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मंगलवार, 24 मई 2011

मनोज जैन 'मधुर' और उनके चार नवगीत — अवनीश सिंह चौहान

मनोज जैन 'मधुर'

"लौटकर आने लगे नवगीत"- यह आशावादी स्वर है नवगीत के युवा शिल्पी मनोज जैन 'मधुर' का, जिन्होंने 'नवगीत' शीर्षक से लिखी गई अपनी रचना में नवगीत की विशेषताओं को सलीके से रेखांकित किया है, और प्रयास किया है उन मानदंडों पर खरा उतरने का। तभी तो उनके गीतों का कलेवर नया है, उनकी भाषा सुसंस्कृत है और उनमें प्रयुक्त बिम्ब-प्रतीक आसानी से समझे जा सकते हैं। शायद यही कारण है कि उनके गीतों को देशभर में सराहा जा रहा है । उन्हीं के शब्दों में उनके बारे में कहूँ- "सहज बिम्ब/ प्रतीक/ धरती से जुड़े हैं ये / लक्ष्य भेदा/ लौट आए/ जब उड़े हैं ये/ मान अब पाने लगे नवगीत ।" चिकित्सा के क्षेत्र में सेवा करते-करते मानवीय सरोकारों का मधुर गान करने वाले मनोज जैन 'मधुर का जन्म 25 दिसंबर 1975 में हुआ। आपकी रचनाओं का प्रसारण आकाशवाणी एवं दूरदर्शन से हो चुका है; राष्ट्रीय स्तर की अनेकों पत्र-पत्रिकाओं में भी आपको अच्छा 'स्पेस' मिला है। साथ ही आपकी रचनाएँ "नवगीत नई दस्तकें", "धार पर हम (दो)" आदि समवेत संकलनों में भी प्रकाशित हो चुकी हैं। आपके रचनात्मक अवदान के परिप्रेक्ष्य में आपको कई संस्थाओं द्वारा सम्मानित किया जा चुका है। संपर्क: सी, एस-13 , इंदिरा कालोनी, बाग़ उमराव दूल्हा, भोपाल, म.प्र. चलभाष: 09301337806 । आपके चार नवगीत यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ:

चित्र गूगल सर्च इंजन से साभार
1. पूछ कर तुम क्या करोगे!

पूछ कर तुम क्या करोगे
मित्र मेरा हाल

उम्र आधी मुश्किलों के
बीच में काटी
पेट की खातिर चढ़े हम
दर्द की घाटी
पीर तन से खींच लेती
रोज थोड़ी खाल

कब हमें मिलती यहाँ
कीमत पसीने की
हो गई आदत चुभन के
बीच जीने की
इस उम्र में पक चले हैं
खोपड़ी के बाल

आग खाते हम जहर के
घूँट पीते हैं
रोज़ मरते हम यहाँ
हर रोज़ जीते हैं
बुन रही मकड़ी समय की
वेदना का जाल

दर्द को हम ओढ़ते
सोते बिछाते हैं
रोज़ सपने दूर तक
हम छोड़ आते हैं
जी रहे अब तक बनाकर
धैर्य को हम ढाल


2. दिन पहाड़ से

चुप्पी ओढ़े
रात खड़ी है
सन्नाटे दिन बुनता
हुआ यंत्रवत
यहाँ आदमी
नहीं किसी की सुनता

सबके पास
समय का टोटा
किससे अपना
सुख दुख बाँटें
दिन पहाड़ से
कैसे काटे!

बात-बात में
टकराहट है
कभी नहीं दिल मिलते
ताले जड़े हुए
होठों पर
हाँ ना में सर हिलते

पीढ़ीगत इस
अंतराल की
खाई को अब
कैसे पाटे!

पीर बदलते
हाल देखकर
पढ़ने लगी पहाड़े
तोड़ रहा दम
ढाई आखर
उगने लगे अखाड़े

मन में उगे
कुहासे गहरे
इन बातों से
कैसे छाँटे!


3. अनाचार के काले कौए

लगे अस्मिता खोने अपनी
धीरे-धीरे गाँव

राजपथों के सम्मोहन में
पगडंडी उलझी
भूख गरीबी अबुझ पहेली
कभी नहीं सुलझी
अनाचार के काले कौए
उड़-उड़ करते कांव

राजनीति की बांहें पकडीं
घेर लिया है मंच
बँटवारा बन्दर सा करते
मिलजुल कर सरपंच
पश्चिम का परवेश पसारे
अंगद जैसा पाँव

छोड़ जड़ों को, निठुर
शहर की बातों में आते
लोकगीत को छोड़
गीतिका पश्चिम की गाते
सीख रही हैं गलियाँ चलना
शकुनी जैसे दाँव

दंश सोतिया झेल रहीं हैं
बूढ़ी चौपालें
अपनी ही जड़ लगीं काटने
बरगद की डालें
ढूँढ रही निर्वासित तुलसी
घर में थोड़ी छाँव


4. रिश्ते नाते प्रीत के

एक-एक कर दृश्य पटल पर
उभरे बिम्ब अतीत के

माँ की पीर, पिता की चिंता
उभरी जस की तस
तोड़ रहे दम सपन सलोने
दिन-दिन खाकर गश
नोन तेल लकड़ी में बिसरे
रिश्ते नाते प्रीत के

इच्छाओं की फ़ौज संभाले
फिरा भटकता मन
फिर भी सुख से रहा अछूता
जीवन का दर्शन
मृग तृष्णा से मिले मरुस्थल
मन को अपनी जीत के

लोक रंग को हवा विदेशी
लील रही आकर
धूमिल कबिरा की साखी के
मिले सभी आखर
दिखे सिसकते हमें माढ़ने
और सांथिये भीत के

बिसरी अपनी बोली वाणी
बिसरा संबोधन
बंसी मादल सोन मछरिया
बिसर रहा गोधन
मिले न साधक पन्त, निराला
दिनकर जैसे गीत के
। 

Four Navgeet of Manoj Jain 'Madhur'

9 टिप्‍पणियां:

  1. चुप्पी ओढ़े
    रात खड़ी है
    सन्नाटे दिन बुनता
    हुआ यंत्रवत
    यहाँ आदमी
    नहीं किसी की सुनता
    in khoob surat panktiyon kee saath kavi mohday sahit avnish jee aap ko namaskaar ! sunder geet hai achchi prastuti . sadhuwad
    saadar !

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  2. मनोज जैन 'मधुर' के सुन्दर चारों नवगीतों की प्रस्तुति के लिए बधाई...

    जवाब देंहटाएं
  3. चुप्पी ओढ़े
    रात खड़ी है
    सन्नाटे दिन बुनता
    हुआ यंत्रवत
    यहाँ आदमी
    नहीं किसी की सुनता
    sabhi bahut badhiya hai

    जवाब देंहटाएं
  4. मेरे ब्लॉग पर आने के लिए और टिप्पणी देकर प्रोत्साहित करने के लिए बहुत बहुत शुक्रिया!
    बहुत ख़ूबसूरत और शानदार नवगीत ! उम्दा प्रस्तुती!

    जवाब देंहटाएं
  5. चुप्पी ओढ़े
    रात खड़ी है
    सन्नाटे दिन बुनता
    हुआ यंत्रवत
    यहाँ आदमी
    नहीं किसी की सुनता
    बहुत ख़ूबसूरत और शानदार नवगीत ! उम्दा प्रस्तुती

    जवाब देंहटाएं
  6. वाह ... बहुत ही अच्‍छी प्रस्‍तुति .... ।

    जवाब देंहटाएं
  7. चुप्पी ओढ़े
    रात खड़ी है
    सन्नाटे दिन बुनता
    हुआ यंत्रवत
    यहाँ आदमी
    नहीं किसी की सुनता

    मन को छूने वाले भावपूर्ण नवगीत

    जवाब देंहटाएं

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