पूर्वाभास (www.poorvabhas.in) पर आपका हार्दिक स्वागत है। 11 अक्टूबर 2010 को वरद चतुर्थी/ ललित पंचमी की पावन तिथि पर साहित्य, कला एवं संस्कृति की पत्रिका— पूर्वाभास की यात्रा इंटरनेट पर प्रारम्भ हुई थी। 2012 में पूर्वाभास को मिशीगन-अमेरिका स्थित 'द थिंक क्लब' द्वारा 'बुक ऑफ़ द यीअर अवार्ड' प्रदान किया गया। इस हेतु सुधी पाठकों और साथी रचनाकारों का ह्रदय से आभार।

रविवार, 11 अगस्त 2013

यारों का यार अनिल जनविजय - भारत यायावर

अनिल जनविजय एवं भारत यायावर 

बचपन से ही कठोर परिश्रम कर अपने को जीवंत बनाये रखने की कला में निपुण एवं वैश्विक ख्याति के श्रेष्ठ रचनाकार भारत यायावर का जन्म आधुनिक झारखंड के हजारीबाग जिले में 29 नवम्बर 1954 को हुआ। 1974 में आपकी पहली रचना प्रकाशित हुई थी, तब से अब तक देश-विदेश की छोटी-बड़ी तमाम पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित।'झेलते हुए' और 'मैं हूँ यहाँ हूँ' (कविता संग्रह), नामवर होने का अर्थ (जीवनी), अमर कथाशिल्पी रेणु, दस्तावेज, नामवर का आलोचना-कर्म (आलोचना) इनकी चर्चित पुस्तकें हैं। इन्होंने हिन्दी के महान लेखक आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी एवं फणीश्वरनाथ रेणु की खोई हुई और दुर्लभ रचनाओं पर लगभग पच्चीस पुस्तकों का संपादन किया है। 'रेणु रचनावली', 'कवि केदारनाथ सिंह', 'आलोचना के रचना-पुरुष: नामवर सिंह' आदि का सम्पादन। रूसी भाषा में इनकी कविताएँ अनूदित। नागार्जुन पुरस्कार (1988), बेनीपुरी पुरस्कार (1993), राधाकृष्ण पुरस्कार (1996), पुश्किन पुरस्कार- मास्को (1997), आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी सम्मान- रायबरेली (2009) से अलंकृतसम्प्रति: विनोबा भावे विश्वविद्यालय, हजारीबाग के स्नातकोत्तर हिन्दी विभाग में अध्यापन। संपर्क: यशवंत नगर, मार्खम कालेज के निकट, हजारीबाग, झारखण्ड, भारत। 

निल ! दोस्त, मित्र, मीत, मितवा ! मेरी आत्मा का सहचर ! जीवन के पथ पर चलते-चलते अचानक मिला
Art by Vishal Bhuwania
एक भिक्षुक को अमूल्य हीरा। निश्छल - बेलौस - लापरवाह - धुनी - मस्तमौला - रससिद्ध अनिल जनविजय ! जब उससे पहली बार मिला, दिल की धड़कने बढ़ गईं, मेरे रोम-रोम में वह समा गया। क्यों, कैसे? नहीं कह सकता। यह भी नहीं कह सकता कि हमारे बीच में इतना प्रगाढ़ प्रेम कहाँ से आकर अचानक समा गया? अनिल को बाबा नागार्जुन मुनि जिनविजय कहा करते थे। उन्होंने पहचान लिया था कि उसके भीतर कोई साधु-सन्यासी की आत्मा विराजमान है। वह सम्पूर्ण जगत को प्रेममय मानकर एक अखंड विश्वास और निष्ठा के साथ उसकी साधना करता है, जिस तरह तुलसीदास इस जगत को राममय मानकर वंदना करते थे -
जड़ चेतन जग जीव जल - सकल राममय जानि
बंदऊँ सब के पद कमल, सदा जोरि जुग पानि

वह प्रेम का राही है ! जो भी प्यार से मिला, वह उसी का हो लिया। इसके कारण उसने जीवन में बहुत दुख-तकलीफ उठाई है, काँटों से भरी झाड़ियों में भी कभी गिरा है, कभी अंधेरी खाइयों में। कई बार वह बेसहारा हुआ है। धोखा खाया है, ठगा गया है - पर कभी किसी को आघात नहीं पहुँचाई है, किसी का नुकसान नहीं किया है। ठोकर खाकर भी फिर ठोकर खाने के लिए तैयार खड़ा रहता है। वह अक्सर शमशेर बहादुर सिंह का यह शेर गुनगुनाता रहता है -

Uday Prakash ji, Kumkum ji and 
Anil Janvijay ji with his wife and younger son
जहाँ में और भी जब तक हमारा जीना होना है
तुम्हारी वारें होनी है, हमारा सीना होना है

28 जुलाई, 2013 को वह छप्पन साल का हो गया, तो मुझे आश्चर्य हुआ। पचपन साल की उम्र कम नहीं होती। आदमी बूढ़ा हो जाता है। तन और मन शिथिल। पर उसका तन अब भी जवान है और मन एक बालक की तरह तरल, सरल, विकार रहित। उसमें अब भी एक भोलापन है वह बेपरवाह है। झूठ-बेईमानी से वह कोसो दूर रहता है।

बचपन उसका अभावों से भरा था। असमय माँ की मृत्यु हो जाने से मानो उसकी हरी-भरी दुनिया ही लुप्त हो गई। एक बंजर और बेजान मनोभूमि में लम्बे समय तक रहकर भी उसने अपनी पढ़ाई को जारी रखा। फिर पढ़ाई करते हुए वह कविताएँ लिखने लगा। कविता ने उसे संबल दिया और एक जीवन-दृष्टि दी। 1977 में बीस वर्ष की उम्र में उसने एक कविता लिखी - ‘मैं कविता का अहसानमंद हूँ’। यह एक युवा कवि की अद्भुत कविता है। इसे आप भी पढ़िए - “यदि अन्याय के प्रतिकार स्वरूप तनती है कविता, यदि किसी आनेवाले तूफान का अग्रदूत बनती है कविता, तो मैं कविता का अहसानमंद हूँ।“ 
अनिल जी की बेटी 

उसकी कविताएँ पहली बार 1977 ई॰ में ‘लहर’ में छपीं और 1978 ई॰ में ‘पश्यंती’ के कविता-विशेषांक में। वह दिल्ली से प्रकाशित उस समय की ‘सरोकार’ नामक पत्रिका से जुड़ा था और उसमें पहली बार उसके द्वारा अनूदित फिलीस्तीनी कविताएँ छपी थीं। यहीं से उसकी कविता और काव्यानुवाद का सिलसिला शुरू हुआ और साथ ही साथ 1978 ई॰ के प्रारम्भ से ही मेरे से पत्र-व्यवहार शुरू हुआ। मैं भी तब नवोदित था और हजारीबाग से ‘नवतारा’ नामक एक लघु-पत्रिका निकालता था। अनिल ने दिल्ली में हुई एक साहित्यिक गोष्ठी की रपट मुझे भेजी थी, जिसे मैंने प्रकाशित किया था। फिर उसकी कुछ लघुकथाएँ भी मैंने ‘नवतारा’ में प्रकाशित की थी। हमलोगों में पत्राचार के द्वारा जो संवाद शुरू हुआ वह बाद में प्रगाढ़ आत्मीयता में बदल गया। उससे पहली बार भेंट 1980 ई॰ के अक्टूबर महीने में हुई जब मैं रमणिका गुप्ता (जी) के साथ दिल्ली गया था और कस्तूरबा गांधी रोड में उनके पति के निवास पर ठहरा था। तब अनिल का पता था - 4483, गली जाटान, पहाड़ी धीरज, दिल्ली - 6, इसी पते पर वह पत्राचार करता था। यहाँ उसकी बुआ रहती थी, जो अनिल को अपने बेटे की तरह मानती थीं। मैं खोजते-खोजते जब वहाँ पहुँचा तो अनिल तो नहीं मिला, किन्तु उसकी बुआजी अनिल के नाम लिखे मेरे पत्रों को पढ़ती रहती थीं और मुझे बखूबी जानती थीं। जब मैंने अपना नाम बताया, तब उन्होंने मुझे नाश्ता-चाय करवाई और देर तक बातचीत की। अनिल ने तब जे॰एन॰यू॰ के रूसी भाषा विभाग में अपना दाखिला ले लिया था और सप्ताह में एक दिन अपनी बुआ से मिलने आता था। मैंने अपना दिल्ली-प्रवास का पता वहाँ लिखकर छोड़ दिया। उस समय राजा खुगशाल से भी मेरा पत्राचार होता था। वह नेताजी नगर में रहता था। वहाँ पहुँचा तो मालूम हुआ कि शकापुर में नया किराये का आवास ले लिया है और वहीं चला गया है। पड़ोसी ने बताया कि अभी कुछ सामान ले जाना बाकी है, इसलिए वे फिर आएँगे। मैंने राजा के नाम भी एक पत्र वहाँ छोड़ दिया। कुछ ही दिनों बाद अनिल और राजा दोनों मेरे से मिलने आए। अलग-अलग। अनिल मुझसे मिला और मुझे अपने साथ जे॰एन॰यू॰ ले गया। उसी समय हमने केदारनाथ सिंह का इण्टरव्यू लिया। मैंने तब एक लम्बी कविता लिखी थी - ‘झेलते हुए’। अनिल ने ही उसे शाहदरा से तीन-चार दिनों के भीतर छपवा दी थी और उस कविता पर एक छोटी-सी टिप्पणी भी लिखी थी जो इस प्रकार है: 

“1980 कविता के लिए बेहद महत्त्वपूर्ण है। एक तरह से इस वर्ष कविता पुनः साहित्य की मुख्य विधा के रूप में उभर कर आयी है। न केवल आज के प्रमुख कवियों की कविताएँ बल्कि अनेक पुराने और बेहद पुराने कवियों के संग्रह भी इस वर्ष आये हैं। कविता के ऐसे समय में किसी नये कवि के लिए अचानक उभरना और साहित्य में अपना स्थान बना लेना बेहद कठिन है।"

भारत यायावर अपनी कविताओं की प्रखरता की बजह से इस संघर्षविपुल वर्ष में ही उभर कर आये हैं। यायावर ने बहुत कम लिखा है; पर जो भी लिखा है, जितना भी लिखा है, उसमें उनकी चेतनासम्पन्न संवेदनशीलता के चलते वे सभी स्थितियाँ उजागर होती हैं, जिनसे आज का आम आदमी जूझ रहा है। हमारे देश का तथाकथित जनतंत्र और निठल्ली व्यवस्था किस तरह व्यक्ति को सामर्थ्यहीन और दुर्बल बना देती है, इसकी विशिष्ट अभिव्यक्ति वे अपनी कविताओं में कर पायें हैं।

भारत यायावर की कविता ‘झेलते हुए’ उनके उन दिनों की उपलब्धि है, जब वे भयानक मानसिक तनावों से जूझ रहे थे। हो सकता था इन तनावों के रहते वे अन्तर्मुखी होकर निस्संग निजता की रचनाएँ भी रचने लग जाते पर अपने मानवीय बोध की सम्पन्नता, सहजता और निरन्तरता के कारण उनकी दृष्टि आत्मनिष्ठता की न होकर आत्मनिष्ठ वस्तुनिष्ठता की रही, जिसके चलते वे इतनी सार्थक कृति देने में सक्षम हो सके।“
इतना प्रांजल और सधा हुआ गद्य अनिल जनविजय उस समय लिखता था। मुझे याद है 1982 ई॰ की गर्मियों में मैं जब उसके साथ लम्बे समय तक जे॰एन॰यू॰ के पेरियार हॉस्टल में था, तब उसने अज्ञेय के कविता-संग्रह ‘नदी की बाँक पर छाया’ पर एक अद्भुत समीक्षा लिखी थी, जो ‘आजकल’ में छपी थी और जिसे अज्ञेय ने बड़ी ही रुचि लेकर पढ़ी थी। और लोगों से इसकी चर्चा भी की थी। अनिल ने छिटपुट गद्य-लेखन किया है, कविताएँ भी कम लिखी हैं, पर बहुत ज्यादा संख्या में विदेशी कविताओं के हिन्दी अनुवाद किए हैं।

अनिल और राजा से मेरी दोस्ती का सिलसिला तब से अब तक बरकरार है और ताउम्र यह चलता रहेगा।
अनिल जनविजय जी अपने पिताजी और छोटे बेटे के साथ 
जीवन के अनेक प्रसंग हैं, जिन्हें यदि लिपिबद्ध किया जाए तो एक मोटा ग्रंथ बन जाए। उन्हें छोड़ रहा हूँ। अनिल के साथ मैं जितना भी रहा हूँ, वे मेरे प्रेम और हरियाली के क्षण हैं, जिन्हें भुलाना मेरे लिए मुश्किल है।
1981 ई॰ के दिसम्बर महीने में अनिल पहली बार हजारीबाग आया था। करीब एक सप्ताह के बाद हमदोनों रमणिका गुप्ता के साथ पटना गए थे। वहाँ नंदकिशोर नवल, अरुण कमल से भेंट हुई थी। 1981 ई॰ में ही पटना से प्रकाशित ‘प्रगतिशील समाज’ (जिसका मैं हंसराज के साथ संपादन करता था) के दो अंक कवितांक के रूप में निकले थे, जिसकी सामग्री अनिल की ही संयोजित की हुई थी। हंसराज का असली नाम श्यामनंदन शास्त्री था और वे पटना विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्राध्यापक थे। हम उनसे भी मिले थे। उनसे कवितांक के अतिथि संपादक के रूप में जो उसने काम किया था, पारिश्रमिक के रूप में दो सौ रुपये अनिल को मिले। इस राशि से राजकमल प्रकाशन के पटना शाखा से उसने किताबें खरीदी थीं और एक नवोदित कवि को भेंट कर दी थी। पटना से हम भोपाल गए थे और राजेश जोशी के घर ठहरे थे। वहाँ उदय प्रकाश से पहली बार भेंट हुई थी। भोपाल से फिर जबलपुर गए थे और ज्ञानरंजन जी के यहाँ पहली बार हमारा जाना हुआ था। उसी समय हरि भटनागर और लीलाधर मंडलोई से पहले-पहल मिलना हुआ था। वहाँ से हम इलाहाबाद आ गए थे। उसी यात्रा के दौरान अनिल और मैंने विपक्ष-सीरीज में वैसे युवा कवियों के संग्रह प्रकाशित करने की योजना बनाई थी, जिनके संग्रह प्रकाशित नहीं हुए थे। इसी सीरीज के अन्तर्गत मैंने मार्च, 1982 ई॰ में स्वप्निल श्रीवास्तव की कविता-पुस्तिका ‘ईश्वर एक लाठी है’ प्रकाशित की थी। 1982 के जून महीने में मैंने अनिल जनविजय का कविता-संग्रह ‘कविता नहीं है यह’ प्रकाशित किया था। यहाँ यह भी बता दूँ कि इस सीरीज के अन्तर्गत बाद में राजा खुगशाल, श्याम अविनाश, उमेश्वर दयाल और हेमलता के संग्रह मैंने प्रकाशित किए थे। इसी के अन्तर्गत ‘समकालीन फिलीस्तीनी कविताएँ’ नामक पुस्तक भी छपी थी, जिसका अनुवाद अनिल ने ही किया था।

अनिल को रूसी भाषा और साहित्य में उच्च अध्ययन के लिए सोवियत सरकार की फेलोशिप मिली ओर अगस्त, 1982 ई॰ में मास्को विश्वविद्यालय में अध्ययन करने वह मास्को चला गया। वहाँ उसने 1989 में मास्को स्थित गोर्की लिटरेरी इंस्टीट्यूट से सर्जनात्मक लेखन में एम.ए. की डिग्री हासिल की। वह 1984 ई. में वहीं की एक लड़की नाद्या के साथ विवाह-बंधन में बंध चुका था। 1985 ई. में उसकी बेटी रोली का जन्म हुआ, जो जापानी भाषा में एम.ए. कर टोक्यो विश्वविद्यालय में जापानी भाषा-साहित्य की प्राध्यापक है। 1996 ई॰ में उसने स्वेतलाना कुज़मिना नामक एक लड़की से शादी की, जिससे उसके तीन बेटे हैं - विजय, वितान और विवान। तीनों बेटे अभी पढ़ रहे हैं। नाद्या से उसका सम्बन्ध-विच्छेद हो गया है। 

वह घर-गृहस्थी में रमा हुआ है। पर उसके हृदय में सबसे अधिक प्यार कविता के प्रति है। यह प्यार ऐसा है जो उसके दिल में इतना रचा-बसा है कि निकलने का नाम ही नहीं लेता। उसने अपनी लाखों की राशि खर्च कर अन्तर्जाल पर हिन्दी-कविता के लिए ऐतिहासिक महत्त्व का काम करवाया - ‘कविता-कोश’। वह रोज कविता लिखना चाहता है, पर बहुत कम लिख पाता है। अपनी पचपन वर्ष की उम्र में अब तक उसने संख्या में सौ कविताएँ भी नहीं लिखी हैं। वह कविता लिखने बैठता है, तो अनुवाद करने लग जाता है। इसलिए वह कवि बनते-बनते रह गया और एक सफल तथा अच्छा अनुवादक बन गया। ‘कविता नहीं है यह’ में उसकी 1982 तक की कविता है। 1990 तक की लिखी कुछ और कविताएँ जोड़कर 1990 ई॰ में उसका दूसरा कविता-संग्रह छपा ‘माँ बापू कब आएँगे’ इसे उसने उदय प्रकाश के आग्रह पर छपवाया और 2004 में कुछ कविताओं की और इजाफा हुई तो उसका तीसरा संग्रह आया ‘रामजी भला करें’। यह उसकी एक लघु कविता है किन्तु बेहद अच्छी -
ऐसा क्यों हुआ है आज
हिंदू से मुस्लिम डरें
कैसा जमाना आ गया
रामजी भला करें

अब भी वह इस तरह की छोटी मगर सार्थक कविताएँ लिख लेता है, पर कभी-कभार। कभी-कभी वह तुक-बंदियाँ भी कर लेता है। तुक मिलाने में वह आधुनिक कविता का मैथिलीशरण गुप्त है। एक तुकबंदी उसने मुझको भी लेकर लिखी है। इस कविता में मेरे से उसके असीम लगाव के साथ-साथ अपनी धरती से विलग होने की मर्मांतक पीड़ा भी है:
भारत, मेरे दोस्त ! मेरी संजीवनी बूटी
बहुत उदास हूँ जबसे तेरी संगत छूटी
संगत छूटी, ज्यों फूटी हो घी की हांडी
ऐसा लगता है प्रभु ने भी मारी डांडी
छीन कविता मुझे फेंक दिया खारे सागर
औ’ तुझे साहित्य नदिया में, भर मीठा गागर
जब-जब आती याद तेरी मैं रोया करता
यहाँ रूस में तेरी स्मृति में खोया करता
मुझे नहीं भाती सुख की यह छलना माया
अच्छा होता, रहता भारत में कृशकाया
भूखा रहता सर्दी-गर्मी, सूरज तपता, बेघर होता
अपनी धरती अपना वतन अपना भारत घर होता
भारत में रहकर, भारत, तू खूब सुखी है
रहे विदेस में देसी बाबू, बहुत दुखी है।

अपनी धरती, अपने यार-दोस्त से कटकर मास्को में रहता हुआ वह बेचैन रहता है। इसलिए जब भी आर्थिक स्थिति होती है वह दिल्ली आ जाता है। साल में एक-दो बार। यहाँ उसे चाहने वालों की भरमार है, पर वह सबसे नहीं मिल पाता। वह चाहता है सब दोस्तों से मिले - गले लगकर और जी भर कर बतियाये, हँसी-मजाक करे, लड़े-झगड़े, मौज-मस्ती करे। मुझसे तो मिले बरसों हो जाते हैं। मैं दिल्ली से दूर रहता हूँ और दूर के मित्रों से मिलना थोड़ा मुश्किल होता है। पर अनिल एक नम्बर का गप्पी है। बतरस में उसे बहुत मजा आता है। खाना मिले या नहीं, बतरस का सुख होना चाहिए। वह नागार्जुन, शमशेर और त्रिलोचन से बराबर मिलता था, पर उसे बतरस का मजा त्रिलोचन के साथ मिलता था। 1980 ई॰ में उसने संभावना प्रकाशन के लिए त्रिलोचन का कविता-संग्रह ‘ताप के तापे हुए दिन’ शाहदरा में छपवाया था, जिसका संपादन राजेश जोशी के द्वारा किया गया था। 28 जुलाई 1980 को जब अनिल का चौबीसवाँ जन्मदिन था, किताब छपकर आई और वह उसकी एक प्रति त्रिलोचन को देने उनके पास पहुँचा। किताब देखकर त्रिलोचन खुश हुए और वह प्रति उन्होंने अनिल को इन शब्दों में समर्पित कर दी - “अनिल जनविजय को, जो कवि तो हैं ही, बतरस के अच्छे साथी भी हैं।“ अनिल ने उस किताब के अंत में एक तुकबंदी लिख दी, जो उसके कविता-संग्रह में नहीं है -
हिंदी के संपादक से मेरी बस यही लड़ाई
वो कहता है मुझसे, तुम कवि नहीं हो भाई
तुम्हारी कविता में कोई दम नहीं है
जनता की पीड़ा नहीं है, जन नहीं है
इसमें तो बिल्कुल भी अपनापन नहीं है
नागार्जुन तो हैं पर त्रिलोचन नहीं है

पर अनिल जनविजय, जो कवि तो हैं ही - जो कहता है वह मूर्ख है कि वह कवि नहीं है। कविता तो उसकी आत्मा में रची-बसी है। उसके भीतर यदि नागार्जुन है तो शमशेर भी और बतरस में तो वह त्रिलोचन का पक्का शिष्य है।

मुझे याद आता है, 5-6 जून, 1982 में इन्दौर में प्रगतिशील लेखक संघ के द्वारा ‘महत्त्व त्रिलोचन’ नामक एक आयोजन हुआ था। तब मैं अनिल के साथ ही जे.एन.यू. में ठहरा हुआ था। दिल्ली से उस समारोह में भाग लेने नागार्जुन, त्रिलोचन, केदारनाथ सिंह, राजकुमार सैनी, दिविक रमेश के साथ हम दोनों भी एक ही रेलगाड़ी के एक ही कोच में बैठकर गए थे। बाबा नागार्जुन और केदार जी ऊपर के बर्थ पर जल्दी ही सोने चले गए थे। बाकी लोग त्रिलोचन के साथ बतरस में जुट गए। चर्चा के बीच में त्रिलोचन ने बताया कि दिविक रमेश में ‘दिविक’ का अर्थ है - दिल्ली विश्वविद्यालय कवि। मैंने कहा कि इसका दूसरा अर्थ है - दिशा विहीन कवि ! अनिल जनविजय ने तुरत तुक जोड़ दिया - और दिमाग विहीन कवि। दिविक रमेश मुस्कुराते रहे, गुस्सा नहीं हुए - यह उनका बड़प्पन था। फिर त्रिलोचन ने कवित-सवैयों की चर्चा शुरू की। यह विषय राजकुमार सैनी का प्रिय था। मैंने भी तब मध्यकालीन ब्रजभाषा काव्य के कई सवैये सुनाए। त्रिलोचन के पास तो कवित-सवैयों का अपार भण्डार था। उन्हें वे सहज भाव से धाराप्रवाह सुना रहे थे। बाबा नागार्जुन ऊपर के बर्थ पर सोये-सोये इस काव्य-चर्चा का आनंद ले रहे थे। और लगभग साढ़े ग्यारह बजे रात्रि से त्रिलोयन की सॉनेट-चर्चा शुरू हुई। आधा घंटा तक वे अनवरत सॉनेट की शास्त्रीय चर्चा करते रहे, तभी अचानक बाबा नागार्जुन ने तमतमाये चेहरे के साथ नीचे झाँका और त्रिलोचन को डाँटा - “सॉनेट-सॉनेट सुनते-सुनते कान पक गए। बहुत हो गया सॉनेट ! त्रिलोचन, अब छोड़ो इस सॉनेट की चर्चा, सोने दो !!“ त्रिलोचन चुपचाप सिकुड़कर चादर ओढ़कर सो गए और हम भी सो गए।

हम सुबह भोपाल पहुँचे। वहाँ राजेश जोशी, भगवत रावत आदि कई कवि अगवानी के लिए मौजूद थे। वहाँ चाय पीकर, सड़क मार्ग से हम लोग इन्दौर गए। ‘महत्त्व त्रिलोचन’ में शमशेर जी भी पहुँच गए थे। दोनों दिनों की गोष्ठी काफी अच्छी रही थी। उस गोष्ठी में उदय प्रकाश भी पहुँच गए थे और मुझे अपने साथ एक घंटे के लिए ले गए थे। अनिल ने पूरी गोष्ठी की रपट मोती जैसे अक्षरों में लिखकर ‘साक्षात्कार’ में छपने दिया था। उसने ‘साक्षात्कार’ के संपादक सुदीप बनर्जी को एक पत्र लिखकर दिया था कि इस पर मिलने वाला मानदेय छपने के बाद भारत यायावर को दे दिया जाए। मुझे याद है, अगस्त, 1982 के अन्त में वह आगे के अध्ययन के लिए मास्को चला गया था, उसके बाद उसकी लिखी रपट का पारिश्रमिक पचास रुपये का मनिऑर्डर मुझे मिला था।
अनिल का ऐसा ही व्यक्तित्व है। बेहद मेहनती। कमाऊ। पर संग्रह करने की उसकी प्रवृत्ति नहीं है। जो भी मिला, उसे घर-परिवार में खर्च कर दिया। और बचा तो मित्रों में बाँट दिया। इतना शाहखर्च मैंने किसी और को नहीं देखा। वह यारों का यार है। सैकड़ों ही नहीं, उसके हजारों मित्र हैं। उस जैसा यारबाज आदमी इस दुनिया में मिलना मुश्किल है। मेरी और उसकी यारी नैसर्गिक है। हमारा दिल का रिश्ता है। इसीलिए मैंने अपना पहला कविता-संग्रह ‘मैं हूँ, यहाँ हूँ’ उसे ही समर्पित किया है। उसने मुझपर कई कविताएँ लिखी हैं और मैंने भी उसपर जम कर लिखा है। मेरे दूसरे कविता-संग्रह ‘बेचैनी’ में उस पर दो कविताएँ हैं - ‘दोस्त’ और ‘दोस्त ऐसा क्यों हुआ’ ? ‘दोस्त’ कविता की प्रारम्भिक पंक्तियाँ हैं -
“दोस्त हजारों मील दूर/विदेश में है/लिखता है हर सप्ताह पत्र/ दुनिया के एक बड़े महानगर में रहता हुआ/ मेरे गाँव की पूरी तस्वीर देखता है -/ मेरे घर की गोबर लिपी धरती की गंध को/ मेरे खतों में पाता है/ और भावुक हो उठता है।“
‘दोस्त, ऐसा क्यों हुआ ?’ नामक कविता में मैंने लिखा था - “दोस्त, ऐसा क्यों हुआ/ कि तुम हमेशा सोचते पागल हुए मेरे लिए/ मैं तुम्हारे हेतु क्यों बेचैन घूमता ही रहा ? ... दोस्त, ऐसा क्यों हुआ/ कि अपने मस्तक पर लिये/ पत्थर तनावों के चले हम/ फिर भी हँसते ही दिखे चेहरे हमारे !/ दोस्त, कब तुमसे कहा?/ तुमने कब मुझसे कहा?/ फिर भी हमने तो सुनी बातें हृदय की/ बातों में उलझी हुई साँसें समय की/ समय की आँखों से बहते अश्रुओं को/ हाथ में रखकर चले हम साथ-साथ!”

अनिल और मेरा प्रारम्भिक जीवन बेहद अभाव और दुख-तकलीफ से भरा रहा है। पर हममें कर्मठता है, क्रियाशीलता है, लगन है, जो हमें जीवंत बनाए रहता है। वह बेलौस आदमी है। निखालिस आदमी - जो किसी से ईर्ष्या-द्वेष नहीं रखता, जिसके मन में किसी के प्रति गाँठ नहीं है। वह भोला-भला इन्सान है; ठीक रेणु के हीरामन की तरह। भावुक, संवेदनशील और प्रेमी इन्सान ! वह पूरी तरह प्रेम से पगा है। जो भी उससे प्रेम से मिलता है, प्रेम से बातें करता है, वह अपना प्यार भरा दिल उसे सौंप देता है और मुस्कुराता रहता है। इसलिए आज की लाभ-लोभ भरी दुनिया में वह अजब, अलबेला, अनोखा और निराला लगता है। उसे अतीत की परवाह नहीं, भविष्य के बारे में ज्यादा नहीं सोचता - सिर्फ वर्तमान में जीता है। पचपन की उम्र में भी इसीलिए वह जवान है, जिंदादिल है।

Yaron ka Yar Anil Janvijay- Bharat Yayavar

4 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर प्रभावशाली चित्रण

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  2. अनिल जी को नमन और आपकी लेखनी को भी इस आत्मीयता से अपने आत्मीय सम्बन्ध को कलमबद्ध करने के लिए!
    २८ जुलाई तो बीत गई,
    Anyways, belated birthday wishes to Anil Sir, for it is never too late to convey good wishes:)

    Regards,

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  3. भारत ने अनिल पर बेजो‌ड संसमरण लिखा है। अनिल और भारत मेरे शुरूवाती दिनों के दोस्त है। भारत ने -ईश्वर एक लाठी है-पहली कविता पुस्तक छापी थी। विपक्ष जैसी पत्रिका निकाली थी।इस सिरीज में अनिल और राजा खुगशाल के संग्रह प्राकाशित हुये थे ।केदारनाथ सिह पर पहला विशेषांक भारत ने निकाला था।भारत ने रेणू और महावीर प्र दिवेदी के सम्पूर्ण साहित्य का संकलन किया।हिंदी साहित्य में इस योगदान को दर्ज किया जाना चाहिये। लेकिन यह हिंदी संसार बहुत कृतघ्न है वह मह्त्वहीनो को ज्यादा तर्जीह देता है। इस बाजार-समय में चीजे उलट-पलट गई है।

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  4. भूपेन्द्र सिंह19 जून 2019 को 4:14 pm बजे

    यायावर जी की यह टिप्पणी अत्यंत आत्मीय भाव से पगी है।पर यह भी बताना चाहिए था उनको की यहभावुक, रचनाधर्मी युवक कैसे एक जुगाड़ू गाली बाज़ और भाषिक अराजक के रूप में तब्दील हो कर फेस बुक की रचनाशीलता पर भाषिक अनाचार के धब्बे डालने लगा।यह रूपांतरण यात्रा रचना के पार्श्विक प्रभाव की युक्तियुक्त विवेचना कर सकेगी।

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