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शुक्रवार, 16 सितंबर 2016

अमिट लकीरें : हक जो अदा हुआ — अवनीश सिंह चौहान

पुस्तक: अमिट लकीरें (संस्मरण) 
लेखक: विभावसु तिवारी 
प्रकाशक: मिलिंद प्रकाशन 4-3-178/2,
कंदास्वामी बाग, सुल्तान बाजार 
हैदराबाद-500095 
आईएसबीएन: 978-81-86907-73-6 
मूल्य: 250 रु. पृष्ठ: 160 प्रकाशन वर्षः 2016

चर्चित पत्रकार विभावसु तिवारी जी की हिंदी साहित्य में व्यंग्यकार एवं कवि के रूप में अपनी प्रतिष्ठा है। तिवारी जी ने जब तक पत्रिकारिता की, मन से की; जब पत्रकारिता से इतर कुछ करने का मन हुआ तब शैक्षिक संसार और उसके संस्कारों की कस्तूरिया गंध उन्हें मुरादाबाद के एक निजी विश्वविद्यालय में खींच लायी। जीवन में आये इस बदलाव ने उनकी सोच और नजरिये को काफी प्रभावित किया। यहाँ उनका मन मातृ भाषा हिन्दी के प्रति आकर्षित हुआ। वह साहित्यिक पुस्तकें पढ़ने लगे। साहित्यिक विचार-विमर्श करने लगे। फिर मन हुआ कि कुछ लिखा जाय। लिखने की कोशिश की। सफल हुए। दो महत्वपूर्ण पुस्तकों का सृजन (एवं प्रकाशन भी) - कॉफी मन्थन (व्यंग्य संग्रह) एवं केसरिया सूरज (कविता संग्रह) किया। 'व्यंग्य' और 'कविता' में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने के पश्चात अब वह साहित्य की एक और विधा 'संस्मरण' में सर्जना कर रहे हैं। उनकी यह सर्जना जीवन की सच्चाइयों को शब्दबद्ध करते हुए अतीत और वर्तमान को जोड़ने एवं भविष्य को संवारने की उनकी अभीप्सा को अमिट लकीरों के रूप में रेखांकित करती है।

'अमिट लकीरें' कृति में तिवारी जी ने स्वीकार किया है कि उन्होंने अपनी 'कुछ यादों' और 'कुछ बातों' को महज इसलिए लिपिबद्ध किया है ताकि अतीत के आईने में 'भारतीय जीवन' के विवध 'रूपों-रंगों' को देखा-परखा जा सके। उनकी यह कोशिश कितनी महत्वपूर्ण है इसका अंदाजा यजुर्वेद से उद्धृत उस श्लोक से लगाया जा सकता है जिसमें कहा गया है : ‘हे सकल जगत के उत्पत्तिकर्ता, समग्र ऐश्वर्ययुक्त, शुद्ध स्वरूप, सब सुखों के दाता परमेश्वर! आप कृपा करके हमारे सम्पूर्ण दुर्गुण, दुर्व्यसन और दुःखों को दूर कर दीजिए और जो कल्याण कारक गुण, कर्म, स्वभाव और पदार्थ हैं वह सब हमें प्राप्त कराइए।' 'जन-मन' के कल्याण को उद्घाटित करते इस श्लोक से रचनाकार के 'मन की बात' स्पष्ट हो जाती है।

समकालीन साहित्य में यद्यपि संस्मरण लिखने का चलन बढ़ा है, तथापि तुलनात्मक रूप से लिखने वालों की संख्या कम है। अच्छा लिखने वालों की संख्या और भी कम। तिस पर भी जो लोग इस विधा में लिख रहे हैं, काम कर रहे हैं,  विचारणीय है। इसी क्रम में मुझे एक महत्वपूर्ण शीर्षक याद आता है - डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी द्वारा डॉ नामवर सिंह पर लिखित संस्मरण ‘हक अदा न हुआ।' हक़ अदा हुआ या नहीं, शोध का विषय हो सकता है।किन्तु इतना अवश्य कहा जा सकता है कि संस्मरण के माध्यम से प्रत्येक रचनाकार अपने अतीत का पुनर्मूल्यांकन कर अपने खट्टे-मीठे अनुभवों को व्यक्त करना चाहता है; जीते-जी अपना हक़ अदा करना चाहता है। यदि ऐसा है तो यह कार्य सहज, सौम्य एवं शालीन व्यक्तित्व के धनी मेरे प्रिय मित्र विभावसु तिवारी जी ने भी किया है।

साहित्यिक दृष्टि से यह कृति संस्मरणात्मक आत्मचरित, यात्रा-वृत्तांत और संस्मरणात्मक निबन्ध का मिला-जुला रूप है। यानि कि रचनाकार ने इतिहास, राजनीति, भूगोल, पर्यटन, शहरीकरण, बाज़ारवाद, अवसरवाद, लोक-संस्कृति, जनजीवन, घर-परिवार, सुख-दुःख, आशा-निराशा, धूप-छाँव आदि अनेक पहलुओं से अपने अनुभवों को समृद्ध करते हुए अपनी जीवन यात्रा को 'यथास्थिति' शैली में वैचारिक पृष्ठभूमि पर प्रस्तुत किया है। चूँकि संग्रहीत संस्मरण एक बड़े कालखण्ड को रूपायित करते है, इसलिए उनके 'प्लॉट्स' और 'थीम्स' न केवल रोचक और जीवंत हैं, बल्कि अपने समय की महत्वपूर्ण बातों को भी साझा करते दिखाई पड़ते है। प्रस्तुतीकरण सरस और लयपूर्ण। सटीक एवं सारगर्भित भी। जहाँ-तहाँ महत्वपूर्ण छायाचित्र भी उपलब्ध हैं ताकि भवकों को चिंतन-मनन का दोहरा लाभ मिल सके। सारतः यह एक अद्भुत कृति है। रचनाकार को हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं।

अभिमत लेखक :
- अवनीश सिंह चौहान

Amit Lakeeren by Vibhavasu Tiwari. Abhimat by Abnish Singh Chauhan

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