पूर्वाभास (www.poorvabhas.in) पर आपका हार्दिक स्वागत है। 11 अक्टूबर 2010 को वरद चतुर्थी/ ललित पंचमी की पावन तिथि पर साहित्य, कला एवं संस्कृति की पत्रिका— पूर्वाभास की यात्रा इंटरनेट पर प्रारम्भ हुई थी। 2012 में पूर्वाभास को मिशीगन-अमेरिका स्थित 'द थिंक क्लब' द्वारा 'बुक ऑफ़ द यीअर अवार्ड' प्रदान किया गया। इस हेतु सुधी पाठकों और साथी रचनाकारों का ह्रदय से आभार।

गुरुवार, 26 अक्तूबर 2023

साहित्य अकादेमी द्वारा प्रकाशित अवनीश सिंह चौहान के नवगीत


जन्म : 4 जून, 1979, शिक्षा : देवी अहिल्या विश्वविद्यालय, इंदौर (म.प्र.) से अंग्रेजी में एम.फिल. व पीएच-डी. और बी.एड., प्रकाशित कृतियाँ : ‘स्वामी विवेकानन्द : सिलेक्ट स्पीचेज’ (2004, द्वितीय संस्करण 2012), ‘विलियम शेक्सपियर : किंग लियर’,(2005, आईएसबीएन संस्करण 2016), ‘स्पीचेज ऑफ स्वामी विवेकानन्द एण्ड सुभाषचन्द्र बोस : ए कॅम्परेटिव स्टडी’ (2006), 'फंक्शनल स्किल्स इन लैंग्वेज एण्ड लिट्रेचर' (2007), ‘फंक्शनल इंग्लिश’ (2012), 'राइटिंग स्किल्स' (2012), ‘टुकड़ा कागज का’ (नवगीत संग्रह, 2013, द्वितीय संस्करण 2014), ‘बुद्धिनाथ मिश्र की रचनाधर्मिता’ (सं. 2013), ‘बर्न्स विदिन’ (अनुवाद, 2015), ‘द फिक्शनल वर्ल्ड ऑफ अरुण जोशी : पैराडाइम शिफ्ट इन वैल्यूज’ (2016), 'नवगीत वाङ्मय' (सं. 2021), ‘नवगीत : संवादों के सारांश’ (साक्षात्कार संग्रह, 2023), सम्प्रति : आचार्य व प्राचार्य, बीआईयू कॉलेज ऑफ ह्यूमनिटीज एण्ड जर्नलिज्म, बरेली इंटरनेशनल यूनिवर्सिटी, बरेली, उ.प्र., भारत, व्हाट्सएप्प— +91-9456011560, ईमेल— abnishsinghchauhan@gmail.com 

1. अँगुली के बल

अँगुली के बल चलना अब तो
सबसे बड़ी कला है
नेट-वेट की धरती कितनी
सुजला है, सुफला है

कभी फेसबुक, ट्वीटर है तो
कभी वीडियो, चैटिंग
लाइक, फॉलो, रिप्लाई के
पिच पर हरदम बैटिंग

बातों से बातें निकलीं, हल—
कोई कब निकला है

यहाँ सभी के टाइमलाइन
चमकीले प्रोफाइल
पोस्ट-वोस्ट सब ब्यूटीफुल हैं—
पोज-जेस्चर-स्माइल

सम्बन्धों का वॉलों पर कब
कोई दीप जला है

आँख गड़ाये दिन कटते हैं
रातों में बेचैनी
इंतजार करते-करते ही
हार गयी मृगनैनी

चमक-दमक में फंसकर भइया
खुद को खूब छला है।

(समकालीन नवगीत संचयन- भाग 1, पृष्ठ : 96)

2. पगडंडी 

सब चलते चौड़े रस्ते पर 
पगडंडी पर कौन चलेगा?

पगडंडी जो मिल न सकी है
राजपथों से, शहरों से
जिसका भारत केवल-केवल
खेतों से औ' गाँवों से

इस अतुल्य भारत पर बोलो
सबसे पहले कौन मरेगा?

जहाँ केन्द्र से चलकर पैसा
लुट जाता है रस्ते में
और परिधि भगवान भरोसे
रहती ठण्डे बस्ते में

मारीचों का वध करने को
फिर वनवासी कौन बनेगा?

कार-क़ाफिला, हेलीकॉप्टर
सभी दिखावे का धंधा
दो बित्ते की पगडंडी पर
चलता गाँवों का बन्दा

कूटनीति का मुकुट त्यागकर
कंकड़-पथ को कौन वरेगा?

(समकालीन नवगीत संचयन- भाग 1, पृष्ठ : 97)

3. गली की धूल 

समय की धार ही तो है
किया जिसने विखंडित घर

न भर पाती हमारे
प्यार की गगरी
पिता हैं गाँव
तो हम हो गए शहरी

ग़रीबी में जुड़े थे सब
तरक्की ने किया बेघर

खुशी थी तब
गली की धूल होने में
उमर खपती यहाँ
अनुकूल होने में 

मुखौटों पर हँसी चिपकी
कि सुविधा संग मिलता डर

पिता की ज़िंदगी थी
कार्यशाला-सी
जहाँ निर्माण में थे-
स्वप्न, श्रम, खाँसी

कि रचनाकार असली वे
कि हम तो बस अजायबघर

बुढ़ाए दिन
लगे साँसें गवाने में 
शहर से हम भिडे़
सर्विस बचाने में 

कहाँ बदलाव ले आया
शहर है या कि है अजगर। 

(समकालीन नवगीत संचयन- भाग 1, पृष्ठ : 98-99)

4. पंच गाँव का 

आँख लाल है, झूम-चाल है
लगते कुछ बेढंगे
इज्ज़त इनसे दूर कि इनकी
जेबों में हैं दंगे

दबंगई की दाढ़ लगी है
कैसी आदमखोरी
सूँघ रहे गश्ती में कुत्ते
लागर की कमजोरी

इनकी चालों में फँस जाते
अच्छे-अच्छे चंगे

गिरवी पर, गोबर्धन का श्रम
है दरियादिल मुखिया
पत्थर-सी रोटी के नीचे
दबी हुई है बिछिया

न्याय स्वयं बिकने आता है
बेदम-से हैं पंगे

पंच गाँव का खुश है लेकिन
हाथ तराजू डोले
लगता जैसे एक अनिर्णय-
की भाषा में बोले

उतर चुका दर्पण का पारा
सम्मुख दिखते नंगे। 

(समकालीन नवगीत संचयन- भाग 1, पृष्ठ : 100-101)

5. देह बनी रोटी का ज़रिया 

वक़्त बना जब उसका छलिया
देह बनी रोटी का ज़रिया

ठोंक-बजाकर देखा आखिर
जमा न कोई भी बंदा
पेट वास्ते सिर्फ बचा था
न्यूड मॉडलिंग का धंधा

व्यंग्य जगत का झेल करीना
पाल रही है अपनी बिटिया

चलने को चलना पड़ता, पर 
तनहा चला नहीं जाता
एक अकेले पहिए को तो
गाड़ी कहा नहीं जाता

जब-जब नारी सरपट दौड़ी
बीच राह में टूटी बिछिया

मूढ़-तुला पर तुल जाते जब
अर्पण और समर्पण भी
विकट परिस्थिति में होता है
तभी आधुनिक जीवन भी

तट पर नाविक मुकर गया है
उफन-उफन कर बहती नदिया।

(समकालीन नवगीत संचयन- भाग 1, पृष्ठ : 102)

6. चिंताओं का बोझ-ज़िंदगी

सत्ता पर क़ाबिज़ होने को
कट-मर जाते दल
आज सियासत सौदेबाजी
जनता में हलचल

हवा चुनावी आश्वासन के
लड्डू दिखलाए
खलनायक भी नायक बनकर 
संसद पर छाए

कैसे झूठ खुले, अँजुरी में-
भरते गंगा-जल

लाद दिए पिछले वादों पर
और नये कुछ वादे
चिंताओं का बोझ-ज़िंदगी
कोई कब तक लादे

जिये-मरे, ये काम न आये,
बेमतलब, बेहल

वही चुनावी मुद्दा लेकर
वे फिर घर आए
मन को छूते बदलावों के
सपने दिखलाए

हैं प्रपंच, ये पंच स्वयं के,
कैसे-कैसे छल। 

(समकालीन नवगीत संचयन- भाग 1, पृष्ठ : 103)

सन्दर्भ : अवनीश सिंह चौहान, "छः नवगीत", समकालीन नवगीत संचयन (भाग 1), सम्पादक— ओमप्रकाश सिंह, साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली, 2023, पृष्ठ : 96-103. [ISBN: 978-93-5548-570-0]

4 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत - बहुत बधाई
    सभी नवगीत शानदार।

    जवाब देंहटाएं
  2. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना शुक्रवार २७ अक्टूबर२०२३ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।

    जवाब देंहटाएं
  3. बहुत सुन्दर रचनाएंहैं सभी ।

    जवाब देंहटाएं

आपकी प्रतिक्रियाएँ हमारा संबल: