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शनिवार, 20 सितंबर 2025

वीरेंद्र आस्तिक : गतिशील जीवन का निर्मल झरना — अवनीश सिंह चौहान


पिछले दिनों डाक से दो महत्त्वपूर्ण नवगीत-संग्रह— ‘आनंद! तेरी हार है’ और ‘आकाश तो जीने नहीं देता’ प्राप्त हुए। दोनों ही संग्रह हिंदी काव्य-जगत के चर्चित कवि, आलोचक और संपादक श्रद्धेय श्री वीरेंद्र आस्तिक जी की सृजन-यात्रा के उज्ज्वल उदाहरण हैं।

‘आनंद तेरी हार है’ का प्रथम संस्करण सन् 1987 में प्रकाशित हुआ था, जबकि इसका द्वितीय संस्करण सन् 2024 में ‘भारतीय साहित्य संग्रह’ (www.pustak.org), कानपुर, उत्तर प्रदेश से सजिल्द रूप में प्रकाशित हुआ। इसी प्रकार ‘आकाश तो जीने नहीं देता’ का प्रथम संस्करण सन् 2002 में आया और इसका द्वितीय संस्करण सन् 2025 में ‘भारतीय साहित्य संग्रह’ द्वारा प्रकाशित किया गया है। आस्तिक जी की अब तक लगभग एक दर्जन कृतियाँ (नवगीत, आलोचना एवं संपादन) प्रकाशित हो चुकी हैं, जिन पर दो स्वतंत्र आलोचना-ग्रंथ भी उपलब्ध हैं। साहित्य-साधना के प्रति उनके अविस्मरणीय योगदान के लिए उन्हें उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान, लखनऊ द्वारा ‘साहित्य भूषण’ सम्मान से अलंकृत किया जा चुका है।


आस्तिक जी का नाम हिंदी साहित्य के उन रचनाकारों में शुमार है, जिन्होंने नवगीत को नई दिशा दी है। उनकी काव्य-साधना (आलोचना और सम्पादन कार्य भी) मानवीय संवेदनाओं की गहन अभिव्यक्ति है। शायद यही कारण है कि उनका हृदय आज के यांत्रिक, व्यस्त और तनावपूर्ण जीवन से बार-बार आहत हो उठता है। कई लोग जहाँ इस कटु सत्य से आँखें मूँद लेना ही उपयुक्त समझते हैं, वहीं आस्तिक जी उसे पूरे साहस और ईमानदारी के साथ स्वीकार करते हैं। यही निष्ठा और स्पष्ट दृष्टि उनकी रचनाओं को मानवीय गहराई तथा वैचारिक ऊँचाई प्रदान करती है, जिससे वे केवल काव्य न रहकर, जीवन-दर्शन का सजीव दस्तावेज़ बन जाती हैं।

आस्तिक जी का काव्य-संग्रह ‘आनंद तेरी हार है’ जीवन-संघर्ष की वीणा से उपजा वह शुद्ध स्वर है, जिसमें पीड़ा की गहराइयों के बीच भी उल्लास और विस्मय के सुर गूंजते हैं। इस संग्रह की रचनाएँ अपनी सहजता, गेयता और भाव-संपन्नता के कारण पाठक के हृदय को गहराई से स्पर्श करती हैं। इनको निरखने-परखने पर ऐसा प्रतीत होता है मानो कवि ने अनकहे सत्य को शब्दों का जामा पहनाकर उसमें साँसों की गर्माहट भर दी हो।

आस्तिक जी की सृजन-यात्रा का अगला सोपान है— ‘आकाश तो जीने नहीं देता’। इस संग्रह में उन्होंने संवेदना की एक नई भाषा गढ़ी है, जो उनकी काव्य-दृष्टि की परिपक्वता का प्रमाण प्रस्तुत करती है। इसमें जीवन की लय को तलाशते हुए उसके कैनवास को व्यापक बनाने की गहन इच्छा स्पष्ट रूप से झलकती है। यही कारण है कि इसे आस्तिक जी की सर्जना का एक महत्त्वपूर्ण तथा उपलब्धिमय चरण माना जा सकता है।

आस्तिक जी की रचनाएँ उस प्रचलित धारणा को चुनौती देती हैं कि गीत और कविता को अलग-अलग खाँचों में बाँटा जा सकता है। उनके नवगीतों में लयात्मकता के साथ-साथ गहन विचार और संवेदनाओं का अद्वितीय संगम स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ता है। इनमें नवीन शिल्प और ताजगीपूर्ण बिम्बों की सशक्त उपस्थिति पाठक को सहज ही प्रभावित करती है। ये रचनाएँ यह प्रमाणित करती हैं कि सच्चा काव्य किसी ‘कॉपी, कट, पेस्ट’ जैसी यांत्रिक प्रक्रिया से नहीं, बल्कि जीवन के प्रामाणिक और गहन अनुभवों की कोख से जन्म लेता है।

इन दिनों श्रद्धेय आस्तिक जी अत्यंत अस्वस्थ हैं। उनके शीघ्र एवं पूर्ण स्वास्थ्य लाभ की कामना करते हुए, यहाँ उनकी एक रचना (संग्रह: ‘आकाश तो जीने नहीं देता’, पृष्ठ 107) प्रस्तुत की जा रही है :

चलो आज यों ही चलते हैं
राह जहाँ तक ले जाए

छोड़ कलुष के ये गलियारे
बैठेंगे उस नदी किनारे
बूँद-बूँद घुल-घुल जाने को
रह-रह मझधार बुलाए

चाहों की कोई जात न हो
बीती बातों पर बात न हो
पीछे छूट गए उन अंधे
महलों से जी घबराए

देखो, इस बरगद को क्षण भर
इसकी खामोशी में रहकर
कोई कोयल हममें–तुममें
कुहू–कुहू करती आए।

इस गीत में प्रस्तुत की जा रही प्रेम-चेतना जीवन का अमृत-तत्व है। इसमें प्रेम-चेतना का अमानवीय जड़ताओं से मोहभंग और प्रेम की मार्मिक छुअन, जो स्वाभाविक कथा-दृश्यों द्वारा अनुभूत हुई है, अद्वितीय है।

कुल मिलाकर, आस्तिक जी का काव्य किसी क्षणिक उत्तेजना का परिणाम नहीं है, बल्कि साहित्य को समृद्ध करने वाला गतिशील जीवन का निर्मल झरना है, जो विवेक की धरा पर अनवरत बहते हुए पाठकों को प्रेरणा प्रदान करता है।


लेखक के बारे में :
डॉ. अवनीश सिंह चौहान (जन्म 4 जून, 1979), वृंदावन के द्विभाषी साहित्यकार और आभासी दुनिया  में हिंदी नवगीत के संस्थापकों में से एक हैं। ‘वंदे ब्रज वसुंधरा’ की सूक्ति को जीवन में आत्मसात करने वाले डॉ. चौहान वर्तमान में बरेली इंटरनेशनल यूनिवर्सिटी, बरेली के बीआईयू कालेज ऑफ ह्यूमेनिटीज़ एंड जर्नलिज्म में आचार्य और प्राचार्य के पद पर कार्यरत हैं।

Veerendra Aastik: Gatisheel Jeevan ka Nirmal Jharna — Abnish Singh Chauhan

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