चर्चित साहित्यकार विनय मिश्र जी का जन्म 12 अगस्त 1966 को देवरिया (उ.प्र.) में हुआ। शिक्षा : काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से हिन्दी साहित्य में पीएचडी। प्रकाशित कृतियाँ : ‘सच और है’ (ग़ज़ल संग्रह, 2012), ‘समय की आँख नम है’ (गीत संग्रह, 2014), ‘सूरज तो अपने हिसाब से निकलेगा’ (कविता संग्रह, 2015) एवं ‘इस पानी में आग’ (दोहा संग्रह, 2016)। संपादन : ‘पलाश वन दहकते हैं’- स्व. मंजु अरूण की रचनावली (2009), ‘जहीर कुरेशी : महत्व और मूल्यांकन’ (2010) एवं ‘शब्द कारखाना’ पत्रिका के समकालीन हिन्दी ग़ज़ल पर केन्द्रित विशेषांक का सम्पादन। समवेत संकलन : वरिष्ठ कवि आलोचक नचिकेता द्वारा संपादित हिन्दी ग़ज़ल के आठ प्रतिनिधि कवियों के चर्चित संग्रह ‘अष्टछाप’ एवं 'गीत वसुधा' में शामिल। सम्प्रति : राजकीय कला महाविद्यालय, अलवर (राज.) के हिन्दी विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर। सम्पर्क : बी-161, हसन खाँ मेवाती नगर, अलवर (राज.)-301001, दूरभाष : 0144-2730188, मो. 9414810083, ईमेल : mishravinay18@gmail.com।
1. खेल
रात, शाम से लगी हुई है
काँटा बोने में
हमला दिन पर मोटामोटी
एक जवाबी है
पढ़कर देखोे तो यह सारा
खेल किताबी है
रस मिलता है जिसको
चुभती बात पिरोने में
भले समय पर मिले न पैसा
हमें किराये का
अपने चलते काम न बिगड़े
किसी पराये का
ऐसा मन भी आया कैसे
जादू टोने में
जबसे नेकी की बस्ती में
आकर बसा फरेब
चला उस्तरा पलक झपकते
साफ कर गया जेब
बड़ा मज़ा है अब गुस्से में
आपा खोने में।
2. बेकली
ऐसी बातों में यूँ कुछ
रक्खा नहीं है
मगर जो भी हुआ
वो अच्छा नहीं है
सड़क बननी थी जहाँ
कोई गली है
सबकी आँखों में अजब-सी
बेकली है
ठीक है आँसू कोई
बहता नहीं है
रौशनी देती धुआँ
अपना उड़ाती
एक चिनगी है हवा में
चमचमाती
मन दहकता है अभी
ठंडा नहीं है
जानते हैं सब
कोई कहता नहीं है
कोई भी ईमान का
पक्का नहीं है
जान का सौदा कोई
सस्ता नहीं है।
3. कौन पढ़े
प्रेम मुहब्बत के पचड़े में
कौन पड़े
छत की खातिर सीढ़ी सीढ़ी
कौन चढ़े
लेकर मन की निर्मलता का
इस संपुट
अभिलाषाओं का होता है
मोर मुकुट
दिल से लेकिन मीरा के पद
कौन पढ़े
पडे़ धुएँ से परबत के
चेहरे काले
आग कुएँ में सूखे सब
नदियाँ नाले
बढ़ी हुई बेचैनी के
नुकसान बड़े
काम कर गई उनकी
पाबंदी की चाल
अब तो शर्तों पर जीने की
आदत डाल
किसमें है कूवत जो
खुद के साथ लड़े।
4. हौसले
एक अंधापन छुपाकर
आँख वाले बन गए हम
जीभ से इन दिलजले
घपलों के चूरन चाटिए
दूसरों पर थूकिए मत
अपनी खाँसी रोकिए
हाँ इसी उत्पात के बल पर
बहुत चर्चित हुए हम
हर कदम पर मौसमों से
छेड़खानी पर है उतरा
ये सफर भी उस गुलामी-सा ही
नामाकूल गुजरा
फिर पुराने पड़ गए हैं
कुछ दिनों होकर नए हम
हादसों की मार से
स्तब्ध बेदम जो पड़े हैं
लोग कहते हैं यही तो
बेपरों के हौसले हैं
पेट की खातिर हमेशा
पीठ पर रक्खे जुए हम।
5. ध्यान रहे
जो आँखों के पानी में है ध्यान रहे
वो सबकी निगरानी में है ध्यान रहे
अन्धकार में
डूबी-डूबी रातों की
देखा-देखी
खूब चली है बातों की
हर मुश्किल
आसानी में है ध्यान रहे
बाज़ारों में
आज गिरावट भारी है
जीवन मूल्यों का
मिटना भी जारी है
हर रिश्ता
हैरानी में है ध्यान रहे
आयी घर में
छंद मुक्त हो भौतिकता
कविताओं की
नष्ट हो गयी मौलिकता
जो तुलसी की
बानी में है ध्यान रहे।
6. तीर्थंकर
जिधर भी हाथ जुड़ते हैं
उधर है एक तीर्थंकर
बड़ा पहुँचा जुआरी है
वो अपना दाँव खेलेगा
हराकर सिर्फ बातों से
तुझे अपना बना लेगा
पिघल जायेगा सबकुछ जो
दुखों में हो गया पत्थर
किसी अंधे की आँखों का
वो सूखापन हरा कर दे
किसी लंगड़े को जब चाहे
वो मुश्किल में खड़ा कर दे
दुआओं में वो रखता है
कई अनहोनियों के स्वर
कबूतर क्या करें लेकिन
लगी जब उनकी अर्जी है
शिकारी तीर मारे जाल डाले
उसकी मर्जी है
तभी तो इस अहाते में
कई बिखरे मिले हैं पर।
7. तकली
किस मुश्किल में
नदिया कोई
आँखों से निकली
वे बर्फीली शिखर न होंगे
होंगे लपटों के
जो मृगजल देने को आतुर
है छल कपटों के
मन कस्तूरी घूम रहा है अब
होकर तकली
जलती बुझती चिंताओं के
चमके गहने हैं
विपदाओं के हमने जबसे
कपड़े पहने हैं
हरे भरेपन की जैसे हो
अब टूटी पसली
एक अजनबीपन से सबका
चेहरा पुता हुआ
आपाधापी के कोल्हू में
जीवन जुता हुआ
कुर्सी क्या छूटी अपनों की
चाल ढाल बदली।
8. जेब खर्च
इनको ही रो धोकर
गाकर आंखें भर लो
चिंताओं को
जेब-खर्च में शामिल कर लो
लगा हुआ है
नयी हवा का आना जाना
इसकी खातिर
दिल है एक मुसाफिरखाना
जितने पल का साथ
उसी की हामी भर लो
जैसे जमकर बर्फ गिरी हो
ऐसी बातें
ऐसी सरदी काँप गई हैं
अपनी रातें
रगड़ हथेली कुछ तो गर्मी
पैदा कर लो
सोचो तो ये खुशियों की
तौहीनी ही है
इतने अरसे बाद यहाँ
ग़मगीनी ही है
पतझर या मधुमास
किसी पत्ते-सा झर लो।
9. पीलिया
शहर को कुछ हो गया है
पीलिया-सा
आँखों में भी रंग है
उसका सजीला
यह नहीं कि
झूठ का है रंग पीला
रह रहा है सबमें कोई
भेदिया-सा
आदतों में इक मशीनी
है कवायद
आदमी से चेतना की
गंध ग़ायब
चेहरे में है कोई
बहुरूपिया-सा
खोखलापन ढो रहे हैं
शब्द केवल
हम रोजाना सुर्खियों में
पी रहे छल
खींचती है रोज चुप्पी
हाशिया-सा।
Hindi Lyrics of Vinay Mishra, Alwar, Raj.
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