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सोमवार, 11 सितंबर 2017

लघु कथा : प्रेस दीर्घा - अवनीश सिंह चौहान

अवनीश सिंह चौहान

विश्वविद्यालय के सभागार में एक विशिष्ट कार्यक्रम होना है। कार्यक्रम के प्रारंभ होने से लगभग आधा घंटा पूर्व अभिभावक, छात्र, शिक्षक, अतिथि निर्धारित स्थान पर बैठ चुके हैं। दो असिस्टेंट प्रोफेसर भी वहाँ आकर बैठ जाते हैं।

अनुशासन समिति में कुछ सुगबुगाहट हुई। सिक्योरिटी मेन दौड़कर वहाँ पहुंचता है। समिति से निर्देश पाकर वह दूर से चिल्लाकर बोलता है- "ए डॉक्टर साब, वहाँ से उठो। पीछे जाकर बैठो।"

दोनों असिस्टेंट प्रोफेसर चुप। वह फिर चिल्लाता है। सभागार स्तब्ध!

दोनों असिस्टेंट प्रोफेसर हाथ से इशारा कर उसे अपने पास बुलाते हैं, परन्तु वह उनके पास नहीं जाता है। उसकी ईगो हर्ट। 

अनुशासन समिति में खीझ। समिति का एक सदस्य सिक्योरिटी मेन से व्यवस्था में जुटे छात्रों को बुलाने को कहता है। छात्र आते हैं, किन्तु वे यह कहकर निकल लेते हैं कि यह आपका आपसी मामला है।

पुनः मीटिंग। खड़े-खड़े। खुसरपुसर।

तब तक एक और फैकल्टी प्रेस दीर्घा में आकर बैठ जाती है; सभागार में प्राध्यापकों के लिए आरक्षित सीटें धीरे-धीरे भरने लगती हैं। 

कुछ समय बाद अनुशासन समिति एक दबंग सदस्य को प्रेस दीर्घा खाली कराने को भेजती है। वह अपना भाषण प्रारम्भ करता है। सभागार पुनः स्तब्ध!

दोनों असिस्टेंट प्रोफेसर मिस्टर दबंग से विनम्रतापूर्वक पूछते हैं- "यहाँ क्या लिखा है?" 

"प्रेस दीर्घा", वह कड़क शब्दों में जवाब देता है। 

"हम कौन हैं?"

सन्नाटा। कोई उत्तर नहीं।

यकायक उसकी समझ में कुछ आता है। वह बात बदलता है- "मै तो इस फैकल्टी को हटाने आया हूँ।"

वह उस फैकल्टी का हाथ पकड़कर प्रेस दीर्घा से बाहर ले जाता है। मिस्टर दबंग अपने बॉस को रिपोर्ट करता है कि वे दोनों प्रेस कमेटी में हैं, ड्यूटी चार्ट में उनके भी नाम हैं।

(यह लघुकथा एसआरएम विश्वविद्यालय दिल्ली-एनसीआर में घटी एक घटना पर आधारित है)

Dr Abnish Singh Chauhan

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