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गुरुवार, 18 जून 2020

रमेश गौतम और उनके दस नवगीत — अवनीश सिंह चौहान


इधर कीर्तिशेष साहित्यकार आ. किशन सरोज जी की टिप्पणी पढ़ने को मिली— "मैंने जब-जब रमेश गौतम के नवगीत पढ़े या सुने तो मुझे अच्छे ही लगे। पत्र-पत्रिकाओं के सम्पादकों ने भी उनके गीतों को सम्मानपूर्वक छापा।" आ. रमेश गौतम जी जैसे समय, समाज के प्रति सजग नवगीतकार के लिए उनके ही शहर के स्थापित कवि किशन सरोज जी द्वारा की गयी यह सकारात्मक टिप्पणी बड़ी महत्वपूर्ण है। महत्वपूर्ण इसलिए कि इस टिप्पणी में इस बात की पुष्टि तो होती ही है कि इस अनुभव-समृद्ध रचनाकार को न केवल अपने शहर बरेली में प्रतिष्ठा मिली है, बल्कि शहर से बाहर भी भरपूर सम्मान मिला है। यह टिप्पणी इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि शहर से बाहर के तमाम भावकों-विद्वानों ने भी उनके नवगीतों को पढ़ने और सुनने में 'बेहतरीन' माना है। इस सन्दर्भ में वरिष्ठ साहित्यकार आ. मधुकर अष्ठाना जी लिखते हैं— "वे एक जागरूक चिन्तक-विचारक-प्रगतिशील रचनाकार हैं।" वरिष्ठ नवगीतकार आ. माहेश्वर तिवारी जी ने तो यहाँ तक कह दिया है कि गौतम जी के "एक-एक गीत को लेकर विस्तार से चर्चा की जा सकती है।" यह कोई साधारण बात तो नहीं? यदि यह साधारण बात नहीं, तो प्रश्न उठता है कि गौतम जी जैसे समर्थ, सचेष्ट एवं समर्पित रचनाकार हाशिये पर क्यों हैं? और क्यों हम इन रचनाकारों पर खुलकर बात नहीं कर पाते? सवाल और भी हो सकते हैं, होने भी चाहिए, किन्तु उत्तर तो हमें ही खोजने पड़ेंगे।

आ. रमेश गौतम जी का जन्म 28 सितम्बर 1948 को जनपद पीलीभीत (उप्र) के सुसंस्कृत पांचाल ब्राह्मण परिवार में हुआ। पिता स्व-मास्टर मथुरा प्रसाद शर्मा जीवन पर्यन्त प्राथमिक शिक्षा के अनन्य प्रचारक रहे, जबकि माता स्व चम्पा देवी शर्मा एक सामान्य गृहिणी थीं। पिता की सहृदय सामाजिकता गौतमजी की  सर्जना का आधार बनी और आगे चलकर वह "समाज के सुख-दुःख के बीच अपनी रचनात्मक भूमिका का निर्वाह" करने के लिए शब्द-साधना करने लगे। आपकी शब्द-साधना के महत्वपूर्ण आयाम— नवगीत, लघुकथा, दोहा, हाइकु सर्जना के अतिरिक्त आलेख, समीक्षा, पत्रकारिता से सम्बंधित लेख आदि भी हैं। शिक्षा : हिन्दी साहित्य में परास्नातक, सेवा निवृत्त अध्यापक, बरेली। 

"श्रेष्ठ हिन्दी गीत संचयन" (सं- कन्हैयालाल नंदन), ''नये पुराने गीत अंक'' (सं- दिनेश सिंह), ''गीत वसुधा'' (सं- नचिकेता) आदि के रचनाकार रमेश गौतम जी का प्रथम नवगीत संग्रह— "इस हवा को क्या हुआ" (2017) बड़े विलम्ब से प्रकाशित हुआ; जबकि आपका दोहा संग्रह— "बादल फेंटें ताश" प्रेस में एवं एक लघुकथा संग्रह प्रकाशनाधीन हैं। दो दर्जन से अधिक समवेत संकलनों में आपके नवगीत, लघुकथाएँ, हाइकु, लेख आदि संकलित हो चुके हैं। नुक्कड़ नाटक संयोजन, बरेली (1992-93), वीएम दर्पण (इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, बरेली, 2005) बच्चों का साप्ताहिक कार्यक्रम "लिटिल टैलेन्ट " में कार्यक्रम प्रोड्यूसर, कलायात्रा संस्था, बरेली (1998-99) के माध्यम से युवा चित्रकारों की वर्कशाप एवं प्रदर्शनी संयोजन आदि कर चुके हैं। आपने 'दैनिक विश्व मानव', 'माया भारती' (मासिक पत्रिका), 'तितली बाल पत्रिका', 'कथादृष्टि लघुकथा' व 'अन्वेषण कविता  फोल्डर', 'विविध संवाद पत्रिका' का 'गीतकार किशन सरोज विशेषांक' आदि का संपादन किया है। आपको एक दर्जन से अधिक सम्मानों, पुरस्कारों से अलंकृत किया जा चुका है। वर्तमान में आप स्वतंत्र लेखन, पत्रकारिता एवं चित्रांकन (कला-प्रदर्शनी) कर रहे हैं। संपर्क : रंगभूमि, 78 बी, संजय नगर, बरेली- 243005 (उप्र), दूरभाष: निवास- 0581-2303312, मो-9411470604, 8394984865, ई-मेल: rameshg78b@gmail.com

राम सेंगर जी से उपलब्ध चित्र
(1) शब्द जो हमने बुने 
 
शब्द जो हमने बुने 
सिर्फ़ बहरों ने सुने 

यह अंधेरी 
घाटियों की चीख है 
मुट्ठियों में 
बन्द केवल भीख है 
बस रुई की गाँठ 
जैसे हैं पड़े 
मन करे जिसका धुने

आँधियाँ
सहता रहा दिन का किला 
रात को हर बार 
सिंहासन मिला 
दें किसी सोनल किरण 
को दोष क्या 
जब अंधेरे ही चुने

छोड़ते हैं साँप 
सड़कों पर ज़हर 
देखते ही रह गए 
बौने नगर 
थक चुके 
पुरुषार्थ के भावार्थ को 
कौन जो फिर से गुने।

(2) पीर के पालने में 

पीर के पालने में 
पले हैं 
हम उड़ाने यहीं से भरेंगे

रिक्त संवेदना से मिला है 
सभ्यता का सजा हर स्वयंवर 
वंशधर अक्षरों के यहाँ कब 
हैं खिले कागज़ी फूल बनकर 
छोड़ कर 
स्वर्णकेशा निमन्त्रण 
साथ भीगे नयन के दिखेंगे

शब्द आए नहीं पास उड़ कर 
तितलियों के घरों से अचानक 
कण्ठ नीला किया तो लिखें हैं 
चार अनुभूतियों के कथानक 
खींच कर आवरण 
देख लो तुम 
उपनिषद आँसुओं के मिलेंगे 

रंगशाला बनाई सुनहरी 
पर,सुनहरे कभी हो न पाए 
शिल्प चर्चित हुआ तो हमारे 
हाथ दरबारियों ने कटाए 
पत्थरों पर 
कहीं लिख न पाए 
नींव की ईंट बनकर जिएँगे। 

(3) इस हवा को क्या हुआ

सच न जाने 
इस हवा को 
क्या हुआ 

तितलियों की देह पर 
चाकू चलाती यह हवा 
जुगनुओं को धर्म के 
रिश्ते बताती यह हवा 
किस दिशा ने 
इस हवा का 
तन छुआ  

यह हवा जो कल फिरी 
हर एक माथा चूमती
आज सड़कों पर यहाँ 
कर्फ्यू लगाती घूमती 
लग गई 
इसको 
किसी की बद्दुआ 

इस हवा ने कातिलाना 
दाँव कुछ ऐसे चले 
मार डाला भाईचारे को 
गली में दिन ढले 
अब कहें 
मामू किसे 
किसको बुआ।

(4) आँखों में युद्ध के शिविर

सूर्यास्त 
होते ही लग जाते 
आँखों में युद्ध के शिविर  

एक अग्निपाश में जले 
दिनभर
सूख गया सारा सनेह 

संध्या के सिरहाने छोड़ दी 
घायल दिनचर्या की देह
मरहम-पट्टी करते 
बीत गई 
एक रात पत्नी की फिर 

आग की सुरंगों के
आर-पार 
जाना और लौटना नियति 
सूरज से मुस्काने लाना हैं
बाँध-बाँध 
पैरों में गति 
चढ़ते हैं मृत्युदण्ड 
साथ लिए 
बार-बार शिखरों से गिर 

अश्वमेध करने की अभिलाषा 
निगल गया कालदेवता 
किस-किसने बनवाए
लाक्षागृह 
आज तक चला नहीं पता 
रोज-रोज मरते हैं 
अभिमन्यु 
अन्धे गलियारों में घिर। 

(5) कोलाहल में 

सत्याग्रह के अर्थ 
सिमटते देखे 
कोलाहल में 

सत्य विलुप्त हुआ 
आग्रह का झण्डा लहराते हैं 
अन्तर्मन में लिए अंधेरा 
सूरज को गाते हैं 
अधरों पर बातें 
वैरागी 
आँखे राजमहल में  

मर्म कहाँ छू पाते जन का
अंश किसी भाषण के 
अब निष्कर्ष नहीं मिलते हैं 
अनशन-आन्दोलन के 
कागज की नावें तैराते 
लहरों की 
हलचल में 

असली सन्दर्भों से कटते 
नकली पर चर्चाएं 
जन-गण-मन पर मंथन करती 
बस चलचित्र सभाएँ"
कैसे मिले 
कलश अमृत का 
एक कुएँ के जल में 

धुँधले बहुत हो गए अक्षर
कौन यहाँ पहचाने 
'सत्यमेव जयते' के पन्ने 
इतने हुए पुराने 
किसको पड़ी 
खिले 
ऊँचाई लेकर फिर दलदल में।

(6) कहें किससे कथा अपनी

कहें किससे 
कथा अपनी 
स्वयं को ही सुनाते हैं

हमारी दृष्टि ही मोटी 
कहाँ जनतंत्र पढ़ पाई 
परख पाएँ खरा-खोटा 
समझ इतनी नहीं आई 
जिधर बहती 
हवा देखी 
अंगूठा छाप आते हैं 

धरे 
जिनकी हथेली पर 
थिरकते फूल जनमत के 
कभी लौटे नहीं वे साथ में 
सपने लिए छत के 
खुले आकाश में 
हम पूस की 
रातें बितातें हैं

सदा जलते सवालों पर 
सदन में पीठ दिखलाई 
गजब देखी जुगलबन्दी 
हितों पर आँच जब आई
झुलस जाए न 
अपना घर
नया कानून लाते हैं।

(7) कितनी बार

बोलो अन्तर्मन!
मरुथल में 
लहरें कितनी बार नहाईं 

कितनी बार यक्ष प्रश्नों के 
उत्तर खोज-खोज कर लाएँ 
कितनी बार बूँद भर जल को 
प्यास तराजू पर तुलवाएँ
भेदें कितनी बार 
स्वयंवर में 
हम मछली की परछाईं 

नापी धूप छाँव को नापा 
नापी जलधारा हरियाली 
नींदें रैन- बसेरे नापे
नापी साँझ-सुबह की लाली 
नापी कहाँ 
नयन की झीलें
बस अपनी नावें तैराईं 

ऐसे खेले खेल निराले 
सिमट गई है मोक्षदायनी 
खेले नहीं सरोवर के तट 
मछली-मछली कितना पानी 
पानी पोखर 
पनघट वाली 
अब तक झूठी कसमें खाईं।

(8) कल का ताना-बाना बुनते 

कल का 
ताना-बाना बुनते 
कम हुआ एक दिन जीवन का 

दिन उगते ही खा गई नियति 
उन्मुक्त क्षणों के उत्सव सब 
सूरज ने धरी हथेली पर 
तालिका पेट की बड़ी अजब 
चल पड़े 
धूप के साथ कदम 
फिर पता पूछने सावन का 

कब समय तनावों ने छोड़ा 
कर सकें प्रणय की तनिक पहल 
ठण्डे चूल्हे के सिरहाने 
बैठी अपनी मुमताज़महल 
गहरे निश्वासों 
में डूबा 
सारा आकाश सुहागन का 

श्रम के अध्याय लिखे बहुत 
दिनचर्या ने चट्टानों पर 
प्रकाशित हुई कथा जब भी 
थे और किसी के हस्ताक्षर 
बस बन्द लिफाफे
में निकला कागज 
कोरे आश्वासन का।

(9) तूणीर में सब अनछुए

आयु बीती 
खिड़कियों की 
धूप से अनबन हुए 

कोशिशे कितनी करें 
कुछ बात हो संवाद हो 
दूर रिश्तों से विषैला 
किस तरह परिवाद हो
किन्तु कोई सेतु 
बनता ही नहीं 
जो तट छुए 

फिर कुहासे ने 
चमकते सूर्य से सौदा किया 
स्वर्ण मुद्राएँ लुटाईं 
धूप का यौवन पिया
मुँह चिढ़ाता 
घूमता है 
वस्त्र पहने गेरुए 

साँप-सीढ़ी खेलते 
बन्धक हुए शुभ आचरण 
एक काली धुन्ध करती 
रोशनी का अपहरण 
सिर झुकाए 
तीर हैं 
तूणीर में सब अनछुए।

(10) अब छोड़ दे मन 

मनमुटावों
की लकीरें 
खींचना अब छोड़ दे मन 

जोड़ ले टूटे हुए सम्बन्ध 
सारे बाँसुरी से
कब बने अन्तर्मुखी रिश्ते 
किसी जादूगरी से 
स्वर
सुरीले ही 
हृदय में रोपते फिर से हरापन 

देह की जिद्दी नदी 
ऐंठी अहम् के ज्वार में है 
नाव ढाई अक्षरों की 
डूबती मँझधार में है 
पार जाए 
चीरकर 
कैसे भँवर, अद्वैत दर्शन 

क्यों भटकता पीठ पर 
बाँधे हुए अलगाव के क्षण 
क्या पता फिर से मिले 
या न मिले यह रेशमी तन 
ढूंढ तो 
अन्तर्जगत में 
तू लगावों के निकेतन।

1 टिप्पणी:

  1. गौतम जी आज के समय के वरिष्ठ और प्रतिष्ठित नवगीतकार हैं। आपके नवगीतों में समय और समाज पूरी संवेदनशीलता के साथ अभिव्यक्त होता है। विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में आपके नवगीत निरंतर प्रकाशित होते रहते हैं। यह प्रस्तुत उनका प्रत्येक गीत विलक्षण है। मनमुटावों की लकीरें... मुझे विशेष रूप से प्रिय है। उन्हें अनेकशः बधाईयां।

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