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बुधवार, 20 अप्रैल 2016

रमाकांत और उनकी नौ ग़ज़लें – अवनीश सिंह चौहान

रमाकांत

मुल्ला दाऊद, महाप्राण निराला और दिनेश सिंह की बिरासत को समृद्ध करने वाले रमाकांत जी समकालीन रचनाकारों में महत्वपूर्ण स्थान रखते है। साहित्य की कई विधाओं में रचनारत रमाकांत जी अपनी ग़ज़लों में (अन्य विधाओं की तरह ही) धर्म, जाति, वर्ण, नस्ल, संप्रदाय आदि से परे आदमी और आदमीयत की बात करते हैं - 'किसी की जाति ऊॅची है किसी का धर्म ऊॅचा है/ मगर है आदमी ही सबसे ऊॅचा कोई कहता है' और 'काट रहा है एक-एक दिन/ सुब्ह अभी फिर शाम आदमी।' आदमी की दुःखद स्थिति और आदमीयत के क्षरण पर वक्र दृष्टि रखने वाले रमाकांत जी जन-मन से जुड़े महत्वपूर्ण सवालों को न केवल बड़ी बेबाकी से उठाते हैं, बल्कि उनके प्रभावशाली एवं स्थायी हल भी खोजते हैं - 'प्रश्न होता नहीं सरल कोईे / खोजिए तो मिलेगा हल कोई।' कारण यह कि वह समकालीन समस्याओं को हल्के में नहीं लेते और न ही उनके निदान को असम्भव समझते हैं। शायद इसीलिये मानवीय करुणा से लैस उनके दार्शनिक एवं समाजोपयोगी चिंतन का सहज शब्दों में अर्थपूर्ण रूपांतरण उनकी ग़ज़लों को विशिष्ट बनाता है। पूरे लाऊ, बरारा बुजुर्ग, जनपद रायबरेली (उ.प्र.) में जन्मे रमाकांत जी एम.ए., एम.फिल. एवं पत्रकारिता में पी.जी डिप्लोमा करने के बाद अध्यापन से जुड़ गये। 'वाक़िफ रायबरेलवी: जीवन और रचना', 'हिन्दी के सर्वश्रेष्ठ हाइकु', नृत्य में अवसाद', 'जमीन के लोग', 'सड़क पर गिलहरी' (कविता संग्रह), 'जो हुआ तुम पर हुआ हम पर हुआ', 'बाजार हँस रहा है' (नवगीत संग्रह) एवं 'रोशनी है मगर अंधेरा है' (ग़ज़ल संग्रह) आपकी अब तक प्रकाशित पुस्तकें हैं। आप त्रैमासिक साहित्यिक पत्रिका 'यदि' के सम्पादक है। आपको म.प्र. का 'अम्बिका प्रसाद दिव्य स्मृति रजत अलंकरण' ('सड़क पर गिलहरी' कृति के लिए) एवं ख्यातिलब्ध साहित्यकार स्व दिनेश सिंह की स्मृति में 'ढाई आखर पुरस्कार' सहित कई अन्य विशिष्ट सम्मान प्रदान किये जा चुके हैं। संपर्क: ९७, आदर्श नगर, मुराई बाग़ (डलमऊ), रायबरेली-२२९२०७ (उ.प्र)। मोब. ०९४१५९५८१११। यहाँ पर आपकी नौ गज़लें प्रस्तुत की जा रही हैं, जोकि आपके सद्या प्रकाशित ग़ज़ल संग्रह 'रोशनी है मगर अंधेरा है' (सीरीन प्रकाशन, अहमदाबाद, 2016) से साभार ली गयी हैं।

(1)

तू मुझे इस तरह प्यार कर ज़िन्दगी
मुझको अच्छा लगे तेरा घर ज़िन्दगी।

कोई भी दूसरा रंग चढ़े ही नहीं
तेरे रंग मैं रंगूॅ इस क़दर ज़िन्दगी।
                                                                                                           

जाने कब से नज़र मेरी तुझ पर लगी
तू मुझे देख ले इक नज़र ज़िन्दगी।

तब उठी अब गिरी और मिट भी गयी
है समन्दर की कोई लहर ज़िन्दगी।

ज़िन्दगी मौत से क्यों परेशान है
मौत है ही नहीं, है अगर ज़िन्दगी।

तेरी सूरत में सीरत की हो रोशनी
गर सॅवरना हो, ऐसे सॅवर ज़िन्दगी।

खोजते-खोजते मैं इधर आ गया
अब पता चल रहा, है उधर ज़िन्दगी।

(2)

एक दीपक जला रोशनी हो गयी
जो उदासी थी उसमें कमी हो गयी।

बाहरी-भीतरी रास्ते खुल गये
अब तो अच्छी ये आवारगी हो गयी।

एक आशा जगी फिर बियाबान में
गुम हुए शख़्स की वापसी हो गयी।

आग तो आग है जब लगी तब लगी
देह की कोठरी राख-सी हो गयी।

फ़िक्र किसकी करें और क्यों कर करें
सब अंधेरा हटा रोशनी हो गयी।

अपने महबूब से ये शिकायत रही
मेरी उससे ही क्यों दिल्लगी हो गयी।

(3)

किसी से दोस्ती कैसी किसी से दुश्मनी कैसी
अगर जीना है अपने आप में तो दिल्लगी कैसी।

सफ़र में हमसफ़र होकर कभी पूछा नहीं उसने
कि कैसे हाल हैं मेरे कि मेरी ज़िन्दगी कैसी।

कोई ईश्वर कोई अल्लाह हमसे चाहता क्या है
उसे हम खुश करें क्यों और उसकी बन्दगी कैसी।

ज़मीं को बाॅट देने से ये दिल क्या बॅट भी जाते हैं
ये भाई, भाई से करते हैं बातें बेतुकी कैसी।

किसी के प्यार में पागल मैं अब तक हो नहीं पाया
नहीं मालूम है मुझको कि है ये आशिक़ी कैसी।

हमारे मुल्क में अब भी बहुत से लोग ऐसे हैं
पता अब तक नहीं जिनको कि होती है ख़ुशी कैसी।

मैं उसकी आॅख के पिघले हुए काजल से क्या पूछूॅ
मैं पूछॅू क्या कि उसके दिल में छायी है नमी कैसी।

उसी के जादुई आग़ोश में आराम मिलता है
न जाने चाॅद कैसा है वो, जाने चाॅदनी कैसी।

(4)

ज़रा लफ़्फ़ाज़ियाॅ कुछ कम करो गम्भीर हो जाओ
करोड़ों भारतीयों के जिगर की पीर हो जाओ।

ज़रा ये भी लगे इस देश के रहबर बने हो तुम
ग़रीबों वंचितों की ज़िन्दगी के हीर हो जाओ।

हमेशा ही सताये जो गये उनकी तरफ़ देखो
बड़े असहाय हैं उनके लिये बलबीर हो जाओ।

मसाइल हैं बहुत से उनको हल करना ज़रूरी है
सभी ये चाहते हैं देश की तक़दीर हो जाओ।

पड़ोसी रोज़ सरहद पर हमें नीचा दिखाता है
वतन की चाह है उसके लिये शमशीर हो जाओ।

न छीनो बोलने का हक़ जो बोले, बोलने भी दो
जगह सूनी पड़ी चाहो तो ग़ालिब-मीर हो जाओे।

किसी भी जाति-मज़हब से न कुछ लेना, न कुछ देना
बनें सब आदमी उस प्रेम की तासीर हो जाओ।

कभी बहुमत में आकर कोई बौराया नहीं करता
समझदारी भी दिखलाओ कि थोड़ा धीर हो जाओ।

(5)

पत्ती-पत्ती टूट रही थी पेड़ खड़ा मुस्काता था
मेरा जाने क्या होगा मैं रोज़ वहाॅ क्यों जाता था।

शम्अ जली तो अंधियारे का हर कोना था जलने को
परवानों से यारी थी तो मैं भी जश्न मनाता था।

आगे आने की चाहत में छूटे सब संगी-साथी
अब मैं सोच रहा हॅू मेरा उनसे कैसा नाता था।

यूॅ तो हैं सब अपने ही पर लगता है सूना-सूना
था वो एक, कि जिससे मुझको प्यार जताना आता था।

रिश्ते हैं लेने-देने के,  वर्ना हैं झूठे रिश्ते
वह क्यों आज अकेला है जो रिश्ते ख़ूब निभाता था।

(6)

भिक्षा है ये दान नहीं है
देने में एहसान नहीं है।

सीता तू ख़ुद ही हिम्मत कर
राम नहीं, हनुमान नहीं है।

क्या गु़र्बत में जीने वाला
हम जैसा इन्सान नहीं है।

नेता है बकवास करेगा
उसका कुछ ईमान नहीं है।

डरकर जब-तब बदले ख़ुद को
सच की ये पहचान नहीं है।

क्यों दुनिया की हालत है ये
क्या कोई भगवान नहीं है।

तू ही प्यास, समन्दर तू ही
तुझको इतना ज्ञान नहीं है।

(7)

दर्द दिल का मुझे बताने दे
इश्क़ को फिर नये तराने दे।

पेट भूखा है पहले खाने दे
प्रेम से फिर भजन सुनाने दे।

मैं ज़मीं हूॅ तू आसमाॅ मेरा
बीच में मत किसी को आने दे।

मैंने लहरों से दोस्ती की है
मुझको दरिया में घर बनाने दे।

वो ही चेहरा है वो ही आईना
वो जो देखे उसे दिखाने दे।

सुन रहा है ये सारा वृन्दावन
कृष्ण को बाॅसुरी बजाने दे।

हाथ का मैल है ये पैसा भी
इसको बस यूॅ ही आने-जाने दे।

ओढ़ ली हर तरफ़ से बेशर्मी
अब सियासत में उसको आने दे।

उनकी सूरत है ख़ूबसूरत-सी
वो लजाते हैं तो लजाने दे।

(8)

एक बहती हुई नदी देखो
फिर ये ठहरी-सी ज़िन्दगी देखो।

देखने भर से कुछ नहीं होता
करके मिलती है जो ख़ुशी देखो।

लोग कहते हैं उनको पागल ही
पागलों की भी ज़िन्दगी देखो।

देख लेना वो ग़म की छाया भी
तुम कहीं भी अगर ख़ुशी देखो।

ख़ौफ़ बिल्कुल नहीं है मरने का
ज़िन्दगी की ये बानगी देखो।

बादलों की गिरफ्त से छिटकी
सहमी-शरमाई चाॅदनी देखो।

इस सियासत के नाम ख़त लिखकर
कर रहा है वो ख़ुदकुशी देखो।

(9)

आज बच्चा है कल पिता होगा
कौन जाने वो और क्या होगा।

आदमी हो के भेड़िया-सा है
भेड़िया आदमी बना होगा।

जिसको कहते हैं लोग ताजमहल
उसके बनने में कुछ मिटा होगा।

तोड़ दो सिलसिला रिवायत का
फिर जो होगा वो सिलसिला होगा।

रेत के घर बना, मिटा डालो
सबसे अच्छा ये बचपना होगा।

कोई माने, न माने कोई भी
इस ग़ज़ल में ये क़ाफ़िया होगा।

Ramakant, Raebareli, U.P., India

4 टिप्‍पणियां:

  1. सुन्दर ग़ज़लों का चयन करके प्रस्तुति के लिए
    अवनीश चौहान जी को धन्यवाद !

    ज़िन्दगी मौत से क्यों परेशान है
    मौत है ही नहीं, है अगर ज़िन्दगी।
    ***
    ''हमारे मुल्क में अब भी बहुत से लोग ऐसे हैं
    पता अब नहीं जिनको कि होती है ख़ुशी कैसी ''
    ***
    किसी भी जाति -मज़हब से न कुछ लेना न कुछ देना
    बने सब आदमी उस प्रेम की तासीर हो जाओ
    ***
    रिश्ते हैं लेने-देने के, वर्ना हैं झूठे रिश्ते
    वह क्यों आज अकेला है जो रिश्ते ख़ूब निभाता था।
    ***
    नेता है बकवास करेगा
    उसका कुछ ईमान नहीं है।
    ***
    ओढ़ ली हर तरफ़ से बेशर्मी
    अब सियासत में उसको आने दे।
    ***
    तोड़ दो सिलसिला रिवायत का
    फिर जो होगा वो सिलसिला होगा।
    ***
    बहुत-बहुत बधाई रमाकांत जी , नव्यतम ग़ज़ल-संग्रह के प्रकाशन के लिए
    तथा इस पटल पर मनोरम प्रस्तुति के लिए !
    -जगदीश पंकज

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  2. रमाकान्त जी वाकई बहुत उम्दा शायर हैं। इतनी खूबसूरत सटीक गज़लें पढवाने का धन्यवाद।

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  3. हर ग़ज़ल में ग़ज़ल का लहजा, बहुत अच्छा चुनाव! अन्यथा आजकल सपाटबयानी को ग़ज़ल मान लिया गया है! रमाकांत जी और अवनीश जी, दोनों को बधाई!

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