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गुरुवार, 11 अप्रैल 2019

दरियागंज की किताबी शाम-III


साहित्य और सियासत न एक-दूसरे के सहचर हैं, न अनुगामी। सियासत समाज का एक अभिन्न हिस्सा है और साहित्य को समाज का प्रतिबिम्ब माना जाता है। इस नाते साहित्य और सियासत आरंभ से ही एक-दूसरे को प्रभावित करते रहें हैं।

लेकिन क्या आज साहित्य सियासत में अपना संतुलित, रचनात्मक हस्तक्षेप कर पा रहा है?  अब साहित्य में या तो दलगत पक्षधरता दिखती या सेलेक्टिव विरोध या फिर एकदम ही निरपेक्ष रवैया। सोशल मीडिया पर राजनेताओं के पक्ष-विपक्ष में पोस्ट लगाने के अतिरिक्त साहित्य किस तरह से राजनीति में अपना सकारात्मक योगदान दे रहा? इन्हीं और ऐसे कई अन्य ज्वलंत सवालों के साथ हम रुबरु हुए साहित्य जगत के कुछ सुपरिचित और युवा वक्ताओं के साथ दरियागंज की किताबी शाम-III में जो वाणी प्रकाशन के कार्यालय स्थित प्रेमचंद सभागार में 11 मई, शनिवार को आयोजित किया गया। परिचर्चा का विषय था- साहित्य और सियासत: पार्टनर तुम्हारी पॉलिटक्स क्या है? कार्यक्रम में रचनाकार विवेक मिश्र, वंदना राग, अजीत भारती और अणुशक्ति सिंह ने शिरकत की।

सुपरिचित कथाकार विवेक मिश्र के अनुसार हमारा लेखन ही हमारी पॉलिटक्स है। इस पर हमें अलग से बात करने की ज़रूरत क्या है? हमें बस उत्प्रेरक देना है, बाक़ी का काम जनता करेगी। लेफ़्ट, राइट से होकर हर बात बस तू-तू-मैं-मैं तक रह जाती है, कोई कार्यक्रम जनता को शिक्षित नहीं कर रहा। जनता के पास नारे हैं, वादे हैं पर उसे कोई उसके पास जागरूकता नहीं। साहित्य हमेशा वैकल्पिक राजनीति होती थी पर हम पॉलिटिकल टूल बन कर रह गए हैं। लिखने वाले ख़ुद सता केन्द्र में तब्दील हो गए हैं। पर हर विकल्प ख़ुद बाद में एक सत्ता केन्द्र बन जाता पर तब हाशिए की आवाज़ उठाना सम्भव नहीं है। गाँधी ने इसी विचार के तहत ख़ुद को सत्ता से अलग रखा होगा। आर. एस. एस., लेफ़्ट, आप आदि पहले प्रेशर ग्रुप की तरह थे, लेकिन अब वह सत्ता केंद्र है। और लेखक किसी सत्ता केन्द्र के साथ नहीं हो सकता।

किसान की बात, मज़दूरों की बात किसी लेफ़्ट , राइट की बात नहीं है। पार्टी के अन्दर भी पार्टी पॉलिटिक्स है, जिसके तहत कई नेता जैसे सुभाष चन्द्र बोस कॉंग्रेस से और गोविंदा चार्य भाजपा से निकाले गए। आम आदमी हर हाल में खिलौना है। साहित्य भी उसी तरह की वैकल्पिक राजनीति का एक टूल है। यदि आपके लेखन में सरोकार नहीं तो आपका लेखन रद्दी है। लेखक पहले ख़ुद के लिए ईमानदार रहे। हम सत्ता या बाज़ार के विज्ञापन नहीं हो सकते। जो छिपाया हुआ है, उसे बाहर लाना ही साहित्यकार का काम है। साहित्य के सरोकार बहुत स्पष्ट है  वह आँखों पर पट्टी बाँधने नहीं, पट्टी खोलने का काम करता है। साहित्य का इतिहास ही यही कहता कि भक्त बन जाओ, प्रभु तुम्हारे उद्धार के लिए आयेंगे। वह साहित्य उस काल में जनता की आवाज़ नहीं, उसे राजा के गुणगान में लिखवाया गया।

एक लेखक निराशा के समय अपवाद लेकर आता, वह लोक से नायक गढ़ता है। कथाकार संजीव की कहानी अपराध,  उदय प्रकाश की कहानी टेपचू और नरेंद्र नागदेव की चाबुक का उदाहरण देना चाहूँगा जहाँ लेखक समाज को एक प्रतीक दे रहा है। ये कहानियाँ आपको अपने समय के लिए सजग करती हैं।

लेखक का कार्य सत्ता के अच्छे काम का विज्ञापन नहीं है, उसे आम जनों के सरोकारों से मतलब है जो शोषित है। मैं एक लिबरल डेमोक्रेट की तरह सोचता हूँ, मैं एक्स्ट्रीम लेफ़्ट या एक्स्ट्रीम राइट होकर नहीं सोचता।

युवा रचनाकार और ऑप इंडिया के संपादक अजीत भारती ने कहा कि साहित्यकार का राजनीतिक विषयों पर बोलना ज़रूरी है, जो बहुत कम हो रहा है। पाले पकड़ना बुरा नहीं, स्वभाविक है, मानवीय है लेकिन अंधभक्ति और अंधविरोध दोनों ही गलत है।  विचारधारा रखना बुरा नहीं, कुतर्क करना ज़रूर बुरा है। एक तरह की विचारधारा तो नाम से ही प्रोग्रेसिव और दूसरी विचारधारा को नीचा मानने की प्रवृति भी देखने में आती है। अधिकांशतः साहित्यकार भी आम जनता की तरह रेटरिक (काल्पनिक बातों) को हवा देने में व्यस्त हो जाते हैं। मेरे विचार से साहित्य में राजनीतिक और सामाजिक विषयों का होना ज़रूरी क्योंकि यही हमारा भविष्य तय करते हैं। मुझे अपनी पीढ़ी के साहित्यकारों से यह समस्या है कि वे राजनीति से निरपेक्ष हैं, वे किसी भी मुद्दे पर अपनी राय व्यक्त नहीं करना चाहते हैं। साहित्यकार के तौर पर हमारी ज़िम्मेदारी कि हम अपने विचार व्यक्त करें ताकि जनता उससे संदेश ले। जब साहित्यकार राजनीति पर बात करने से बचने लगता है तो वह अपने पाठक वर्ग और समाज के साथ धोखाधड़ी करता है। सोशल मीडिया पर लेखक सिर्फ़ किताब बेचने के लिए नहीं है। रेप, मॉलेस्टेशन जैसे मुद्दों पर भी लेखक चुप कैसे रह जाते हैं, उनकी आत्मा उन्हें  धिक्कारती नहीं है? साहित्य जो हम रचते हैं उसमें सिर्फ़ प्रेम कहानियाँ नहीं होनी चाहिए। आम जनता पर हम यह आरोप नहीं लगा सकते कि वह यही पढ़ना चाहती है। साहित्यकार की यह ज़िम्मेदारी है कि वह सामाजिक मुद्दे पर लिखे। पॉलिटिक्स साहित्य से लुप्त हो गया है। यह सिर्फ़ वामपन्थियों की ज़िम्मेदारी नहीं है कि कह गरीबो पर लिखे। साहित्यकारों को निष्पक्ष होकर ऐसे मुद्दों पर आवाज़ उठानी चाहिए जिनमें जनता की आवाज़ हो। 

सुपरिचित रचनाकार वंदना राग ने कहा कि साहित्य हमेशा प्रतिपक्ष रचने के लिए होता है। समाज विभिन्न आयामों से बना होता है। हर साहित्यकार अपने मिज़ाज़ के अनुसार तत्व उठाकर उनपर लिखता है। मेरी पीढ़ी के साहित्यकार भी ऐसा सोचते कि वे किस पचड़े में क्यों पड़े, शायद हमने ऐसी पीढ़ियों को तैयार किया जिनकी सोच इस तरह विकसित ही नहीं हुई। वहां साहित्य, इतिहास, मूल्य पीछे छूट गए और हमारे मानवीय मूल्य ख़त्म हो गए। प्राथमिकता बस अच्छे अंकों की आय ही रह गयी, उसे हमने इसी तरह ही ढाला है कि वह अपने जीवन में ही रम गया है। नागार्जुन, धूमिल, दिनकर जैसे पुराने लेखकों ने खुल कर सत्ता के विपक्ष में लिखा।

मैं जब 70 के दशक में बड़ी हो रही थी तब समाज इतना विभक्त नहीं हुआ था। एक मुहावरा चल रहा अभी – टुकड़े-टुकड़े ज्ञान। जिन मूल्यों के साथ हमने 70 के दशक से शुरुआत की थी, उन्हीं मूल्यों के साथ अगर हम चलते तो शायद आज समाज इतना नहीं बंटा होता।

फिर हम 80 के दशक में आते हैं जब एक वाद एक अलग तरीके से हमारे सामने प्रस्तुत किया जाता है और अचानक एक मेजॉरिटी को अपने अस्तित्व पर ख़तरा महसूस होने लगता है।

ज़रूरी यह था कि हम धर्म को अलग कर चलते अपने राजनेताओं से पकड़ कर पूछते कि यह किस तरह की विभेद की भाषा है। जो भी पक्ष में है वह दक्षिण जो विपक्ष वह वाम,  इतने ब्लैक एंड वाइट में हम कैसे बात कर सकते हैं? एक वामपंथी एक दक्षिणपंथी का दोस्त क्यों नहीं हो सकता। हम कैसे इतना विभक्त हो चुके हैं ? मैं उस हिंदूवाद की समर्थक कैसे हो सकती हूँ जो एक सर्वोच्च सत्ता को महान बना कर प्रजातांत्रिक ढाँचे को तोड़ दे, हाशिये की बात नहीं करे।

कोई भी राजनीतिक दल ने महिलाओं को इस बार समुचित नेतृत्व नहीं दिया। व्यक्तिपूजा के इस दौर में हम क्यों नहीं ये मुद्दे हम सोशल मीडिया पर उठाते।

युवा रचनाकार एवं संपादक अणुशक्ति सिंह ने कहा कि साहित्य और सियासत, यह मुद्दा जैसे ही सामने आता है, मुझे याद आती है देश के प्रथम प्रधानमंत्री द्वारा लिखी गयी राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की किताब 'संस्कृति के चार अध्याय' की प्रस्तावना।

ख़ुद कई किताब लिख चुके नेहरू जी का साहित्य प्रेम कौन नहीं जानता। न सिर्फ़ दिनकर बल्कि महाकवि निराला और अज़ीम शायर फ़िराक़ के भी वे अनन्य प्रशंसक थे। सुनने में आता है कि फ़िराक़ ने एक बार अपनी नाराज़गी उनसे कहा था,

तुम मुख़ातिब भी हो, क़रीब भी
तुमको देखें कि तुमसे बात करें

और नेहरू इस ख़ूबसूरत व्यंग्य पर मुस्कुरा उठे थे।

सवाल यह उठता है कि जिस लोकतंत्र की शुरुआत इतने सुंदर साहित्यिक वातावरण में हुई, वहाँ मुक्तिबोध को यह लिखने की आवश्यकता क्यों पड़ी? सनद रहे, गजानन माधव मुक्तिबोध की एक भी पुस्तक उनके जीवन काल में छप कर नहीं आ सकी। उनके वक़्त के सबसे आदरणीय आलोचकों ने उन्हें शिजोफ्रेनिक तक क़रार दिया था। उन्हीं मुक्तिबोध की पंक्ति हमारे कानों में गूँजती है। इस पंक्ति से मुझे गगन गिल के संपादन में छपी निर्मल वर्मा के अप्रकाशित चिट्ठियों और डायरी के अंश को संकलित करती किताब 'संसार में निर्मल वर्मा' का एक उद्धरण याद हो आया। पचहत्तर-अस्सी के वे साल जब इन्दिरा जी प्रबल प्रखर थीं, मैगज़ीन पर अपनी नकेल कसती थीं और दिनमान एवं धर्मयुग जैसे पत्र उनकी स्तुति में लीन थे, तब भी इन्दिरा जी ने पुस्तकों पर कहर नहीं बरपाया था। कवि और लेखक अपनी बात अपनी रचनाओं के ज़रिए कहते जा रहे थे और स्तुति में लीन सहित्यकारों को उकसाते भी जा रहे थे। मुझे लगता है कि लेखक को मध्य मार्ग पर होना चाहिए। उसे हर तरफ़ की ग़लत बात रखनी चाहिए। वाम या दक्षिण अपने मन के खिलाफ जाते ही दोनों तरफ से चरित्र हनन शुरू हो जाते हैं। लेखक किसी दूसरे दुनिया से आया प्राणी नहीं। युवा पीढ़ी उदारीकरण के दौर में बढ़ी हुई। तो यह हमारी परवरिश में शामिल हो गया है। कुछ ऐसे लोग हैं जो केसरिया आतंकवाद फैलाते पर यह भी सही है कि हिन्दू धर्म का नाम लेना भी गुनाह हो गया है। जैसे एक वरिष्ठ कवि ने अभी कहा कि उन्हें हिन्दू की तुलना में मुस्लिम अच्छे लगते तो इस तरह के स्टेटमेंट से एक वर्ग विशेष पर सवाल खड़ा हो जाता है। इंदिरा गाँधी के आपातकाल के समय जब सब लेखक उनकी वाणी बोल रहे तो निर्मल वर्मा रात का रिपोर्टर जैसी रचना लेकर आये। इस कार्यक्रम में वरिष्ठ रचनाकार विनोद भारद्वाज, पत्रकार संजीव, युवा रचनाकार धर्यकांत मिश्रा, मनीष, हंसराज, फ़ज़ल हक़, संजीव सिन्हा, अंकुश कुमार आदि शामिल थे।

News by Vaani Prakashan, New Delhi

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