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शनिवार, 22 जून 2013

विमल रचनावली का लोकार्पण तथा एकदिवसीय साहित्योत्सव


दुर्गापुर: ‘जन संवाद’ (जोधपुर तथा दुर्गापुर), ‘चंद्रा बाल मुकुंद द्विवेदी शोध संस्थान, कानपुर एवं ‘सहयोगी प्रकाशन कानपुर’ जैसी संस्थाओं के संयुक्त तत्वावधान में विगत दिनांक 16-06-2013 (रविवार) को दुर्गापुर (पं0 बगाल) में एक्स्पर्ट हास्टल के सभागार में डॉ0 विमल विस्तार व्याख्यान माला और काव्य-गोष्ठी का एक दिवसीय आयोजन संपन्न हुआ।

आमंत्रित विद्धानों के स्वागतोपरांत प्रथम सत्र में दो पुस्तकों- ‘चिंता के चरण’ (विमल रचनावली) भाग तीन, संपादिका डॉ0 कंचन शर्मा तथा डॉ0 कृष्ण कुमार श्रीवास्तव कृत ‘हिन्दी आलोचना की प्रगतिशील परम्परा’ का लोकार्पण- अमृतसर से पधारे हिन्दी के शिखर आलोचक, भाषा शास्त्री तथा शिक्षा शास्त्री और व्याख्यान माला के मुख्य वक्ता डॉ0 पाण्डेय शशि भूषण ‘शीतांशु’ के कर कमलों से सम्पन्न हुआ, साथ में थे, अध्यक्षता कर रहे बनारस हिन्दु यूनिवर्सिटी से पधारे डॉ0 चैथी-राम यादव, डॉ0 विमल, और डॉ0 कंचन शर्मा। इसके बाद लोकार्पित पुस्तकों की रचनाप्रक्रिया को केन्द्र में रखते हुए डॉ0 कंचन शर्मा और डॉ0 कृष्ण कुमार श्रीवास्तव ने सारगर्भित वक्तव्य दिए।

द्वितीय सत्र था व्याख्यान माला का प्रमुख विषय था-‘हिन्दी आलोचना का वर्तमान संकट’। विषय प्रवर्तन करते हुए डॉ0 विमल ने कहा-आज हिन्दी आलोचना केवल वस्तु की आलोचना रह गई है। रचना तब बनती है जब वस्तु और रूप दोनों में सामंजस्य हो। हिन्दी आलोचना साहित्यिक आलोचना नहीं रह गई है। मुख्य वक्ता के रूप में डॉ0 शीतांशु ने एक लम्बा अकादमिक व्याख्यान देकर श्रोताओं को मंत्रमुग्ध ही नहीं बल्कि उन्हें प्रश्न करने को उत्साहित भी किया। उन्होंने अनेक प्रश्नों के उत्तर देकर श्रोताओं की जिज्ञासाओं को शांत किया। 

डॉ0 शीतांशु का कहना था कि समकालीन हिन्दी आलोचना भारतीय काव्य शास्त्र की परम्परा से अर्जित स्थापनाओं और मूल्यों से कट गई है। आचार्य शुक्ल, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी और नंद दुलारे बाजपेयी के बाद हिन्दी आलोचना ने अपना मौलिक धरातल खो दिया और वह पाश्चात्य विशेषकर माक्र्स के प्रभाव में आकर विभिन्न प्रकार की विचार-धाराओं से प्रभावित हुई है। इसी कारण हिन्दी आलोलचना न केवल संकट में है बल्कि वह आत्महंता व विराट शून्यता में चली गई है, जबकि उसे व्यक्तित्व प्रभुत्व में जाना था। इस तरह वह प्रभावक के बजाय प्रभावित हो गई है। आगे उन्होंने कहा कि अब हमें हिन्दी आलोचना को पुनर्जीवित करने के लिए वहीं से प्रारम्भ करना पड़ेगा जहां से उसे छोड़ा गया था। उन्होंने यह भी कहा कि आलोचना को विज्ञान व तकनीकी विकास से जुड़ना होगा।

इसके बाद व्याख्यान माला के अध्यक्ष डॉ0 चैथीराम यादव उत्तेजित हो उठे। उनका कहना था कि हिन्दी आलोचना का संकट वास्तव में विचारधारा का संकट है। उनका मानना था कि परम्परागत भारतीय काव्यशास्त्र वैचारिक संकट से मुक्त नहीं है अर्थात जाति-धर्म, वर्ग, स्त्री व दलित और आदिवासी समाज के सामाजिक सरोकारों से अलग हट कर आधुनिक काव्य शास्त्र नहीं गढ़ा जा सकता। भारतीय काव्य शास्त्र के पक्ष में समकालीन भारतीय समाज की अवहेलना हिन्दी आलोचना को और संकट में डाल देगी। अपने लम्बे वक्तव्य में उन्होंने यह भी जोड़ा कि भारतीय नवजागरण को गौतम बुद्ध के काल से माना जाना चाहिए। इस सत्र का सफल संचालन किया डॉ0 मनोज कुमार शुक्ल ने।

भोजनोपरान्त तृतीय सत्र था काव्यगोष्ठी का। कानपुर से पधारे वरिष्ठ गीतकवि एवं समीक्षक श्री वीरेन्द्र आस्तिक और उन्नाव जनपद से पधारे जनप्रिय कवि श्री दिनेश प्रियमन की कविताओं को श्रोताओं ने मंत्रमुग्ध होकर सुना। कवि आस्तिक ने जब अपनी ‘मॉ’ शीर्षक गीत का पाठ किया तो अनेक श्रोताओं की आँखें नम हो उठीं। गीत था- ‘‘मॉ तुम्हारी जिन्दगी का गीत गा पाया नहीं।" कवि दिनेश ने पढ़ा- ‘‘अपने पास न नकली चेहरा और न टंगी हुई मुस्कानें’’ ख्यात कवयित्री और आलोचक डॉ0 कंचन शर्मा का अंदाज इस तरह था- ‘‘आतंक का गुब्बारा/मैं फोड़ूंगी/तुम्हारे भय से/डरती नहीं मै/एक दस्तक हूँ/ मैं-एक पहल, तुम्हारे तालाब में एक कंकड़।’’ इसके अलावा मंचनीय कवि महेन्द्र मेंहदी, डॉ0 रवि शंकर सिंह और वीना क्षेत्रिय आदि कवियों के काव्य पाठ का प्रबुद्ध श्रोताओं ने आनंद उठाया। अन्त में अध्यक्षता कर रहे डॉ0 शीतांशु ने गोष्ठी को यह कहकर स्थगित किया कि निश्चित ही यह एक सफल काव्य गोष्ठी रही। हम कवियों के अनुरोध पर उन्होंने  प्रसन्नमुद्रा में गोपाल सिंह नेपाली को याद करते हुये उनके ही दो मुक्तक पढ़े। कवि गोष्ठी का सफल संचालन किया डॉ0 रवि शंकर सिंह ने। भारी संख्या में उपस्थित श्रोताओं की दृष्टि में यह एक यादगार गोष्ठी रही। 
प्रस्तुति
डॉ0 रवि शंकर सिंह

Dr Vimal; Vimal Rachanavali

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