉ पराग फफककर रोने लगे थे.

''तब से आप यहाँ बस गये.''

''... बस गया हूँ... इन वादियों में, इन घाटियों में. और भूल भी गया था अपने इस दर्द को, पर याद दिला दिया तुमने आज. चलो अच्छा ही हुआ. मन हल्का हो गया.''

अब काशिफ उन्हें डाकसाब से डाक्टर दादा कहने लगा था. डाक्टर दादा उस दिन दिनभर उसके साथ खेलते रहे. उन्हें अपना बचपन याद आ गया. छुट्‌टी का दिन भी था. अगले दिन वह स्कूल चला गया. डाक्टर दादा रोज की तरह छात्रों को पढ़ाने पास वाले कस्बे निकल गये. शाम हुई डाक्टर दादा घर नहीं लौटे. उसके अब्बा कड़ाके की सर्दी में रात भर उनको तलाशते रहे. अगली सुबह वह दफ्तर भी नहीं गये. न कुछ खाया, न पिया. दिन चढ ने पर किसी ने बताया कि कस्बे से दो किमी पहले दीना पहाड़ी के पास वाली पगडंडी पर डाक्टर दादा की लाश पड़ी है. सर्दी लगने से उनका शरीर अकड  गया था.


4 टिप्‍पणियां:

  1. संवेदनाओं से भरी अत्यंत मार्मिक कहानीके लिए आपको बधाई।

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  2. इस कहानी के यथार्थ से थोड़ा परिचय है मेरा. यह कहानी हमारे कॉलेज से जुड़ी हुई है. कहानी बहुत मार्मिक है और संस्थानों में चल रही गतविधियों पर कटाक्ष भी करती है. बधाई

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  3. ईमानदार और रचनात्मक सोच वाले प्रतिभाशाली लोगों को अब भी बर्दाश्त नहीं किया जाता । यह कहानी मार्मिक होने के साथ यथार्थवादी भी है । इसे कई कोणों से देखा जा सकता है । स्त्री होने के कारण ही वी सी का रवैया उनको लेकर ऐसा हुआ, वहीं सरोज अपने स्त्री होने का ही, अपने दैहिक आकर्षण का ही दुरुपयोग करती हैं । यह भी होता ही रहा है । कहानी कुछ छोटी किन्तु पूर्ण है । बधाई आदरणीय अवनीश जी । अच्छी और प्रभावित करने वाली कानी है यह ।

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  4. कृपया ऊपर कानी के स्थान पर कहानी पढ़ें

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